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Monday, December 23, 2019

 विश्व कथा-साहित्य

गूंजती धड़कनें

एडगर एलन पो

[ आधुनिक कहानी का जन्म – नये ज़माने की नई दुनिया – अमेरिका में, उत्तरार्द्ध १९वीं शताब्दी में हुआ था, एक नई सभ्यता की एक नई विधा के रूप में, और इसका  प्रवर्त्तक था अमेरिकन लेखक एडगर एलन पो (१८०९-’४९) जिसकी पहली पुरस्कृत कहानी ‘ बोतल में मिली पांडुलिपि’ १८३३ में प्रकाशित हुई थी | उससे पहले यूरोप या कहीं और एक सर्वथा नई विधा के इस रूप में कोई कहानी नहीं लिखी गई थी | एडगर पो का नाम विश्व कथा-साहित्य में – ‘आधुनिक कहानी’ - इस नई विधा के प्रवर्त्तक के रूप में इसलिए भी प्रसिद्ध है, क्योंकि उसने पहली बार ‘आधुनिक कहानी’ की सम्पूर्ण नई परिभाषा प्रस्तुत की थी | विश्व के दो सफलतम कहानीकारों – मोपासां (ज.१८५०) और चेख़व (ज.१८६०) – का जन्म भी तब हुआ था जब पो अपनी सारी कहानियां लिख कर जा चुका था |
‘टेल-टेल हार्ट’ शीर्षक पो की यह कहानी जनवरी, १८४३ में बोस्टन से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘दि पायनियर’ के पहले ही अंक में छपी थी, जिसका पो को १० डॉलर पुरस्कार प्राप्त हुआ था | पो ने कहानी की अपनी परिभाषा में कहा था – कहानी इतनी ही लम्बी होनी चाहिए कि एक ही बैठक में बिना उसकी अन्विति का खंडन हुए पढ़ ली जा सके, और उसका एक-एक शब्द उसकी अन्विति का अनिवार्य तत्त्व हो | पो की इस कहानी को उसकी श्रेष्ठ कहानियों में गिना जाता है, और इस कहानी में अंतरात्मा के पाप-बोध का सघनतम मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है | पो मेरे शोध का भी विषय था और उस पर मेरी एक प्रकाशित पुस्तक का चित्र यहाँ देखा जा सकता है | ] 
       
सचमुच ! घबराहट, बहुत बेतरह घबराहट हुई थी मुझको अभी भी है आप इसे मेरा पागलपन कैसे  कहेंगे ? यदि यह कोई रोग था भी तो इससे मेरी चेतना धुंधली होने या मिटने के बजाए और प्रखर हुई थी श्रवणशक्ति इतनी तेज हो गई थी कि पृथ्वी से स्वर्ग तक का सब कुछ - और नरक का भी बहुत-सा शोर - मुझे बहुत साफ-साफ सुनाई पड़ने लगा था क्या इसे आप मेरा पागलपन कहेंगे ? आप सिर्फ गौर से मेरी बातें सुनते जाइए, और देखिए मैं कितने स्वस्थ, कितने शांत ढंग से आपको यह पूरी कहानी सुनाता हूं

यह बताना तो मेरे लिए संभव नहीं कि कैसे यह ख्याल मेरे दिमाग में पहलेपहल घुसा, लेकिन एक बार मन में जम जाने के बाद इसने मुझको एकदम बेचैन बनाए रखा ऐसा कोई निश्चित उद्देश्य नहीं था मेरे सामने, और कोई बेसाख्ता चाह थी कहीं उस बुड्ढे को मैं प्यार करता था उसने कभी मेरा कोई नुकसान नहीं किया था मेरा कोई अपमान भी नहीं किया था उसके पास जो सोना था, मेरे मन में उसका भी कोई लालच नहीं था लेकिन, उसकी वह आंख, वह आंख ही गीध की आंख की तरह मद्धिम नीली आंख, जिस पर एक मटमैली परत छाई हुई थी - जब भी वह आंख मेरी ओर ताके, लगे मेरे बदन का सारा खून जम  गया आखिरकार मैंने तय कर लिया, खूब सोचसमझ कर तय कर लिया, मैं इस बुड्ढे को जरूर मार डालूंगा, क्योंकि तभी इस भयावह आंख से मैं बच सकूंगा

असल बात यही है आप तो मुझे पागल समझते ही होंगे लेकिन, पागल आदमी को इतनी समझ कहां होती है ? आप मुझे देखते देखते कि मैंने कितनी होशियारी से सब कुछ किया था, कितनी सतर्कता से, कितनी दूरदर्शिता और धूर्त्ततापूर्वक मैंने सारा  काम किया था मैं कभी पहले उस बूढ़े आदमी के प्रति दया से उतना ओत-प्रोत नहीं रहा, जितना उसको मारने के लिए एक सप्ताह पहले से अचानक बन गया था

रोज रात, मध्य रात्रि में, मैं उसके दरवाजे की कुंडी – ओह, इतना आहिस्ता सरकाता, और जब जरा दरवाजा इतना फांक हो जाता कि मैं अपना सिर अंदर कर सकूं, तो पहले धीरे-धीरे अपनी चारों ओर से सावधानी से बंद की हुई लालटेन को (ताकि उससे जरा भी रोशनी बाहर निकले) अंदर करता और फिर अपना सिर अंदर घुसाता सच कहता हूँ, आप उस वक्त मुझको देखते तो आपको हंसी जाती, इतनी ही सावधानी से धीरे, खूब धीरे अपना सिर अंदर ले जाता था, ताकि कहीं उस बुड्डे की नींद टूट जाए अपना पूरा सिर अंदर करने में ही - ताकि मैं देख सकूं, बुड्डा कैसे सोया है - मुझको घंटे-भरे का समय लग जाता   था हिः ! आप समझते हैं एक पागल आदमी कभी इतना एहतियात बरत सकता है ? खैर, पूरा सिर अंदर जाने के बाद मैं अपनी लालटेन के परदे बहुत ही आहिस्ताआहिस्ता ऊपर उठाता ताकि किसी तरह की आवाज पैदा हो, और केवल उतनी ही रोशनी उससे निकले कि उसकी एक लकीर बस गीध-जैसी उस आंख पर पड़े लगातार सात रात मैंने ऐसा ही किया था - ठीक मध्य रात्रि में | लेकिन हर रात मैंने उस आंख को बंद ही देखा था और वैसी हालत में मैं अपना काम पूरा नहीं कर पाता था क्योंकि मुझको उसे बूढ़े आदमी से कोई चिढ़ नहीं होती थी केवल उसकी बुरी-जैसी आंख ही मेरे अंदर एक अजीब घिन पैदा कर देती थी सुबह होते रोज मैं बेधड़क उस बूढ़े आदमी के कमरे में जाता, खूब निडर उससे बातें करता, बड़े प्यार से उसका नाम लेलेकर पुकारता, और पूछता कि पिछली रात वह खूब आराम से तो सोया ? ऐसी हालत में तो आप समझते ही होंगे कि वह बूढ़ा आदमी कितना गंभीर और मक्कार होगा यदि उसे यह शक होता हो कि रोज रात ठीक बारह बजे मैं उसके कमरे में घुसकर उसके सोये में उसको देखने आता हूं

आठवीं रात दरवाजा खोलने में मैं रोज से कहीं ज्यादा सतर्क था उस रात तो घड़ी की मिनट वाली सुई भी मेरे हाथों के मुकाबले तेज चल रही होगी अपनी शक्ति का - अपनी सूझबूझ का, वैसा एहसास इससे पहले मुझको कभी नहीं हुआ था कामयाबी की उमंग दिल में अंट नहीं पा रही थी - यह सोच कर कि मैं दरवाजे को धीरे-धीरे सरका कर खोल रहा था, पर उस बूढ़े को सपने में भी नहीं मालूम हो सकता था कि मेरे इरादे या कारनामे  कितने खतरनाक हैं मन की किलक, पता नहीं शायद फूट भी पड़ी थी, और लगा उसको कुछ आहट मिल गई  थी क्योंकि, एकाएक उसने करवट बदल ली, जैसे मेरी किसी हरकत से चौंक उठा हो लेकिन आप यह सोचिए कि मैं झिझक गया था | बिल्कुल नहीं कमरे में तो इतना ही गाढ़ा अंधेरा था (क्योंकि चोरों के डर से उसने एकएक सिटकिनी और कुंडी लगा रखी थी) कि मैं अच्छी तरह जानता था मेरा दरवाजा खोलना उसे कभी दिखाई नहीं पड़ सकता था, और मैं बहुत निश्चयपूर्वक दरवाजे को सरकाता गया, सरकाता गया
मैं सिर अंदर कर चुका था और अब लालटेन के परदे उठाने ही वाला था कि मेरा अंगूठा तनिक फिसल गया और बूढ़ा आदमी तुरंत उछल पड़ा - कौन है ?’

मैं बिल्कुल स्थिर रहा, कुछ नहीं बोला और एक घंटे तक मैंने फिर कोई हरकत नहीं की लेकिन, इस बीच ऐसी कोई भी आहट नहीं हुई जिससे पता चलता कि बूढ़ा आदमी फिर लेट गया हो वह अपने बिछावन पर बैठा ही रहा, आहट लेता रहा, ठीक उसी तरह, जैसे तब से हर रात बैठा मैं खुद दीवालों से मौत की आहट सुनता रहा हूं
तभी मैंने एक हल्की सी कराह सुनी मुझे साफ लगा यह कराह मौत के डर से उपजी थी, किसी तकलीफ या दर्द की कराह नहीं थी, बिल्कुल नहीं, यह तो भयाक्रांत किसी आत्मा के भीतर से उभरी एक दबी हुई, घुटी हुईसी कराह थी मैं इस आवाज को अच्छी तरह पहचानता था जाने कितनी रातों को, ठीक मध्य रात्रि को, जब सारी दुनिया सोती है, स्वयं मेरे हृदय से ऐसी ही कराह फूट पड़ती है, जिसकी  दुस्सह गूंज मेरे अंदर चलती उन दहशतों को और गहरा देती है, जो मुझको इतना बेचैन बनाए हुए हैं मैंने अभी कहा न, मैं इस आवाज को अच्छी तरह पहचानता था मैं जानता था वह बूढ़ा कैसा महसूस कर रहा है, और रहम भी रही थी मुझको, लेकिन मैं मगन था -  मन ही मन मुझको मालूम था कि उस पहली ही हल्कीसी आवाज के बाद से वह जाग रहा था, जबसे उसने करवट बदली थी तभी से उसका डर बढ़ता ही गया था, कितना भी वह अपने को समझाने की कोशिश कर रहा था कि उसका डर बेकार है, पर उसका डर मिटता नहीं था शायद, वह अपने को समझा रहा था - और कुछ नहीं, हवा के चलने से चिमनी से आवाज आई होगी, या कोई चूहा फर्श पर दौड़ा होगा, या शायद कोई झींगुर एक बार चिर्रा कर चुप गया होगा जरूर वह इसी तरह की बातें सोचकर अपने आपको तसस्ली देने की कोशिश कर रहा था, लेकिन इसमें उसको जरा भी सफलता नहीं मिली थी तनिक भी नहीं, क्योंकि मौत अपनी काली छाया ओढ़े आज वहां पहले से ही मौजूद थी, और उसने अपने शिकार पर भी अपना काला लबादा फैला दिया था और उस अदृश्य मनहूस छाया का ही यह प्रभाव था कि जिससे  उसे बगैर कुछ सुने या देखे दरवाजे के अंदर घुसे मेरे सिर की आहट मिल चुकी थी

जब बहुत धैर्यपूर्वक मैं बहुत देर तक सांस रोके प्रतीक्षा कर चुका, फिर भी उसके लेटने का अंदाज नहीं लगा, तो मैंने लालटेन से एक छोटा, बहुत ही छोटासा छेद खोलने का निश्चय कर लिया मैंने ऐसा कर भी  दिया | लेकिन आप कल्पना भी नहीं कर सकते मैंने यह काम कितना धीरे-धीरे किया और अंततः एक मद्धिमसी रोशनी की पतली लकीर, बिल्कुल मकड़ी के धागे की तरह महीन, लालटने से निकल कर उस गीध-जैसी आंख पर सीधी  पड़ने लगी

आंख खुली थी - बिल्कुल पूरी तरह खुली हुई, और मेरे अंदर की हिंसा उसे देखते ही भभक उठी मैंने बिल्कुल साफ देखा - बड़ी जैसी नीली गंदली-सी वह आंख जिसके ऊपर एक घिनौनीसी परत फैली हुई   थी देखकर मेरी हड्डियों की मज्जा तक सर्द पड़ गई लेकिन, मैं उसे बूढ़े के शरीर या चेहरे का कोई अंश नहीं देख सका, क्योंकि, जैसे स्वतः मैंने रोशनी की लकीर को ठीक उस अभिशप्त स्थान पर ही केंद्रित कर दिया था
कहा नहीं मैने, कि आप जिसे मेरा पागलपन समझते होंगे, वास्तव में वह मेरी चेतना की प्रखरता ही है हां, तो मुझको एक दबीदबी लेकिन साफ और तेज आवाज सुनाई पड़ रही थी, जैसे रूई में लिपटी किसी घड़ी से रही हो मैं उस आवाज को खूब अच्छी तरह पहचान रहा था वह उस बूढ़े आदमी के दिल की धड़कनों की आवाज थी | मेरे अंदर का रोष उससे और बढ़ने लगा, जैसे नगाड़े की आवाज से युद्ध के सिपाही के अंदर जोश बढ़ने लगता है

फिर भी मैं स्थिर रहा, अपने को रोके रहा सांस थामे रहा लालटेन में जरा भी हिलडोल नहीं हो रही थी| और मैं भरसक कोशिश कर रहा था कि रोशनी की लकीर बस आंख पर जमी रहे इधर दिल की धड़कनों की वह डरावनी आवाज बढ़ती जा रही थी – तेज, और तेज होती जा रही थी - हर पल अधिक, और अधिक जोरदार होती जा रही थी लगता था, बूढ़े का डर हद से ज्यादा बढ़ गया है आवाज और भी जोर होती गई | क्या बताऊं, हरेक क्षण और-और बढ़ती गई, आप समझ रहे हैं ? मैंने तो अभी आपसे कहा कि मैं किस कदर घबरा रहा था, और घबराहट तो अब तक हो रही है और भयावह रात के बीच उस पुराने मकान के मनहूस सन्नाटे में, उभरती धड़कनों का वह अजीब-सा शोर मेरे अंदर एक बेहिसाब डर और उत्तेजना पैदा कर रहा था फिर भी कुछ मिनटों तक और मैं अपने को रोके रहा और चुपचाप खड़ा रहा धड़कनें तेज, और तेज हो रही थीं लगता था जैसे फट पड़ेगा उसका दिल एकाएक मुझको एक अजीब चिंता होने लगी - कहीं यह आवाज किसी पड़ोसी को सुनाई पड़ने लगे लेकिन, बूढ़े आदमी का वक्त अब बिल्कुल चुका था जोर की चीख के साथ लालटेन की पूरी रोशनी में मैं कमरे में कूद पड़ा एक ही बार वह चिल्ला सका - एक बार, बस दूसरे ही क्षण मैंने उसको जमीन पर खींच लिया और उसके भारीभरकम पलंग को घसीटकर उसके ऊपर कर दिया

खुशी की एक मुस्कुराहट मेरे होंठों पर खेल गई काम पूरा हो गया था लेकिन, कुछ मिनटों तक उसकी धडकनें बहुत धीमी-धीमी चल रही थीं, गोकि इससे मुझको विशेष चिंता नहीं हो रही थी यह आवाज कमरे की दीवालों के बाहर नहीं जा सकती थी फिर यह तुरंत रुक भी गई बूढ़ा आदमी अब मर चुका   था पलंग हटाकर मैंने उसकी लाश को देखा वह बिल्कुल सर्द हो चुका था, पत्थर की तरह सर्द ! मैंने अपना हाथ उसके सीने पर रखा और कई मिनट तक वहीं रखे रहा कोई हरकत नहीं थी वह पत्थर की तरह निर्जीव हो चुका था अब उसकी आंख मुझको परशेान नहीं कर सकती थी !
आप यदि इतने पर भी मुझको पागल मान रहे हों तो आपका ख़याल बदलेगा, जब आप ये सुनेंगे कि मैंने उस लाश को छिपाने में कितनी होशियारी की रात ढलती जा रही थी और मैं जल्दीजल्दी मगर चुपचाप अपना काम करता जा रहा था पहले मैंने उसको टुकड़ों में काट दिया सिर और बांह और पैर सबको काट कर अलग कर दिया

उसके बाद, मैंने फर्श के तीन तख्तों को हटाकर सारे टुकड़ों को उनके नीचे रख दिया और फिर उन तख्तों को इतने हिसाब से, इतनी चालाकी से मिला दिया कि किसी की आंख - यहां तक कि खुद उस बूढ़े की वह आंख भी - कुछ भी पता नहीं लगा सकती थी कहीं कुछ धोने-साफ करने को भी नहीं था | कोई धब्बा, कोई खून का छींटा, कहीं कुछ नहीं हाः, हाः, हाः ! एक टब में ही मैंने सब काम तमाम कर दिया था

यह सब करतेकरते चार बजने लगे, हालांकि रात अभी उसी तरह, आधी रात की तरह, अँधेरी लग रही  थी चार का घंटा जैसे लगा, नीचे गली के दरवाजे पर किसी ने दस्तक   दी मैं बहुत निश्चिंत मन नीचे उतरा -  दरवाजा खोलने | क्योंकि अब डरने की बात क्या थी ? तीन आदमी अंदर आए जिन्होंने बहुत कायदे से अपना परिचय दिया कि वे पुलिस के अफसर है रात में पड़ोस में किसी ने एक चीख सुनी थी जिससे कुछ गड़बड़ी का संदेह हुआ था, और पुलिस को सूचना मिली थी, तो उन अफसरों को डयूटी दी गई थी कि वे यहां आकर तहकीकात करें

मैं मुस्कराने लगा, क्योंकि मेरे लिए डरने की क्या बात थी ? उनको इज्जत के साथ अंदर बुला कर मैंने उनको बताया कि वह चीख मेरी ही थी सपने में मैं ही डर कर चिल्ला पड़ा था बूढ़ा घर में नहीं था, कहीं देहात की ओर गया था मैंने उनसे कहा - आप लोग सब कुछ ठीक से देख लीजिए, जांच लीजिए और खुद उनको बूढ़े के कमरे में ले गया उसकी दौलत, उसका खजाना सब कुछ उनको दिखाया | सब ज्यों का त्यों था उसी हिम्मत और उत्साह के क्रम में मैं उस कमरे में कुर्सियां ले आया और उनसे कहा - थके होंगे, थोड़ी देर यहां बैठ जाएं और खुद अपनी कामयाबी के बेपनाह जोश-खरोश में अपनी कुर्सी ठीक यहीं लगाकर बैठ गया, जहां फर्श के अंदर उस लाश के टुकड़े छिपाए थे

पुलिस के अफसर भी पूरी तरह आश्वस्त हो चुके थे मेरा हावभाव देखकर उनका विश्वास जम गया था मैं स्वयं पूरी तरह शांत था वे उसी तरह बैठे रहे और मैं उनके सवालों का जवाब हंसहंस कर देता रहा वे भी इधर-उधर की बातें करते रहे तभी  एकाएक जाने क्यों मैं घबराने लगा, और मुझे लगा कैसे ये लोग तुरंत चले जाएं मेरा सिर घूमने लगा और कान में एक अजीब सनसनी होने लगी अफसर अभी बैठे ही हुए थे और उसी तरह गपशप करते जा रहे थे सनसनी और तेज होने लगी | बढ़ती गई - और ज्यादा तेज होने लगी उसको छिपाने के लिए मैं और जोर से बातें करने लगा, लेकिन, उसका बढ़ना जारी रहा और उसमें और तेजी आती गई तभी मुझको ऐसा अनुभव हुआ कि वह आवाज मेरे कानों के अंदर से नहीं रही थी

अब तो सचमुच मेरा चेहरा काफी पीला पड़ने लगा फिर भी, मैं उसी तरह बातें करता रहा, ऊंची आवाज में मगर वह आवाज और तेज हो गई थी अब मैं क्या करूं ? एक दबीदबी लेकिन साफ और तेज आवाज जैसे रूई में लिपटी कोई घड़ी चल रही हो मेरा दम घुटने लगा लेकिन अफसरों ने कुछ सुना नहीं था मैं और जल्दीजल्दी बातें करने लगा - काफी तेजी में लेकिन, वह शोर उतना ही बढ़ता जा रहा था | तब मैं खड़ा हो गया और इधर-उधर की बातें करने की कोशिश करने लगा - खूब तेज आवाज में और पूरे हावभाव के साथ लेकिन, आवाज और भी बढ़ती ही जा रही थी

ये सब जातें क्यों नहीं अब ? मैं भारी कदमों से कमरे में इधर से उधर चक्कर काटने लगा, क्योंकि मुझको उन आदमियों के आंखे फाड़फाड़ कर ताकने से अब बेतरह गुस्सा रहा था और आवाज और तेज होती ही जा रही थी हे ईश्वर, अब क्या करूं ? मैं बकने लगा, कसमें खाने लगा मेरे मुंह से गाज निकलने लगी मैंने झटके से अपनी कुर्सी ऊपर उठा ली, और फिर अपना पांव फर्श की उसी जगह पर रगड़ने लगा, मगर वह आवाज सबके ऊपर छायी जा रही थी, बढ़ती जा रही थी - तेज से तेजतर ! फिर भी वे अफसर आराम से बैठे मुस्करा रहे थे, और आपस में बातें करते जा रहे थे क्या यह संभव था कि यह आवाज उनको नहीं सुनाई पड़ती हो ? नहीं, नहीं, हे परमात्मा ! वे सब कुछ सुन रहे थे, समझ रहे थे उनको मुझ पर पूरा संदेह हो चुका था वे केवल मेरे भयभीत होने का आनंद ले रहे  थे

मुझे तो अब ऐसा ही लग रहा था, और अभी तक लग रहा है लेकिन इस यंत्रणा से तो कोई भी दंड अच्छा था कुछ भी सह्य था, लेकिन यह मखौल तो बिल्कुल सहा नहीं जाता था ये भेदभरी मुस्कुराहटें अब मेरे लिए सहनी असंभव थी मुझे लगा अब मैं चीख पडूंगा, या मेरी जान निकल जाएगी | और आवाज़ फिर भी उसी तरह बढती जा रही थी – तेज़ ! और तेज़ !! और तेज़ !!!
मैं चीख पड़ा  - “शैतानों ! अब ज्यादा धोखा मत करो | मैं अपना अपराध मानता हूँ | हटाओ इन तख्तों को – यहाँ के इन तीनों तख्तों को | यह आवाज़ उसी बूढ़े आदमी के घिनौने दिल की धड़कन की आवाज़ है !”

-       [ रूपांतर : मंगलमूर्त्ति  / ‘ज्योत्स्ना’ (पटना, अगस्त, १९७२) में प्रकाशित ]
© मंगलमूर्त्ति                                चित्र : सौजन्य – गूगल छवि संग्रह

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