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Monday, May 29, 2017

रामचरित मानस : पुनर्पाठ 

लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -

लंकाकाण्ड में रावण की लंका में श्रीराम-रावण युद्ध का वर्णन है| समुद्र को पार करके युद्ध से पूर्व श्रीराम ने भारतवर्ष के दक्षिणी समुद्र-तट पर पहले शिवलिंग की स्थापना और पूजा करते हुए यह कहा था कि -

      करिहऊँ इहाँ संभु थापना,मोरे हृदयं परम कल्पना|
      लिंग थापि बिधिवत करि पूजा, सिव समान प्रिय मोहि न दूजा|१.२-३|

आज वही शिवलिंग हिन्दुओं के परम तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के रामेश्वरम में स्थित है जो भारतवर्ष के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में गिना जाता है| भगवान शिव की विधिवत पूजा-अर्चना के बाद श्रीराम ने अपनी सेना के साथ नव-निर्मित पुल से  समुद्र को पार किया| वाल्मीकि  रामायण में – जो पूरी संस्कृत में है – इसी स्थल पर एक प्रसिद्द ‘आदित्य ह्रदय’  स्तोत्र है जिसके विषय में कहते हैं कि अगस्त्य ऋषि ने इसी अवसर पर यह मन्त्र श्रीराम को विजय-मन्त्र की तरह प्रदान किया था जिसका आज भी पाठ करने से हर प्रकार के शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है| इस शिवलिंग की स्थापना के बाद श्रीराम ने कहा –

      जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं, ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं|
      जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि, सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि|
      मम कृत सेतु जो दरसनु करिही, सो बिनु श्रम भवसागर तरिही| २.१-२|

आज भी रामेश्वरम जाने वाले तीर्थयात्री वहां समुद्र के बीच में दक्षिण की ओर बहुत से पत्थरों के टापुओं की एक श्रृंखला देख सकते हैं जिसे ‘रामेश्वर सेतु’ अथवा ‘राम-सेतु’ के नाम से जाना जाता है| इस सेतु से अपनी वानर-सेना के साथ समुद्र पार करने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना और सुग्रीव, अंगद, हनुमान आदि सेनापतियों के साथ लंका के सुबेल पर्वत पर अपना युद्ध का खेमा लगाया|

लंकाकाण्ड की कथा से पूर्व हम लंका और वहां के अधिपति रावण के विषय में कुछ और जान लें| बालकाण्ड के कथासूत्र ५ और ६ में रावण के पूर्व जन्मों (प्रतापभानु आदि) की कथा आ चुकी है| रावण सोमाली नामक राक्षस के राक्षस-कुल में पुलत्स्य के बेटे विश्रवा और कैकसी का पुत्र था| उसके दो और भाई कुम्भकर्ण और विभीषण भी थे| रावण का विवाह मय नामक  दानव की पुत्री मंदोदरी से हुआ था जिससे रावण के कई पुत्र थे जिनमें मेघनाद, अक्षय कुमार, प्रहस्त आदि का नाम कथा में प्रमुख रूप से आता है| रावण अपने सौतेले भाई कुबेर से - जो पहले लंकापति था – बहुत द्वेष करता था और उसकी समता करने के लिए उसने ब्रह्मा और शिव की घनघोर पूजा-तपस्या की थी, और उसी क्रम में अपने सर को बारम्बार काट-काटकर होम किया था जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसको अभयदान दिया था कि उसे दानव, यक्ष आदि कोई नहीं मार सकेगा और उसको केवल मानव से ही मृत्यु प्राप्त होने का डर रहेगा| अपने दानवी-बल से रावण ने अंततः तीनो लोकों पर विजय प्राप्त कर लिया और कुबेर से छीनकर ‘स्वर्णपुरी’ लंका को अपनी राजधानी बनाया था जो अपने वैभव और सुन्दरता के लिए सारे जग में विख्यात थी| रावण के ये सारे प्रसंग लंका-काण्ड में वर्णित हैं|

लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -

श्रीराम अपनी वानर-सेना के साथ लंका में सुबेल पर्वत पर विराजमान थे| उस काल की युदध-नीति के अनुसार युद्ध प्रारम्भ होने से पहले शत्रु के पास अपने दूत द्वारा युद्ध का मार्ग त्यागने का शान्ति-सन्देश भेजा करते थे जिससे अनावश्यक रक्तपात से बचा जा सके| तदनुसार श्रीराम ने सबसे राय करके बालि को दूत के रूप में रावण के पास भेजने का निश्चय किया और बालि से कहा – ‘बालितनय बुधि बल गुन धामा,लंका जाहु तात मम कामा’| श्रीराम की आज्ञा पाकर – ‘बंदि चरन उर धरि प्रभुताई, अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई’|

इधर रावण के गुप्तचरों ने आकर श्रीराम के सुबेल पर्वत पर अपना खेमा लगाने का समाचार रावण-दरबार में सुनाया| तब हनुमान के लंका-दहन से अत्यंत भयभीत मंदोदरी ने रावण को बहुत तरह से समझाने और सीता को लौटा देने की सलाह  देने की कोशिश की और आँखों में आंसू भरकर विनती की –

      रामहि सौंपि जानकी, नाइ कमल पद माथ|
      सुत कहुं राज समर्पि बन, जाइ भजिअ रघुनाथ|६|

रावण के पुत्र प्रहस्त आदि ने भी पिता को समझाने की बहुत चेष्टा की किन्तु रावण की बुद्धि तो विनाशकाल में विपरीत हो चुकी थी, वह भला किसी की नेक सलाह कैसे सुनता| सब को डांटते हुए वह अपने रंग-महल में चला गया और वहां नाच-गान देखने में मगन हो गया| उधर सुबेल पर्वत पर अपने सेनापतियों के साथ बैठे श्रीराम ने देखा कि दक्षिण दिशा में बहुत काले-काले बादल घिर आये हैं और उनमें कभी-कभी बिजली भी चमक उठती है | तभी विभीषण ने उन्हें बताया कि वह काला बादल और कुछ नहीं रावण स्वयं अपने रंग-महल में बैठा नाच-गान का आनंद ले रहा है और जो बिजली चमकती दीखती है वह वास्तव में मंदोदरी के कानों में झूलते कर्णफूल हैं जो कभी-कभी चमक उठते हैं| और बादलो का जो घोर गर्जन सुनाई पड़ रहा है वह तो ढोल-मृदंग के बजने की आवाज है| श्रीराम ने विभीषण की बात सुनकर सोचा कि रावण अपने मद में चूर अपने आगे आने वाली विपत्ति से बिलकुल बेखबर है| मुस्कुराते हुए श्रीराम ने अपने धनुष से एक वाण झूलते हुए कर्णफूल के उसी निशाने पर छोड़ा| उस एक ही वाण के लगते ही –

      छत्र मुकुट ताटंक तब, हते एक ही बान|
      सबकें देखत महि परे,मरमु न कोऊ जान|१३|

रावण के मुकुट और अपने कर्णफूलों को कटकर गिरते देखकर ही मंदोदरी को भयानक अपशकुन का संदेह हुआ और वह फिर बार-बार रावण को समझाने लगी| लेकिन रावण तो नृत्य और गान में इतना डूबा हुआ था कि उसपर मंदोदरी की सलाह का कोई असर ही नहीं हुआ| वह नृत्य और गान से अचानक उठकर अपने दरबार में चला गया|


लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -

सुबेल पर्वत पर श्रीराम अपने सेनापतियों के साथ बैठे विचार-विमर्श कर रहे थे कि अब आगे की योजना क्या हो? रीछराज जाम्बवान ने सलाह दी थी कि पहले शांति का सन्देश लेकर बालि-पुत्र अंगद को दूत के रूप में रावण के दरबार में भेजा जाय| उसी के बाद  श्रीराम की आज्ञा पाकर बालिपुत्र अंगद दूत के रूप में रावण-दरबार की ओर चले थे | नगर में घुसते ही अंगद की भिडंत रावण के एक पुत्र से हो गयी| अंगद ने उसे एक ही पटकन में मार डाला| चारों ओर फिर हल्ला मचा कि लंका-नगरी में फिर एक बन्दर आ गया है| अंततः अंगद रावण की सभा में जा पहुंचे और मदांध रावण के परिचय पूछने पर कहा कि मैं श्रीरामजी का दूत अंगद हूँ| मैं तुम्हारे पूर्व-परिचित वानरराज बालि का पुत्र हूँ जिसने खेल-खेल में ही तुमको अपनी काँखों में बहुत दिन तक दबा कर रखा था, और तुम्हारे बहुत रोने-गिडगिडाने पर तुम्हें छोड़ा था| मैं अभी तुम्हारी और लंका की भलाई के लिए अपने स्वामी श्रीराम की ओर से  शांति का सन्देश लेकर आया हूँ| अब तुम्हारी और लंका की भी भलाई इसी में है कि तुम आदरपूर्वक माँ सीता को श्रीरामजी को लौटा दो और व्यर्थ युद्ध करके लंका का विनाश मत करवाओ| यह सुन कर रावण पहले तो अट्टहास करके हंसा लेकिन अपने पुत्र के वध की बात सुनते ही वह अत्यंत क्रुद्ध होकर बोला – अरे क्षुद्र बन्दर, तू इतना उत्पाती है कि तूने मेरे पुत्र का वध कर दिया? अब दूत बनकर तू मेरे दरबार में आया है तो अपनी यह बकवास तुरत बंद कर| लेकिन अंगद ने जैसे रावण को चिढाते हुए कहा कि - देख रावण मेरी ही तरह का एक बन्दर पहले आकर पूरी लंका को तबाह करके चला गया है, और तू कुछ भी नहीं कर सका| मैं जानता हूँ तेरा बल कितना है| मेरे पिता बालि ने तो दया करके तुझे छोड़ दिया था नहीं तो तुम्हें मार ही डालते| एक बार और जब सहस्त्रबाहु ने तुझे पकड़ लिया था तो तेरे पितामह पुलत्स्य ने तुझे छुडाया था, यह सब मैं जानता हूँ| तू व्यर्थ घमंड में अपनी जान मत दे| इस पर कड़ककर रावण बोला – अरे बन्दर तू क्या जानता है मेरा बल| मैंने तो अनेक बार अपना सर काट-काट कर शिवजी को चढ़ा दिया था और मुझको उनका अभयदान प्राप्त है, मैं – ‘ सोई रावन जग बिदित प्रतापी, सुनेहि  न श्रवन अलीक प्रलापी’|तू अपना यह झूठा प्रलाप और बकवास बंद कर और अपनी कुशल चाहता है तो अभी यहाँ से भाग जा| अंगद बोले कि – देख रावण, बुद्धि तो तेरी मारी गयी है| एक बार लंका का विनाश तू देख चुका है फिर भी तेरी बुद्धि नहीं सुधरी है| तू नहीं जानता, मैं अपने स्वामी के आदेश से बंधा न होता तो –

      तोहि पटकि महि सेन हति, चौपट करि तव गाऊँ|
      तव जुबतिन्ह समेत सठ, जनकसुतहि लै जाऊं|३०|

यह कहते हुए अंगद ने क्रोध में बड़े जोर से जमीन पर अपनी मुट्ठी से प्रहार किया जिससे वहां की धरती हिल गयी और रावण के कई मुकुट उसके सिर से नीचे गिर गए| अंगद ने तुरत उनमें से कुछ मुकुटों को बड़े जोर से श्रीराम की दिशा में फेंक दिया| क्रुद्ध होकर रावण ने अपने दरबारियों से कहा कि इस बन्दर को पकड़कर मार डालो| लेकिन दरबारियों ने कहा कि दूत को मारना नीति-विरुद्ध होगा| अंत में अंगद ने भी कुपित होकर पृथ्वी पर अपना एक पावं रोप कर कहा कि - अरे रावण! व्यर्थ बडबोली न दिखा| यह देख मैं यहाँ अपना पावँ रोप रहा हूँ; अगर तू इसको केवल हिला भी दे तो मैं यहाँ तक कहता हूँ कि मैं सीताजी को हारकर यहाँ से चुपचाप चला जाऊंगा| इस पर रावण ने अपने दरबारियों से कहा कि देखो इस बन्दर की टांग तोड़ ही दो तब यह लंगडाते हुए यहाँ से जायेगा| लेकिन जब एक-एक कर सभी दरबारी अंगद के पावँ को टस-से-मस भी नहीं कर सके तब रावण अपने मुकुट संभालता अपने सिंहासन से उतरा और अंगद के पावं उखाड़ने चला| लेकिन जैसे ही उसने अंगद का पावं पकड़ा, अंगद हंसकर बोले –

      गहत चरन कहि बालिकुमारा, मम पद गहें न तोर उबारा|
      गहसि न राम चरन सठ जाई, सुनत फिरा मन अति सकुचाई|३४.१-२|

रावण बिलकुल लज्जित होकर उदास अपने सिंहासन पर जा बैठा और गंभीर चिंता  में डूब गया| इसी समय रावण का घमंड चूर करके अंगद भी श्रीराम की शरण में लौट आये|               
 

लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -
घमंड और विनम्रता परस्पर विरोधी वृत्तियाँ हैं| रावण द्वारा अंगद का पैर पकड़ना एक प्रतीक है| रावण अपने घमंड में चूर होकर अंगद को पछाड़ने की नीयत से अंगद के पैर पकड़ने चला था| लेकिन यहाँ अंगद का सन्देश यह था कि रावण को अपना घमंड त्याग कर विनम्र भाव से श्रीराम के आगे आत्म-समर्पण करना चाहिए था| जब अंगद ने कहा – ‘गहसि न राम चरन सठ जाई’ – अरे मूर्ख रावण! तू श्रीराम के चरण जाकर क्यों नहीं पकड़ता| तब अत्यन्य लज्जित होकर रावण दरबार से उठ कर अपने महल में चला गया| यह रावण की पराजय का एक प्रतीकात्मक पूर्वाभास था| घमंड का इसी प्रकार चूर होना अनिवार्य है|

लज्जित होकर जब रावण अपने रंग-महल में गया तो वहां उसकी पत्नी मंदोदरी    ने भी उसको तरह-तरह से ताने मारकर समझाने की बहुत कोशिश की|

     प्रिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा, जाके दूत केर यह कामा|...
     जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा, कहाँ रहा बल गर्व तुम्हारा|...
     पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु, अग जग नाथ अतुलबल जानहु|३५.२-४|

मंदोदरी ने कहा कि जिसने खर-दूषण,शूर्पणखा, कबंध, विराध आदि की ऐसी दुर्दशा की और मार डाला, और जिसके दूतों ने आपका सारा घमंड चूर-चूर कर दिया उसको आप युद्ध में कैसे जीत सकते हैं? इसीलिए कहते हैं कि – ‘निकट काल जेहि आवत साईं, तेहि भ्रम होई तुम्हारिहि नाईं’| लेकिन यह सब सुन कर भी रावण की बुद्धि नहीं सुधरी| क्योंकि उसका विनाश-काल अब अत्यंत निकट आ चुका था|

इधर जब अंगद लौटकर श्रीराम के पास पहुंचे तो श्रीराम ने हंसकर उनसे पूछा – अरे अंगद, तुमने वहां से रावण के ये चार मुकुट मेरे पास क्यों फेंके? अंगद ने कहा – हे प्रभु! ये चार मुकुट रावण की चार शक्तियां – साम, दाम, दंड, भेद - हैं जो उसके पास राजबल की तरह सुरक्षित थीं, जो अब उसको छोड़कर आपके पास आ गई हैं| हर राजा के पास ये चार प्रमुख शक्तियां होती हैं : साम – प्रजा को प्रभावित करने की शक्ति, दाम अर्थात शासन की शक्ति, दण्डित करने की शक्ति और कूटनीति की शक्ति| रावण अब इनसे रहित होकर पहले ही पराजित हो चुका है| अब युद्ध में उसकी हार तो एक औपचारिकता-मात्र रह गयी है|

इसके बाद श्रीराम ने अपने मंत्रियों के साथ युद्ध की रणनीति बनायी और लंका के किले के चार द्वारों के लिए चार सेनापति नियुक्त कर दिए| जब श्रीराम की विशाल वानर सेना ने लंका के किले पर आक्रमण शुरू किया तब पूरी लंका में कोहराम मच गया| दोनों ओर से घनघोर लड़ाई शुरू हो गयी| तुलसीदास ने बड़े विस्तार से इस भयंकर युद्ध का वर्णन किया है और यह वर्णन लम्बा चला है| किले के चारों दरवाजों पर राक्षसों और वानर-सेना के बीच यह युद्ध चलता रहा, लेकिन यहीं पश्चिमी दरवाजे पर हनुमान और मेघनाद के युद्ध का वर्णन आया  है जिसमें पहले मेघनाद घायल होता है और बाद में लौटकर वह अपने भयंकर शक्ति-वाण से लक्ष्मण को आहत करता है जिससे लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं| इसकी कथा अगली श्रृंखला

में दी गयी है|           


|| लंकाकाण्ड : उत्तरार्ध अगले मंगलवार को पढ़ें ||

इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध)
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)

Monday, May 22, 2017


सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र -
               [पूर्व के कथा-सूत्रों का विवरण नीचे देखें]



मेघनाद रावण का परम बलशाली पुत्र था| अशोक-वाटिका में उसे आता देख कर हनुमान उसकी ओर झपटे और एक घूँसा ऐसा लगाया कि मेघनाद भी क्षण-भर के लिए मुर्च्छित हो गया| जब मायावी मेघनाद ने देखा कि वह युद्ध में हनुमान से किसी तरह नहीं जीत सकता तो उसने उनपर ब्रह्मास्त्र चला दिया| उससे घायल हनुमान मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर गए और तब मेघनाद ने उनको ब्रह्मपाश में बाँध लिया और रावण के पास ले गया| रावण-दरबार में पहुँचने पर क्रुद्ध रावण ने कहा कि तुम कौन हो और तुमने मेरी अशोक-वाटिका में घुसकर इतना उत्पात क्यों मचाया और मेरे मेरे राक्षसों सहित मेरे पुत्र अक्षय कुमार की हत्या क्यों की? हनुमान ने कहा कि वे श्रीराम के दूत बनकर लंका में रावण को यह बताने आये हैं कि अब जल्दी ही श्रीराम के हाथों रावण का वध होने वाला है, क्योंकि रावण ने धोखे से सीताजी को चुराकर लंका लाया है जो घोर अनैतिक कार्य है, और श्रीराम कोई और नहीं स्वयं ईश्वर के मानव-अवतार हैं जिनका अवतरण ही राक्षसों का समूल नाश करने के लिए हुआ है| किन्तु फिर रावण को समझाते हुए हनुमान ने कहा – देखो रावण, श्रीराम बड़े ही दयालु हैं, तुम सीता को उन्हें लौटा कर उनकी शरण में चले जाओ तो वे तुम्हें अवश्य क्षमा कर देंगे और तब तुम अनंत काल तक लंका का अखंड राज्य भोगोगे| लेकिन यदि तुम मेरी सलाह नहीं मानोगे तो कान खोलकर सुन लो रावण, श्रीराम के हाथों तुम्हारा विनाश निश्चित है| यह सुनकर रावण बड़े जोर से अट्टहास करते हुए देर तक हँसता रहा और तब अपने दरबारियों को आदेश दिया कि इस घमंडी बन्दर को तुरत मार डालना चाहिए क्योंकि यह बहुत अनर्गल प्रलाप कर रहा है, और मुझे ही सीख दे रहा है| लेकिन रावण के मंत्रियों, और विशेषतः विभीषण ने रावण को  बहुत समझाया कि दूत को मृत्युदंड देना अनुचित होगा| तब रावण ने हँसते हुए कहा कि ठीक है, फिर तो इसकी पूंछ में आग लगाकर इसको ऐसी सजा दो जिसे यह हमेशा याद रखे| और तब रावण ने अपने सभासदों से कहा –

      कपि कें ममता पूंछ पर सबहि कहऊँ समुझाई|
      तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाईं |२४|

और यह सब कुछ जैसे पूर्व-निश्चित हो, हनुमान तो जैसे यही चाहते ही थे| उन्होंने थोडा और कौतुक किया कि जैसे-जैसे उनकी पूंछ में कपडा लपेट कर सभी राक्षस तेल बोरने लगे, हनुमान अपनी पूंछ उतनी ही लम्बी बढाते चले गए और फिर आग लगी पूंछ लिए तुरत कूद कर महल की एक अटारी पर जा चढ़े| और फिर तो हनुमान ने सारी लंका को जलाना शुरू किया| लंका में चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी और तब देखते-देखते लंका जल कर राख हो गयी| बच गया केवल विभीषण का घर और अशोक-वन जहाँ सीता सुरक्षित थीं| लंका-दहन के बाद समुद्र में पूंछ की आग बुझाकर हनुमान सीता के पास गए और बोले –

      मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा, जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा|
      चूड़ामनि उतारी तब दयऊ,हरष समेत पवनसुत लयऊ |२६.१|

तब सीताजी ने कहा कि – हे हनुमान, मेरा यही परिचय-चिन्ह श्रीराम को देना और उनसे कहना कि –‘मास दिवस महुं नाथु न आवा, तौं पुनि मोहि जिअत नहिं पावा’| यदि ऊन्होने एक मास के भीतर मुझको इस यंत्रणा से मुक्त नहीं किया तो वे मुझको जीवित नहीं देख सकेंगे| तब हनुमान ने सीताजी को बहुत समझा कर धीरज रखने को कहा और कहा कि शीघ्र ही राम रावण से युद्ध करने लंका आने वाले हैं और तब वे सीताजी को मुक्त कराकर अपने साथ ले जायेंगे  –

      जनकसुतहि समुझाई करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह|
      चरन  सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह |२७|             

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र

‘नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा’ – हनुमान लंका का दहन करने के बाद समुद्र पार  करके पुनः वहाँ आ गए जहाँ श्रीराम अपनी विशाल वानर सेना के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे| फिर तो ‘हरषे सब बिलोकि हनुमाना’| एक अत्यंत कठिन कार्य संपन्न करके लौटे हनुमान का हर्षित होकर सबने स्वागत किया| श्रीराम ने भी उनको प्रेम से गले लगाते हुए सीता का सब हाल पूछा| तब हनुमान ने जैसे प्रमाण-स्वरुप सीताजी की चूड़ामणि श्रीराम के हाथों में चुपचाप रख दिया| ‘सुनि सीता दुःख प्रभु सुख अयना, भरि आए जल राजिव नयना’ – सीता का कष्ट सुन कर श्रीराम की ( जो सुख के धाम हैं ) आँखें भर आयीं, और वे हनुमान से बोले – ‘सुनु कपि तोहि सामान उपकारी, नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी’| श्रीराम का निर्मल स्नेह पाकर हनुमान भी विह्वल हो गए| फिर उन्होंने लंका का सारा विवरण श्रीराम को बताया कि कैसे उन्होंने सीताजी से भेंट की और रावण के दरबार में जब उनकी पूंछ में आग लगा दी गयी तो उन्होंने सारी लंका को कूद-कूद कर कैसे जला डाला| यह सब कुछ सुन कर श्रीराम हँसने लगे और उन्होंने कपिराज सुग्रीव को बुला कर कहा - 

      तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा, कहा चलें कर करहु बनावा|...
      अब बिलंबु केही कारण कीजे, तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे|३३.३-४|

सुग्रीव के बुलावे पर असंख्य वानरों की सेना जमा हो गयी और तब श्रीराम-लक्ष्मण - सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्बवान, नील, नल, द्विविद, मयंद, गद, निकटास्य, दधिमुख, केसरी, शठ, निशठ आदि महान वानर योद्धाओं के साथ समुद्र की दिशा में आगे बढे| इधर जैसे ही श्रीराम युद्ध-पथ पर अपनी विशाल वानर-सेना के साथ आगे बढे – ‘प्रभु पयान जाना बैदेहीं, फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं’| लेकिन इसी के साथ – ‘जोइ जोइ सगुन  जानकिहि होई, असगुन भयउ रावनहि सोई’|और उधर

लंका में लंका-दहन के बाद से सभी लंका-वासी अत्यंत भयभीत रहने लगे थे| अब तरह-तरह के अशकुन होते देख रावण की रानी मंदोदरी ने डर कर रावण को बहुत समझाने की कोशिश की कि – हे स्वामी! ऐसे परम शक्तिशाली शत्रु से वैर मोल लेना ठीक नहीं| लेकिन पाप के मद में चूर रावण ने उसकी एक न सुनी| फिर  जब वह दरबार में पहुंचा तब उसे खबर मिली कि श्रीराम की विशाल सेना समुद्र के उस पार तक आ पहुंची है| लेकिन मदांध रावण की तो ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ हो चुकी थी, वह किसी की हितकर बातें सुनने को तैयार ही नहीं था|      

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र

रावण महाबली परमवीर था और शिव का अनन्य भक्त था| लेकिन राक्षस-वृत्ति के कारण वह पाप-कर्म में सदा लिप्त रहता था| श्रीराम और रावण हमारे जीवन में सदाचार और अनाचार के प्रतीक हैं| श्रीराम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह भी प्रतीकात्मक-रूप से सदाचार और अनाचार के बीच का युद्ध ही है, जिसमे अनाचार अंततः हमेशा सदाचार से पराजित होता है| रावण का भाई विभीषण श्रीराम का मानस-भक्त था| राक्षस-वंश में उत्पन्न होकर भी वह सदाचारी और ईश्वर-भक्त था| उसने भी रावण को बहुत समझाने की कोशिश की| रावण से विनती करते हुए  कहा –

      काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ|
      सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहि जेहि संत|३८|...
      तात चरन गहि मांगऊँ राखहु मोर दुलार|
      सीता देहु राम कहुं अहित न होई तुम्हार|४०|


रावण के लिए यह सीधे राक्षस-वृत्ति छोड़कर ईश-वृत्ति की ओर बढ़ने की सलाह थी| लेकिन रावण का तो विनाश-काल तभी आ चुका था जब उसने सीता के हरण जैसा दुष्कर्म किया था| विभीषण की बातों से और क्रुद्ध होकर रावण ने अपने चरणों  पर झुके हुए विभीषण को दुत्कारते हुए कहा – ‘खल तोही निकट मृत्यु अब आई| जिअसि सदा सठ मोर जिआवा, रिपु कर पच्छ मूढ़ तोही भावा ?’- और यह कहते हुए लात से  उसने विभीषण को मारा और कहा कि तब तुम उसी राम की शरण में जाओ, यहाँ तुम्हारे लिए अब कोई जगह नहीं| लाचार विभीषण यह कहते हुए अपने कुछ मंत्रियों के साथ श्रीराम की शरण में चला कि – ‘मैं रघुबीर सरन अब जाऊं देहु जनि खोरि’ – हे, रावन अब तुम मुझे दोष मत देना|

समुद्र-पार श्रीराम के पास पहुँचने पर विभीषण का बहुत स्वागत हुआ और श्रीराम ने वहीं समुद्र-तट पर विभीषण का लंकापति के रूप में अग्रिम राज्याभिषेक भी कर दिया| तब श्रीराम वहां विभीषण और अपने और वानर सहयोगियों से विचार करने लगे कि इतनी विशाल वानर-सेना के साथ समुद्र को कैसे पार किया जाय| इसी बीच रावण ने विभीषण के पीछे-पीछे अपने कुछ गुप्तचर भेजे जिन्हें वानर-गण बाँध कर श्रीराम के पास ले आये| पर उनको दण्डित न करके लक्ष्मण ने उनके हाथों रावण के नाम एक पत्र भेजा| गुप्तचरों ने लौट कर श्रीराम की विशाल सेना के विषय में रावण को बताया और यह भी सूचना दी कि श्रीराम ने विभीषण का लंकापति के रूप  में राज्याभिषेक भी कर दिया है| श्रीराम के सेना-बल की बात सुन कर पहले तो रावण कुछ भयभीत भी हुआ, लेकिन फिर गुप्तचरों को राम की प्रशंसा करने के लिए बड़ी फटकार भी लगाईं, और उन्हें भी राम की शरण में ही जाने के लिए कहते हुए उनको देश-निकाला दे दिया| इधर समुद्र पार करने की सोच में श्रीराम ने अपने एक वाण से समुद्र को सुखा ही डालने का निश्चय किया| लेकिन समुद्र ने उनसे ऐसा क्रोधपूर्ण कार्य न करने की प्रार्थना करते हुए कहा कि उनकी सेना में तो नील और नल दो ऐसे अभियंता हैं जिनको यह वरदान मिला है कि वे समुद्र में पत्थर का एक पुल ही बना दे सकते हैं जिससे पूरी सेना समुद्र पार पहुँच जायेगी| अंततः ऐसा ही हुआ और श्रीराम की विशाल सेना समुद्र को पार करके लंका की भूमि पर पहुँच गयी| इस सुन्दर काण्ड के अंत में तुलसीदास कहते हैं कि इस सुन्दर कांड का जो श्रवण और पाठ करता है –

      सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान|
      सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान|६०|

रघुनाथ श्रीरामजी का यह गुण गान  सभी प्रकार के मंगल को देने वाला है और जो इसे सादर सुनते या पढते हैं वे इस नाव से संसार-रुपी भव-सागर को सहज ही  पार कर जाते हैं|           
  
                  || सुन्दर काण्ड समाप्त ||




 इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   

Monday, May 15, 2017

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र -

रामचरित मानस के सात कांडों में सुन्दर कांड पांचवां काण्ड है जिसमे मुख्यतः  हनुमानजी के द्वारा लंका-दहन और सीता का संवाद लेकर श्रीराम के पास लौटने की कथा है| सुन्दर काण्ड का नामकरण तुलसीदास ने लंका के ‘सुन्दर’-नामक पर्वत के नाम पर किया है| यह सुन्दर इस अर्थ में भी है कि इसी से एक सुन्दर कार्य – राक्षस-वृत्ति का विनाश - का श्रीगणेश होता है| इस काण्ड का प्रारंभ भी और कांडों की तरह संस्कृत वंदना से होता है जिसका विशेष अर्थ यह समझना चाहिए कि संस्कृत एक देव-वाणी है जिसमे ही हम सर्वाधिक पवित्र रूप से देवी-देवताओं की वंदना कर सकते है, क्योंकि देवताओं की भाषा भी संस्कृत ही है| संस्कृत से ही हमारा संस्कृति शब्द बना है| कहना चाहिए, संस्कृत में ही हमारी संस्कृति सुरक्षित है| सुन्दर काण्ड की इस प्रारम्भिक वंदना में श्रीराम को ‘माया मनुष्यं’ कहा गया है जिसका अर्थ है ‘माया से मनुष्य-रूप में दीखनेवाले’| इसीलिए राम-चरित के रूप में तुलसीदास का रामचरित मानस ईश्वर के मानव-रूप की ही जीवन गाथा है| इसमें जो भी दिखाया गया है वही हम अपने और अपने समाज के जीवन में चारों ओर देखते है| राम, सीता, भरत, कैकेयी, हनुमान. बालि, विभीषण, कुम्भकर्ण. रावण आदि सभी प्रतीक हैं जिन्हें हम अपने जीवन में चारों ओर आज भी देख सकते हैं|

सुन्दर काण्ड की कथा का प्रारम्भ वहीं से होता है जहाँ किष्किन्धा कांड का अंत हुआ था| हनुमान पर्वताकार होकर एक ऊँचे पर्वत पर चढ़ गए थे जहाँ से उन्हें लम्बी छलांग लगानी थी|

     सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर, कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर|...
     जिमि अमोघ रघुपति कर बाना, एही भांति चलेउ हनुमाना|३. ३-४|    

सागर-पार लंका ४०० कोस (लगभग ८०० मील) की दूरी पर थी| किन्तु हनुमान को तो तुलसीदास ने सुन्दर काण्ड के प्रारम्भिक श्लोकों में ही ‘अतुलित बल धामं’ कहा है| और फिर ‘हनुमान-चालीसा’ में भी (जो उन्हीं की रचना है) कहा है – ‘प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं’| अपनी उड़ान में थोड़ी देर विश्राम के लिए वे एक पर्वत मैनाक पर रुक कर सुस्ताये और फिर उड़ चले| रास्ते में उन्हें सर्पों की माता सुरसा मिली जिसने उन्हें निगल लेने की कोशिश की पर जब असफल रही तो उनको राम का दूत जान कर असीसने लगी कि तुम सचमुच श्रीराम का कार्य सफलतापूर्वक अवश्य करोगे| आगे हनुमान को समुद्र में एक राक्षसी दिखी जो उड़ते हुए पक्षियों को उनकी छाया से ही उन्हें पकड़ लेती थी| लेकिन उसे भी हनुमान ने मार डाला – ‘ताहि मारि मारुतसुत बीरा, बारिधि पार गयउ मतिधीरा’| और अंततः हनुमान लंका पहुंचकर एक पर्वत पर जा उतरे|
      

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र -

लंका पहुंचकर पर्वत पर से ही हनुमान ने सारी लंका पर अपनी दृष्टि फेरी| 

     गिरि पर चढ़ी लंका तेंहिं देखि,कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी’|

दूर में हनुमान को एक बहुत बड़ा किला दिखाई दिया जिसके परकोटे सोने की तरह चमक रहे थे और जिनमें बहुत सारी मणियाँ जड़ी हुई थीं| चारों ओर वन-उपवन, सुन्दर पोखरे और तालाब दिखाई दे रहे थे| अपूर्व सुंदरियां और साथ ही भयंकर राक्षस भी चारों ओर घूमते दिखाई दे रहे थे| सभी द्वारों पर शक्तिशाली द्वारपाल तैनात थे| हनुमान ने सोचा कि एक मच्छर जितना लघु रूप बनाकर इस विचित्र नगरी में रात में ही प्रवेश करना ठीक होगा| लेकिन एक द्वार पर ही उन्हें लंकिनी नाम की राक्षसी मिल गयी जिसका एक ही घूंसे में उन्होंने अंत कर दिया| उसके बाद हनुमान एक-एक महल में जाकर सीता को ढूँढने लगे| एक महल में उन्हें रावण सोया दीखा पर सीता वहां नहीं थीं| तभी उन्हें एक महल में भगवान का एक अत्यंत सुन्दर मंदिर दिखाई दिया| वह विभीषण का महल था जहाँ मंदिर में हनुमान को श्रीराम के धनुष-वाण चिन्हित दिखाई दिए| वहीं विभीषण को देख कर हनुमान को लगा कि अवश्य यह श्रीराम का भक्त है| ब्राह्मण-रूप में हनुमान को देखकर विभीषण जान गया कि ये श्रीराम के दूत प्रतीत होते हैं| उसने हनुमान को बताया कि सीता से उनकी भेंट अशोक-वन में होगी| मच्छर के रूप में ही हनुमान जब वहाँ गए तो उन्होंने सीता को एक आशोक-वृक्ष के नीचे दुर्बल, उदास बैठे देखा| वे वहीं पेड़ के पत्तों में छिप कर बैठ गए| और तभी हनुमान ने देखा कि बहुत सी स्त्रियों से घिरा हुआ रावण वहां आया| उसने सीता को बहुत प्रलोभन दिए और फिर बहुत धमकाया भी कि वे उसकी अंकशायिनी बन जायें| पर सीता ने उसको फटकारते हुए कहा –‘सठ सूने हरि आनेहि मोही, अधम निलज्ज लाज नहीं तोही’| क्रोध में रावण ने सीता को मारने के लिये तलवार खींच ली, लेकिन अपनी रानी मंदोदरी के कहने से फिर राक्षसियों से सीता को समझाने-बुझाने को कह कर वह चला गया| राक्षसियां तब सीता को तरह-तरह से डराने-धमकाने लगीं लेकिन उन्हीं में से एक त्रिजटा नाम की राक्षसी ने उनसे रात के अपने सपने के बारे में कहा कि मैनें सपने में देखा कि एक बन्दर ने लंका में आग लगा दी है, और सारी लंका धू-धू करके जल रही है  -

      सपने बानर लंका जारी, जातुधान सेना सब मारी|
      खर आरूढ़ नगन दससीसा, मुंडित सिर खंडित भुज बीसा|१०.२|       

सारी सेना मार डाली गयी है और रावण नंगा, सिर मुंडाए हुए, गदहे पर सवार जा रहा है, और उसकी बीसों भुजाएं कटी हुई हैं| यह सपना बहुत बुरा है और लगता है रावण का अंत अब आ गया है|

     यह सपना मैं कहऊँ पुकारी, होइहि सत्य गए दिन चारी|१०.४|
      
     
सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र -३ 

त्रिजटा राम-भक्त थी – ‘त्रिजटा नाम राक्षसी एका,राम चरन रति निपुन बिबेका’| त्रिजटा का अपशकुन-भरा सपना सुन कर सभी राक्षसिनियाँ डर गयीं और वहां से चली गयीं| रावण के आतंक से सहमी हुई सीता ने त्रिजटा से कहा कि अब वे जीना नहीं चाहतीं और कहीं से अग्नि मिल जाये तो वे चिता में जल मरना चाहती हैं| इस पर त्रिजटा ने सीता को बहुत समझाया और धीरज रखने को कहा| त्रिजटा के चले जाने के बाद पत्तों में छिपे हनुमान ने सीता को अत्यंत व्याकुल देखकर धीरे से श्रीराम की दी हुई अंगूठी नीचे गिरा दी| सीता ने –

      तब देखी मुद्रिका मनोहर, राम नाम अंकित अति सुन्दर|
      चकित चितव मुदरी पहिचानी, हरष बिषाद हृदयं अकुलानी|१२.१|
सीता सोचने लगीं – ये तो श्रीराम की ही अंगूठी है| यह लंका में कैसे आयी? उनको तो कोई भी मार नहीं सकता! तभी हनुमान ने पत्तों में से धीरे से पूरा प्रसंग सीता को सुनाया, और फिर नीचे आकर सीता के हरण और उसके बाद की सारी  कहानी उन्हें सुनायी| कहा कि अब शीघ्र ही श्रीराम लंका आकर रावण का युद्ध में वध करेंगे और सीता को अपने साथ वापस ले जायेंगे| फिर भी जब सीता को एक साधारण वानर की बातों पर भरोसा नहीं हुआ तो तुरत हनुमान ने अपना विशाल रूप प्रकट किया जिसे देखकर सीता को पूरा विश्वास हो गया कि हनुमान की सारी बातें सच हैं| सीता से आज्ञा लेकर फिर हनुमान एक सामान्य बन्दर की तरह उस उपवन में पेड़ों पर कूद-कूद कर फल खाने लगे और डालों को तोड़ने लगे| जब रखवाले राक्षसों ने ललकारा तो हनुमान ने उनमें से कईयों को मार डाला| तब कुछ रखवालों ने जाकर रावण के दरबार में उसको इसकी खबर दी कि एक बहुत विशाल बन्दर सीताजी वाले उपवन में घुस कर तोड़-फोड़ कर रहा है और उसने अनेक राक्षसों को मार भी डाला है| यह सुन कर क्रुद्ध रावण ने अपने बहुत से वीर योद्धाओं के साथ अपने पुत्र अक्षय कुमार को वहां भेजा| लेकिन देखते-ही-देखते हनुमान ने सभी राक्षसों सहित अक्षय कुमार को भी मार डाला| -

      सुनि सुत बध लंकेस रिसाना, पठएसि मेघनाद बलवाना|
      मारसि जनि सुत बांधेसु ताही, देखिअ कपिहि कहाँ कर आही|१८.१|


इसके बाद अगले अंक में मेघनाद द्वारा हनुमान को ब्रह्मपाश में बांधकर रावण के दरबार में ले जाने की कथा आती है|

              [सुन्दरकाण्ड उत्तरार्द्ध पढ़ें अगले मंगलवार को]

इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   


Sunday, May 7, 2017

रामचरित मानस : पुनर्पाठ 
[ पूर्व के कथासार का विवरण नीचे देखें ]



किष्किन्धा काण्ड
कथासूत्र – १

रामचरित मानस की कथा में किष्किन्धा काण्ड सबसे छोटा है जिसमें केवल ३० ही दोहे हैं| किष्किन्धक पुराण-काल में भारतवर्ष का एक भौगोलिक क्षेत्र था जो वर्त्तमान मैसूर के आस-पास का क्षेत्र है| रामायण-युग में यह क्षेत्र घने जंगलों से भरा था| वानरराज बालि वहीं के राजा थे और किष्किन्धा उनकी राजधानी थी| सुग्रीव बालि का छोटा भाई था, और बालि के ही पुत्र का नाम अंगद था| बालि और सुग्रीव में झगडा हो गया था और बालि ने सुग्रीव को राज्य से निष्काषित कर दिया था जिसके बाद वह बालि के भय से निकट के ऋष्यमूक पर्वत पर अपने मंत्री हनुमान के साथ रहने लगा था| बालि ने सुग्रीव की पत्नी का भी हरण कर लिया था|

किष्किन्धा काण्ड में श्रीराम के सुग्रीव और हनुमान से मिलने की कथा है जब श्रीराम ने बालि को मार कर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाया था| पूरी कथा इस प्रकार है|

श्रीराम नारद मुनि से मिलने के बाद जब पम्पा सरोवर से आगे बढे तो दोनों भाई  उसी क्षेत्र में ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुंचे|

     आगे चले बहुरि रघुराया, रिष्यमूक पर्वत नियराया|
     तंह रह सचिव सहित सुग्रीवा,आवत देख अतुल बल सींवा|
     अति सभीत कह सुनु हनुमाना,पुरुष जुगल बल रूप निधाना|
     धरि बटु रूप देख तें जाई, कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई|१-२|

दो मनुष्यों को दूर से ही आता देख सुग्रीव डर कर अपने मंत्री हनुमान से बोला कि तुम एक ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण कर जाओ और देखो तो कहीं ये बालि के भेजे गुप्तचर तो नहीं हैं| उनसे पूछकर जैसा हो वहीं से तुम मुझको इशारे से बताना, क्योंकि अगर ये बालि के भेजे दुश्मन हैं तो मैं पहले ही यहाँ से भाग  निकलूंगा| हनुमान को यद्यपि पूर्वाभास हो गया था कि ये दोनों साधारण मनुष्य नहीं लगते, ये अवश्य ही अवतारी श्रीराम ही हैं| फिर भी जब वे दोनों भाइयों के पास पहुंचे तो उनसे उनका परिचय पूछा| श्रीराम बोले –

     कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए|
     नाम राम लछिमन दोउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई|
    इहाँ हरी निसिचर बैदेही,  बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही|१.१|

श्रीराम का परिचय सुनते ही हनुमान उनके चरणों पर गिर पड़े और कहा कि मंद-बुद्धि वानर होने के कारण ही वे उनको प्रभु-रूप में नहीं पहचान सके| फिर कहा कि आप वानरराज सुग्रीव से मित्रता कर लें जो इसी पर्वत पर अपने भाई बालि से त्रस्त होकर छिप कर रहते हैं| वह सीताजी को ढूँढने में अपनी वानरसेना के साथ आपकी पूरी सहायता करेंगे| इसके बाद हनुमान श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई को अपने कन्धों पर बिठा कर सुग्रीव से मिलाने ले चले|     
          
किष्किन्धा काण्ड                                           
कथासूत्र – २

हनुमान श्रीराम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठा कर जब ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के पास पहुंचे तो वह बहुत हर्षित हुआ और उसने दोनों भाइयों का ह्रदय से स्वागत किया| सीता-हरण का प्रसंग सुन कर उसने श्रीराम को बताया कि कुछ ही दिन पूर्व उसने देखा था कि कोई सीता का अपहरण कर आकाश-मार्ग से लेकर भागा जा रहा है| सीता – ‘हा, राम! हा, राम’ चिल्लाती जा रहीं थीं और उन्होंने अपने दुपट्टे का एक टुकड़ा गिराया था जो उसके पास है| श्रीराम ने उस टुकड़े को ह्रदय से लगा लिया| श्रीराम की व्याकुलता देखकर सुग्रीव ने उनको ढाढस देते हुए कहा, मैं सीता की खोज कराऊंगा आप निश्चिन्त रहें| फिर सुग्रीव ने श्रीराम को अपना दुखड़ा सुना कर कहा कि कुछ दिन पूर्व उसके भाई बालि का युद्ध मायावी नामक राक्षस से एक गुफा में हुआ था| गुफा के बाहर रक्त की धारा देख कर मैंने समझा कि बालि मारा गया और भय के मारे गुफा के मुंह पर एक बड़ी-सी चट्टान रख कर मैं  भाग आया था| बालि को मरा मान कर लोगों ने मुझको राजा बना दिया, लेकिन बालि लौट आया और मुझे विश्वासघाती समझ कर उसने मुझको बहुत मारा और राज्य से भगा दिया तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया| मैं आकर इस पर्वत पर रहने लगा क्योंकि एक शाप के कारण बालि यहाँ नहीं आ सकता| तब श्रीराम बोले – ‘सखा सोच त्यागहु बल मोरें,सब बिधि घटब काज मैं तोरें’| मैं तुम्हारी पूरी सहायता करूंगा, तुम मेरे बल की चिंता मत करो| फिर कहा मैं जब उसे मारूंगा तब उसको ब्रह्मा और शिव भी नहीं बचा सकेंगे  -

    सुनु सुग्रीव मारिहऊं बालिहि एकही बान|
     ब्रह्म रूद्र सरनागत  गएँ न उबरहिं प्रान |६|

जब सुग्रीव पूरी तरह आश्वस्त हो गया तब राम ने उससे कहा अब तुम जाकर बालि को ललकारो और उससे युद्ध करो| वह जब तुमको मारने चलेगा तभी मैं अपने वाण से उसका वध करूंगा| सुग्रीव बालि के पास जाकर गरज-गरज कर उसको ललकारने लगा| बालि तुरत निकला और सुग्रीव से युद्ध में भिड गया| बालि अत्यंत बलवान था और देखते-देखते उसने मुक्कों से मार-मारकर सुग्रीव को लहुलुहान कर दिया| इसी समय अवसर देख कर श्रीराम ने बालि के ह्रदय में वाण मारा और वह भूमि पर गिर पडा| कातर होकर घायल बालि बोल उठा –


     धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं, मारेहु मोहि ब्याध की नाईं|
     मैं बैरी सुग्रीव पियारा, अवगुण कवन नाथ मोहि मारा|८.३|

श्रीराम ने कहा तुमने अनीतिपूर्वक छोटे भाई की स्त्री का अपहरण कर लिया था| छोटे भाई की स्त्री, बहन और पुत्रवधू, ये सब पुत्री के सामान होती हैं – इनको जो बुरी दृष्टि से देखता है उसका वध करना ही न्यायसंगत है|

     अनुज बधू भगिनी सूत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी|
     इनहि कुदृष्टि बिलोकई जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई|८.४|

किन्तु, मैं तुम्हे सद्गति प्रदान करता हूँ और अब तुम्हारे स्थान पर सुग्रीव को राजा और तुम्हारे पुत्र अंगद को युवराज बनाता हूँ| इस प्रकार श्रीराम ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया और अंगद को युवराज घोषित कर दिया| सुग्रीव से श्रीराम बोले कि अब तुम सुखपूर्वक राज्य करो, किन्तु मेरे कार्य को कभी भूलना मत – ‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू,संतत ह्रदय धरेहु मम काजू’| फिर श्रीराम भाई लक्ष्मण के साथ निकट के प्रवर्षण पर्वत पर जाकर एक सुन्दर प्राकृतिक गुफा में रहने लगे|

रामचरित मानस की रामकथा में श्रीराम के सगुण और निर्गुण रूप साथ-साथ मिलते हैं| अर्थात, सगुण रूप में वे एक मानव की भांति व्यवहार करते दिखाई देते  हैं, किन्तु साथ ही अपने निर्गुण रूप में वे सदा ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति भी कराते रहते हैं| बालि का वध उन्होंने सगुण रूप में अनुचित के प्रतिकार के रूप में किया, किन्तु वहीं निर्गुण रूप में उसे सद्गति भी प्रदान की| चौदह वर्षों का वनवास उन्हें सगुण रूप में बिताना था, लेकिन राक्षसों का वध उन्हें निर्गुण रूप में अन्याय और अनाचार के लिए करना था, क्योंकि राक्षस पापाचार के ही प्रतीक हैं| सगुण रूप आँखों से देखा जा सकता है और निर्गुण रूप का मन में अनुभव किया जा सकता है|

किष्किन्धा काण्ड                                          
कथासूत्र – ३

सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर श्रीराम लक्ष्मण के साथ प्रवर्षण पर्वत पर रहने लगे थे| गर्मी का मौसम बीत चुका था और वर्षा ऋतु आ गयी थी| पूरा पर्वत-प्रदेश सुखावह हरियाली से भर गया था| यहाँ तुलसीदास वर्षा ऋतु में प्रकृति का सुन्दर वर्णन करते हैं| लेकिन साथ ही वे सुन्दर- सुन्दर उपमाओं में उपदेश भी देते चलते हैं, जैसे – ‘फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुण ब्रह्म सगुन भएँ जैसा’| तालाबों में कमल वैसे खिल गए हैं जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप में दिखाई देने लगे हों| अर्थात, पहले पानी के अन्दर अपने जड़ में वे कमल के फूल अदृश्य रूप में थे पर वर्षा ऋतु के आने पर वे सगुण रूप में फूल कर दिखाई देने लगे हैं|

इस प्रकार कुछ दिन में वर्षा ऋतु के बीतने पर शरद ऋतु आ गयी, पर सुग्रीव जैसे श्रीराम के वचन भूल बैठा था| तब लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर उसे भय दिखाया तो वह लज्जित डरा हुआ श्रीरामजी के पास आया और उनसे क्षमा मांगने लगा| फिर उसने अपनी विशाल वानर सेना को बुलाया और उनसे कहा –

     राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहुं चहुँ ओरा|
     जनकसुता कहुं खोजहु जाई, मास दिवस मंह आएहु भाई|२१.३-४|

इस विशाल वानर सेना में नील, अंगद, जाम्बवान और हनुमान जैसे महावीर वानर भी थे| वे सभी अब सीता की खोज में लग गए|  लेकिन हनुमान उन सबों में परमवीर थे| यह सोच कर श्रीराम ने उनको अपनी अंगूठी उतार कर दी और कहा कि इसे देखकर सीता तुम्हें पहचान जायेंगी| सभी वानर वन में चारों ओर घूमने लगे| तब उनकी भेंट एक गुफा में तप कर रही एक तपस्विनी से हुई| सब वानरों का स्वागत करते हुए उस तपस्विनी ने कहा कि अब तुम सभी वानर क्षण भर के लिए अपनी आँखें मूँद लो, और जब तुम आँखें खोलोगे तो तुम लोग अपने को एक समुद्र के तट पर खडा पाओगे, और उसके बाद सीता तुम्हें अवश्य मिलेंगी| लेकिन समुद्र तट पर पहुँच कर फिर सभी वानर सोच में पड गए कि अब आगे क्या होगा|    

समुद्र तट पर चिंता में डूबे हुए सभी वानरों को देख कर उनमें सबसे बड़े रीछ-राज  जाम्बवान ने उनको समझाते हुए कहा – तुम लोग व्यर्थ चिंता कर रहे हो – ‘तात राम कहुं नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु’| श्रीराम ब्रह्म के अवतार हैं और यह सब एक लीला-स्वरूप घटित हो रहा है| सीता की हमारी खोज अवश्य सफल होगी|

इसी समय पास की एक पर्वत-कन्दरा से सम्पाती नामक बूढा गिद्ध निकला| उसने इन वानरों की बातें बड़े ध्यान से सुनी थीं| वे उसके छोटे भाई जटायु के रावण से युद्ध की चर्चा कर रहे थे जिसमें जटायु रावण द्वारा  मारा गया था| सारा वृत्तान्त सुन कर सम्पाती बहुत दुखी हुआ और उसने सभी वानरों को बताया कि उसको एक ऋषि ने बताया था कि त्रेतायुग में श्रीराम परमब्रह्म के अवतार के रूप में आवेंगे और जब रावण उनकी पत्नी सीता को हर ले जायेगा तब वे उसका नाश करेंगे| उसने यह भी कहा कि रावण सीता को हर कर लंका ले गया जो सागर-पार त्रिकूट पर्वत पर बसी है| वहीं उसने सीता को अशोक वन में बंदी बना कर रखा है|

     मैं देखऊँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार|
     बुध भयऊँ न त करतेऊँ कछुक सहाय तुम्हार
     जो नाघइ सत जोजन सागर,करइ सो राम काज मति आगर||२८.१|

सम्पाती का यह सन्देश सुन कर सब वानर-गण सोचने लगे कि हम सभी में केवल हनुमान ही में इतना बल है कि वे ‘सत जोजन’ – चार सौ कोस की उड़ान भर कर सागर-पार लंका जा सकेंगे| तब बहुत सोच-विचार कर रीछ-राज जाम्बवान ने हनुमान से कहा –

     कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होई तात तुम्ह पाहीं|
     राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्वताकारा| २९.३३|

अपने बल की याद दिलाते ही हनुमान पर्वत के आकार के हो गए और लंका की ओर उड़ान भरने को तैयार हो गए|         


               || किष्किन्धा काण्ड समाप्त ||



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२०१७
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)

२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   


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