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Thursday, October 12, 2017



सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

पंद्रहवां अध्याय : पुरुषोत्तम योग

1-2. भगवान श्रीकृष्ण बोले - ज्ञानी लोग जो वेद के तत्व को अच्छी तरह जानते हैं, इस संसार को एक रहस्यमय अविनाशी अश्वत्थ-वृक्ष या पीपल के पेड़ की तरह देखते है जिसकी मूल जडें तो ऊपर आसमान में अर्थात परम ब्रहम में हैं, और जिसकी शाखाएं नीचे हैं, तथा जिसके पवित्र पत्ते वेद के छंदों के समान हैं । और इस अविनाशी वृक्ष की अगणित शाखाएं   - सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -  इन तीनो गुणों से सृजित इस संसार के सभी मृत्युमान जीवों के रूप में उपर - नीचे सृष्टि में चारों और फैली हुई हैं । भोग-विलास की सारी सामग्री इस वृक्ष की कोंपलों जैसी हैं । और इस मर्त्यलोक में कर्म के अनुसार कामना, वासना आदि बंधनों से उगने वाली इसकी बहुतेरी जडें नीचे की ओर भी फैली हुई हैं  ।

3-4. किन्तु इस संसा-वृक्ष को इस रूप में देखना अत्यंत कठिन है, क्योंकि वास्तव में इसका न कोई आदि है न कोई अंत, और न यथार्थत: मध्य में ही कुछ स्थित है । वासनाओं की मजबूत जडों वाले संसार-रूपी इस घने फैले अश्वत्थ वृक्ष को वैराग्य की कुल्हाडी से काट कर तब उस परमपद परमेश्वर को खोजना चाहिए, जिस परमेश्वर की लीला से ही यह रहस्यमय संसार-वृक्ष उत्पन्न हुआ है, और इसका इतना सघन फैलाव हुआ है, और जिस परमेश्वर के साथ एकाकार हो जाने के बाद फिर वहां से कोई वापस लौट कर नहीं आता । "मेँ निरंतर परमेश्वर की ही शरण में हूँ” -ऐसे भाव से संसार-वृक्ष के इस रहस्यमय मायाजाल को काट कर मनुष्य को बराबर उस परमात्मा की खोज में लगे रहना चाहिए ।

5-6. परपद ऐसे ही विवेकयुक्त ज्ञानीजन को प्राप्त होता है जो मान अर्थात् सम्मान-भाव और मोह से मुक्त हो चुके है, जिनमें कोई आसक्ति-भाव नहीं रह गया है, जो पूरी तरह आध्यात्मिक चेतना या परमात्मा के प्रेम में लीन हो चुके हैं, जो हर प्रकार की कामना से पूर्णत: मुक्त हैं  और सुखदुःख  के द्वंद-भाव से भी पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं । मेरा परमधाम ऐसा है जिसे न सूर्य प्रकाश देता है और न चन्द्रमा, और न अग्नि ही, और उस परमधाम को एक बार प्राप्त कर लेने पर विवेकवान ज्ञानीजन फिर इस मृत्युलोक में कभी वापस नहीं लौटते ।

7-9. इस संसार में, इस जीवलोक में, जीवात्मा में मेरा ही सनातन अंश रहता है, और प्रकृति के माया-रुपी अपने शरीर में वह पांचों इंद्रियों घ्राण या नाक, श्रोत्र या कान, चक्षु या आंख, रसना या जीभ और स्पर्श या त्वचा -  के अलावा एक छठी  इंद्रिय, मन को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, अर्थात जीवात्मा में आत्मा रूप में मैं ही रहता हूँ, किन्तु शरीर रूप से वह पांच इंद्रियों तथा छठी इंद्रिय के रूप में मन को भी अपना अंग वना लेता है । और जीवात्मा जब एक स्थूल शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जाता है, तब वह अपने सामान की तरह इन इंद्रियों और मन को भी अपने साथ ले जाता है, ठीक जैसे हवा फूलों की सुगंध को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है, क्योंकि उन इंद्रियों और मन को ही साधन बना कर जीवात्मा पुन: विषयों का उपभोग करता है |

10-11. तीनों गुणों से आवृत्त  इस नश्वर शरीर में स्थित रहते हुए विषयों का भोग करने वाले, अथवा उसे त्याग कर अन्य नश्वर शरीर में चले जाने वाले जीवात्मा को अज्ञानी जन नहीं देख पाते, किन्तु ज्ञानी जन उसे देख पाते   हैं  । ऐसे ज्ञानी जन अपने भीतर के इस निरंतर कार्यशील जीवात्मा को यथार्थ रूप में देखते हैं, जिसे अशुद्ध अंतःकरण वाले अज्ञानी जन प्रयत्न करने पर भी नहीं देख पाते ।

1 2-15. तुम यह जान लो  कि सूर्य में जो तेज है, जो समस्त जगत को प्रकाश देता है, या चंद्रमा में जो प्रकाश है, या अग्नि मेँ जो ज्वाला तुम देखते हो वह सब मेरा ही तेज है । मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सभी जीवों को धारण करता हूँ, और अमृतमय चंद्रमा के रूप में सभी वनस्पतियों को भी जीवन-रस प्रदान करता हूँ | सभी प्राणियों के जड़ शरीरों को मैं  ही चेतन और सजीव बनाता हूँ, मैं ही उनके उदर में ज्वाला और अपान वायु या अशुद्ध वायु बनकर सभी भोज्य पदार्थों को पचा कर उन्हें शक्तिमान रखता हूँ | और सभी प्राणियों के हृदय में भी मै ही अंतर्यामी रूप में स्थित रहता हूँ। स्मृति या स्मरण-शक्ति और ज्ञान या उसका निवारण या अभाव भी सब मुझसे ही उन्हें प्राप्त होते  हैं । मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ , मैं ही वेदांत भी हूँ, और सभी वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ ।

गीता में सर्वत्र प्राणीमात्र के लिए पुरुषशब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु इससे अभिप्राय है , जीव अथवा प्राणी  का , जिसमें पुरुष और नारी दोनों का बोध होता है, वास्तव में पुरुष और नारी दोनों एक ही जीव के परस्पर अविभाज्य रूप हैं । एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह । जहाँ एक है वहीँ दूसरा भी निहित है ।जीव से सभी सचेतन प्राणियों का बोध होता है सबमें पुरुष और नारी के परस्पर तत्व निहित हैं । प्रकृति से जड़ सृष्टि का बोध होता है, और पुरुष से जिसमें नारी निहित है, जीवात्मा का बोध होता है जो सदा सचेतन है । 
 
16-19. संसार में पुरुष के दो ही प्रकार है - क्षर या नश्वर या नाश होने वाले, अथवा अक्षर या अनश्वर, जिसका कभी नाश नहीं होता । सभी प्राणियों के शरीर तो नाशवान है, किंतु उनमें जो जीवात्मा है यह शाश्वत और अनश्वर है उसका कभी नाश नहीं हो सकता । और इन दोनो पुरुषों से उत्तम या पुरुषोत्तम है परमात्मा या परमेश्वर जो अविनाशी है, और तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर सभी जीवों को धारण करता है, अर्थात उन सभी के रूप में प्रत्यक्ष होता है । और  क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों से परे और उत्तम  होने के कारण लोक और वेद दोनों में पुरुषोत्तम रूप मेँ मैं ही परमात्मा हूं । हे भरतवंशी  अर्जुन ! जो ज्ञानीजन मुझे इस पुरुषोत्तम रूप में जानते है ऐसे सब कुछ जानने वाले सर्वज्ञानी जन बस मेरा ही भजन करते है ।

20.  हे निष्पाप अर्जुन!  इस प्रकार मैंने यह जो अत्यंत रहस्यमय और  गोपनीय शास्वीय ज्ञान तुम्हें बताया है, इसे जान कर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है ।


              ||  यहाँ  श्रीमदभगवदगीता का पुरुषोत्तम योग नामक यह पंद्रहवां अध्याय समाप्त हुआ ||




© Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


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