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Wednesday, September 27, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता


हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 




तेरहवां अध्याय

क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग

1-3.  भगवान श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन ! इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं, और जो ज्ञानी मनुष्य इसे जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते है । लेकिन सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अथवा जीवात्मा के रूप में भी तुम मुझे ही जानो । और क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के इस भेद को जानना ही ज्ञान है । अब मैं  बताऊंगा कि वह क्षेत्र कैसा है, किन कारणों से हुआ है और किन विकारों से युक्त है, और फिर उस क्षेत्रज्ञ का प्रभाव भी कैसा है, यह सब कुछ मैं तुम्हें संक्षेप में बता रहा हूँ।

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण यह बता रहे हैं कि यह शरीर ही जीवात्मा का क्षेत्र है, और उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परमात्मा का क्षेत्र है । जीवात्मा ही शरीर के इस क्षेत्र का स्वामी और  क्षेत्रज्ञ है । और शरीर से परे रहते हुए भी उसका ज्ञाता भी है, किन्तु क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह द्वैत परमात्मा में ही निहित है । अर्थात मनुष्य का शरीर ही क्षेत्र है, और शरीर से परे जीवात्मा के रूप में वही उसका क्षेत्रज्ञ भी है । अगले तीन श्लोकों में शरीर अथवा क्षेत्र में निहित आत्मा अथवा क्षेत्रज्ञ के अंतर्संबंध के बारे में चर्चा हुई है ।

4-6. क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के इस गूढ़ तत्व के विभिन्न भागों को ऋषियों ने भी बहुत तरह से समझाया है, और वेदों में विविध मंत्रों में भी इनके विषय में बताया गया है, तथा युक्तियों एवं उचित तर्कों  से प्रमाणित भी किया गया है । उनमें शरीर के इस क्षेत्र के विभिन्न विकारों, जैसे पांच महाभूतों - आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी;  दस इंद्रियों - पांच कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों -  अहंकार, बुद्धि, मूल प्रकृति एवं एक मन; और ज्ञानेन्दियों के पांच विषयों - शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गंध; तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, स्थूल, देहपिंड, चेतना और धारण करने की शक्ति - इन सबके बिषय में सक्षेप में कहा गया है ।

7-12. निरभिमानता, दंभहीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्यों की सेवा, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इंद्रियों के विषय-भोग से वैराग्य, अहंकारशून्यता; जन्म-मरण, वृद्धताव्याधि जैसे विकारों की निरंतर चेतना; पुत्र-स्त्री-गृह आदि  के प्रति अनासक्ति-भाव ; इष्ट-अनिष्ट के प्रति सदा  समचित्त-भाव, शुद्ध एवं एकांत स्थान में  निवास; भीड़-भाड़ से दूरी; अध्यात्म-ज्ञान में निष्ठा, मुझ परमेश्वर में अनन्य-अविचल भक्ति तथा तत्वज्ञान द्वारा निरंतर मुझ परमेश्वर के दर्शन -  यह सब ज्ञान है, और जो इसके विपरीत है, वहीं अज्ञान है । इसीलिए जो भी जानने योग्य है, जिसे जान कर मनुष्य अमृतपद को प्राप्त होता है, उसे मैं भली-भांति तुम्हें बता रहा हूँ। उस अनादि परमब्रहम को न सत् कहते  और  न असत् ही कहते हैं।

13-18. वह परमात्मा तो सभी ओर से हाथ पैर, सिर, मुख नेत्र और कान वाला है,  इस जगत में सभी में व्याप्त होकर स्थित है, सभी इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, और सभी इंद्रियों से रहित, निर्गुण एवं  आसक्तिरहित होने पर भी सबका भरण–पोषण करने वाला तथा सभी गुणों का भोक्ता है । वह सभी चराचर प्राणियों के भीतर भी है और बाहर भी, और सभी चराचर प्राणी भी वही है । सूक्ष्म होने के कारण वह अज्ञेय है, तथा दूर भी है और निकट भी । स्वय विभाग-रहित होकर भी वह सब कुछ में विभक्त-सा दिखाई देता है, और जानने योग्य भी है । वही समस्त प्राणियों का उत्पत्तिकर्ता , धारणकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता भी है । सभी ज्योतियों की ज्योति भी वहीं है, जिसे अंधकार से भी परे जाना जा सकता है । वही ज्ञान, वही ज्ञेय और वही ज्ञानगम्य भी है, जो सबके हृदय से विराजमान है । इसी प्रकार क्षेत्र, ज्ञान तथा परमात्मा का स्वरूप, जो ज्ञेय है, वह सब मैंने तुम्हे संक्षेप में बताया है । जो इसे भली-भांति जान जाता है, मेरा ऐसा भक्त अवश्य ही मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक इस अध्याय में क्षेत्र अथवा जड़ शरीर और क्षेत्रज्ञ अथवा चेतन जीवात्मा  की समानता प्रकृति और पुरुष के रूप में बताई गयी है, और आगे के श्लोकों में इसे विस्तार से समझाया गया है।

19-23: प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं - अर्थात् इनका कोई प्रारंभ या अंत नहीँ होता, तथा दोनों के ही गुण और विकार प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। कार्य-कारण संबंध की जननी भी प्रकृति होती है, और उसी प्रकार सुख और दुख के भोग का कारण पुरुष या जीवात्मा होता है । प्रकृति में रहते हुए ही पुरुष या जीवात्मा प्रकृति से उत्पन्न गुणों का उपभोग करता हैउन गुणों मेँ आसक्त होते हुए ही भली या बुरी योनियों में बार-बार जन्म लेता  है । लेकिन प्रकृति में स्थित होते हुए भी पुरुष या जीवात्मा सत्व , रजस और तमस वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति अथवा माया से परे भी होता है, और जीवात्मा के रूप में वह पुरुष क्षेत्रज्ञ अथवा सर्वसाक्षी होने के कारण उपद्रष्टा, अनुमति प्रदान करनेवाला, भरण-पोषण करने वाला, भोग करने वाला, महेश्वर और  परमात्मा कहलाता है । अतः जो गुणमयी प्रकृति और क्षेत्रज्ञ पुरुष के इस सम्बन्ध को भली-भांति  समझ लेता हैं, वह सभी कर्म करता हुआ भी पुन:-पुन: जन्म नहीं लेता ।

24-26. परमात्मा का दर्शन कुछ लोग अपने अंत:करण में पवित्र मन से ध्यानपूर्वक करते हैं, वहीं कुछ अन्य लोग सांख्य अथवा ज्ञानयोग से ऐसा करते  हैं, और कुछ और लोग निष्काम भाव  से परमात्मा के दर्शन पा लेते हैं । फिर और भी ऐसे लोग होते हैं जो स्वयं  न अनुभव करते हुए भी दूसरों से सुन  कर ऐसी उपासना करते हैं, और सुन कर अनुभव कर लेने वाले ऐसे लोग  भी इस मर्त्यलोक  के भवसागर को पार कर लेते है । अत: हे भरतकुलश्रेष्ठ अर्जुन! इस संसार में जो भी जड़ अथवा चेतन वस्तु उत्पन्न होती है उसे तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जानो ।

27-30. जो मनुष्य संसार  के विनष्ट होते हुए सभी प्राणियों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही यथार्थ को देखता है । क्योंकि इस प्रकार विनाशशील प्राणियों में भी परमेश्वर की अविनाशी सत्ता  को देखने वाला मनुष्य अपने ही स्वयं को विनष्ट नहीं होने देता, और इस प्रकार परमपद को प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य सभी कर्मों को प्रकृति द्वारा ही किया जाता हुआ देखता है, और आत्मा को सदा अकर्ता के रूप में ही देखता है, वही यथार्थ को देख पाता है । जब उसे सभी प्राणी अपने अलग--अलग भाव और अलग—अलग विस्तार में एक ही परमात्मा में स्थित दिखायी देते हैं, तव वह स्वयं  ब्रहमत्व क्रो प्राप्त हो जाता है ।

31-34.  हे कुंतिपुत्र अर्जुन! अविनाशी परमात्मा निर्गुण और अनादि होने के कारण शरीर में स्थित होने पर भी न उसमें लिप्त होता है और  न ही वह कुछ करता है । जैसे मेघों के बीच रहते हुए भी अपनी सूक्ष्मता के कारण  आकाश उनमें कहीं लिप्त नहीं होता , उसी प्रकार आत्मा सर्वत्र शरीर में रहते हुए भी शरीर के गुणों से प्रभावित नहीं होता । जैसे एक ही सूर्य संपूर्ण मृत्युलोक को प्रकाशित करता है,  बैसे ही पूरी तरह निर्लिप्त रहते हुए वह एक क्षेत्रज्ञ आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता   है । अतः हे भरतवंशी अर्जुन ! जो मनुष्य  क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के इस सूक्ष्म भेद को समझ जाते हैं, तथा प्राणियों के प्रकृति- जनित  विकारों से मुक्त होने के साधन को जान जाते हैं वे परमपद को प्राप्त हो जाते हैं  ।

                   |। यहाँ श्रीमद भगवद्गीता का क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग  नामक यह तेरहवां अध्याय समाप्त हुआ ।|

© Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


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Sunday, September 17, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 



बारहवां अध्याय :  भक्तियोग

1.  अर्जुन ने कहा हे श्रीकृष्ण! ऐसे भक्तगण जो निरंतर अनन्यभक्ति के साथ आपके सगुण रूप की उपासना करते हैं, जिसमें आप उनके प्रत्यक्ष होते  हैं, और अन्य कुछ ऐसे भक्त जो आपके अक्षर और अव्यक्त, निराकार रूप की उपासना करते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में उत्तम योगवेत्ता अथवा श्रेष्ठ योगविद्या को जानने वाला वास्तव में कौन होता   है ।

2-4. भगवान 
श्रीकृष्ण बोले - जो भक्तगण अपने मन को मुझमें एकाग्र करके , श्रेष्ठ श्रद्धापूर्वक निरंतर मेरा भजन करते हुए मेरी उपासना करते है, उन्हें मैं उत्तम मानता हूं। ऐसे मनुष्य जो अपनी सभी इंद्रियों को भली-भांति  वश में करके, संपूर्ण प्राणियों का हित करते हुए, सभी स्थितियों में समभाव से युक्त रहते हुए, मेरी उपासना करते हैं -  मैं, जो -अचिंत्य, अर्थात मन-बुद्धि से परे, अकथनीय और एकरस, नित्य, अचल, अत्यन्त-निराकार, अक्षर अथवा अविनाशी और सर्वव्यापी ब्रहम हूँ -  मेरे ऐसे भक्त मुझे ही प्राप्त होते है ।

5-8. अव्यक्त, निर्गुण और निराकार ब्रहम की उपासना करने वालों की साधना अधिक कठिन होती है, क्योंकि वे स्वयं  देहधारी और मरणशी होते हैं जिस कारण निर्गुण निराकार ब्रहम का ध्यान करना उनके लिए अत्यंत दुष्कर होता है । किंतु, मेरे जो भक्त पूरी तरह अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करते हुए पूर्ण समर्पण-भाव से मुझको अनन्य भक्तिपूर्बक भजते हैं, अपने ऐसे भक्तों को मैं शीघ्र  ही इस मृत्यु-रूप संसार-सागर से तार देता हूँ । अत: हे अर्जुन ! तुम अपने मन को पूरी तरह मुझमें लगा लो  और मुझमें ही अपनी बुद्धि को भी  पूरी तरह स्थिर कर लो, जिससे तुम निस्सन्देह तब मुझमें ही निवास कर सकोगे ।

9-12.  हे  अर्जुन, यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर नहीं कर सकते तो योग के प्रयास से तुम मुझको प्राप्त करने  की  निरंतर चेष्टा करते रहो, और यदि वैसा करने में भी असमर्थता का बोध हो, तो अपने सभी कर्म केवल मेरे लिए ही किया करो । इस प्रकार केवल मेरे निमित्त कर्म करते हुए भी मुझको प्राप्त होने के अपने प्रयास में तुम पूर्णतः सफल हो जाओगे ।  यदि ऐसे भक्तिपूर्ण कर्मयोग  की साधना करने में भी तुम असमर्थता का अनुभव करो तो मेरे योग का आश्रय लेकर मन-बुद्धि को जीतने का प्रयास करते हुए अपने सभी कर्मों के ल के प्राप्ति-भाव का त्याग  कर दो । यह जान लो कि अनमने प्रयास से ज्ञान का अर्जन करना श्रेष्ठ है, उसी प्रकार ज्ञानार्जन करने से ध्यान करना श्रेष्ठ है, और ध्यान करने से भी अधिक श्रेष्ठ है अपने सभी कर्मों की फल-प्राप्ति की कामना का त्याग करना, जिससे तत्काल मन को पूर्ण शांति प्राप्त होती है ।

13-16. जो मनुष्य सबके प्रति द्वेष, ममत्व एवं अहंकार से रहित है, प्रेमी, दयावान, क्षमाशील सदा संतुष्ट, और सुख एवं दुख में सम-भाव रखने वाला है, मन, बुद्धि और सभी इंद्रियां जिसके वश में हैं, और जो नित्य भगवान की भक्ति से युक्त है, जिसकी भक्ति दृढ निश्चय वाली है, और जो मुझमे मन और बुद्धि  अर्पित करने वाला है, ऐसा भक्त मुझे हुत प्रिय है । जो न किसी से उद्विग्न होता है और  न किसी को उद्विग्न करता है, और जो हर्ष-संताप, भय, शोक, उद्वेग या व्याकुलता से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय होता है । जो मनुष्य सभी प्रकार की आकांक्षाओं से रहित , बाहर-भीतर  भक्तिभाव में कुशल, उदासीन और निष्पक्ष, व्यथा-रहित और शांत , तथा अपने सभी कर्मों के अभिमान का त्याग करने वाला है, वही मेरा प्रिय भक्त है ।

17-20. जो मनुष्य न हर्षित होता है  न शोक करता है,और न कामना करता है, तथा जो शुभ और अशुभ दोनों  से अविचलित रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता है । वह जो शत्रु और मित्र, मान और अपमान, शीत  और उष्ण, सुख और दुख -  दोनों में सम और अनासक्ति का भाव रखता है, जो निंदा और प्रशंसा को एक-सा समझता हैं, मननशील और वाणी में पूर्णत: संयत है, और जहां भी निवास करता है उसमें कोई आसक्ति नहीं रखता, तथा जैसे भी जीवन का निर्वाह हो जाय उसी में सदा संतोष का भाव रखता है, ऐसा भक्तिमान स्थिरबुद्धि मनुष्य मुझे प्रिय है ।

              ।|  यहाँ  श्रीमदभगवदगीता का भक्तियोग नाम  यह बारहवां अध्याय समाप्त हुआ |।

© Dr BSM Murty

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Thursday, September 7, 2017






सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

ग्यारहवां अध्याय :  विश्वरूपदर्शनयोग

1-2. अर्जुन ने कहा हे  श्रीकृष्ण !  मुझ पर कृपास्वरूप आपने यह जो परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक अमृत-वचन कहे हैं,  उससे मेरा अज्ञान दूर हो गया है । हे कमलनयन,  मैंने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और उनके विनाश का विवरण और आपकी महिमा का वर्णन भी विस्तार से सुना है ।

3-4. हे परमेश्वर ! आपने अपने को जैसा बताया है, आप बिलकुल वैसे ही है । किंतु हे पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ! मैं तो आपके उस परम तेजमय ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं । हे प्रभो, यदि आप मानते है कि मैं सचमुच आपका वह रूप देख सकता हू तो हे योगेश्वर, आप मुझे अपना वह अविनाशी रूप दिखाने की कृपा करें ।

5-8. तब भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे पार्थ ! ठीक है, अब तुम मेरे नाना प्रकार  के,  नाना वर्णो और आकारों वाले असंख्य दिव्य रूपों को देखो । हे भरतवंशी अर्जुन,  मुझमें अब तुम बारह आदित्यों, आठ वसुओं, एकादश रुद्रों, दोनों अश्विनी कुमारों और उनचास मरुतों को देखो । और इन सबसे अलग, कभी पूर्व-काल में नहीं देखे हुए, मेरे और भी अनेक विस्मयकारी रूपों को  देखो । मेरे इस शरीर में, हे अर्जुन, तुम चर और अचर- संपूर्ण जगत को एक ही स्थान पर स्थित देखो, तथा और जो कुछ भी देखना चाहते हो उसे देखो । किन्तु  तुम अपने इन सामान्य नेत्रों से निसंदेह यह सब नहीं देख सकते, इसलिए मैं तुम्हे इसके लिए दिव्य-चक्षु प्रदान करता हूँ जिससे तुम मेरे इस ईश्वरीय योगशक्ति रूप को देख सको ।

9-14. यहाँ संजय धृतराष्ट्र से बोले - हे राजन! महायोगेश्वर भगवान श्रीहरि ने तब अर्जुन को अपना यह परम ऐश्वर्य-युक्त दिव्य विराट रूप दिखाया जिसमें दिव्य माला, आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित, दिव्य सुगंधों से आलेपित असंख्य मुख और नेत्र थे । अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को धारण लिये हुए, अद्भुत रूपों और आश्चर्यों से युक्त महायोगेश्वर भगवान श्रीहरि के उस अनंत और सर्वतोमुख विराट स्वरुप को सहसा अर्जुन ने देखा । श्रीहरि के उस विराट रूप को देखकर उसे लगा जैसे आकाश में सहस्त्रों सूर्यो के एक साथ उदित होने से भी अधिक प्रकाश फूट पड़ा हो । उस समय अर्जुन ने देखा कि खंड-खंड विभाजित संपूर्ण जगत जैसे देवाधिदेव श्रीकृष्ण के उस स्वरुप में एक ही जगह स्थित था। तब अत्यंत रोमांचित और विस्मय-चकित हुए अर्जुन ने उस विश्वरूप परमेश्वर को हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए, कहा -

15-17. अर्जुन ने कहा - हे देव, हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में तो सारे देवताओं और सभी प्राणी-समुदायों  को, कमलासन पर विराजे ब्रहमा को, महादेव शिव को, सभी ऋषियों और अनगिनत सर्पों  को देख रहा हूँ। स्वय आपको मैं अनेक मुखों, नेत्रों, भुजाओं और उदरों से युक्त, सभी ओर से अनंत रूपों वाला देख रहा हूँ , जिसका न आदि, न मध्य और न अंत ही मुझे दिखाई दे रहा है । आपका यह रूप मुकुट, गदा और चक्र  से सुशोभित है, जो सभी ओर से प्रज्जवलित अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, तेजोमय और प्रकाशमान दिखाई पड़ रहा है | आपकी यह विराट छवि तो सर्वथा अप्रमेय अथवा आकलन से परे लगती है, जिसे देखना भी मेरे लिए कठिन हो रहा है ।

18-19. मेरी सीमित बुद्धि के अनुसार तो आप ही जानने योग्य परम अक्षर अथवा परमब्रहम और इस विश्व के परमात्मा हैं । आप ही तो सनातन धर्म के रक्षक और सनातन अविनाशी परमेश्वर हैं । आप तो आदि, मध्य और अंत से भी सर्वथा परे हैं । अनंत सामर्थ्य से युक्त, असंख्य भुजाओं वाले - सूर्य और चंद्रमा आपके नेत्रों जैसे लगते हैं । आपके मुख से अग्नि प्रज्जवलित होती दीखती है, और आपके तेज से तो यह सारा जगत ही तपता दीख रहा है ।

20-22. हे महात्मन्! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का संपूर्ण अंतरिक्ष और सभी दिशाएं तो आपसे ही व्याप्त हैं । आपके इस अलौकिक भयावह रूप को देखकर तो तीनो लोक ही भयातुर हो रहे    हैं । मुझे तो सभी भयभीत देव, हाथ जोड़े हुए, आपकी स्तुति करते हुए, आप में ही प्रविष्ट होते दिखाई दे रहे हैं । सिद्ध और महर्षिगण भी 'कल्याण हो !' ऐसा कहते हुए उत्तम स्तुतियों से आपका स्तवन कर रहे है । ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्य देव, दस विश्वदेव, दोनों अश्विनी कुमार, उनचास मरुत् और पितरों के समूह, तथा गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय - सभी विस्मित-चकित आपका यह ऐश्वर्यमय रूप देख रहे हैं ।

यहाँ पुराणों  में वर्णित विभिन्न देवताओं , सिद्धों और महर्षियों का स्मरण करते हुए अर्जुन यह बता रहे हैं - कि परमात्मा के इस वास्तविक और विराट रूप में ही देवताओं और सभी लौकिक  प्राणियों  की अंतिम गति है । इस विराट रूप का दर्शन करने वाले चकित-विस्मित और     भयभीत सभी देवता और प्राणी परमात्मा की सत्ता में समाहित हैं ।

23-25 हे विशाल बाहों वाले भगवन्! आपके अनेक मुख,  नेत्रों, भुजाओं, जंघाओं, पैरों, उदरों और दातों वाले इस महान, विकराल रूप को देखकर मैं और सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं । क्योकि हे विष्णु ! आकाश को स्पर्श करने वाले, अनेक वर्णों से युक्त और देदीप्यमान, विशाल प्रकाशमान नेत्रों वाले आपके इस महाकाय फैले हुए मुख को देखकर तो मेरा अंतःकरण सर्वथा धैर्यहीन, अशांत और अत्यंत भय-विहवल हो रहा है । विकराल दातों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित आपके इस भयकारी मुख को देख कर तो मैं दिशाओं का ज्ञान भी भूल गया हूँ, और मेरा मन अभी पूर्णत: व्याकुल-अशांत हो रहा है । अत: हे जगन्निवास , हे देवेश्वर ! अब आप प्रसन्न हों ।
फिर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं --

26-29. मैं देख रहा हूँ कि धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, राजाओं के सभी समूहों सहित, आपके विकराल मुख में समाते जा रहे हैं। साथ ही भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और यह कर्ण, हमारी अपनी सेना के मुख्य योद्धागण के साथ ही वेगपूर्वक आपके भयंकर दाढ़ों के कारण  भयावह लगने वाले मुख में प्रवेश करते जा रहे हैं, और कुछ योद्धाओं के क्षत-विक्षत सिर तो आपके विकराल दातों में फंसे हुए से दीख रहे हैं । ठीक जैसे वहुत सारी नदियों के जल-प्रवाह समुद्र की ओर दौड़ते हैं, वैसे ही इस मनुष्य-लोक के योद्धागण भी आपके अनेक प्रज्वलित मुखों में प्रविष्ट होते दिखाई पड रहे हैं । लग रहा है जैसे पतंगे अपने नाश के लिए प्रज्वलित अग्नि की ओर वेग से भागते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में प्रवेश करते जा रहे हैं ।

30-31. अपने प्रज्वलित मुखों से सारे लोकों को ग्रसित करते हुए आप बार-बार अपने होठों को चाट रहे हैं । हे भगवान विष्णु !  सारी सृष्टि आपके उग्र प्रकाश के तेज से भरकर अब तप रही है । कृपया मुझे  बताइए कि ऐसे उग्र रूप वाले आप सचमुच कौन हैं ? हे देवेश्वर ! आपको मेरा प्रणाम अर्पित है, अब आप प्रसन्न हों । आप तो संपूर्ण जगत के आदि रूप हैं, किन्तु मैं आपकी प्रवृत्ति को समझने में असमर्थ हूँ, और आपको तात्विक रूप से जानना चाहता हूं ।

32-34. तब भगवान श्रीकृष्ण बोले - सभी लोकों का नाश करने वाला प्रबल महाकाल मैं इस समय इन सब का नाश करने के लिए प्रस्तुत हूँ। और यह जान लो कि इन सेनाओ में जो भी वीर योद्धा यहाँ उपस्थित हैं, बिना तुम्हारे युद्ध किये भी उनका नाश पूर्वनिश्चित है । अत: हे अर्जुन ! तुम उठ खड़े हो और युद्ध करते हुए यश को प्राप्त करो तथा इन शत्रुओं को हरा कर धन-धान्य से संपन्न राज्य का उपभोग करो । अरे, ये सभी योद्धा तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । तुम तो अब केवल इनकी मृत्यु के निमित्त-मात्र हो । अब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, जयद्रथ और कर्ण के साथ-साथ दूसरे अनेक शूर-बीर योद्धाओं को तुम स्वय मारो । अब कोई व्यथा मत करो । इस युद्ध में सभी शत्रुओं को अब तुम्हीं पराजित करोगे । तुम बस युद्ध करो ।

35. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर मुकुटधारी अर्जुन कांपते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करते हुए गदगद वाणी में बोले  -

36-38. अर्जुन ने कहा – हे अंतर्यामी प्रभु ! आपके नाम-कीर्तन  से सारा जगत हर्षित एवं अनुरक्त होता है, सिद्धों के सभी समुदाय भी आपको नमन करते हैं, और राक्षस आदि भी आपसे परम भयभीत होकर सभी दिशाओं में भाग रहे हैं, यह तो ठीक ही है । हे महात्मन्! परम श्रेष्ठ एवं ब्रहमा के भी आदिकर्ता आपको ये सभी क्यों न नमस्कार करें , क्योंकि हे अनंत, हे देवेश,  हे जगन्निवास ! जो सत्-असत् से परे अक्षर ब्रहम है, वह तो आप ही हैं । आप ही तो आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप ही इस संपूर्ण जगत में सर्वाधिक जानने योग्य परमब्रहम और इस जगत के परम ज्ञाता भी हैं, तथा आप ही इसके परम आश्रय और परम धाम भी तो हैं । हे अनंत रूप! आप से ही तो यह संपूर्ण जगत व्याप्त है ।

39-40. आप ही वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्र और प्रजापति ब्रहमा है एवं ब्रहृमा के भी पिता हैं । आपको बारम्बार नमस्कार है । अनंत सामर्थ्यवान हे भगवन !  आपको चारो ओर से पुन:-पुन: नमस्कार है । आप तो अनंत पराकम से संपन्न हैं । आपसे सारा जगत व्याप्त है । आप तो सर्वरूप हैं ।

41-42. आप तो मेरे सखा हैं, और इसीलिए आपकी इस सारी महिमा को भलीभांति नहीं जानते हुए भी मैं अपने प्रेम- भाव और प्रमाद से जान-बूझकर आपको  -  हे कृष्ण , हे यादव, हे सखा कह रहा हूँ । इसलिए हे अच्युत । परिहास और मनोविनोद के लिए उठते-बैठते, भोजन करते, सोते, विहार करते, अकेले अथवा लोगों के बीच में, आपका यदि भूल से कभी तिरस्कार हो गया हो तो उन सभी अपराधों के लिए मैं आपसे - आप जो सर्वथा अनंत और अज्ञेय-रूप हैं क्षमायाचना करता हूँ।

43-44. आप इस चराचर जगत के पिता हैं तथा महान गुरु एवं परम पूज्य हैं, अतुलनीय प्रभाव वाले हैं , जिसके समान तीनों लोकों में और कोई नहीं, और भला आपसे अधिक तो कुछ हो भी कैसे सकता है? अत: मैं आपके चरणों में साष्टांग प्रणाम करता हूँ, और स्तुति करने योग्य आपके इस ईश्वर रूप को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करता हूँ । हे देव! पिता जैसे पुत्र के,   पति जैसे प्रियतमा पत्नी  के, और सखा जैसे अपने सखा के अपराध सहन एवं क्षमा करता है, आप भी वैसे ही मेरे सभी अपराध क्षमा करें ।

45-46. आपके इस विराट विश्वरूप को तो पहले मैंने कभी नहीं देखा था, जिसे अभी देखकर मैं जितना हर्षित हुआ हूँ उतना ही भय से व्याकुल भी हो रहा हूँ। अब आप कृपा करके पुन: मुझे अपने उसी चतुर्भज़ विष्णु रूप को दिखावें । हे देवेश, हे जगन्निवास ! अब आप पुन: मुझ पर प्रसन्न हो जाइए । मैं अब आपको उसी प्रकार मुकुट पहने,  हाथों में गदा-चक्र  धारण किए हुए देखना चाहता हूँ। हे विंश्वस्वरूप विश्वमूर्ति ,हे सहस्त्रबाहु ! अब फिर आप अपने उसी स्वाभाविक चतुर्भज़ रूप मेँ प्रकट होइए ।

47-49. भगवान् श्रीकृष्ण बोले - हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपने योगबल से अपना यह आदि और अनंत का तेजोमय विश्वरूप तुम्हे दिखाया है जिसे इससे पूर्व तुम्हारे सिवा किसी और ने नहीं देखा है । मनुष्य-लोक में अपने इस विश्वरूप में, तुम्हारे अतिरिक्त किसी के द्वारा भी -  न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान आदि क्रियाओं से या परम उग्र तप आदि से ही -  मैं कभी देखा जा सकता हूँ । मेरे इस विराट रूप को देखकर तुम्हें न तो व्याकुल होना चाहिए और न अपने को मूढ ही अनुभव करना चाहिए । अब तुम भयहीन और प्रेमयुक्त होकर पुनः मेरे उसी चतुर्भज़ रूप को देखो ।

50. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा -  वासुदेव श्रीकृष्ण ने तब ऐसा कह कर अपना वहीं चतुर्भज़ रूप अर्जुन को दिखाया और फिर सौम्यमूर्ति  होकर महात्मा श्रीकृष्ण ने भयभीत अर्जुन को आश्वस्त किया ।

51. अर्जुन ने तब श्रीकृष्ण से कहा – हे जनार्दन । आपके इस सौम्य मानव  रूप को देखकर अब मैं सचेत होकर पुन: अपनी स्वस्थ-स्वाभाविक अवस्था मेँ आ गया हूँ ।

52-54. भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे  परंतप अर्जुन ! मेरे जिस रूप को अभी तुमने देखा है, उसका दर्शन सर्वथा दुर्लभ है । देवगण भी सदा इस रूप के दर्शन की इच्छा रखते है । लेकिन मैं अपने इस रूप में जैसा तुमने अभी देखा है, न तो वेदों, न तप, न दान और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ । मैं तो इस रूप में केवल अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष देखा जा सकता हूँ, तत्व से जाना जा सकता हूँ, और प्राप्त भी हो सकता हूं। हे अर्जुन! जो मनुष्य सारे कर्म केवल मेरे ही लिए करता है, केवल मुझे ही अपना परम आश्रय और परम गति मानता है, और पूर्णत: आसक्ति  एवं वैर-भाव से रहित होकर मेरी ही भक्ति करता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है ।


|| यहीं श्रीमदभगवद्गीता का विश्वरूपदर्शनयोग नामक यह ग्यारहवां अध्याय समाप्त हुआ ।|



© Dr BSM Murty

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