सरल श्रीमदभगवद्गीता
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति
तेरहवां अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
1-3. भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन !
इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं, और जो ज्ञानी मनुष्य इसे जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते है ।
लेकिन सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अथवा जीवात्मा के रूप में भी तुम मुझे ही जानो
। और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के इस भेद को जानना ही ज्ञान है । अब मैं बताऊंगा कि वह क्षेत्र कैसा है, किन कारणों से
हुआ है और किन विकारों से युक्त है, और फिर उस क्षेत्रज्ञ का प्रभाव भी कैसा
है, यह सब कुछ मैं तुम्हें संक्षेप में बता रहा हूँ।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण यह बता रहे हैं कि यह शरीर ही जीवात्मा का क्षेत्र है, और
उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परमात्मा का क्षेत्र है । जीवात्मा ही शरीर के इस
क्षेत्र का स्वामी और क्षेत्रज्ञ है । और
शरीर से परे रहते हुए भी उसका ज्ञाता भी है, किन्तु क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह
द्वैत परमात्मा में ही निहित है । अर्थात मनुष्य का शरीर ही क्षेत्र है, और शरीर
से परे जीवात्मा के रूप में वही उसका क्षेत्रज्ञ भी है । अगले तीन श्लोकों में
शरीर अथवा क्षेत्र में निहित आत्मा अथवा क्षेत्रज्ञ के अंतर्संबंध के बारे में
चर्चा हुई है ।
4-6. क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के इस गूढ़ तत्व
के विभिन्न भागों को ऋषियों ने भी बहुत तरह से समझाया है, और वेदों में विविध मंत्रों
में भी इनके विषय में बताया गया है, तथा युक्तियों
एवं उचित तर्कों से प्रमाणित भी किया गया
है । उनमें शरीर के इस क्षेत्र के विभिन्न विकारों, जैसे पांच महाभूतों -
आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी; दस इंद्रियों - पांच कर्मेन्द्रियों और
पांच ज्ञानेन्द्रियों - अहंकार, बुद्धि, मूल प्रकृति एवं एक मन; और ज्ञानेन्दियों के
पांच विषयों - शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गंध; तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, स्थूल, देहपिंड, चेतना और धारण करने की शक्ति - इन सबके बिषय में सक्षेप में कहा गया है ।
7-12. निरभिमानता, दंभहीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्यों की सेवा, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम,
इंद्रियों
के विषय-भोग से वैराग्य, अहंकारशून्यता; जन्म-मरण, वृद्धता–व्याधि जैसे विकारों
की निरंतर चेतना; पुत्र-स्त्री-गृह आदि के प्रति अनासक्ति-भाव ; इष्ट-अनिष्ट के प्रति
सदा समचित्त-भाव, शुद्ध एवं एकांत
स्थान में निवास; भीड़-भाड़ से दूरी; अध्यात्म-ज्ञान में निष्ठा, मुझ परमेश्वर में
अनन्य-अविचल भक्ति तथा तत्वज्ञान द्वारा निरंतर मुझ परमेश्वर के दर्शन - यह सब ज्ञान है, और जो इसके विपरीत है,
वहीं
अज्ञान है । इसीलिए जो भी जानने योग्य है, जिसे जान कर मनुष्य अमृतपद को प्राप्त
होता है, उसे मैं भली-भांति तुम्हें बता रहा हूँ। उस अनादि परमब्रहम को न सत् कहते और न असत्
ही कहते हैं।
13-18. वह परमात्मा तो सभी ओर से हाथ पैर, सिर, मुख नेत्र और
कान वाला है, इस जगत में सभी में व्याप्त होकर स्थित है, सभी इंद्रियों
के विषयों को जानने वाला है, और सभी इंद्रियों से रहित, निर्गुण एवं आसक्तिरहित होने पर भी सबका भरण–पोषण करने वाला तथा
सभी गुणों का भोक्ता है । वह सभी चराचर प्राणियों के भीतर भी है और बाहर भी,
और सभी
चराचर प्राणी भी वही है । सूक्ष्म होने के कारण वह अज्ञेय है, तथा दूर भी है
और निकट भी । स्वय विभाग-रहित होकर भी वह सब कुछ में विभक्त-सा दिखाई देता है,
और
जानने योग्य भी है । वही समस्त प्राणियों का उत्पत्तिकर्ता , धारणकर्ता,
पालनकर्ता
एवं संहारकर्ता भी है । सभी ज्योतियों की ज्योति भी वहीं है, जिसे अंधकार से
भी परे जाना जा सकता है । वही ज्ञान, वही ज्ञेय और वही ज्ञानगम्य भी है, जो
सबके हृदय से विराजमान है । इसी प्रकार क्षेत्र, ज्ञान तथा परमात्मा का
स्वरूप, जो ज्ञेय है, वह सब मैंने तुम्हे संक्षेप में बताया है । जो इसे भली-भांति
जान जाता है, मेरा ऐसा भक्त अवश्य ही मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है
।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक इस अध्याय में क्षेत्र अथवा
जड़ शरीर और क्षेत्रज्ञ अथवा चेतन जीवात्मा की समानता प्रकृति और पुरुष के रूप में बताई गयी
है, और आगे के श्लोकों में इसे विस्तार से समझाया गया है।
19-23: प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं - अर्थात् इनका कोई प्रारंभ या अंत नहीँ
होता, तथा दोनों के ही गुण और विकार प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। कार्य-कारण
संबंध की जननी भी प्रकृति होती है, और उसी प्रकार सुख और दुख के भोग का कारण पुरुष या जीवात्मा
होता है । प्रकृति में रहते हुए ही पुरुष या जीवात्मा प्रकृति से उत्पन्न गुणों का
उपभोग करता है, उन गुणों मेँ आसक्त
होते हुए ही भली या बुरी योनियों में बार-बार जन्म लेता है । लेकिन प्रकृति में
स्थित होते हुए भी पुरुष या जीवात्मा सत्व , रजस और तमस वाली
त्रिगुणात्मक प्रकृति अथवा माया से परे भी होता है, और जीवात्मा के रूप
में वह पुरुष क्षेत्रज्ञ अथवा सर्वसाक्षी होने के कारण उपद्रष्टा, अनुमति प्रदान
करनेवाला, भरण-पोषण करने वाला, भोग करने वाला, महेश्वर और परमात्मा कहलाता है । अतः जो गुणमयी प्रकृति और क्षेत्रज्ञ
पुरुष के इस सम्बन्ध को भली-भांति समझ
लेता हैं, वह सभी कर्म करता हुआ भी पुन:-पुन: जन्म नहीं लेता ।
24-26. परमात्मा का दर्शन
कुछ लोग अपने अंत:करण में पवित्र मन से ध्यानपूर्वक करते हैं, वहीं कुछ अन्य
लोग सांख्य अथवा ज्ञानयोग से ऐसा करते हैं,
और कुछ और
लोग निष्काम भाव से परमात्मा के दर्शन पा
लेते हैं । फिर और भी ऐसे लोग होते हैं जो स्वयं न अनुभव करते हुए भी दूसरों से सुन कर ऐसी उपासना करते हैं, और सुन कर अनुभव कर लेने वाले ऐसे लोग भी इस मर्त्यलोक के भवसागर को पार कर लेते है । अत: हे भरतकुलश्रेष्ठ
अर्जुन! इस संसार में जो भी जड़ अथवा चेतन वस्तु उत्पन्न होती है उसे तुम क्षेत्र
और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जानो ।
27-30. जो मनुष्य संसार के विनष्ट होते हुए सभी प्राणियों में अविनाशी
परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही यथार्थ को देखता है । क्योंकि इस प्रकार विनाशशील
प्राणियों में भी परमेश्वर की अविनाशी सत्ता
को देखने वाला मनुष्य अपने ही स्वयं को विनष्ट नहीं होने देता, और इस प्रकार
परमपद को प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य सभी कर्मों को प्रकृति द्वारा ही किया जाता
हुआ देखता है, और आत्मा को
सदा अकर्ता के रूप में ही देखता है, वही यथार्थ को देख पाता है । जब उसे सभी
प्राणी अपने अलग--अलग भाव और अलग—अलग विस्तार में एक ही परमात्मा में स्थित दिखायी
देते हैं, तव वह स्वयं ब्रहमत्व क्रो प्राप्त हो जाता है ।
31-34. हे कुंतिपुत्र
अर्जुन! अविनाशी परमात्मा निर्गुण और अनादि होने के कारण शरीर में स्थित होने पर
भी न उसमें लिप्त होता है और न ही वह कुछ
करता है । जैसे मेघों के बीच रहते हुए भी अपनी सूक्ष्मता के कारण आकाश उनमें कहीं लिप्त नहीं होता , उसी प्रकार
आत्मा सर्वत्र शरीर में रहते हुए भी शरीर के गुणों से प्रभावित नहीं होता । जैसे
एक ही सूर्य संपूर्ण मृत्युलोक को प्रकाशित करता है, बैसे ही पूरी तरह निर्लिप्त रहते हुए वह एक क्षेत्रज्ञ
आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है । अतः हे भरतवंशी अर्जुन ! जो मनुष्य क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के इस सूक्ष्म भेद को
समझ जाते हैं, तथा प्राणियों के प्रकृति- जनित विकारों से मुक्त होने के साधन को जान जाते हैं
वे परमपद को प्राप्त हो जाते हैं ।
|। यहाँ श्रीमद भगवद्गीता का क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग नामक यह तेरहवां
अध्याय समाप्त हुआ ।|
© Dr BSM Murty
bsmmurty@gmail.com
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