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Monday, November 26, 2018


जगदीशचन्द्र माथुर : कुछ स्मृतियाँ

मंगलमूर्त्ति 
                                          


नाटक मूलतः दृश्य-विधा है | साहित्य-लेखन की अन्य सभी विधाओं – कविता,कहानी, उपन्यास आदि - से नाटक अपने प्रदर्शन-पक्ष की प्रधानता के कारण एक अनन्य एवं भिन्न प्रकार की संश्लिष्टता से मंडित विधा   है | रंगमंच इसका अभिन्न अंग है, जिसके बिना अपने लिखित और पठित रूप में यह कला का एक अपूर्ण रूपक बना रह जाता है | कविता, कहानी, उपन्यास आदि में भी उनके वाचित रूप में उनमें प्रभविष्णुता का एक अतिरिक्त सृजन संभव होता है, लेकिन नाटक में वह वाचित रूप एक जटिल संश्लिष्टता धारण करते हुए ही  – मंच, अभिनेता और उपस्कर जिसके अनिवार्य तत्त्व होते हैं – प्रभावोत्पादन की अपनी पूर्णता प्राप्त कर पाता है | शब्द का महत्त्व और उसका अर्थ-निक्षेपण साहित्य की अन्य लिखित विधाओं की तुलना में नाटक में उसके सजीव रंगमंचन से बहुगुणित हो जाता है | निश्चय ही नाटक में महत्तम सम्प्रेषण की जैसी शक्ति होती है – और श्रोता/दर्शक वर्ग के मिश्रित किन्तु एकान्वित समूह पर उसका जैसा प्रभाव हो सकता है, वैसा अन्य  विधाओं में संभव नहीं हो पाता |

 ग्रीक, रोमन अथवा यूरोपीय पुनर्जागरण काल के नाटक या प्राचीन काल के संस्कृत नाटकों को इसी कारण जो लोकप्रियता प्राप्त थी उससे कविता या कहानी की प्रतिस्पर्धा संभव नहीं थी | और इसीलिए जब कोई रचनाकार प्रथमतः ही अपने लेखन के लिए नाटक की विधा का चुनाव करता है, तो स्पष्टतः वह साहित्य की इस कठिन विधा की असीम सम्भावनाओं से आकृष्ट होकर ही ऐसा करता है | सामान्यतः तो नाटक की विधा का चुनाव करने वाला रचनाकार साहित्य की अन्य विधाओं का वरण ही नहीं करता, और न उन विधाओं में वह उत्कर्ष प्राप्त कर पाता है | हिंदी में नाटक की विधा का विकास भी उस ऊंचाई को नहीं छू सका जैसा यूरोप की भाषाओं में देखा जाता है, जिसका एक बड़ा कारण रहा हिंदी में रंगमंच का अविकसित, आकारहीन स्वरुप का एक लम्बा दौर | यूरोप में रंगमंच किसी-न-किसी रूप में  सदा नाटक के प्रादुर्भाव के पूर्व से ही उपस्थित रहा था |  लेकिन हमारे यहाँ स्थिति बराबर कुछ उलट ही रही – नाटक को सदा उपयुक्त रंगमंच की तलब बनी रही, और आज भी यह स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती |

इसी पृष्ठभूमि में हम एक ऐसे रचनाकार को साहित्य के नाट्य-मंच पर सहसा प्रवेश करते देखते हैं, जिसका आना क्षण-भर के लिए अप्रत्याशित और विस्मयकारी लगता है | स्वतन्त्रतापूर्व इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ने वाला एक २२ वर्षीय युवक वहां के नाट्य-मंच पर एक अभिनेता के रूप में प्रवेश करता है, जैसे यह घोषणा कर रहा हो कि उसने अपनी रचनाशीलता के लिए सोच-समझकर ही इस विधा का चुनाव किया  है | विश्वविद्यालय से निकल कर वह युवक  उस समय की सबसे ऊंची ओहदेदार आई.सी.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, और पदस्थापन के क्रम में बिहार पहुंचता है | ऐसे ही एक प्रतिभावान, संभावनाशील युवक थे  – जगदीश चन्द्र माथुर, जिन्होंने अपनी सृजन-यात्रा में हिंदी को न केवल कुछ अत्यंत सफल नाटक दिए, वरन हिंदी रंगमंच और लोक-नाटक के पुनरुत्थान का एक पूरा विधान ही प्रस्तुत कर दिया |

अंग्रेजों के समय की प्रशासनिक सेवा में शुरू में जगदीश चन्द्र माथुर बिहार के वर्त्तमान वैशाली जिले में पदस्थापित हुए , और वहां की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के उन्नयन में उन्होंने अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया | उन्होंने ही वहां ‘वैशाली संघ’ की स्थापना की, और वैशाली की  उस गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा को पुनर्परिभाषित करने को वे कटिबद्ध हो गए | संघ के लिए एक ‘वैशाली स्मारक ग्रन्थ’ प्रकाशित करने  की योजना के अंतर्गत उन्होंने हिंदी साहित्य के ख्यात आचार्य शिवपूजन सहाय को एक पत्र (३१.५.४७) लिखा– “श्रद्धेय शिवपूजन जी | वैशाली संघ की ओर से आपको एक कष्ट देना है |” ( शिवपूजन सहाय की साहित्यिक ख्याति से वे पूर्व-परिचित थे, क्योंकि एक उच्च पदाधिकारी होते हुए भी वे मूलतः साहित्य-धर्मी थे | उनको उस ग्रन्थ के लिए “कलकत्ते के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. ओ.सी.गांगुली का लेख – वैशाली की महत्ता” प्राप्त हुआ था, “जिसे उन्होंने अपनी निराली हिंदी में लिखा है, किन्तु उसका निरालापन हिंदी पाठकों के लिए शायद असह्य हो | लेख की भाषा को परिमार्जित करने के लिए आप ही का सहारा लेना है |... कष्ट के लिए क्षमा |”  माथुर साहब का अनुरोध था कि शिवपूजन सहाय उस लेख की अनगढ़  भाषा का संशोधन कर दें | शिवपूजन सहाय के लिए – जब अभी वे राजेन्द्र कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे  – यह एक सर्वथा प्रत्याशित हिंदी-सेवा-कार्य ही था, जिसे वे कभी अस्वीकार नहीं करते थे | (हालांकि इस अनिच्छित कार्य से उनको अपने स्वाध्याय और लेखन-कर्म में बराबर बाधा पहुंचती रहती थी और इसीलिए वे बहुधा अपनी डायरी में अपनी यह  व्यथा टांकते रहते थे | एक अन्य प्रसंग में आगे कहीं उन्होंने लिखा था  – “क्या इश्वर की इच्छा है कि मैं दूसरों की लिखी चीजें जांचता रहूँ – खुद कुछ न लिखूं?”)|  लेकिन यह शिवपूजन सहाय का एक समर्पित संस्कृति-कर्मी प्रशासनिक अधिकारी जगदीश चन्द्र माथुर से पहला संपर्क था, और वे इस कार्य का विशेष महत्त्व समझ रहे थे | कालान्तर में जगदीश चन्द्र माथुर से उनका यह पहला संपर्क  घनिष्ठता  में परिवर्त्तित हो गया |

 कुछ ही समय बाद जगदीश चन्द्र माथुर पटना में शिक्षा-सचिव होकर पटना आ गए | उनकी सांस्कृतिक योजनाओं में बिहार में एक साहित्यिक संस्था – बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् - की स्थापना भी थी, जिस पर बिहार के शिक्षा-मंत्री आचार्य बदरी नाथ वर्मा के प्रोत्साहन से गंभीरतापूर्वक विचार हो रहा था | बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के लिए शिवजी का नाम संभावितों की सूची में रखा गया था | शिवजी तब राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्राध्यापक थे |उन्होंने अपनी डायरी में लिखा (१२-१३.१२.४९) – “आज ही पहले-पहल सरकारी पत्र मिला कि राष्ट्रभाषा परिषद् का मंत्री मैं चुना गया हूँ | बिहार सरकार की ओर से राष्ट्रभाषा परिषद् का मंत्री बिहार में साहित्य समृद्धि के लिए नियुक्त होगा |जगदीश चन्द्र माथुर ने कल पटना सेक्रेटेरिएट में बुलाया भी है | आज रात में जाना होगा |”

शिवपूजन सहाय की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के मंत्री पद पर नियुक्ति की यह कथा बहुत-से उलझनों से भरी है | इस नियुक्ति को लेकर उस समय  कुछ राजनीतिक हस्तक्षेप और कुछ अप्रिय विवाद भी हुआ था जिसकी चर्चा तब के स्थानीय अखबारों में हुई थी, लेकिन यहाँ  उस निरर्थक प्रसंग के विस्तार में जाना अनावश्यक है | शिवजी ने अपनी डायरी में यह अवश्य लिखा(१४.१२.४९) – “ मुझे राष्ट्र भाषा परिषद् का सेक्रेटरी बिहार सरकार बनाना चाहती है | श्री माथुरजी से बात हुई तो मैंने स्पष्ट कहा कि मुझे वेतन के रुपयों की चिंता नहीं है; क्योंकि उतने रुपये मैं लिख-पढ़ कर घर बैठे भी कमा सकता हूँ, पर चिंता इतनी ही है कि साहित्य-सेवा सर्वोत्तम रीति से हो, सदग्रंथ सर्वांग सुन्दर निकलें |”

दिसंबर-अंत में शिवजी राजेन्द्र कॉलेज, छपरा से लम्बी छुट्टी लेकर पटना चले आये | उन्होंने अपने परिवार को गाँव  भेज दियाऔर केवल मुझको अपने साथ लेकर पटना आए | बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन में ही वे एक कमरे में रहने लगे | माथुर साहब से हर दिन-दो दिन पर सेक्रेटेरिएट जाकर उनका मिलना होता था | वहां बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की पूरी रूपरेखा तैयार होने लगी | शिवजी पूरी योजना बना कर ले जाते थे और शिक्षा-विभाग में उस पर विचार-विमर्श होता था और तदनुसार सरकारी कार्रवाई होती थी | शिवजी ने जुलाई में कॉलेज को अपना त्यागपत्र भेज दिया और परिषद्-मंत्री-पद पर नियुक्त हो गए | इस बीच माथुर साहब से मिलने और विचार-विमर्श का सिलसिला भी लगातार चलता रहा था, जिसके विवरण शिवजी की डायरी में बराबर अंकित होते रहे | परिषद् कार्यालय भी तब तक अंततः सम्मलेन-भवन में ही अवस्थित हो गया था | शिवजी की ’५० से ’५५ की  डायरी में माथुर साहब से सम्बद्ध कुछ उल्लेख यहाँ  उद्धरणीय हैं –

“माथुर साहब साहित्यिक अफसर हैं, अत्यंत सहृदय | प्रतिभाशाली और तेजस्वी पुरुष हैं, विनयशील भी |...शिक्षा-मंत्री आचार्य बदरीनाथ वर्मा और माथुर साहब को मैंने राष्ट्र-भाषा की समुन्नति के लिए ‘परिषद्’ की विस्तृत योजना दिखाई और उन लोगों ने परिषद् की विद्वतसभा के सदस्यों की सूची            दी |....माथुर साहब ने बड़ी दिलचस्पी दिखाई | उन्हीं के प्रस्ताव से सब कामों के लिए अलग-अलग कमिटी बनाने का निश्चय हुआ |....” (१० जन.-८ अक्तू.’५०)

“शिक्षा-सचिव माथुर साहब के साथ दो घंटे तक परामर्श होता रहा | सहृदय साहित्यिक व्यक्ति हैं | कलात्मक और सांस्कृतिक सुरुचि है | सूझ-बूझ बड़ी बांकी है | परिषद् के तो प्राण ही हैं |....मैंने जो योजना बना कर दी थी, जिसमें अहिन्दी-भाषा-भाषी सरकारी अफसरों को हिंदी सिखाने के नियम और तरीके हैं तथा पाठ्य-ग्रन्थ और प्रश्नादि हैं | मेरी योजना को शिक्षा-सचिव ने पसंद किया और कुछ आवश्यक परिवर्त्तन के सुझाव भी दिए |.... आज सम्मलेन में ‘कला और कलाकार’ संस्था की ओर से अभिनीत श्री माथुर साहब का एकांकी नाटक ‘कलिंग-विजय’ देखा |....” (१४मार्च -२९ सितं, ’५१)

“श्री माथुर साहब बड़े सहृदय व्यक्ति हैं | आई.सी.एस. अफसरों में वही एकमात्र हिंदी-प्रेमी हैं | हिंदी-लेखक भी हैं | सफल नाटककार हैं | साहित्यिकों का समादर भी करते   हैं | उन्होंने शिक्षा-विभाग में कई नई योजनाएं कार्यान्वित करके उन्हें सफल बनाया है |... माथुर साहब के बदलने की अफवाह अगर ठीक निकली तो परिषद् का अपकार ही होगा | माथुर साहब के सामान शिक्षा-सचिव शायद ही कोई हो |....” (२७ फर.’५२) |

लेकिन माथुर साहब १९५५ तक बिहार में शिक्षा-सचिव रहे, और उसी वर्ष आल इंडिया रेडियो के महानिदेशक होकर दिल्ली चले गए | बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के इन प्राथमिक पांच वर्षों में शिवजी को माथुर साहब का पूरा समर्थन मिला, और अपनी गंभीर अस्वस्थता की स्थिति में भी शिवजी को पूरा सरकारी सहयोग मिलता रहा |  और इस सहयोग-भावना का ही परिणाम था कि शिवजी के निर्देशन में  परिषद् में अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक योजनाओं पर काम होता रहा, कई महत्त्वपूर्ण भाषण-मालाएं आयोजित हुईं, बहुत-से शोधोपयोगी ग्रन्थ प्रकाशित हुए जिनमें –‘हिंदी साहित्य का आदि-काल’(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), ‘योरोपीय दर्शन’(पं.रामावतार शर्मा,१९५२), ‘हर्ष-चरित’(डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, १९५३), ‘बौद्ध-धर्म दर्शन’ (आचार्य नरेंद्र देव), ‘मध्य-एशिया का इतिहास’ और ‘दोहा-कोश  सरहपाद’(पं. राहुल सांकृत्यायन, १९५६-५७), जैसे मानक ग्रंथों का प्रकाशन विशेष उल्लेखनीय है | इन सब के साथ ही कई और मौलिक शोध-कार्यक्रम – जैसे आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के निर्देशन में बिहार-भर से हस्तलिखित पांडुलिपियों का संग्रह और साथ ही एक समृद्ध शोधोपयोगी पुस्तकालय का संस्थापन, आदि कार्य चलते रहे | और इन सबके पीछे प्रच्छन्न रूप से शिक्षा-सचिव जगदीश चन्द्र माथुर का विभागीय सहयोग शिवपूजन सहाय के साथ बराबर बना रहा | यहाँ तक कि इस अवधि में गंभीर रूप से रोग-ग्रस्त रहने पर भी शिवजी को छुट्टी और आर्थिक सहायता का सहयोग सरकार से मिलता रहा और  परिषद् ने उनकी ‘रचनावली’ के प्रकाशन की योजना को स्वीकृत कर उनको बीमारी में ‘रचनावली’ के लिए अग्रिम रॉयल्टी-राशि उपलब्ध करा दी | इसी अर्थ में परिषद् के कार्य-कलाप में जो श्रेय शिवपूजन सहाय को मिला उसमें जगदीश चन्द्र माथुर के सहयोग का बहुत बड़ा योगदान   था |

इसी अवधि से सम्बद्ध दो और उल्लेखनीय प्रसंग हैं जिनसे अपने व्यक्तित्त्व में कई प्रकार की भिन्नता लिए हुए भी इन दो साहित्य-पुरुषों के परस्पर सौहार्द और आत्मीयता का आभास मिलता है | पहले का सम्बन्ध  है माथुर साहब की सर्वोत्कृष्ट कृति, उनके नाटक ‘कोणार्क’ से, जो पहले पटना से सद्यः प्रकाशित साहित्य-पत्रिका ‘नई धारा’ के प्रारम्भिक कुछ अंकों में क्रमशः प्रकाशित हुई थी, और फिर अंततः पुस्तकाकार भी  प्रकाशित हुई | यह एक संयोग था कि परिषद् के एक ही वार्षिकोत्सव (१९५५) में फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के आंचलिक उपन्यास ‘मैला आँचल’ और जगदीश चन्द्र माथुर के ऐतिहासिक नाटक ‘कोणार्क’ को परिषद् का नवोदित साहित्यकार पुरस्कार प्राप्त हुआ था | मैंने उस अवसर के कुछ चित्र खींचे थे जिनमें विशिष्ट अतिथि तत्कालीन कांग्रेस-अध्यक्ष ऊ.न. ढेबर से माथुर साहब और ‘रेणु’ जी के पुरस्कार-प्राप्ति के भी चित्र हैं |

उन दिनों ‘नई धारा’ के प्रारम्भिक वर्षों में माथुर साहब की कई रचनाएँ – उनकी डायरी, उनका नाट्यालोचन, उनका एक और नाटक ‘घोंसला’ - उसमें प्रकाशित हुई थीं | शिवपूजन सहाय ने उनके विषय में बहुत ठीक लिखा था कि “श्री माथुर साहब बड़े सहृदय व्यक्ति हैं | आई.सी.एस. अफसरों में वही एकमात्र हिंदी-प्रेमी हैं | हिंदी-लेखक भी हैं | सफल नाटककार हैं | साहित्यिकों का समादर भी करते   हैं |” ‘समादर’ की इस अभ्यर्थना की पृष्ठभूमि में शिवजी का उन्हीं दिनों वहीँ के एक अन्य आई.सी.एस. अधिकारी के उनके प्रति हुए अवमाननापूर्ण व्यवहार की प्रच्छन्न ध्वनि गुंजित है | माथुर साहब का उच्चाधिकारी पक्ष उनके साहित्य-संस्कृति प्रेम-पक्ष  के सम्मुख सदा गौण रहा, इसका मुझको स्वयं भी अनुभव हुआ, जब कुछ वर्षों बाद  मुझे उनसे मिलने का एक अवसर मिला |
माथुर साहब से जुड़े एक अत्यंत मनोरंजक प्रसंग की चर्चा शिवजी की २५ मार्च, १९५३ की डायरी में अंकित है जो पटना कॉलेज के एक साहित्यिक समारोह से सम्बद्ध है | शिवजी लिखते हैं – “पटना कॉलेज की हिंदी-साहित्य-परिषद् के साहित्यिक सप्ताह का उदघाटन करने के लिए हिंदी विभागाध्यक्ष डा. विश्वनाथ प्रसाद ने श्री महेश प्रसाद सिंह, यातायात-मंत्री से अनुरोध करते हुए कहा कि परिषद् का घूंघट खोलिए ! महेश बाबू ने मज़ाक में कहा कि मुझ जैसे बूढ़े को घूंघट खोलने का काम न सौंप कर किसी नौजवान को ही यह काम सौंपना चाहिए था | तब फिर, शिक्षा-सचिव श्री जगदीश चन्द्र माथुर ने सभापति-पद से बोलते हुए कहा कि घूंघट खोलने की रस्म के बाद का काम मुझ नौजवान को सौंपा गया है, तदर्थ धन्यवाद! अट्टहास!!!”

कैसे सौहार्दपूर्ण हास्य-व्यंग्य के दिन थे वे ! माथुर साहब के समय में परिषद् में बीते शिवजी के वे पांच वर्ष उनके लिए विशेष सौहार्द और सहूलियत के दिन थे, यद्यपि अपनी डायरी में जगह-जगह उन्होंने परिषद् संचालक मंडल के अपने साहित्यिक मित्र सदस्यों के प्रति निराशा और अमर्ष का भाव भी व्यक्त किया है जिससे परिषद की महत्त्वपूर्ण योजनाओं में पदे-पदे बाधा भी उत्पन्न होती रहती थी | लेकिन जब तक माथुर साहब रहे, ये बाधाएं टलती रही थीं |
माथुर साहब के १९५५ में दिल्ली चले जाने के बाद परिषद् के प्रति सरकारी सहयोग की स्थिति भी  बिलकुल विपरीत हो गयी | बिहार सरकार ने शिवपूजन सहाय को सितम्बर, १९५९ में इकरारनामे की शर्त्तों के खिलाफ समय से पूर्व सेवा-निवृत्त कर दिया जिससे वे पेंशन से वंचित हो गए, और उनके अंतिम वर्ष बहुत अभाव और कष्ट में बीते |  माथुर साहब होते तो ऐसा शायद कभी नहीं हो पाता | शिवजी ने इस अन्यायपूर्ण सेवा-निवृत्ति का  कोई प्रतिरोध भी नहीं किया और कार्य-भार तुरत त्याग दिया | माथुर साहब को जब ज्ञात हुआ तब उन्होंने शिवजी को पत्र लिखा (२१.९.५९) : “आदरणीय शिवपूजन जी | आपके १ सितम्बर के पत्र से ज्ञात हुआ कि बिलकुल वीतराग होकर आपने परिषद् के मंत्रित्व से मुक्ति पा ली | जब तक भार को आपने संभाला तब तक दत्तचित्त होकर उसमें लवलीन रहे | जब बिना पूर्व-सूचना के कार्य-मुक्त होने का अवसर आया तब बिना शिकायत-शिकवे के आप उससे अलग भी हो गए | ऐसा व्यवहार आप ही के योग्य है | फिर भी मुझे आशा है कि आप के प्रति परिषद् का जो कर्त्तव्य है उससे परिषद् के सदस्य विमुख न होंगे |’बिहार का साहित्यिक इतिहास’ का अनुष्ठान अवश्य पूरा करें | थोड़े दिन निश्चिंत होकर विश्राम करें | मेरी राय है कि कुछ दिनों के लिए दिल्ली आकर भी रहें; स्थान-परिवर्त्तन से अवश्य कुछ लाभ होगा |”

शिवपूजन सहाय की अवैधानिक सेवा-निवृत्ति और उनके जीवन के अंतिम ३-४ वर्षों की करुण व्यथा-कथा की चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं होगी | लेकिन १९५९ के ही अक्टूबर-अंत में  वे ‘आकाशवाणी’ की परामर्श-दात्री समिति की बैठक में भाग लेने वहां गए | उनका स्वास्थ्य चिंतनीय था इस लिए मैं भी उनके साथ वहां   गया | माथुर साहब तब वहां ‘आकाशवाणी’ (जो उन्हीं का दिया हुआ नाम था) के महानिदेशक थे, और समिति में शिवजी को उन्होंने ही मनोनीत किया था | दिल्ली-सचिवालय के एक प्रशस्त कक्ष में बैठक हो रही थी | ‘बच्चन’जी, डा. नगेन्द्र, डा. राम कुमार वर्मा, श्री रामचंद्र टंडन आदि अन्य सदस्य थे | श्री  बी.वी.केस्कर (संचार-मंत्री) अध्यक्षता कर रहे थे | माथुर साहब ने उन दिनों हिंदी के कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों को ‘आकाशवाणी’ से जोड़ा था | वे सरकार की नीतियों में जैसे हिंदी-हितैषणा के पर्याय ही   बन गए थे |

अगली सुबह शिवजी अपने जामाता श्री वीरेंद्र नारायण और मेरे साथ माथुर साहब से मिलने १२, लिटन लेन, उनके सरकारी आवास पर गए |वह  ‘आकाशवाणी’ के महानिदेशक का आवास था, पर वहां मैंने कहीं कोई ताम-झाम नहीं देखा | बंगले के बाहर और भीतर, फुलवारी से बैठक तक, हर जगह सादगी और सरलता | माथुर साहब स्वागत के लिए बाहर आये तो उनके पहनावे में भी वही सादगी और सरलता – मलमल का कुरता-पाजामा, पैरों में साधारण चप्पल और आँखों पर वही पतले फ्रेम का चश्मा | चहरे पर भी वही सौहार्द वाली सुपरिचित मुस्कराहट ! यह पहला दिन था जब मैंने माथुर साहब के चरण-स्पर्श किये थे | निकट से उनसे मिलने का यह मेरा पहला अवसर था | मैं एम.ए. कर चुका था पर नौकरी अभी शुरू नहीं की थी |

माथुर साहब, बाबूजी और वीरेंद्रजी की यह अन्तरंग बातचीत लगभग एक घंटे चली | माथुर साहब एक प्लेट में सेव के टुकडे छील कर रख रहे थे और बातचीत भी चल रही थी | लेकिन उस बातचीत का बस एक टुकड़ा मेरी स्मृति में रह गया है | इस बीच बातचीत हिंदी गद्य पर मुड गई थी और चलते-चलते राजा राधिकारमण की गद्य शैली पर जा पहुंची थी | मैंने राजा साहब की कृतियां पढ़ी थीं और उनकी शैली के पेंचो-ख़म से वाकिफ था | माथुर साहब ने कहा – “राजा साहब के लम्बे उपन्यासों का साहित्यिक मूल्यांकन तो समालोचकों का क्षेत्र है, किन्तु उनके प्रशंसकों के लिए उनकी गद्य-छटा अपने-आप में अलबेली है | राजा साहब के सम्पूर्ण साहित्य से उनके रेशमी ताने-बाने में बुने गद्यांशों का एक संकलन प्रकाशित होना चाहिए जिसमें राजा साहब की सर्वथा मौलिक गद्य-शैली का वैविध्य अपनी सम्पूर्णता में प्रतिबिंबित हो |” माथुर साहब ने अंग्रेजी में एम.ए. किया था और गद्य-लेखन के  सूक्ष्म तत्त्वों से वे भली-भाँति परिचित थे | उनका अपना गद्य भी ‘दस तस्वीरें’ अथवा उनके नाटकों में राजा साहब के पेंचो-ख़म वाले गद्य से भिन्न है, किन्तु अत्यंत सुष्ठु और प्रगल्भ गद्य ही है, विशेषतः उनके नाटकों में | स्पष्ट था कि वे शिवजी के गद्य जिसमें अलंकारिकता और सादगी के अलग-अलग  अनेक रंग थे, उसके भी प्रशंसक थे | मेरे पिता के निधन पर प्रकाशित ‘नई धारा’ के स्मृति-विशेषांक में अपने सुन्दर संस्मरण में उनका हिंदी-अंग्रेजी के मुहावरों से सजा हुआ गद्य इसका एक नमूना है : “अंग्रेजी की कहावत के अनुसार, कुछ लोग चांदी का चम्मच मुख में लिए पैदा होते हैं | पर, कुछ ऐसे भी हैं, जिनके शिशु-मस्तक पर ही श्रम-कण का मुकुट जड़ा होता है | वही मुकुट लिए शिवपूजन जी अवतरित हुए, उसे लिए ही चले गए |” माथुर साहब का वह संस्मरण अब मेरे द्वारा संपादित संग्रह ‘हिंदी-भूषण शिवपूजन सहाय में पढ़ा जा सकता है |

बाबूजी के निधन के पश्चात मैंने उनके संग्रहालय एवं साहित्य के संरक्षण-प्रकाशन के विषय में माथुर साहब को एक लम्बा पत्र लिखा | तब वे एक बार फिर तिरहुत कमिश्नर बन कर मुजफ्फरपुर (बिहार) आ गए थे | वहीँ से उनका उत्तर आया (१२  जुलाई, १९६३) – “ प्रिय मंगलमूर्तिजी | आपका २६ जून का पत्र मिला | श्री शिवपूजन सहाय जी के देहावसान के कुछ समय पश्चात मैंने बिहार के शिक्षा-मंत्री श्री सत्येन्द्र नारायण सिंह जी को एक पत्र भेजा था, उस पत्र की एक प्रतिलिपि साथ में भेज रहा हूँ | मुझे मालूम नहीं कि इस विषय में क्या कार्रवाई की गयी है | फिर भी,  मैं उन प्रस्तावों के विषय में आपकी प्रतिक्रिया जानना  चाहूंगा |”

सत्येन्द्र बाबू वाला मूल पत्र (५ मार्च, १९६३) अंग्रेजी में था जिसमें माथुर साहब ने सत्येन्द्र बाबू को लिखा था : “पिछले दिनों हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन में श्री शिवपूजन सहाय की शोक-सभा में आपने उस महान  साहित्य-सेवी के सम्मान में उचित स्मारक के निर्माण के सम्बन्ध में मुझसे कृपा पूर्वक सुझाव मांगे थे | मैंने इस पर विचार किया है और निम्नांकित प्रस्ताव निवेदित हैं |” यह एक लम्बा पत्र था जिसमें शिवजी की स्मृति में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् में एक ‘शिवपूजन सहाय साहित्यिक संग्रहालय’ स्थापित करने का प्रस्ताव था जिसमें उनका सारा बहुमूल्य साहित्यिक संग्रह संरक्षित हो सके | “यह संग्रहालय एक प्रकार से बिहार में एक बृहत् साहित्यिक संग्रहालय का मूलाधार सिद्ध हो सकेगा जो सारे देश के लिए सार्वदेशिक आकर्षण का एक दिशा-निर्देशक साहित्यिक केंद्र बन सकता है |” लेकिन थोड़े और पत्राचार के बाद यह योजना सरकारी फाइलों में बंद हो गई | माथुर साहब भी राष्ट्र संघ के ‘कृषि-खाद्य-संगठन’ के पदाधिकारी होकर बैंकाक चले गए |

फिर कुछ वर्ष बीते और माथुर साहब सेवा-निवृत्त होकर दिल्ली में रहने लगे थे तब मैंने जुलाई, १९७७ में उनको दुबारा स्मरण दिलाने के लिए उनकी स्मारक योजना वाले अंग्रेजी पत्र की प्रतिलिपि संलग्न करते हुए उनको एक पत्र लिखा | इस समय तक कर्पूरी ठाकुर बिहार के मंत्री हो गए थे और माथुर साहब ने जयप्रकाशजी को एक पत्र लिखा था कि वे कर्पूरीजी से इस विषय में बातचीत करें |  सितम्बर, १९७७ में माथुर साहब का पत्र मुझको मिला, जिसमें उन्होंने लिखा  : “मैंने जयप्रकाश जी को लिखा है कि वे आपको बुलाकर कुछ बातचीत करें | वस्तुतः, शिवपूजन जी के पत्र संग्रहालय तथा उनकी स्मृति के विषय में मेरे विचार अब भी वही हैं, जो मैंने उस समय प्रकट किये थे | मैं अपने उस पत्र की प्रतिलिपि भी श्रीजयप्रकाश नारायण को भेज रहा हूँ | मेरा निश्चित विचार है कि बदली हुई परिस्थिति में वर्त्तमान बिहार सरकार को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् को उसके मौलिक रूप में पुनः परिवर्त्तित करना चाहिए | उसे वस्तुतः परिषद् का रूप देना चाहिए, न कि सरकारी विभाग का | यह मैंने स्पष्टतः अपने पत्र में जयप्रकाश जी को लिखा है |”

फिर मैं २० अप्रैल, १९७८ को जयप्रकाश जी से मिला और माथुर साहब के पत्र का स्मरण दिलाया तो उन्होंने मुझको आश्वस्त किया कि वे कर्पूरीजी से बात करेंगे | लेकिन इसी बीच संवाद मिला कि १४ मई को माथुर साहब का निधन हो गया | बाद में मैंने ४ नवम्बर,’७८ को स्मारक-संग्रहालय सम्बन्धी एक विस्तृत योजना मुख्यमंत्री को प्रतिवेदित की | (इस पूरी योजना की प्रति ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ के खंड-५ में पृ.५४८५-८७ पर  प्रकाशित है, और वहां देखी जा सकती है |) लेकिन एक बार फिर माथुर साहब के द्वारा मूल रूप में प्रस्तावित यह महत्त्वपूर्ण साहित्यिक योजना सरकारी फाइलों में दफ़न होकर रह गई |


शिवजी ने माथुर साहब के विषय में ठीक ही लिखा था : “माथुर साहब साहित्यिक अफसर हैं | प्रतिभाशाली और तेजस्वी, विनयशील भी |... सहृदय साहित्यिक व्यक्ति हैं | कलात्मक और सांस्कृतिक सुरुचि है | सूझ-बूझ बड़ी बांकी है |...आई.सी.एस. अफसरों में वही एकमात्र हिंदी-प्रेमी हैं | साहित्यिकों का समादर भी करते   हैं |”

श्री जगदीश चन्द्र माथुर और आचार्य शिवपूजन सहाय दोनों ही सरस्वती-पुत्र थे | आज माथुर साहब के इस शती-जयंती वर्ष में और आचार्य शिवजी के सपाद्शती जयंती वर्ष में इन दोनों साहित्य-मनीषियों के साहित्यिक साहचर्य-प्रसंगों का  स्मरण कुछ ऐसे शाश्वत साहित्यिक मूल्यों और आदर्शों की ओर इंगित करता है जो साहित्य और समाज के लिए आज अत्यंत शुभकारी और प्राणदायी सिद्ध हो सकते हैं |

'आजकल' (सितम्बर, २०१८ ) में प्रकाशित 

(C) Text & Photos: Dr BSM Murty


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२०१८ : साहित्यिक सामग्री 
(आगे से पीछे के क्रम में)

# जगदीश चन्द्र माथुर:कुछ स्मृतियाँ (२०१८, नवं. २६) #  शिवपूजन सहाय की भोजपुरी कहानी (२०१८, अगस्त १७)          # शिवपूजन सहाय और ‘हिमालय’ (२०१८ , जुलाई १७) # शिवपूजन सहाय और राहुल सांकृत्यायन (२०१८, जून १२)         # शिवपूजन सहाय: पुण्य-स्मरण (मेरा व्याख्यान, राजभाषा विभाग, पटना : २०१८, जनवरी २४) # शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ (२०१७,नवं.८)

२०१७: श्रीमदभगवद गीता :

 अध्याय: अंतिम-१८ ( २ नवं.) / १७ (२५ अक्तू.), १६ ( १८ अक्तू.), १५ (१२ अक्तू.), १४ (४ अक्तू.), १३ (२७ सितं.),१२ (१७ सितं.), ११ (७ सितं.), १० (३० अगस्त ), ९ (२३ अगस्त ), ८ (१६ अगस्त ), ७ (९ अगस्त), ६ (३ अगस्त), ५ (२८ जुल.),४ (२१ जुल.), ३ (१३ जुल.), २ (६ जुल.),  प्रारम्भ : सुनो पार्थ -१ (२८ जून) |

२०१७ : रामचरितमानस :

२०१७ : २० जून : उत्तर काण्ड (उत्तरार्द्ध) समापन / १३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध) /  ६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध) / ३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध) / २३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्द्ध) /  १६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण) /  २ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७) / २४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४) / १७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०) / १० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५) / १९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)

२०१७ : दुर्गा सप्तशती :
अप्रैल : (अध्याय  – १३) / २९ मार्च : (अध्याय  – ) /  २८ मार्च : ( परिचय-प्रसंग)

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Friday, August 17, 2018



जयंती : १२५ 
भोजपुरी कहानी 

कुंदन सिंह-केसर बाई  
शिवपूजन सहाय

दूनों के उठत जवानी रहे।ओह जवानी पर भी आइसन चिक्कन पानी रहे कि देखनिहार के आंखि बिछिलात चले। गांव के लोग कहे कि बरम्हा का दुआरे जब सुधराई बंटात रहे तब सबसे पहिले ईहे दूनों बेकती पहुंचले। सचमुच दूनों आप-आपके सुग्घर बिआह का बेर मांड़ो में देखनिहार का धरनिहार लागल रहे। घर-परिवार में केहुना रहे। दुइएप्रानी से आंगन-घर गहगहाइल बुझाइल। जब एगो बनूक छतियावे त दोसर ओकर तमतमाइल चेहरा निहारि-निहारि के मुसुकाए आ भई फरफरावे लागे। एगी जब बंसुरी बजावे बइठे त दोसर चिटुकी बजाइ-बजाइ के गुनगुनाए लागे। एगो जब कसरति करे लागे त दोसर दांते ओठ चापि के हुंकारी देत चले। एगी जब खाये बइठे त दोसर बेनिया डोलाइ के संवाद पूछे।
एक दिन आसिन के पूनो के अंजोरिया में अपना अंगना में पटिहाटि पर सुजनी डसाइ के दूनों बतरस के आनन्द लेत रहले कि एही बीच में एगो कहलस, 'हम तोहरा के बहुत पेयार करीला।" ई सुनि के दोसरकी बोललि, "हमहं तोहरा पेयार के दुलार करीला 'वोह दुलार के भी हम सिंगार करीला। जब-जब हम तोहरा दुलार के सिंगरले बानी, तोहरा जरूर इयाद हीई।
माघ के रिमझिम मधेरिया में, फागुन के फगुनाहट से मस्ताइल रंगझरिया में, चइत-बइसाख के खुब्बे फुलाइल फुलवरिया में, जेठ के करकराइल दुपहरिया में, असाढ़-सावन के उमड़ल बदरिया में, भादो के अधिरतिया अन्हरिया में, कुआर- कातिक के टहाटह अंजोरिया में, - अगहन-पूस के कपकपात सिसकरिया में जब-जब तू हमरा प्यार के है, दुलार कइल हम वोह दुलार के आइसन सिंगार कइलीं कि तोहार आंखि मंडराए लागल बाटे इयाद?'
अतना सुनिके टहो दुनुकि-दुनुकि के जम्हाई लेवे लागलि, आइसन रंगढंग देखि के ई कहलस कि 'हमनी का भगवान के दोहल सब सुख भोगत बानी, बाकी अपना देस के कवनी सेवा अबहीं ले ना संपरल, छत्री का कोखी जनम ले के हमनी का अपना जाति के कवनो गुन दुनिया के ना देखवलीं। हमरा इसकृल के साथी सब कहेली कि जब से तोहार बिआह भइल तब से तूं आइसन मउग हो गइल जे दिन-राति घरे में घुसल रहेल।"
'एह खातिर हम का करी? सरकारे आपन करनी निहारी। पहिले रउरे उसुकाईले, पाछे लागीले देसभक्की के गीत गाइके अपना साथियन के ओरहन सुनावे रावा जवन काम करब तवना में हमरा साथ देबही के परी। रावा झंडा ले के निकसीं त देखीं जे हमहं अपने का संगे निकसत बानी कि ना हमहं छत्री के बेटी हई।
हमरा नइहर के सखी के मरद अपना संगे हमरा सखिओ के जेल में ले गइल बाड़े रउरो हमरा के जहां चाहीं तहां ले चलीं। रावा साथे हम आगिओ में कूदब त तनिको आंच ना लागी। रडरे संगे तरुआरिओ के धार पर हंसतेहसत चल सकीला।
बाकी रउरा बिना हम कतहीं ना जा सकीं। पहिले सरकारे अपना के सुधारी, हमत पिछलगुई हई। मरद के परछहीं मेहरारू हवे। मेहरिया के पाछ-पाछ मरदा रसियाइल-डोरियाइल फिरी त कवन अभागिन होई जे ओकरा के लुलुआवत?"
"तोहार बात हम काटत नइखीं, बाकी सभ दोस हमरे नइखे!"
'अच्छत बिहान होखे द हमहीं पहिले तिरंगा झंडा ले के निकसब।"
'तब त हमार छाती सिकन्दरी गज से डेढ़ गज के हो जाई बात नइखीं बनावत
'तोहरा बात बनावे से अधिका बात चिकनावे आवेल।"
अच्छा त काल्हु जब सरकारी चरन चउकठलांघी त देखल जाई हमार उमंग-तरंग।'
सन् उनइस सौ बेयालिस ईसवीं में भोजपुरियो इलाका अइसन अगयाइल रहे कि जेने देखीं तेने उतपाते लड़के कहीं संडक कटात रहे, कहीं टेसन आ मालगोदाम लुटात रहे, कहीं थाना-डाकखाना फुंकात रहे, कहीं भाला-बरछा-फरसा मंजात रहे, कहीं मल्लू अइसन मुँहवाला टामी लोग के लाटा कुटात रहे, कहीं रेल के लाइन उखड़ात रहे, कहीं कवनी पुलिस-दरोगा ओहारल डोला में लुका के परात रहे, कहीं मकई का खेत में लड़ाई के मोरचा बन्हात रहे, जहां सूई ना समाप्त रहे तहां हेंगा समवावल जात रहे, सगरे अन्हाधुन्हिए बुझात रहे।
कुंदन-केसर के देखादेखी गांवों के लोग हमेसा कमर कसले रहसु। सभे ईहे बिनवत-मनावत रहे कि गोरन्हि के राज उलट जाउ, गोरा अफसर लोग जेने-तेने बिललात फिरत रहसु दूनों के साहस आ उतसाह त काम करते रहे, दूनों के रूप के जादू सबसे बेसी मोहिनी डाले।
जेने दूनों के दल चले तेने हंगामा मच जाइ। दूनों बेकत के बोली सुनला से लोगन के मन ना अघात रहे। जनता पर रूप आ कठ के टोना अइसन चलल कि अंगरेजी सरकार के माथा टनके लागल, दूनों के नाम वारंट कटल। जनता दूनों के पलक-पुतरी अइसन रच्छा करे लागल। जब थाना-पुलिस के गोटीना लहलि त फउजी गोरनिह के तइनाती भइल। तबो गोरा लोग के छक्का छूट गइल, बाकी दूनों के टोह ना मिलल।
जवना दिन दूनों अपना घर के असबाब एने-ओने हटावे खातिर गांवें पहुंचले तवने दिन पीठियाठोक गोरो | पहुंचले स।
दूनों अपना घर के खलिहाइ के भीतरे बतियावतसुनि के दूनों के कान खड़ा हो गइल। कुन्दन कच्छ कसि के बनूक में टोटा भरे लागल, केसर झटपट मियान से तरुआरि खींचि के कमर में आंचर बान्हि लेलस। दूनों हृह करत धड़फड़ बाहर निकलले त केवार खुलते गोरा अकचकाइ गइलेस।
कुन्दन तीनि जाना के ठावें पटरा कइ देलस आ केसरो दुइ जाना के माथ काटि के दुरुगा-भवानी अइसन छरके लागलि। गोरा लोग के जबले भटका खुले-खुले तवले दूनों के मार-काट से केहू के हाथ कटा के गिरि परल आ। केहू के कपार फाटि गइल आ केहूछती में छेद ले के गिरल कहरे लागल। अतना छत्रियांव दिखवला का बाद दूनों खूनी बहादुर खेत रहले, गोली लगला पर केसर घुमरी खात कुन्दन का देह पर जा गिरले। अतने में गांव-जवार के लोगनि के गोहरि जुटल, बाकी गोरा आपन पांची लासि लेके पराइ गइलेसक।
कुन्दन-केसर के लोथ उठाइ के लोग गंगाजल से नहवावल, चन्दन चढावल, फ्लमाला से सजावल, अंजुरी के अंजुरी फ्ल बरिसावल, अगरबत्ती-कपूर के आरती देखावल, दूनीं के जयजयकार से आकाश गुंजावल, गांवें- गांव जलूस घुमाइ के दूनों साहसी सहीदन के पूजा करावल आ घरे-घरे देवी लोग लोर ढरेि द्यारि अर्ध चढवल, चारू ओर पंचमुखे ईहे सुनाइजे अइसन मरन भगवान बिरले के देले।

भोजपुरी पत्रिका 'अंजोर' (पटना) में प्रकाशित ( १९६१)

(C) आ.शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास 



Tuesday, July 17, 2018


शिवपूजन सहाय औरहिमालय
                                                 
मंगलमूर्त्ति

हिंदी नवजागरण-काल में साहित्यिक पत्रकारिता की  कई अर्थों में एक विशिष्ट भूमिका रही | भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद तक के सुदीर्घ कालखंड में हिंदी की साहित्यक पत्रकारिता ने कई प्रतिमान स्थापित किये जिनमेंसरस्वतीसे लेकरहिमालयऔरप्रतीकतक की लम्बी यात्रा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास का एक अप्रतिम स्वर्णिम युग ही रहा | यही वह युग था जब हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता ने जहां एक ओर हिंदी भाषा और साहित्य का महार्घ  परिष्कार और संवर्धन किया, वहीँ दूसरी ओर राजनीति के क्षेत्र में  भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका सबसे जाज्वल्यमान उदाहरण कलकत्ता से १९२३ में प्रकाशित होने वाला साप्ताहिकमतवालाथा, और जिसके वास्तविक सम्पादक शिवपूजन सहाय   थे, यद्यपि सम्पादक के रूप में अधिष्ठाता महादेव प्रसाद सेठ का नाम ही जाता था |

’मतवाला’ प्रखर राष्ट्रीय चेतना से मंडित एक हास्य-व्यंग्य साप्ताहिक था और शिवजी के सम्पादन में  (हिंदी जगत में  ‘मतवाला’-काल से ही वे  शिवजी नाम से प्रसिद्ध रहे) वह बराबर  उग्र राष्ट्रीयता की शक्तिशाली अभिव्यक्ति का पत्र बना रहा | ‘मतवाला’ के बाद भी जो दर्जन-भर मासिक-पाक्षिक पत्र शिवजी के सम्पादन में निकले उनमें भी शुद्ध साहित्यिकता का यह तत्त्व बराबर एक जैसा बना रहा |  साहित्यिक पत्रकारिता की यह लम्बी - चार दशकों में प्रसरित - यात्रा शिवजी के जीवन में ‘मारवाड़ी सुधार’(१९२२), ‘गंगा’ (१९३१), ‘जागरण’ (१९३२),’हिमालय’ (१९४७) और ‘साहित्य’ (१९५०-१९६२) के साथ उनके जीवन के अंतिम  प्रहर तक चलती  रही | इसीलिए  यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं कि हिंदी की  साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में शिवपूजन सहाय का योगदान सुदीर्घ एवं अनन्य रहा | साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में इतनी लम्बी पारी संभवतः किसी अन्य सम्पादक की नहीं रही | 
शिवपूजन सहाय द्वारा संपादित सबसे पहला साहित्यिक मासिक ‘मारवाड़ी सुधार’  एक जातीय हित-संरक्षण का पत्र होते हुए भी शुद्ध साहित्यिक रंग में रंगा हुआ स्वाधीनता-समर्थक पत्र था जिसकी सम्पादकीय टिप्पणियों के कुछ शीर्षक ही – ‘बिहार प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मलेन’, ‘हिंदी का घोर दुर्भाग्य’, ‘हिंदी साहित्य सम्मलेन, कानपुर’ – इसका प्रमाण हैं | जातीय हित का पत्र होते हुए भी ‘मारवाड़ी सुधार’ में माधव शुक्ल, लाला भगवान दीन, हरिऔध, वियोगी हरि, नटवर  जैसे साहित्यकारों की रचनाएँ बराबर  छपती रहीं | ‘गंगा’ और ‘जागरण’ भी तीस के दशक में  शुद्ध साहित्यिक पत्र रहे जिनके बाद चालीस के दशक में ‘हिमालय’ शिवजी की  साहित्यक पत्रकारिता के शिखर के रूप में ज्योतित हुआ |

साहित्यक पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘हिमालय’ एक अभिनव स्वरूप में प्रकाशित हुआ| यह हिंदी साहित्य में पहला प्रयोग था जब एक साहित्यिक मासिक पत्र अपने  प्रत्येक अंक में  एक सजिल्द  ‘साहित्यिक मासिक पुस्तक’ के रूप में सामने आया था | बाद में इसी स्वरूप में पटना से ‘पारिजात’ और प्रयाग से अज्ञेयजी के सम्पादन में ‘प्रतीक’ का प्रकाशन हुआ | ‘हिमालय’ का पहला अंक फरवरी, १९४६ में ‘पुस्तक भण्डार’, पटना से  प्रकाशित हुआ, जिसके अधिष्ठाता श्री रामलोचन शरण थे | इसके  पहले अंक में ही डा. राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ अपने मूल असंपादित रूप में प्रकाशित हुई थी, जो पांच अंकों तक अपने मूल असंपादित रूप में ही छपती रही, और बाद में शिवपूजन सहाय के संशोधन-सम्पादन में ग्रन्थाकार प्रकाशित हुई | निश्चित योजना के अनुसार ‘हिमालय’  के संपादकों में शिवजी के साथ बेनीपुरी और दिनकर – तीनों  का नाम जाना था | किन्तु सरकारी सेवा में होने के कारण दिनकरजी का नाम नहीं गया, केवल शिवजी और बेनीपुरीजी का नाम ही सम्पादक-द्वय के रूप में  गया | शिवजी इस बीच अगस्त, १९४५ से ’४६ तक एक साल की छुट्टी लेकर पटना चले आये थे  | परिवार को उन्होंने  अपने गाँव भेज दिया था  और मुझको साथ लेकर वे पटना आ गए थे  | मछुआटोली में ‘पुस्तक भंडार’ की ओर से किराये का एक  मकान लिया गया जिसमें मैं अपने पिता के साथ और बेनीपुरीजी अपने पुत्रों के साथ रहने लगे थे |

‘हिमालय’ की  मूल संकल्पना बेनीपुरीजी की थी जब वे स्वतंत्रता-पूर्व अंतिम बार हजारीबाग जेल से अप्रैल, १९४५ में  मुक्त होकर पटना आये थे | इसकी योजना के सम्बन्ध में शिवजी के नाम बेनीपुरी के १९४५-४६ के पत्रों में चर्चा है (देखें: ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’, खंड ९, पृ. ११५-१८) | शिवजी की प्रकाशित डायरी में भी ‘हिमालय’-प्रकाशन से लेकर उसके बंद होने तक की विस्तार से चर्चा है  (समग्र, पृ. २०१-५६) | इन दोनों स्रोतों से कुछ उद्धारणीय पंक्तियाँ ‘हिमालय’-प्रकाशन के  इस प्रसंग पर विशेष प्रकाश डालती   हैं | बेनीपुरी ने अपने पत्र में लिखा (२८.११.४५) : “यह जानकार बड़ी प्रसन्नता हुई कि श्रद्धेय मास्टर साहब ने हम लोगों की [‘हिमालय’ प्रकाशन] की योजना को स्वीकृत कर लिया है |” ... “आते ही ‘हिमालय’ में मैं जुट जाऊंगा | (१.१.४६)
शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा :

आज कॉलेज से एक वर्ष की छुट्टी मिल गयी |.... आज ‘हिमालय’ नामक मासिक पुस्तक निकालने के लिए एक योजना बनी | संपादकों में श्री दिनकरजी और बेनीपुरीजी के साथ मेरा नाम भी लिखा गया | बिहार में कोई साहित्यिक मासिक नहीं है | यदि एक बार प्रयत्न हो तो सफलता मिल सकती है |...पूज्य राजेन्द्र बाबू की आत्मकथा आज ही प्रेस में दी गयी ‘हिमालय’ के लिए |....‘हिमालय’ में छपे लेखों के लेखकों को (बेनीपुरी के आदेशानुसार) पुरस्कार भिजवाये | पूज्य राजेन्द्र बाबू एक सौ रुपये | आचार्य नरेन्द्र देव पचास रुपये | जानकी वल्लभ शास्त्री बीस रुपये |...आज ‘हिमालय’ भेजने में लगा रहा | ‘भण्डार’ में ‘हिमालय’ के लिए ठीक प्रबंध या व्यवस्था नहीं है |.... ‘हिमालय’ ऑफिस में इतना अधिक काम है कि दस बजे दिन से आठ बजे रात तक एक क्षण का भी अवकाश नहीं मिलता | कॉपी और प्रूफ का संशोधन, पत्रों का उत्तर, पत्र-पत्रिकाओं का विहंगावलोकन, आगत-स्वागत | एक पियन भी नहीं है | (२१.८.४५-१४.३.४६)

राजेंद्र कॉलेज से शिवपूजन सहाय को एक वर्ष की छुट्टी मुख्यतः राजेन्द्र बाबू की ‘आत्मकथा’ के सम्पादन के लिए दी गयी थी | राजेंद्र कॉलेज की  स्थापना भी १९३७ के प्रांतीय चुनावों के बाद की बनी सीमित स्वराज्य वाली कांग्रेसी सरकारों के दौरान स्वराष्ट्रिय शिक्षा-संस्थानों की स्थापना के क्रम में  हुई थी | और नवम्बर, १९३९ में शिवपूजन सहाय  ‘पुस्तक भण्डार’, लहेरिया सराय से राजेन्द्र कॉलेज के हिंदी विभाग में प्राध्यापक होकर चले आये थे | राजेन्द्र बाबू भी अप्रैल, १९४५ में ही पटना जेल से छूट कर आये थे, जहां तीन वर्षों के कारावास में उन्हों ने अपनी ‘आत्मकथा’ पूरी की थी | ‘हिमालय’ में उसके प्रकाशन की कहानी भी रोचक है जो शिवपूजन सहाय की डायरी में अंकित है | उन्होंने लिखा :

 मथुरा प्रसाद सिंह के साथ सदाकत आश्रम गया गया | रामधारी भाई और बेनिपुरीजी  साथ थे | पूज्य राजेंद्र  बाबू से भेंट और बातचीत | उनकी आत्मकथा मांग लाया | पहले भी उन्होंने कहा था की इसको एक बार पढ़ जाओ | मूल प्रति भी   मिली |  साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति | ‘हिमालय’ के प्रथमांक में जब ‘आत्मकथा’ का प्रारम्भिक अंश छप गया तब “पूज्य राज्जेंद्र बाबू ने ‘हिमालय’ देख सम्मति लिख दी |  [लेकिन उसके हफ्ते-भर बाद ही :]...पूज्य राजेन्द्र बाबू के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री चक्रधरशरण जी ने सदाकत आश्रम से फोन किया कि ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लौटाइये | ‘आत्मकथा’ के प्रसंग में कई सज्जनों का भेद खुला | महान पुरुषों के साथ ऐसे गण रहते ही हैं जो उनके पास किसी को टिकने नहीं देते |... ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लौटा दी | (६.१.४६- १५.२.४६)

‘हिमालय’ का कार्यालय ‘पुस्तक भण्डार’ (गोविन्द मित्रा रोड) में स्थित था | परिसर में  प्रेस के पहले ही खपरैल छत वाले तीन-चार कमरे थे जिनमें ‘हिमालय’ का सम्पादकीय विभाग काम करता था | स्कूल से आने के बाद मैं वहीं पिताजी के साथ देर शाम तक रहता था | मेरी उम्र तब ८-९ साल की थी | ‘हिमालय’ कार्यालय में बराबर बिहार और बाहर के भी  साहित्यिकों का आना-जाना लगा रहता  था और वहाँ  हमेशा एक गहमा-गहमी बनी रहती थी | दिनकरजी और बेनीपुरीजी अक्सर आते-जाते रहते थे, लेकिन पिताजी तो रोज़ सुबह से शाम तक अपनी टेबल पर कार्यरत रहते थे | जेल से आने के बाद बेनीपुरीजी की व्यस्तता राजनीतिक कार्यों में भी बढ़ गयी थी, और दिनकरजी तो अलग सरकारी नौकरी में थे ही | इस लिए लेखों के कॉपी और प्रूफ-संशोधन से लेकर  सम्पादन का सारा काम शिवजी को ही करना पड़ता था | जयप्रकाशजी और गंगाशरण सिंह जी भी वहां अक्सर आया करते थे | ‘हिमालय’ में ही, उसके जुलाई, नवम्बर और दिसंबर, १९४६ के अंकों में, जयप्रकाशजी की तीन रचनाएं क्रमशः – ‘हमारा प्राचीन वांग्मय’, ‘दूज का चाँद’ और टॉमी पीर’ छपी थीं, जिनमें अंतिम दो कहानियाँ थीं | जयप्रकाशजी की  ये सभी रचनाएँ और बेनीपुरीजी  की बहुत सारी रचनाएँ – उनके कई शब्द-चित्र जो बाद में ‘माटी की मूरतें’ में संगृहीत हुए, उनकी ‘अम्बपाली’, उनके कीट्स की कविताओं के अनुवाद ( ‘कल्पतरु’ कल्पित नाम से), आदि  - सब हजारीबाग जेल में लिखी गयी थीं और पहली बार ‘हिमालय’ में छपीं थीं |
        
 ‘मतवाला’ और ‘जागरण’ की तरह ही ‘हिमालय’ हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में एक युगांतरकारी पत्र था जिसमें बिहार के सभी प्रमुख साहित्यकारों – जानकीवल्लभ शास्त्री, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, नलिन विलोचन शर्मा, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, आदि के अलावा बाहर के प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों – आचार्य नरेंद्र देव, व्रजरत्न दास, रायकृष्ण दास, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामचंद्र वर्मा, ‘बच्चन’, हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रभाकर माचवे, आदि की रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित हुई थीं | इस के कुछ ही महीनों बाद ‘अज्ञेय’जी के सम्पादन में इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ का प्रकाशन हुआ | ‘हिमालय’ के अक्टूबर, नवम्बर, १९४६ और जनवरी, १९४८ के तीन अंकों में ‘प्रतीक’ के आगामी प्रकाशन की सूचना, प्रथामाकं का स्वागत और उसके ‘पावस’-अंक की समीक्षा छपी थी | आगामी प्रकाशन की सूचना में शिवजी ने लिखा : “हिंदी के लब्धकीर्ति लेखक और कवि श्री’अज्ञेय’जी के सम्पादकत्व में, ‘प्रतीक’ नामक द्वैमासिक पत्र प्रकाशित होने जा रहा है |...हम बड़े उत्कंठित चित्त से ‘प्रतीक’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं |” फिर अगले अंक में प्रथमांक का स्वागत और उसमें प्रकाशित लेखों की विवेचना करते हुए  ‘प्रतीक’ प्रथमांक के सम्पादकीय की कुछ  पंक्तियाँ उद्धृत कीं  : “हम समझते हैं की प्रगति प्राचीन मर्यादाओं को भीतर से प्रसृत करके उदार बनाने में है  - परम्पराओं के खंडन में नहीं, बल्कि मंडन और उन्नयन में है |” तीसरे अंक में फिर ‘प्रतीक’ के ‘पावस’-अंक की प्रकाशित रचनाओं का संक्षिप्त परिचय देता हुए अंत में लिखा : “ ‘प्रतीक का ‘साहित्य संकलन’ बहुत उच्च कोटि का है | उससे साहित्य का मान बढ़ रहा है |”

‘हिमालय’ जहां उत्तर-छायावाद युग के  एक श्रेष्ठ साहित्यिक मासिक के रूप में हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक प्रतिमान के रूप में अभिनंदित हो रहा था, वहीँ उसी रूप-स्वरुप में अज्ञेयजी के सम्पादन में ‘प्रतीक’ प्रगतिशील साहित्य का प्रवर्त्तन कर रहा था | यहीं यह भी उल्लेखनीय है कि जहां एक ओर साल–दो साल के भीतर ही  ‘हिमालय’ के रूप में उत्तर-छायावाद युगीन शुद्ध साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान  सन्निकट आ रहा था, वहीँ दूसरी ओर ‘प्रतीक’ प्रगतिशील साहित्य के उन्नयन के पथ पर दृढ-पद शनैः-शनैः   अग्रसर हो रहा था | शिवजी के सम्पादन में  ‘हिमालय’ का प्रथमांक फरवरी, १९४६ में निकला था  और तेरह अंकों के बाद ही शिवजी को ‘हिमालय’ से प्रकाशकीय उदासीनता और अन्तर्विरोध के कारण त्यागपत्र देना  पड़ा था | ‘हिमालय’ के प्रकाशन के लगभग डेढ़ साल बाद  द्वैमासिक  ‘प्रतीक’ का ‘ग्रीष्म अंक’ १९४७ में प्रकाशित हुआ था | ‘हिमालय’ में उन अंकों की समीक्षा के आने के कुछ ही महीनों बाद विक्षुब्ध होकर  शिवजी ने  ‘हिमालय’ से त्याग-पत्र दे दिया था | अज्ञेय ने अपने पत्र (४.३.४८) में उनको लिखा :

‘प्रतीक’ के दोनों अंकों का परिचय ‘हिमालय’ में देखा था; रस भी लिया था | आप ‘हिमालय’ से अलग हो गए यह जान कर दुःख हुआ |...जनवरी का ‘हिमालय’ (आपका संपादित) आज मुझे मिला है | बाद के अंकों का पता नहीं | किन्तु आपको जो ‘प्रतीक’ जाना था, उसका सम्बन्ध आपसे पहले था, ‘हिमालय’ से पीछे | वह अब भी नियमित रूप से आपको जाता रहेगा | मैं यह बिलकुल नहीं चाहता कि आप किसी पत्र में परिचय लिख कर ही ‘प्रतीक’ को उपकृत कर सकते हैं; नहीं, उससे कहीं अधिक उपकारी होगा सीधे मुझे दिया गया परामर्श, याकि व्यक्तिगत रूप से साहित्यिक चर्चा में किया गया उसका उल्लेख | और ‘प्रतीक’ के लिखे हुए आपके लेख तो और भी गौरव की वस्तु होंगे – आगामी अंक के लिए कुछ भेजिए न? [बिहार के लेखकों से सहयोग का ] आप मार्ग खोलें तो वह पंथ बने |....          
‘हिमालय’ के अंक प्रारम्भ से ही विलम्ब से निकलते रहे थे | पहला अंक जहां फरवरी, १९४६ में निकला था वहीं दूसरे वर्ष का पहला अंक जनवरी, १९४८ में निकला | पुस्तक-भंडार के अधिष्ठाता रामलोचन शरण जी            ‘हिमालय’ के प्रति शुरू से ही उदासीन थे | लेखकों को पुरस्कार देने के प्रश्न पर भी वे प्रसन्न नहीं रहते थे | ‘हिमालय’ सम्पादन  विभाग को भी किसी प्रकार का  कार्यालयीय सहयोग  नहीं मिलता था | बेनीपुरीजी  की लगातार अनुपस्थिति भी उनको खलती रही थी और अंततः उन्होंने जोर दे कर बेनीपुरीजी का नाम दसवें अंक के बाद से सम्पादक-द्वय में से हटवा दिया था | इस पर जो संपादकीय टिप्पणी शिवजी ने लिखी थी उसको भी छपने से रोक दिया गया था | इन्हीं सब  कारणों से ‘हिमालय’ के सम्पादक और प्रकाशक के बीच तनाव काफी बढ़ गया जिससे अत्यंत दुखी और क्षुब्ध होकर अंततः शिवजी को ‘हिमालय’ से  त्यागपत्र देना पड़ा | शिवजी तो सितम्बर, १९४७ में ही कॉलेज की छुट्टी समाप्त होने पर छपरा लौट आये थे और उसके बाद  वहीं से ‘हिमालय’ सम्पादन का काम करने लगे थे | अपनी डायरी में उन्होंने लिखा :

 प्रातः काल छपरा पहुँच कॉलेज गया | आज की डाक से ‘हिमालय’ के बारहवें अंक के लिए लेखादि भेजा | प्रकाशक  बेनीपुरीजी का नाम नहीं देना चाहते | मैं बारहवें अंक तक उनका नाम देकर ‘हिमालय’ का काम छोड़ देना चाहता हूँ | सम्पादक की स्वतंत्रता में प्रकाशक का हस्तक्षेप असह्य है |  ...लहेरिया सराय से खबर पटना आई है कि शिवपूजन ‘हिमालय’ छोड़ भी दें तो कोई हानि नहीं, पर बेनीपुरी का नाम संपादकों में नहीं छपेगा |...प्रकाशकों की इच्छा संपादकों की इच्छा के ऊपर अंकुश रखती है |सम्पादक की स्वतंत्रता में बाधा देना ही प्रकाशक का गर्व है |...पटना से पत्र आया है कि मेरा ही नाम छाप कर ‘हिमालय’ का ग्यारहवां अंक निकाल दिया गया और बेनीपुरीजी का नाम हटा दिया गया | यह अपमान केवल इसीलिए खून के घूँट की तरह पी जाना पड़ता है कि ‘हिमालय’ किसी तरह जीवित रहे |  ....आज बारहवें अंक (‘हिमालय’) का सारा काम समाप्त हो गया |  .... ‘हिमालय’ का अंतिम (बारहवां) अंक निकल गया | मास्टर साहब (रामलोचन शरण) ने कहा कि छत्तीस हज़ार घाटा हुआ है, बंद करो |(४.९.४७-२.११.४७)

‘हिमालय’ से शिवजी का लगाव इतना गहरा था कि प्रकाशक के तिरस्कार-पूर्ण व्यवहार और दसवें अंक से बेनीपुरीजी का नाम हटा दिए जाने  के बावजूद ‘हिमालय’ ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें (वर्ष २/१ ) अंकों  का सम्पादन केवल इस लिए करते रहे क्योंकि प्रकाशक उनको पारिश्रमिक स्वरुप २५०रु. की पगार देते रहे थे | डायरी में लिखा : “अब आगे ‘हिमालय’ नहीं निकलेगा | ढाई सौ मासिक वेतन अब नहीं मिलेगा |....    “ ‘हिमालय’ कार्यालय में जाकर पत्र लिखा मास्टर साहब को | विना काम वेतन लेना ठीक नहीं |” (५-१०.११.४७) लेकिन वेतन के प्रश्न पर अपने गहरे दायित्व-बोध के कारण वे छपरा से ही  ‘हिमालय’ का सम्पादन-कार्य दिसंबर, १९४७ तक करते रहे | डायरी में लिखा : “ दिन में ‘हिमालय’ के दूसरे वर्ष के प्रथम अंक के लेख संपादित किये |” (७.१२.४७) स्पष्टतः, रामलोचन शरण की  यही तदबीर थी कि शिवजी को वेतन देकर बांधे रखें और सम्पादक के रूप में उनका नाम ‘हिमालय’ में चलता रहे, और साहित्य-जगत में शिवजी का नाम सम्पादक के रूप में जीवित रख कर वे उसका  लाभ लेते रहें  | लेकिन उनको शिवजी के स्वाभिमान के प्रति गंभीर गलतफहमी थी |

बेनीपुरीजी  ने,  इससे पहले ही पटना से छपरा भेजे, शिवजी को अपने पत्र (४.१०.४७) में लिखा : “श्रद्धेय भैया | आपका २९/९ का पत्र मिला | किन्तु, इसके पहले ही ‘हिमालय’ के  सम्पादन के बारे में तय हो चुका था | बल्कि आपका नाम छप भी चुका था | अतः इस सम्बन्ध में मेरी सहमति या असहमति का कोई मूल्य नहीं | आप चिंता मत कीजिये | मास्टर साहब ने अपना बिगाड़ा है, मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? विश्वास कीजिये, ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे आपको जरा भी मानसिक या शारीरिक कष्ट हो |” (‘समग्र’ ९ , पृ.११९)  ‘हिमालय’ की इस  सारी उलझन के पीछे कई तरह की बातें थीं – बेनीपुरीजी का कांग्रेस से अलग  सोशलिस्ट पार्टी में होना, बेनीपुरीजी का पूंजीपतियों से स्वाभाविक विरोध, प्रकाशक का ‘हिमालय’ के  सम्पादक-द्वय के यश को न झेल पाना, आर्थिक और सम्पादकीय मामलों में  प्रकाशक का अनुचित हस्तक्षेप, ‘भण्डार’ में सम्पादक-द्वय के प्रति कुछ लोगों द्वारा भीतर-भीतर चलने वाला गहरा षडयंत्र, आदि इसके कई कारण थे | यद्यपि प्रकाशक और सम्पादक के बीच में आर्थिक लाभ-हानि के प्रश्न को लेकर परस्पर विरोध को हम हिंदी का दुर्भाग्य ही मानेंगे | इस प्रसंग में ‘मतवाला’ से लेकर ‘हिमालय’ तक शिवजी के अनुभव लगभग हर बार अत्यंत क्षोभकारी ही रहे | लगभग इन्हीं दिनों सा. ‘स्वदेश’ के (१९.११.४७)  अंक में शिवजी की ‘सम्पादक  के अधिकार’ शीर्षक टिप्पणी की ये पंक्तियाँ यहाँ इस प्रसंग में  उद्धरणीय  हैं | वे लिखते हैं  :

 मैं पिछले तीस वर्षों से देखता आ रहा हूँ कि हिंदी के पत्र-संचालक , जिनमें अधिकतर पूंजीपति हैं – और जो पूंजीपति नहीं हैं वे भी पूंजीपति की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति के शिकार हो ही जाते हैं – संपादकों का वास्तविक महत्त्व नहीं समझते, उनका यथोचित सम्मान नहीं करते, उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान नहीं देते, उनकी कठिनाइयों का सपना भी नहीं देखते |  (‘समग्र’ ३/३००)

इन पंक्तियों का उन्हीं दिनों चल रहे इस  ‘हिमालय’-प्रसंग से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह नहीं कहा जा    सकता | २१  जनवरी, १९४८ को शिवजी ने  ‘हिमालय’ से अपना  त्यागपत्र ‘भण्डार’ को पटना भेज    दिया | उससे पहले उन्होंने ‘हिमालय’ के वर्ष २, अंक १ (जनवरी, १९४८) के लिए अपनी सम्पादकीय टिप्पणियाँ भेज दीं थीं | लेकिन जब अंक प्रकाशित हुआ तो नियमानुसार पुस्तक के अंत में प्रकाशित होने वाली सम्पादकीय टिप्पणियाँ, इस बार शुरू में ही छपीं, और पहले प्रत्येक टिप्पणी के अंत में जो ‘शिव.’ नाम छपता था, वह इस बार टिप्पणियों के नीचे नहीं छपा |  पूर्व के अंकों में सम्पादकीय टिप्पणियों के नीचे उनके लेखकों - बेनीपुरीजी  और दिनकरजी – का भी  नाम रहा  करता था | इस बार तर्क शायद ये था कि अब  चूँकि केवल शिवजी ही सम्पादक रह गए थे इसलिए उनका नाम टिप्पणियों के नीचे देना ज़रूरी नहीं था | परन्तु, इससे भी आश्चर्यजनक और आपत्तिजनक यह था कि इस अंक के लिए जो टिप्पणियाँ शिवजी ने लिखी थीं उनमें से चार टिप्पणियों को नहीं छापा गया था |  संभवतः इसके पीछे भी शिवजी को आहत करने की मंशा उसी बड़े षडयंत्र का एक हिस्सा थी |  इस प्रसंग में शिवजी ने बहुत मर्माहत होकर अपनी  डायरी में लिखा :

आज ‘हिमालय’ (अंक १२) की सामग्री प्रेस में डाक से गयी | प्रेस के मैनेजर महादेव बाबू को लिख दिया कि बेनीपुरीजी का नाम अवश्य ही छपेगा, नहीं तो मेरा भी मत छापिये |... ‘हिमालय’ की सम्पादकीय  टिप्पणियाँ डाक से गयीं | ....आज दिन-रात इसी विचार का रोमन्थन मन करता रहा कि ‘हिमालय’ का सम्पादक रहूँ या न रहूँ | किन्तु पूंजीपति-मनोवृत्ति के प्रकाशक के साथ स्वाभमानी सम्पादक का निर्वाह असंभव है |....मन ने यह दृढ संकल्प कर लिया कि अब ‘हिमालय’ छोड़ देने में ही सम्पादकीय मर्यादा की रक्षा है |.... ‘हिमालय’ के दूसरे वर्ष के प्रथमांक  से मेरी आरंभिक चार टिप्पणियाँ निकाल दी गयी हैं | कारण बताया गया है कि वे किसी को भी पसंद नहीं हैं, निरर्थक हैं, हास्यास्पद हैं, और प्राणघातक भी, तथा व्यावसायिक दृष्टिकोण से अनुचित  हैं | अनावश्यक भी कहा गया है  और अनधिकार चेष्टा भी | ऐसी कठोर सम्मति सम्पादक कभी स्वीकृत नहीं कर सकता |.... जिन टिप्पणियों को प्रथमांक में से मास्टर साहब ने हटा दिया उन्हें मुझको लौटाया भी नहीं | कई बार लिखा भी | ऐसा अपमान कौन सहेगा?... अतः त्यागपत्र लिख कर भेज दिया कि फरवरी से दूसरे सम्पादक का प्रबंध कीजिये और जब तक (शीघ्र ही) प्रबंध न होगा तब तक दूसरे अंक के लेख संपादित कर भेजता जाऊंगा | किन्तु अब सम्पादक नहीं रहूँगा |.... आज मन हल्का हुआ | मन का बोझ  उतरा हुआ जान  पड़ा |....’हिमालय’ के दूसरे अंक के लेखों का सम्पादन करके आज भेज दिया |....आज भी एक्सप्रेस डिलीवरी से ‘हिमालय’ का मैटर भेजा | आगामी परसों अंतिम बार भेज कर दूर से ही प्रणाम कर लूँगा |.... ‘मतवाला’ में भी यही हुआ | जान लड़ाकर दिन और रात लगातार घोर परिश्रम किया और अंत में पेट की चोट खाकर हताश होना पड़ा | मगर पैसे वाले की समझ में बात आ गयी कि पैसे से प्रतिभा या कोई गुण नहीं खरीदा जा सकता |  (१०.९.४७  -६.२.४८)

‘हिमालय’ से अलग होने की पीड़ा शिवजी के ह्रदय में आगे भी बनी रही लेकिन अब उन्होंने एक प्रकार से निश्चय कर लिया था कि वे भविष्य में  और किसी पत्रिका का सम्पादन नहीं करेंगे | बहुत क्षुब्ध होकर उन्होंने डायरी में लिखा, जैसा वे सामान्यतः लिखते नहीं थे, जिसमें एक छिपा हुआ इशारा भी था : “उनको (मास्टर साहब को) बहुत लोग मिलेंगे, मगर मेरे ऐसा परिश्रमी हज़ार रूपए मासिक पर भी न मिलेगा | ‘हिमालय’ में जितनी मेहनत-मशक्कत मैनें की और सच्ची लगन लगाई, वैसा करने वाला यहाँ कहाँ मिलेगा |” और शिवजी के ह्रदय से निकली यह बात जल्दी ही सच साबित हुई और ‘हिमालय’ सदा के लिए बंद हो गया |

उन्हीं दिनों ‘पुस्तक भण्डार’ से शिवजी की ‘देहाती दुनिया’, ‘विभूति’, साहित्य सरिता’ – जो प्रवेशिका-पाठ्यक्रम में चलती थी और ‘भण्डार’ के लिए एक दुधारू गाय  जैसी थी – ऐसी कई किताबें छपती थीं | शिवजी ने उनके विषय में पुस्तक-भण्डार को  एक कड़ा पत्र भेजा कि  “मेरी पुस्तकों को अब न छापिये और न बेचिए ही “ | लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ और आगे भी वर्षों तक ये पुस्तकें ‘भण्डार’ में छपती-बिकती रहीं | शिवजी का यह पत्र, जो एक कानूनी नोटिस की भाषा में लिखा गया था ‘समग्र (१०) में ‘हिमालय-सम्बन्धी पत्राचार’ के अंतर्गत  प्रकाशित है और वहाँ देखा जा सकता है | डायरी में शिवजी ने प्रकाशनार्थ भेजी गयी जिन चार सम्पादकीय टिप्पणियों की चर्चा की थी उनमें एक का शीर्षक उन्होंने ‘भुज-भंग’ दिया था जिसका इशारा बेनीपुरीजी के हटाये जाने की ओर था | तीन और टिप्पणियों के शीर्षक थे – ‘हमारे प्रशंसा पत्र’, ‘जिज्ञासुमित्र’ और ‘हमारे नए सहयोगी ’ – जिनमें केवल अंतिम वाली टिप्पणी प्रकाशित हुई, शेष तीन टिप्पणियों को नहीं छापा गया, और वे रामलोचन शरण के दराज़ में गुम हो गयीं |   जिस पत्र में टिप्पणियों के ‘नापसंद’ होने की बात की गयी थी वह परमेश्वर सिंह ने शिवजी को लिखा था | ‘हिमालय’ के बंद होने की बात जब होने लगी थी तो पटने के एक अन्य प्रकाशक  परमेश्वर सिंह ने रामलोचन शरण से  उसको अगले दस साल तक प्रकाशित करने का ठीका लिया था, यद्यपि दूसरा साल लगते-लगते ही वह बंद हो गया |

परमेश्वर सिंह के पत्र का उत्तर शिवजी ने बहुत क्षुब्ध होकर लिखा : “क्या किसी को पसंद आने के लिए ही मुझे टिप्पणी लिखनी चाहिए ? जो आप लोग पसंद करेंगे वही मुझको लिखना पड़ेगा ? मैं अपने पाठकों के लिए सम्पादकीय लिखता हूँ, आप लोगों के लिए नहीं |” इस लम्बे पत्र में शिवजी ने परमेश्वर सिंह के अटपटे पत्र का कड़े शब्दों में तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया था | लेकिन शिवजी के कई प्रकाशकों को लिखे पत्र तो उनके संग्रह में होने के कारण उपलब्ध रहे और प्रकाशित हो गए, किन्तु प्रकाशकों को लिखे पत्र शिवजी के  पत्र – जिनमें बहुत सारे रहस्यात्मक प्रसंगों पर प्रकाश पड़ने की संभावना थी, मेरे अथक प्रयास के बाद भी नहीं उपलब्ध हो सके | सौभाग्य से ‘हिमालय-सम्बन्धी पत्राचार’ के अंतर्गत शिवजी और परमेश्वर सिंह का यह परस्पर पत्राचार ( कुल १३  पत्र ) इस लिए उपलब्ध हो सका क्योंकि परमेश्वर सिंह ने ये सारे पत्र शिवजी को लौटा दिए थे|

इस लम्बे दस्तावेजी विवरण का तात्पर्य मात्र यही है कि साहित्यिक पत्रकारिता के अपने कार्य-काल में उस समय के संपादकों का जीवन-संघर्ष कटु अनुभवों से कितना आक्रांत होता था, जब पूंजीवादी प्रकाशकों द्वारा उनका निर्मम शोषण होता था | शिवजी ने पचास के दशक में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की  शोध-पत्रिका ‘साहित्य’ में  लेखक-पाठक-सम्पादक-प्रकाशक के परस्पर संबंधों पर कई सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखी थीं जिनसे इस चतुर्भुजी समस्या पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, और जो हिंदी के विकास की राह में सबसे बड़ा अवरोध है|

शिवजी ने अपनी टिप्पणी ‘सम्पादक के अधिकार’ में – जो ‘हिमालय’-सम्पादन की अवधि में ही लिखी गयी थी – केवल तीन ऐसे उदारचरित प्रकाशकों का नाम लिया है : सर्वश्री चिंतामणि घोष (‘सरस्वती’), रामानंद चटर्जी (‘विशाल भारत’) और शिवप्रसाद गुप्त (‘आज’, ज्ञानमंडल, काशी) जिन्होंने अपने संपादकों के सम्मान का एक आदर्श स्थापित किया | उस टिप्पणी में शिवजी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और चिंतामणि घोष के परस्पर मधुर सहयोगपूर्ण सम्बन्ध के विषय लिखा है कि जब कभी द्विवेदी जी इंडियन प्रेस से अपने गाँव जाने लगते तो उनको बग्गी पर चढाने में चिंतामणि बाबू स्वयं द्विवेदी जी का सामान ढो कर उनको बग्गी में बैठाते थे | चिंतामणि बाबू ने द्विवेदी जी की अपने गाँव (दौलतपुर) में रह कर ‘सरस्वती’ का सम्पादन-कार्य करने की सुविधा के लिए उनके गाँव में डाकखाना खुलवाने में भी पूरी मदद की थी | आज लगता है – कैसे थे वे दिन, और कहाँ गए वे लोग!

 आज तो विचारणीय यह है कि सम्पादक –प्रकाशक का यह अंतर्विरोध आज की हिंदी पत्रकारिता का कितना  गंभीर अभिशाप बना हुआ है | और उसी प्रकार  लेखक और प्रकाशक का कापीराईट और रॉयल्टी को लेकर परस्पर अवांछनीय दुर्भाव भी हिंदी पत्रकारिता और हिंदी-लेखन के विकास और उन्नयन में एक अलंघ्य, गत्यवरोधक पहाड़ बन कर खड़ा है | लेखक-सम्पादक-प्रकाशक के परस्पर संबंधों के प्रसंग में  शिवजी के अपने क्लेशकारी अनुभव उनके उपलब्ध पत्रों, उनके लेखन, और विशेषतः उनकी डायरियों में भरे पड़े हैं, जो हिंदी नवजागरण की अलग ही एक व्यथा-कथा उजागर करते हैं|

चित्र: १. आ. शिवपूजन सहाय (१९४५) २. 'हिमालय' अंक-१ का मुखावरण (चित्रकार: उपेन्द्र महारथी) ३. डा. राजेन्द्र प्रसाद की 'आत्मकथा' के अंश ४. श्री राम वृक्ष बेनीपुरी ( १९५५), ५. श्री राम लोचन शरण ( १९३९)       

सभी चित्र कॉपीराइट : डा. मंगलमूर्ति (बिना लिखित अनुमति के इस ब्लॉग के चित्र कहीं और नहीं छप सकते|

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