Followers

Tuesday, August 27, 2019


‘नई धारा’ सम्मान समारोह

दिसंबर १, २०१८ : साहित्य अकादेमी सभागार

‘नई धारा’ पिछले ६९ वर्षों से पटना से प्रकाशित होने वाली एक उच्च-स्तरीय साहित्यिक मासिक पत्रिका है, जो प्रतिवर्ष उसके दिवंगत सम्पादक श्री उदयराज सिंह की स्मृति में एक लाख रु. का  एक शिखर सम्मान प्रदान करती है, तथा उस वर्ष की श्रेष्ठ रचनाओं पर २५,००० रु. के ‘रचना पुरस्कार’ प्रदान करती है | पिछले वर्ष यह शिखर पुरस्कार डा. मैनेजर पाण्डेय को तथा ‘रचना पुरस्कार’ डा. मंगलमूर्ति को उनके संस्मरण ‘आ. शिवपूजन सहाय और काशी’ (फार.-मार्च,’१८) पर दिल्ली-स्थित साहित्य अकादेमी के सभागार में समारोहपूर्वक प्रदान किया गया | इस अवसर पर डा. मंगलमूर्ति ने जो आभार-वक्तव्य दिया वह ‘नई धारा’ के दिसंबर-जनवरी, २०१९ के अंक में प्रकाशित हुआ और यहाँ नीचे भी प्रकाशित है | उस अवसर से सम्बद्ध कुछ चित्र और विडियो भी यहाँ प्रकाशित किये जा रहे  हैं |



साहित्य में बिहार की उपेक्षा* 

मंगलमूर्त्ति

आजकल हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सम्मान और पुरस्कार बहुत मिलने लगे हैं, और एक दृष्टि से यह एक शुभ लक्षण भी है | लेकिन मुझे अपने बचपन की याद आती है, जब मेरे पिता राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में थे, और बचपन से ही उनके अंग लगा, मैं उनका एक  प्रकार से लिटररी सेक्रेटरी बन गया था | उनके पढने-लिखने के उस छोटे से कमरे में जाने-आने की इजाज़त बस मुझको ही थी | अपनी डायरी में उन्होंने लिखा है कि उन दिनों के सबसे बड़े साहित्यिक सम्मान ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ के वे भी एक निर्णायक थे और जब उनको निराला,पन्त और महादेवी के बीच निर्णय करना था तो उस वर्ष उन्होंने तीनों में से महादेवीजी का नाम चुना था | उस ज़माने में हिंदी साहित्य में वही सबसे बड़ा पुरस्कार था, और पुरस्कृत होने वाले नाम भी सब उतने ही बड़े थे | उसके बाद तो फिर सम्मान और पुरस्कारों की संख्या और राशि भी बढती गई, और बाद में तो सम्मान और पुरस्कारों  को वापस करने का भी सिलसिला चल पड़ा, जो अपने-आप में उनकी सार्थकता पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करने लग गया | 

लेकिन मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि ‘नई धारा’ के द्वारा इसके संस्थापक स्व.उदयराज सिंह जी की स्मृति में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों की गरिमा उन विवादास्पद पुरस्कारों से बिलकुल अलग है, खास तौर से जो पुरस्कार सरकारी होते हैं , और मेरी दृष्टि में ‘नई धारा’ के द्वारा दिए जाने वाले ये पुरस्कार एक विशेष अर्थ में बहुत पावन-पवित्र और शुद्ध साहित्यिक पुरस्कार हैं | ये ऐसे पुरस्कार हैं जो बहुत शुद्ध साहित्यिक भाव से दिए जाते रहे हैं | और इसी अर्थ में ‘नई धारा’ का यह ‘रचना-सम्मान’ मेरे लिए एक विशेष गौरव का सम्मान है | साथ ही, ‘नई धारा’ के इस सम्मान का मेरे लिए कई अर्थों में विशेष महत्त्व है |

मैं आपको यह भी  बताना चाहूँगा कि ‘नई धारा’ मेरे लिए मेरी अपनी छोटी बहन जैसी है, क्योंकि जब १९५० में पटना में इसका जन्म हुआ तब मैं इसके जन्मोत्सव में अपने पिता के साथ उपस्थित था | और मेरी दृष्टि में, वास्तव में, वे ही इस पत्रिका के जनक भी थे | तब मेरी अपनी उम्र  १२-१३ साल की ही थी | मैंने जब कहा कि वास्तव में शिवपूजन सहाय ही इसके जनक थे तो मैं उन विशेष परिस्थितियों की और इंगित करना चाहता हूँ जिनके बीच ‘नई धारा’ का जन्म हुआ था | ‘नई धारा’ के जन्म की कहानी किसी हद तक ‘हिमालय’ के १९४८ में बंद हो जाने से और शिवजी के राजेंद्र कॉलेज छोड़ कर पटना बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् में आ जाने से भी जुडी है | ‘नई धारा’ में हाल में छपे मेरे लेख में इस प्रसंग की पूरी चर्चा है |

अंतिम रूप से १९५०  जनवरी में शिवजी के राजेंद्र कॉलेज, छपरा से पटना आने के पीछे का प्रत्यक्ष कारण तो उनकी बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के मंत्री-पद पर नियुक्ति ही थी | लेकिन परोक्ष कारण भी कई थे जिनमें एक था राजा साहब (राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह), बेनीपुरी जी, दिनकरजी, सुधान्शुजी आदि की इच्छा कि शिवजी अब राजधानी के साहित्यिक केंद्र में आकर  रहें | ‘हिमालय’ का सम्पादन करने के क्रम में तो  वे १९४६ में एक साल पटना में रह चुके थे, पर ‘हिमालय’ से अब उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका, और ‘हिमालय’ जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिका की कमी सबको खलने लगी थी – और सबसे ज्यादा बेनीपुरी जी को | राजा साहब भी अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए एक प्रेस खोलना चाहते थे जिसकी व्यवस्था उनके छोटे सुपुत्र उदयराज जी को संभालनी थी | शिवजी सरकारी नौकरी में पटना आये थे इसलिए उनका नाम ‘नई धारा’ के सम्पादक के रूप में नहीं जा सकता था | पर शिवजी और बेनीपुरीजी तो एक प्रकार से अभिन्न थे, इसलिए राजा साहब के साथ विमर्श के बाद  ‘नई धारा’ के सम्पादक बेनीपुरी जी हुए, और उनके साथ सहायक सम्पादक बने वीरेंद्र नारायण जो शिवजी के बड़े जामाता थे | शिवजी ने ‘हिमालय’ के सह-सम्पादक-पद से बेनीपुरी जी के हटाये जाने के प्रश्न पर ही ‘हिमालय’ से  अपना इस्तीफ़ा दिया था, और अब जब ‘नई धारा’ निकलने जा रही थी तब बेनीपुरी जी को ही उसका सम्पादक बनना जैसे पूर्व-निश्चित था |
 
मेरे पिता का सम्बन्ध सूर्यपुरा राज्य से बहुत पुराना था, और बहुत गहरा था, जिसकी जड़ें पिछली सदी के दूसरे दशक तक जाती हैं जब मेरे पिता आरा में स्कूल अध्यापक थे | सूर्यपुराधीश राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह उम्र में मेरे पिता से तीन ही साल बड़े थे, लेकिन  हिंदी साहित्य के ख्यात साहित्यकारों में तभी उनका नाम गिना जाने लगा था | आपके ध्यान में होगा कि हिंदी-साहित्य के पहले इतिहास ग्रन्थ – जिसके रचयिता थे आचार्य रामचंद्र शुक्ल – उसके १९२९ के  प्रथम संस्करण में बिहार के गद्य-लेखकों में केवल राजा  राधिकारमण सिंह और जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का नामोल्लेख भर है | जो हो, लेकिन राजा साहब के पिता राजराजेश्वरी प्रसाद सिंहजी भी हिंदी के  एक सफल कवि प्रसिद्ध थे जो स्वयं ब्रजभाषा और नई हिंदी ‘खड़ी बोली’ में ‘प्यारे कवि’  उपनाम से लिखते थे, और काशी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से और कलकत्ते में रवीन्द्रनाथ ठाकुर से पारिवारिक रूप से जुड़े थे | 

राजा राधिकारमण को, जो बराबर ‘राजा साहब’ के नाम से ही जाने जाते थे, ऐसे ही अनुपम  साहित्यिक संस्कार विरासत में प्राप्त हुए थे | जब मेरे पिता इंट्रेंस क्लास में पढ़ रहे थे, तभी १९१३ में  राजा साहब की पहली कहानी ‘कानों में कंगना’ भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘इंदु’ पत्रिका में छपी थी, जिसका नामोल्लेख शुक्लजी ने किया है | उन दिनों राजा साहब पटना में एम.ए. में पढ़ रहे थे |  हालांकि तब तक उनकी कई कहानियां और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे | बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के १९२० में  बेतिया (चंपारण) में हुए दूसरे अधिवेशन के वे सभापति भी  चुने गए थे | वहां अपने लम्बे भाषण में उन्होंने हिंदी साहित्य की तत्कालीन शोचनीय स्थिति का विस्तृत वर्णन किया था | उस अधिवेशन के विषय में शिवजी ने अपनी डायरी में लिखा है : “बेतिया के द्वितीय साहित्य सम्मलेन में  मैं गुरुवर पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा के साथ गया | सूर्यपुरा के राजा साहब सभापति थे | राजा साहब अपनी ओर से हमलोगों को निमंत्रण देकर साथ ले गए | बेतिया के राज प्रासाद में हमलोग उनके साथ ही ठहरे |”

शिवजी और राजा साहब का यह साथ तब से अंत तक बना रहा | लेकिन यहाँ उसकी लम्बी कहानी प्रासंगिक नहीं है | १९२० से १९५० के बीच बिहार के साहित्य जगत में बहुत कुछ घटित हुआ | राजा साहब के कई उपन्यास प्रकाशित हुए, जिनमें ‘राम-रहीम’ सबसे ज्यादा चर्चित हुआ | शिवजी ने कितने श्रमपूर्वक इसका सम्पादन किया था जब वे पुस्तक-भंडार लहेरिया सराय में सम्पादक थे, इसकी चर्चा राजा साहब की कोई ५० चिट्ठियों में हुई है, जो सब ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ में प्रकाशित हैं |

राजा साहब, उनके सुपुत्र उदयराज सिंहजी, शिवजी, बेनीपुरीजी, वीरेंद्रजी – जल्दी ही यह एक साहित्यिक परिवार जैसा बन गया, और राजा साहब का नया प्रकाशन उद्यम अशोक प्रेस और साहित्यिक पत्रिका ‘नई धारा’ – ये सब भी जैसे एक साहित्यिक परिवार के ही उद्यम थे | और मेरा सौभाग्य था कि मैं  भी उस साहित्यिक परिवार का एक छोटा सदस्य था | आज उस साहित्यिक संयोग को याद करने का मेरे लिए यह अत्यंत उपयुक्त  और सुखद अवसर है | मैं जब लिखने-पढने लगा, और पारिवारिक रूप से ‘नई धारा’ से जुडा  रहा तब उसमें यदा-कदा मेरी भी कुछ रचनाएँ छपने लगीं | बाद में बेनीपुरी जी ने ‘नई धारा’ छोड़ दी थी, और वीरेंद्रजी भी केंद्र सरकार की नौकरी में दिल्ली चले गए थे | मेरे पिता भी परिषद् के कार्यों में अत्यधिक व्यस्त हो गए थे | तब ‘नई धारा’ का संपादन-भार उदयराज सिंह जी ने संभाल लिया था, और सुरेश कुमार उनके सहायक हो गए थे | १९५-५५ के बाद यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा – उदयराज जी के सम्पादन में ‘नई धारा’ निकलती रही | और आज यह ६९ वाँ साल हो रहा है ‘नई धारा’ के प्रकाशन का | 

उदयराजजी भी जब दिवंगत हो गए तब उस साहित्यिक परमपरा को उदयराजजी के सुपुत्र प्रमथराज सिंह जी ने आगे बढाने का संकल्प लिया और अब वे ‘नई धारा’ के संरक्षक हैं और शिव नारायणजी इसका सम्पादन पिछले कई वर्षों से बड़ी कुशलतापूर्वक कर रहे हैं | यह साधारण बात नहीं है कि हिंदी की कोई स्तरीय शुद्ध साहित्यिक मासिक पत्रिका ७ दशकों तक लगातार प्रकाशित होती रहे, और जिसका भविष्य आज भी उतना ही उज्जवल दिखाई देता हो | मैं तो कहूँगा कि ‘नई धारा’ भी अपने-आप में हिंदी साहित्य को बिहार की एक बहुत बड़ी और मूल्यवान देन है | ‘नई धारा’ बिहार की उस साहित्यिक परंपरा की मशाल को लेकर आगे बढ़ रही है इसके ज्वलंत प्रमाण उदयराज सिंहजी की स्मृति में आयोजित ये वार्षिक सम्मान एवं व्याख्यान समारोह भी हैं | यह साहित्यिक उपक्रम भी अपने-आप में हिंदी साहित्य को बिहार का एक बड़ा साहित्यिक योगदान है |

इस प्रसंग में मैं उल्लेख करना चाहूंगा बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के वार्षिक अधिवेशनों के सभापतियों के भाषणों के उस संग्रह का जिसे सम्मेलन ने ही १९५६ में  प्रकाशित किया था, और जो अब दुर्लभ है | हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में बिहार के साहित्य-सेवियों के योगदान का सबसे प्रामाणिक और विशद विवरण उसी ग्रन्थ से प्राप्त हो सकता है | उस ग्रन्थ में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के पहले २६ अधिवेशनों के सभापतियों के भाषण प्रकाशित हैं, जिनमें बिहार में हिंदी साहित्य-सेवा का एक प्रमाणिक इतिहास पढ़ा जा सकता है | मैं नहीं जानता, इस दिशा में अब तक कोई शोध या व्यवस्थित प्रयास हुआ है या नहीं, लेकिन यह एक अच्छे शोध-ग्रन्थ के लिए बहुत उपयुक्त सामग्री है |

मेरे पिता जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के निदेशक थे तब उनका सबसे बड़ा मिशन था ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ नामक ग्रन्थ-श्रृंखला का संपादन-प्रकाशन | उनके जीवन-काल में इसके दो खंड वहां से प्रकाशित भी हुए, और बाद में भी कई खंड और प्रकाशित हुए | इसकी सारी सामग्री का संपादन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए किया था, यद्यपि दूसरे खंड के बाद परिषद् ने संपादक के रूप में पदासीन निदेशकों का नाम उसपर छापा |  इसकी एक लम्बी और करुण कथा है जो उनकी डायरियों में बहुत विस्तार से अंकित है और जो कहानी शुरू होती है १९१९ में, जब मेरे पिता आरा के स्कूल में शिक्षक थे और आरा नगरी प्रचारिणी सभा के सहायक मंत्री भी | वहीँ अपने साहित्यिक मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने इस ग्रंथमाला की योजना बनाई थी | सभा की और से उन्होंने उन्हीं दिनों एक परचा बिहार के  सभी साहित्यकारों के पास भेजा था इस अनुरोध के साथ कि वे अपना विस्तृत परिचय भरकर सभा के पास भेजें | सामग्री संग्रह का उनका यह कार्य निरंतर चलता रहा और १९४२ में उन्हीं के द्वारा संपादित पुस्तक भंडार के ‘जयंती स्मारक ग्रन्थ में तबतक की संकलित सारी सामग्री प्रकाशित की गयी थी | 

जब वे १९३० में ‘गंगा’ का सम्पादन कर रहे थे तब उन्होंने ‘भट्टनायक’ कल्पित नाम से लिखित सद्यः प्रकाशित दो इतिहास ग्रंथों की अपनी दो समीक्षाएं ‘गंगा’ में प्रकाशित की थीं | ये दो ग्रन्थ थे -  आ. रामचंद्र शुक्ल लिखित वही ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ और आ. श्यामसुंदर दास लिखित ‘हिंदी भाषा और साहित्य’| ये दोनों समीक्षाएं ‘साहित्य समग्र’ खंड-३ में संकलित हैं | शिवजी तब काशी में ही रहते थे, और इन दोनों आचार्यों के प्रिय-पात्र भी थे | नामवरजी ने इस प्रसंग में लिखा है – “ये तीखी टिप्पणियां शिवजी ने उस समय लिखी थीं जब बाबु श्यामसुंदर दास हिंदी गगन में मध्यान्ह के सूर्य के सामान तप रहे थे |”

दोनों ही इतिहास-ग्रंथों में आधुनिक काल के साहित्येतिहास में बिहार की कहीं कोई चर्चा नहीं है | शुक्लजी के  इतिहास में तो  राजा राधिकारमण की थोड़ी चर्चा है भी, लेकिन श्यामसुंदर दास ने तो बिहार का कहीं नाम ही नहीं लिया है | ध्यान देने की बात है कि १९३० से चार साल पहले ही शिवपूजन सहाय का ही ‘देहाती दुनिया’ उपन्यास और उनकी ‘कहानी का प्लाट’ जैसी कहानियों का संग्रह ‘विभूति’ – दोनों  प्रकाशित हो चुके थे जिनकी अंतर्वस्तु और जिनकी शैली तब तक के कथा-साहित्य में सर्वथा नवीन एवं विस्मयकारी थी | शिवजी ने श्यामसुंदर दास के इतिहास-ग्रन्थ की कड़ी आलोचना करते हुए जो पंक्तियाँ लिखी हैं वे आज विशेष प्रासंगिक हैं | उन्होंने ने उस समीक्षा में लिखा है :

“बिहार का तो मानो हिंदी-साहित्य में कोई स्थान ही नहीं; वह तो साहित्य-क्षेत्र के समालोचना-मार्ग का कुश-कंटक है | हिंदी के श्रीहर्ष स्व. पं. रामावतार शर्मा, हिंदी के पाणिनि पं. सकल नारायण शर्मा, हिंदी के वाणभट्ट राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, हिंदी के दंडी स्व. पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा, हिंदी के भारवि बाबू राजेंद्र प्रसाद, हिंदी के माघ पं. चन्द्र शेखर शास्त्री, हिंदी के विल्हण पं. अक्षयवट मिश्र और हिंदी के बंकिम बाबू व्रजनंदन सहाय क्या किसी मर्ज़ की दवा नहीं हैं ? क्या इन विद्वान् एवं रस-सिद्ध लेखकों की सेवाओं से साहित्य के विकास में कोई बाधा पड़ी है? आखिर इन्हें ठुकराने का कोई उद्देश्य तो अवश्य होगा?”

और फिर इतनी ही कठोर भाषा में आचार्य श्यामसुंदर दास द्वारा बिहार की बोलियों में रचित साहित्य की उपेक्षा की भी आलोचना की है | लिखा है : “जिस प्रकार अवधी, पंजाबी, बैसवाड़ी, बुन्देलखंडी, डिंगल, मैथिली आदि प्रांतीय भाषाओं में साहित्य है, उसी प्रकार मगही और भोजपुरी भाषा में भी है; किन्तु मैथिली, पंजाबी और डिंगल भाषाओं की तरह इन भाषाओं का साहित्य विशेषतः प्रकाश्य रूप में नहीं आया है; पर इसी कारण उसके अस्तित्त्व को  अस्वीकार नहीं किया जा सकता |”

शिवपूजन सहाय जीवन भर हिंदी की लड़ाई तो लड़ते ही रहे, बिहार के साहित्यिक अवदान को भी बराबर अपने लेखन और भाषणों में रेखांकित करते रहे | आज ‘नई धारा’ के इस सम्मान प्रसंग में और आज के ‘श्री उदयराज सिंह स्मारक व्याख्यान’ के विषय के सन्दर्भ में इन बातों  की और ध्यान दिलाना मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ |
          
मैं अपने वक्तव्य के अंत में एक-दो विशेष निवेदन ‘नई धारा’ के संरक्षक श्री प्रमथराज जी से करना चाहता  हूँ | सबसे पहला तो यह कि राजा साहब की ग्रंथावली जो बहुत पहले अशोक प्रेस से ही छपी थी और अब अनुपलब्ध है, उसका पुनः-प्रकाशन ‘नई धारा’ प्रकाशन से अथवा हिंदी के किसी बड़े प्रकाशक के यहाँ से पुनः  होना चाहिए | दूसरा सुझाव यह कि राजा साहब के नाम पर प्रति वर्ष या हर दूसरे वर्ष एक बड़े पुरस्कार की योजना भी प्रारम्भ की जानी चाहिए | उसी से लगा एक सुझाव यह भी कि ‘नई धारा’ के ७० साल पूरे होने के अवसर पर उसमें प्रकाशित श्रेष्ठ रचनाओं का एक सुन्दर संचयन भी प्रकाशित होना चाहिए जिससे वह सारी बहुमूल्य सामग्री नई पीढ़ियों के लिए संरक्षित और सुलभ हो सके | इन सभी योजनाओं में मैं अभी भी यथाशक्ति सहयोग करने को प्रस्तुत रहूँगा |


अंत में एक बार पुनः मैं ‘नई धारा’ के अधिष्ठाता एवं प्रकाशक तथा इस सम्मान-समारोह की गतिमान श्रृंखला के संवाहक श्री प्रमथराज सिंह जी तथा ‘नई धारा’ के सुयोग्य सम्पादक श्री शिवनारायण जी के प्रति विशेष आभार प्रकट करते हुए आप सबों के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि आप इस सम्मान-समारोह के सहभागी बने और अपने स्नेह से मुझको गौरव प्रदान किया | धन्यवाद ! 

*[ ’नई धारा’ सम्मान-समारोह (१ दिसंबर, २०१८), साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के सभागार में प्रदत्त आभार-भाषण ]                 


Saturday, August 17, 2019


 





































जयंती-स्मरण : १०३ 

ये कोठेवालियां’ : अमृतलाल नागर

हमारा हिस्सा बाज़ार

मंगलमूर्ति

सभ्यता के विकास के साथ बाज़ार का रिश्ता पुराना है | बाज़ार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है | हम जहाँ हैं वहीं एक बाज़ार भी है | बाज़ार की अहमियत मंदिर से भी ज्यादा है | दरअसल, बाज़ार अब हमारी सभ्यता की एक ज़रूरी पहचान बन गया है | अपनी ज़रूरतों की बेड़ियों में हम इस तरह जकड गए हैं कि हम बाज़ार के पूरी तरह पाबन्द हो गए हैं | यह आज का नहीं ज़मानों का पुराना सच है | बाज़ार ने जहाँ हमारी ज़िंदगी में मौज और चहल-पहल दी है, वहीँ हमारे गले की फांस भी कसी है | सच यही है कि अब हम इस फांस से मुक्त नहीं हो सकते | ज़िन्दगी के सारे फसादों की खरीद-फरोख्त यहीं इसी बाज़ार में  होती है |

ज़िन्दगी के इस अहम् सच से हम कई तरह से रूबरू होते हैं | लेकिन ज़िन्दगी के इस नुमाइशी बाज़ार से हमें सबसे गहराई से रूबरू कराता है साहित्य | और अगर इसकी सारी चमक-दमक देखनी हो, इसके सारे शोर-शराबे से गुज़रना हो, इसके लालच, धोखा, फरेब को जानना-समझना हो, इसके सारे कचरे, इसकी सारी सडांध को झेलना हो तो आप अमृतलाल नागर की किताबी गलियों में जाइए | उनमें गली-दर-गली घूमते हुए आप दुनिया और ज़िन्दगी के चकाचौंध भरे इस मीना-बाज़ार को देख कर मन्त्र-मुग्ध हो जायेंगे, और इसके माया-जाल में बंध जायेंगे | चौक लखनऊ और उसके आस-पड़ोस में ही आप जैसे अपनी पूरी दुनिया का एक अक्स देख लेंगे | शीशे के एक छोटे टुकड़े में ही जैसे दुनिया के बाज़ार का पूरा शीश-महल आपके सामने झलक उट्ठेगा |

शरत बाबू से जब नागरजी शुरू में ही मिले थे जब अपने पिता से उन्होंने दो टूक कहा था कि उनको बस लेखक बनाना है तो शरत बाबू ने उनको यही सलाह दी थी कि लिखो बस वही जो अनुभव करो | यह साहित्य का मूल मन्त्र था | प्रेमचंद ने भी नागरजी को ऐसी ही सलाह दी कि अपने लेखन में जीवन और समाज के यथार्थ का चित्र खींचो | इसी लिए नागरजी के लेखन में हर जगह जीवन का स्पंदन स्पष्ट सुनाई देगा एक वाद्य-संगीत की तरह, कहीं लम्बे आलापों में, और कहीं सितार के झाले की तरह सजता-बजता हुआ | वहाँ सब कुछ उनका अपना है - पढ़ा-सुना-गुना-देखा-भोगा सबका अपना तैयार किया हुआ एक विशिष्ट आसव है उनके पास सृजनशीलता की तेज आंच पर पकाया हुआ | उस आसव का अपना स्वाद और अपना प्रभाव है | और इस अर्थ में नागरजी हिंदी के सर्वाधिक मौलिक लेखकों में अग्रणी हैं | उनका सृजन-शिल्प भी विशिष्ट है जिसके फैलाव में भी अपनी विशिष्ट अन्विति है | डा. रामविलास शर्मा नागरजी के मित्र और समालोचक दोनों रहे | नागरजी के लेखन के विस्तार-प्रसार को आंकते हुए, उनकी दो बहु-चर्चित  पुस्तकों ग़दर के फूलऔर ये कोठेवालियांके विषय में शर्माजी ने  लिखा है   नाटक, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र. इतिहास-विवेचन सब कुछ है ग़दर के फूलमें. किसी एक विधा का नाम लेना हो तो मैं कहूँगा रिपोर्ताज.... और गज़ब की पुस्तक है ये कोठेवालियां’ | इसके बाद शर्माजी लिखते हैं, ग़दर के फूलऔर ये कोठेवालियांके इतिहास-विवेचन वाले कुछ अंश निकाल दिए जाएँ तो कलात्मक यथार्थवादी लेखन में अमृतलाल नागर प्रेमचंद और निराला दोनों से आगे बढ़ते हुए दिखाई देंगे ” | 

 नागरजी जहां अलग-अलग उपन्यास अथवा विवेचनात्मक गद्य लिख रहे होते हैं, वहां तो प्रेमचंद और निराला वाली यह तुलना सही लगती है, पर ग़दर के फूलऔर ये कोठेवालियां’ – दोनों ही अपनी अलग विधा में रची गयी कृतियाँ हैं, जिनकी विधागत अन्विति उनकी संश्लिष्ट संरचना में निहित है | ‘इतिहास विवेचन वाले कुछ अंशों को निकाल करउन्हें कलात्मक यथार्थवादी उपन्यास की शकल में देखते हुए प्रेमचंद और निराला की औपन्यासिक कृतियों से तुलनीय या श्रेष्ठ कहना उचित नहीं लगता | इन दोनों पुस्तकों की रचना करते हुए नागरजी ने इनके लिए एक स्वतंत्र विधा एक नया सांचा ही तैयार किया | उन दोनों में जो कुछ है, जैसे प्रस्तुत हुआ है, उसमें काट-छांट संभव नहीं | नागरजी ने अपने सृजन कर्म में विधाओं के स्वरूपों को भी नए-नए ढंग से गढ़ा-संवारा है |

नागरजी ने अपनी कृतियों में जीवन और समाज को उसके सम्पूर्ण विस्तार और संश्लिष्ट वैविध्य में अंकित किया है | जैसा श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है नागरजी की निगाह बराबर जनजीवन पर रहती है | हर कहीं उनके कथानकों का प्रमुख पात्र यही जनजीवन है ” |  उनके रचना-संसार में समष्टि में ही व्यष्टि के दर्शन होते हैं | कथा और उपन्यास का उनका अनन्य शिल्प उनकी इसी प्रतिपत्ति से उपजा है | और इसी अर्थ में नागरजी की विशिष्ट औपन्यासिकता एक नयी दिशा, एक नए आयाम की खोज करती है जिसका आधार जन-संकुलता है | और इसी अर्थ में वे प्रेमचंद की परंपरा के सीमान्त को लांघते हैं | उन्होंने उस परंपरा को निश्चित रूप से विस्तारित और समृद्ध किया है | अपनी बहुरंगी भाषा और अपने संवाद-सौष्ठव से उन्होंने अपने औपन्यासिक शिल्प को और प्रखरता एवं प्रभविष्णुता दी है | लेकिन ग़दर के फूलकी ही तरह  ये कोठेवालियांमें उनके इस शिल्प में स्पष्ट विधागत परिवर्त्तन दिखाई देता है | रामविलासजी ने ठीक कहा है कि इन दोनों कृतियों के विशिष्ट शिल्प में रिपोर्ताज और उपन्यास के तत्त्व मिश्रित दिखाई देते हैं | लेकिन इस नवीन मिश्रण में ही उनकी सच्ची गुणवत्ता देखी जा सकती है | ये दोनों ही कृतियाँ उनकी औपन्यासिक जीवनियों – ‘मानस का हंसया खंजन नयन’ - की तरह अपने लिए एक अन्यतम शिल्प का अन्वेषण करती हैं



ये कोठेवालियांमें प्रारंभ से अंत तक पढ़ते जाने का खिंचाव यों ही एक-सां बना नहीं रहता | रचनाकार कथाक्रम में गुंथाव का घनत्व बनाये रखने में पूर्णतः सफल है, तभी उसके खिंचाव में कहीं ढील नहीं आती | नागरजी जो कुछ लिखते थे उसके पीछे उनकी पूरी तैयारी होती थी | उनका अधिकांश लेखन कच्चा माल के पूरी तरह जमा और तैयार हो जाने के बाद ही कागज़ पर उतरता था | इसके लिए बहुत पढना, जीवनानुभवों को ठीक से पचाना और उनकी तरतीब बना लेना, पहले ही  एक खाका तैयार कर लेना, और उस रचना-कर्म का एक विशिष्ट शिल्प भी तय कर लेना यह सब उनकी सृजनात्मक तैयारी के ज़रूरी कदम होते थे | इन सब के बाद ही उनकी सरस्वती अवतरित होती थीं अपनी वीणा लिए | 
    
ये कोठेवालियांमें यह सब तैयारी ध्यान देने पर स्पष्ट दिखाई देती है | उसमें विषय-वस्तु के सभी उपलब्ध सन्दर्भ-ग्रंथों का ज़िक्र भी बीच-बीच में होता चलता है. मित्रों से इस गंभीर विषय की चर्चाओं के प्रसंग भी कथाक्रम में आते चलते हैं | इस सारी तैयारी के विषय में नागरजी खुद प्रस्तावना में     लिखते हैं -

इस पुस्तक को लिखने से पहले इतने वर्षों में मैं वेश्यावृत्ति के सम्बन्ध में धीरे-धीरे करके कई किताबें पढ़ गया | पहले योजना बनायी थी कि शास्त्रीय ढंग की किताब लिखूंगा; बड़े-बड़े नोट्स बनाए, पर जब लिखने बैठा तो मेरे कलाकार ने मेरे शास्त्री को अपने से आगे न बढ़ने दिया ” |

अक्सर देखा जाता है कि लेखक द्वारा अपने रचनाकर्म की सफाई में कहे गए शब्द भी एक प्रकार का  छद्म प्रस्तुत करते हैं | शास्त्री और कलाकार जब रचनाकार के ही सिक्के के दो पहलू हों तब उनको बिलगा कर नहीं देखा जा सकता | ये कोठेवालियांमें भी ऐसा ही होता है | शास्त्री और कलाकार एक दूसरे से अभिन्न बन जाते हैं, और कहानी में भी हर जगह शामिल दीखते हैं | एक वाद्य यदि पार्श्वभूमि में संगत कर रहा होता है तो दूसरा अग्रभूमि में अधिक मुखर रूप में बज रहा होता है | यही ये कोठेवालियांका शिल्प-वैशिष्ठ्य है | विषय-वस्तु के शास्त्रीय विवेचन को कहानी के साथ इस तरह संपृक्त कर दिया गया है जिससे एक खास तरह का प्रभाव शुरू से अंत तक बना रहता है | इसका एक कारण शायद लेखक का स्वीकारोक्त संकोच-भाव भी है | वह विषय में पूरी तरह लिप्त होकर भी सचेष्ट निर्लिप्तता का निर्वाह करता रहता है क्योंकि तभी वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल होगा, ऐसी उसकी मान्यता है | वह कहानी में डूब कर नहीं चलना चाहता, कहानी के साथ-साथ चलना चाहता है | जैसे कहानी के एक ओर वह हो तो दूसरी ओर पाठक भी साथ-साथ चल रहा हो रचना के गंतव्य       की ओर |

ये कोठेवालियां  की प्रस्तावना में राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की इस विषय से सम्बद्ध चिंता का भी ज़िक्र है जिससे इस विषय पर लिखने की प्रेरणा नागरजी को १९५० में मिली | नागरजी के स्तर के साहित्यकार के लिए ऐसे विवादित विषय पर कलम उठाना एक बड़ी चुनौती थी और एक हिचकिचाहट का भाव भी उसमें अवश्य था | राजेन्द्र बाबू ने अपनी १९५२ की डायरी में भी एक जगह इस बात की स्पष्ट चर्चा की है | राज्यसभा की सदस्या, लखनऊ की ही श्रीमती सावित्री देवी २७ जून, १९५२ को राजेन्द्र बाबू से मिली थीं और पतिता स्त्रियों के सुधारके विषय में उनसे बातें की थीं | ऐसी स्त्रियों को इस पाप-जाल से  निकालना और विवाहित होकर समाज में एक सामान्य जीवन जीने की उनको स्वीकृति दिलाना लगभग एक असंभव कार्य ही था | सावित्रीजी ने इस दिशा में कुछ ठोस काम किया भी था | उनकी राय में ऐसी पाप-पंक में फंसी स्त्रियों को उससे निकालना ही काफी नहीं था, संभव हो तो उनका विवाह कराना और उनको किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण दिलाकर प्रतिष्ठापूर्वक अपनी आजीविका अर्जित करने योग्य बनाकर पुनर्वासित करना ही समस्या का अच्छा समाधान होता | राजेन्द्र बाबू ने लिखा है:

उन्होंने (सावित्रीजी ने) एक योजना तैयार की है जिसके अनुसार उनके लिए एक सेवासदन बनाया जाये और वहां उनको ऐसे उद्योग और धंधे सिखला दिए जाएँ जिसमे अपना गुज़ारा कर सकें, और जिनका कोई वर मिल सके उनके साथ उनकी शादी कर दें | इनकी बहुत इच्छा थी कि लखनऊ में जहां वह रहती हैं, इस तरह का सदन बनवाएं, और उन्होंने माननीय पंतजी से सहायता मांगी थी पर उन्होंने कहा कि इस प्रकार की संस्था गैर-सरकारी तौर पर कायम होनी चाहिए | मुझसे उन्होंने इस काम में प्रोत्साहन और सहायता मांगी और कहा कि इस सम्बन्ध के मेरे एक भाषण से उनको बहुत प्रोत्साहन मिला है ” |

बात लखनऊ की ही है इसलिए नागरजी इस सावित्री-निगम प्रसंग से बिलकुल अनवगत हों, इसकी संभावना कम लगती ह | आज़ादी के तुरत बाद समाज की इन विषमताओं की ओर प्रबुद्ध लोगों का ध्यान केन्द्रित होना सर्वथा स्वाभाविक था | यह एक अमानवीय, क्रूर, असभ्य सामाजिक व्यवस्था सदियों-सदियों से चली आ रही थी और देश-विदेश में लोगों ने इस समस्या का काफी अध्ययन किया था जिसका विवरण नागरजी ने दिया भी है | परन्तु इसके समाधान की दिशा में किसी ओर से समुचित ध्यान नहीं दिया गया था, और आज तो इस समस्या का स्वरुप ही पूरी तरह परिवर्तित हो गया है | समाधान के आयाम भी उसी अनुपात में बदल चुके हैं |
    
 वेश्यावृत्ति समाज की एक विकृति अवश्य है, लेकिन इसका अटूट सम्बन्ध समाज के यौन मनोविज्ञान से ही  जुडा हुआ ह | इसीलिए वेश्यावृत्ति को मानव-सभ्यता का सबसे पुराना पेशाभी कहा जाता है | एक दृष्टि से इसका विवेचन मनुष्य के यौन मनोविज्ञान के विवेचन का ही एक अविच्छिन्न पहलू है | प्रश्न इस प्रथा की समाप्ति का नहीं है | बड़ा प्रश्न नारी की काम-वस्तु के रूप में शाश्वत दासता का है, उसके निरंतर शोषण और उत्पीडन का है | इस दासता, इस शोषण, उत्पीडन से नारी के मुक्त होने का है | नारी-मुक्ति का सच्चा सवाल यही है कि मात्र भोग्या बनी रहने  की नियति से नारी की मुक्ति कैसे हो सकती है | हालांकि इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर न तो राष्ट्रपतिजी को मिल सका था और न नागरजी ने ही इस पुस्तक में दूर की इस कौड़ी को ढूँढ लाने का कोई दावा किया है | पुस्तक लिखने के पीछे उनका उद्देश्य भी शायद ऐसा नहीं था | अधिकतर तो ऐसा लगता है कि अपने पाठक के साथ-साथ चलते हुए नागरजी स्वयं इस समस्या के वर्त्तमान को उसके ऐतिहासिक और शास्त्रीय परिप्र्येक्ष में  पूरी तरह समझना चाहते हैं, क्योंकि समाधान से पूर्व समस्या का सम्यक आकलन आवश्यक है |

ये कोठेवालियांका प्रकाशन लगभग एक दशक की मानसिक तैयारी और सृजनात्मक श्रम के बाद - १९६० में हुआ था जब नागरजी का कला-वैभव अपने उत्कर्ष पर था | मेरा नागरजी के लेखन से परिचय ६० के दशक में इस पुस्तक से ही हुआ थ |. अपने पिता के पुस्तकालय में चकल्लसपत्रिका को देखकर पहली बार मैं नागरजी के नाम से परिचित हुआ था | और उन दिनों कॉलेज का विद्यार्थी होने के नातेये कोठेवालियां शीर्षक से उसके प्रति सहसा आकृष्ट हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था | एक सांस में मैंने पुस्तक को समाप्त किया था | लेकिन आधी सदी के फासले ने उसकी तस्वीर को मेरे मानस में एकदम धुंधला कर दिया था | इधर जब दुबारा उसको पढ़ा तब फिर उसका गहरा प्रभाव मन पर पड़ा और तब उसके कथा-सूत्र, शिल्प और संरचना की ओर ध्यान गया | जैसे रस्सी बटने में कई सूतों को औरतों की छोटी की तरह गूंथते हैं उसी तरह की संरचना ये कोठेवालियांमें मिली जो प्रतीकात्मक ढंग से सर्वथा विषयानुकूल प्रतीत हुई |

कथा-सूत्र नागरजी के जीवन के कुछ ऐसे प्रसंगों से शुरू होता है जो इस वेश्या-विषय की परिधि पर अंकित होते है | इनमें बम्बई-प्रवास के वे आत्म-संस्मरण हैं जहाँ नागरजी को  पहली बार बगल के कमरे में खानगी वेश्या-व्यापार का झकझोरने वाला अनुभव हुआ | वहीँ तुरत अचानक बद्रे मुनीर नामक एक वेश्या का एक चकलेघर में आकर सिफलिस से मरने का एक और सन्न कर देने वाला आँखों-देखा अति-यथार्थवादी लोमहर्षक प्रसंग चित्रित हुआ है आइये बाबू साहब! महबूबन तो मर गयी, अभी कोई घंटा, सवा-घंटा हुआ....कफ़न हटा कर दढ़ियल ने मुंह दिखलाया. मेरे मुंह से बेसाख्ता चीख निकल गयी...चेहरा भी अब पहचान न पड़ता था आधा दाहिना गाल , नीचे का आधा होंठ, ऊपर का पूरा होंठ, नाक के नक्सोरों तक तीन दिन में ही सडकर गायब हो चुका था...भयानक मुखाकृति देख कर मुझे चक्कर आने लगा...मैंने अपने जीवन में इससे अधिक भयंकर और कुछ नहीं देखा...” |

फिर सिनेमा की पटकथा की तरह कहानी बम्बई वालीलूलू की माँकी ओर लौट आती है | उसके बाद कुछ परिच्छेद समस्या के सामाजिक-ऐतिहासिक-शास्त्रीय परिप्रेक्ष की ओर मुड जाते हैं. फिर कई अगले परिच्छेदों मेंडेरेदार तवायफों से भेंट में गायिका-तवायफों नसीमआरा , शमीमबानो, हसीना, दिलरुबा आदि की कहानियां आती हैं.  ये सब बजाप्ता एक पत्रकार की तरह लिए गए इंटरव्यू हैं. और  इन्हीं में आती है नाजनीन - उम्र २८-३०, रंग सांवला, छरहरा बदन, नाक-नक्शा न ख़ास अच्छा, न ख़ास बुरा...बाराबंकी के गाँव काटी से निकली, अपनी फूफी के साथ लखनऊ आई | नाचने से ज्यादा गाने की ओर रुझान रहा | कभी-कभी मकान जाती है | काटी में कुछ ज़मीन है | वहीँ दो भाई हैं - एक शादीशुदा है | नागरजी पूछते हैं, वहां भाई-बेटों की जो शादीशुदा औरतें होती हैं वो मकान में साथ ही रहती हैं? जवाब मिलता है जी हाँ, मकान तो एक ही होता है, मगर पार्टीशन होता है हमारा हिस्सा बाज़ार होता है और उनका हिस्सा घर होता है |

घर और बाज़ार का यह पार्टीशन ही इस सारी कहानी का निचोड़ है | यही हमारे समाज का दुहरा चेहरा है | घर और बाज़ार यहाँ बिलकुल एक साथ होते हैं | बीच में केवल एक पतली-सी शर्मो-हया की दीवार होती है, बस |ये कोठेवालियांइसी कड़वे सामाजिक सच को उजागर करनेवाली किताब है जिसका असली मकसद इस उलझे सवाल पर रोशनी डालना है, इसका हल ढूँढना नहीं | यह सवाल भी जीवन के और बहुत सारे सवालों की तरह शायद कभी हल नहीं होने वाला एक बड़ा सवाल है |
   .    
ये कोठेवालियांहिंदी साहित्य की एक अनमोल कृति है | उसमे आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और विनिबंध के उपकरणों का संश्लिष्ट प्रयोग करते हुए नागरजी ने एक अविस्मरणीय कृति की रचना की है | उसकी पूरी गुणवत्ता उसकी सम्पूर्णता में है, उसके शिल्प की प्रभावी नवीनता में है | जो मिला-जुला गैर-तरतीबी, ढीला-ढाला-सा लगता है वही उसकी विषय-वस्तु के सर्वथा उपयुक्त उसका अभिनव स्वरुप है | एक तरह से देखें तो उसका बाहरी बिखराव उस वर्ग-विशेष की जीवन-शैली के बिखराव, उसकी विषमताओं के समान्तर दिखाई पड़ता है | यह एक ऐसी कहानी है जिसको पूरी तरह बयां करने का एक यही तरीका हो सकता था | इसका विद्रूप ही इसका असली रूप है | इस कथानक का सारा प्रभाव इसके इसी कथन-शैली में निहित है | यह एक ऐसा बाज़ार है जिसमे जितनी रौशनी है उतना ही अँधेरा भी है. जितनी चमक है उतनी ही उदासी भी है. जितना घर है उतना ही बाज़ार भी है |

‘ये कोठेवालियां’ के रचयिता नागरजी से मिलने का मेरा संयोग भी अचानक सिद्ध हुआ | मैं शायद १९८४ में उनकी चौक वाली पुरानी हवेली में जाकर उनसे मिला था | कुछ ही घंटो के लिए शायद पहली बार एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए मैं लखनऊ आया था | लेकिन मेरा असली मकसद नागरजी का दर्शन करना ही था | अपरान्ह में मैं चौक पहुंचा और स्थान-निर्देश के अनुसार एक पानवाले से उनका पता पूछा | बड़े उल्लास से उसने मुझे बताया अरे, गुरूजी इसी सामने वाली गली में तो रहते हैं | एक बड़े से पुराने भारी-भरकम दरवाज़े की कुण्डी मैंने बजाई | कुछ देर बाद एक महिला ने दरवाज़ा खोला | मैंने अपना परिचय दिया और एक लम्बा आंगन, जिसके बीच में पेड़-पौधे लगे थे, पारकर एक बड़े-से कमरे में दाखिल हुआ | देखा नागरजी एक सफेद तहमद लपेटे खुले बदन बिस्तर पर पेट के बल लेटे लिखने में मशगूल थे | मैंने अपना परिचय दिया तो मोटे चश्मे से मुझे देखते हुए उठे और मुझे बाँहों में घेरते हुए कुछ देर मेरा माथा सूंघते रह |. अभिभूत मेरी आंखे भींग गयीं | फिर मुझे अपने पास बिस्तर पर बिठाया और पुरानी स्मृतियों का एक सैलाब जैसा उमड़ने लगा | मुझे लगा जैसे मेरे पिता भी वहीँ उपस्थित हों | मैं देर तक उनके संस्मरण सुनता रहा, और बीच-बीच में अपनी बात भी उनसे कहता रहा | 

मैंने देखा मेरे पिता के संस्मरण सुनाते-सुनाते उनकी ऑंखें भी भर-भर आती थीं | मैंने यह भी देखा कि उस कमरे की एक ओर अंधेरी दीवार पर मिटटी की न जाने छोटी-बड़ी कितनी सारी मूरतें एक तरतीब से सजी थीं जिनमे मेरी आँखें उलझी ही रही पूरे वक्त | मैं नागरजी की बातें सुनता रहा उन माटी की मूरतों के अश्रव्य संगीत की पार्श्वभूमि  में | मुझे लगा वहां कुछ समय के लिए अतीत जैसे हमारे पास आकर बैठ गया हो और एक ऐसा प्रसंग बन गया हो जहाँ कथा, कथाकार, श्रोता, कृतियाँ और संगीत सब एक मधुर झाले की तरह बजने लगे हों | मेरी यह तन्द्रा तब भंग हुई जब किसीने चाय लाकर रखी | नागर-दर्शन की वह दुपहरी मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय प्रसंग है | नागरजी का वह स्नेहपाश, उनके वे संस्मरण जो हिंदी साहित्य के एक युग को जीवंत बना रहे थे, उनकी आर्द्र आँखें, अँधेरी दीवाल पर रखी माटी की वे मूरतें जो उनके कथा-संसार का एक मूर्त-नाट्य प्रस्तुत कर रही थीं सबने मेरे मानस-पटल पर एक ऐसी छाप छोड़ दी जो अब अमिट हो गई है |

आज जब हिंदी के उस महान साहित्यकार का जन्मशती वर्ष आ गया है, और जीवन के अंतिम चरण में  मैं लखनऊ में ही रहने लगा हूँ,  उनके विशाल रचना-सागर को अपलक देखते हुए मुझे लगता है उनके साथ मेरा रिश्ता वही है जो बूँद का समुद्र के साथ होता है |

 आलेख/ चित्र :  (C) मंगलमूर्त्ति                                      

मो. ७७५२९२२९३८ ईमेल- bsmmurty@gmail.com                           

  पुलिस सेवा की अंतर्कथा : ‘मैडम सर’ आत्मकथा और आत्म-संस्मरण में एक अंतर यह हो सकता है कि आत्मकथा में जहां एक प्रकार की पूर्णता का भाव...