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Wednesday, October 25, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता



हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

सत्रहवां अध्याय

श्रद्धात्रयविभागयोग

1. अर्जुन ने कहा - जो लोग शास्त्रविधियों की अवहेलना कर के फिर भी श्रद्धापूर्वक भजन-पूजन एवं यज्ञादि कर्म करते हैं, हे  श्रीकृष्ण ! उनकी निष्ठा कैसी होती है - सात्विक, राजसी अथवा तामसी ?

2-3. भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे भरतवंशी अर्जुन, सुनो ! मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियाँ ही तीन प्रकार की होती है - सात्विक, राजसी एवं  तामसी । उसकी श्रद्घा उसके  अंतःकरण के अनुरूप ही होती है । मनुष्य की वृत्तियाँ या उसका स्वभाव भी उसकी श्रद्धा के अनुरूप ही होते हैं । जैसी उसकी श्रद्धा, वैसा ही उसका स्वभाव, और वैसी ही उसकी उपासना ।

4-6. सात्विक मनुष्य देवताओं को पूजते है, जो परमात्मा के ही अनेक रूप होते हैं । राजसी प्रकृति वाले कुबेर आदि यक्षों की पूजा करते हैं,  और तामसी मनुष्य प्रेतों-भूत-गणों आदि की पूजा करते हैं । अर्थात जैसी वृत्ति जिस मनुष्य में प्रबल  है, उसकी श्रद्धा और भक्ति भी वैसी ही होती है । अपने बल का अभिमान करते हुए, दंभ, अहंकार, कामना और आसक्ति से ग्रस्त, शरीर की इन्द्रियों को -  और मैं उन इंद्रियों में स्वयं भी रहता हूं, इसलिए मुझे भी प्रताड़ना देते हुए ऐसे जो मनुष्य शास्त्रों  में बताई विधियों के विपरीत कठिन तप-साधना करते है, उन्हें भी तुम आसुरी स्वभाव वाला ही जानो ।

7-10. सात्विक, राजसी और तामसी, इन तीनों वृत्तियों वाले मनुष्यों के आहार या खान-पान और यज्ञ, तप तथा दान भी तीन - अलग - अलग प्रकार के होते हैं । तुम उनके भेद भी सुनो । आयु, चित्त की स्थिरता, वल, आरोग्य, सुख और प्रीति-भाव को बढाने वाले, रस-युक्त, स्निग्ध अति चिकनाई-युक्त, स्वादिष्ट तथा शरीर को स्थिर और पुष्ट रखने वाले आहार सात्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं । रुखे, कड़वे, खट्टे , ज्यादा नमकीन, गर्म तासीर वाले, जलन पैदा करने वाले, दुःख , कष्ट तथा रोग उत्पन्न करने वाले आहार -  राजसी मनुष्य को प्रिय होते हैं । और देर तक रखे, अधपके, बासी, जूठे या  छोड़े हुए, रसहीन , दुर्गन्ध युक्त , अपवित्र आहार -  तामसी मनुष्य को प्रिय होते हैं ।

11-13. हे अर्जुन ! उसी प्रकार जो यज्ञ पूर्ण शास्त्र-विधि के अनुसार, कर्तव्य मान कर, बिना किसी फल की इच्छा के किया जाता है -  वह सात्विक होता है । किन्तु जो यज्ञ दंभपूर्ण आचरण के साथ, केवल फल प्राप्ति के उददेश्य से, किया जाता है - वह राजसी होता है । और जो शास्त्र-विधियों से हीन, श्रद्धा से रहित, अन्न दान, दक्षिणा आदि के बिना, मंत्र आदि से भी विहीन हो, वह यज्ञ तामसी होता है ।

और जैसे यज्ञ तीन प्रकार के होते हैं -  अगले दो श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि उसी प्रकार तप भी तीन प्रकार के होते हैं - सात्विक, राजसी और तामसी, | सात्विक तप भी तीन प्रकार के होते  हैं  जिनका सम्बन्ध शरीर, वाणी और मन से है |

14.10. देवता, द्विज अर्थात संस्कारयुक्त मनुष्य, गुरू और ज्ञानीजन -  इनका पूजन,  तथा सरलता, पवित्रता, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का आचरण - यह सब शरीर का तप है | उसी प्रकार स्वाध्याय का अभ्यास, और ऐसा सत्य-भाषण जो प्रिय, हितकारक तथा उद्वेग उत्पन्न करने वाला न हो - यही वाणी का तप है । और मन की निर्मलता एवं प्रसन्नता, सौम्यता या शांतभाव , मौन, आत्मसंयम, अंतकरण के भावों की शुद्धता - यह सब मन का तप होता है ।

17-19. योगी मनुष्यों द्धारा श्रद्धापूर्वक और बिना किसी फल की कामना के किए हुए ये तीनों प्रकार के तप सात्विक होते है । लेकिन जो केवल सत्कार, मान और पूजा के लिए दंभपूर्वक  किया गया अनिश्चित एवं  अस्थिर तप है, उसे राजसी तप कहा गया है । और जो तप मूर्खता और हठ-पूर्वक, अपनी इंद्रियों को कष्ट पहुंचाते हुए, दूसरों का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, यह तप तामसी होता है ।

20-22. अपना समझते हुए, उचित देशकाल और पात्र देख कर, प्रत्युपकार में  कुछ पाने  की भावना से सर्वथा मुक्त रहते हुए, जो दान दिया जाता है, वह सात्विक होता है । किंतु जो दान क्लेशपूर्वक, प्रत्युपकार  की आशा के साथ,और किसी फल की प्राप्ति के उद्देश्य से दिया जाता है वह राजसी होता है । और जो दान बिना सत्कार किए हुए या तिरस्कारपूर्वक, अनुचित देश-काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह तामसी होता है ।

उचित देशकाल और  पात्र का अर्थ है उचित स्थान  उचित समय और उचित व्यक्ति | 

23-27. हे पार्थ सच्चिदानंद परम ब्रह्म का नाम ओउम  तत् सत्  - यही तीन प्रकार का कहा गया है । इन्हीं तीन से सृष्टि के प्रारंभ में ब्राह्रमण, वेद और यज्ञ की रचना हुई है । इसीलिए यज्ञ, दान और तप की सभी क्रियाओं को ब्रहमवादी शास्त्र-विधि से  ‘ओउमका उच्चारण करके प्रारंभ करते हैं  । उसी प्रकार ये सभी मोक्ष चाहने वाले मनुष्यों द्वारा, बिना किसी फलप्राप्ति की इच्छा किये, 'तत्' - अर्थात परमात्मा ही सब कुछ है -  ऐसा उच्चारण करते हुए संपन्न किया जाता है । फिर इसी तरह 'सत्' के उच्चारण से परमात्मा के नाम के सत्य और श्रेष्ठ भाव का बोध होता है । 'सत्' से उन सभी पवित्र और उत्तम कार्यों का भी बोध होता जो यज्ञ, दान और तप के क्रम में किये जाते हैं ।

28. हे अर्जुन ! श्रद्धा-रहित होकर किया हुआ दान, तप और हवन  अथवा अन्य कोई भी शुभ-कर्म  -  वह सभी असत् होता है, ऐसा कहा जाता है । ऐसे सभी कर्म न तो इस लोक में और न मृत्य के पश्चात् ही किसी प्रकार कल्याणाकारी होते  हैं ।

        ||  यहाँ  श्रीमदभगवदगीता का श्रद्धात्रयविभागयोग नामक यह सत्रहवां अध्याय समाप्त हुआ ||




© Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


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