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Tuesday, February 13, 2024

 

पुलिस सेवा की अंतर्कथा : ‘मैडम सर’

आत्मकथा और आत्म-संस्मरण में एक अंतर यह हो सकता है कि आत्मकथा में जहां एक प्रकार की पूर्णता का भाव निहित प्रतीत होता है वहीं आत्म-संस्मरण में आंशिकता का बोध होता है, जिसमें अपूर्णता का एक प्रच्छन्न संकेत भी अवश्य होता है। मंजरी जरुहार की मूल अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनूदित नई पुस्तक ‘मैडम सर’ को इसी प्रसंग में ‘आत्म-संस्मरण’ की कोटि में रखना अधिक उपयुक्त लगता है, यद्यपि इस पुस्तक में उन्होंने अपने तीन दशक से अधिक की पुलिस सेवा का आद्योपांत लेखन प्रस्तुत किया है, जो अपने कथानक में एक संपूर्णता लेकर हमारे सामने आया है। आत्मकथा से उसको अलग करके देखने का एक  कारण यह तो अवश्य होता है कि आत्मकथा में जीवन के किसी एक पक्ष को ही उजागर होते देखना पर्याप्त प्रतीत नहीं  होता, विशेष कर यदि जीवन का चित्रण उसमें अपने सांगोपांग रूप में सामने नहीं आया हो।वैसे भी आत्मकथा लेखन जीवन को उसकी समग्रता में प्रदर्शित करता है जिसमें प्रारंभ से अंत तक एक निश्चित सोद्येश्यता एवं तदनुकूल एकसूत्रता के साथ-साथ जीवन के सभी पक्षों का बहुरंगी चित्रण समाहित होता है।इस विशेष अर्थ में ‘आत्मसंस्मरण’ को ‘आत्मकथा’ की एक प्रशाखा-विधा के रूप में ही देखना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है, और मंजरीजी की इस अत्यंत रोचक पुस्तक को हम यहाँ एक ‘आत्मसंस्मरण’ के रूप में ही देख सकते हैं। क्योंकि उनकी अभी तक की यह अकेली पुस्तक उनके जीवन के एक पक्ष-विशेष – उनकी पेशेवर पुलिस सेवा – का ही एक समग्र चित्रण प्रस्तुत करती है,और इसे अपनी संपूर्णता में उनकी आत्मकथा नहीं माना जा सकता। और इसीलिए हम इसे उनकी संभावित पूर्णतर आत्मकथा का एक ‘प्रील्यूड’ अथवा पूर्वाँकन मान सकते हैं। ऐसा मानने का एक कारण यह भी है कि इस पुस्तक में उन्होंने अपने व्यक्तिगत,पारिवारिक और सामाजिक जीवन अथवा ग़ैर-पेशेवर जीवन की कमतर चर्चा की है, जिससे उनकी स्मृति का फोकस उनकी पुलिस सेवा की समग्रता पर बना रहे। उनका उद्देश्य अपनी जीवन-गाथा को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत करना नहीं है, वरन् उसके एक सुदृढ़, सबल पक्ष को ही आलोकित करना है जिसमें नारी-सशक्तिकरण को निरंतर प्रकाश-वृत्त में रखना रचनाकार का प्रमुख उद्देश्य है।पुस्तक के समर्पण के शब्द इसकी पुष्टि करते हैं – “उन महिलाओं के नाम जिन्हें बेड़ियाँ मंज़ूर नहीं, जिन्हें विश्वास है कि राह न मिली तो अपनी राह वे ख़ुद बना  लेंगी”। एक असफल विवाह से मुक्ति और एक पुरुष-प्रधान प्रताड़क समाज के विरोध में नारी-संभावनाओं का असाधारण रूप से सफल प्रदर्शन, इस पुस्तक का वास्तविक अंतर्भूत महत्त्व स्पष्टतः इसमें दिखाई देता है।

मंजरी जारुहार को मैं उनके पिता श्री उदयराज सिंह और पितामह श्री राजा राधिकरमण के मार्फ़त बहुत पहले से जानता रहा हूँ, उनकी यह जो सांस्कृतिक विरासत उनके साहित्यिक संस्कारों को स्वर्ण-रेखांकित करती है। जब उनकी इस किताब के हिन्दी अनुवाद की सूचना पहले प्रकाश में आई तो सबसे पहले तुरत  मैंने उनकी मूल अंग्रेज़ी पुस्तक मंगा कर पढ़ी। बाद में इधर उन्होंने मुझको अपनी हिंदी अनुवाद वाली पुस्तक भेजी। अनुवाद मेरा भी प्रिय रचनाकर्म रहा है, इसलिए हिन्दी अनुवाद में मैंने इस पुस्तक को दुबारा पढ़ लिया।रंजना श्रीवास्तव का अनुवाद बहुत सुंदर और सफल है जिसका एक कारण मूल पुस्तक की  सहज, सरल अंग्रेज़ी भी है। अपनी पेशेवर पुलिस सेवा में – और इस मूल पुस्तक के लेखन में भी – मंजरी को अपने अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा का सद्यः लाभ प्राप्त हुआ है, यह मूल अंग्रेज़ी पुस्तक में हर जगह स्पष्ट दिखाई देता है। लेकिन एक बात जो विशेष रूप से रेखांकित करने की है, और जो पुस्तक के सामान्य पाठक के ध्यान में नहीं आयेगी, वह है हिन्दी कथा-लेखन की साहित्यिक विरासत से प्राप्त उनका विशिष्ट रचनात्मक संस्कार जो इस पुस्तक की शैल्पिक बुनावट में सूक्ष्म रूप से हर जगह दिखाई देता है।यह संतुलन कि कथानक का मूलाधार पेशेवर पुलिस सेवा की कहानी है और उसकी बुनावट में पारिवारिक जीवन के प्रसंगों का उल्लेख कितना हो, और उनमें कैसे प्रसंग चुने जाएं, यह एक सफल रचनाकार की शिल्पगत कुशलता का द्योतक है। इससे पाठक के लिए पुस्तक की रोचकता अलक्षित रूप से कई गुना बढ़ जाती है, क्योंकि इस तरह आख्यान की बहुरंगी विविधता -चित्रण में रंगों की सघनता और सजावट – उसकी कलात्मकता अधिक समृद्ध हो जाती है।

पुस्तक के ब्लर्ब में इसे “ एक महिला की नज़र से की गई भारतीय पुलिस सेवा की एक आंतरिक पड़ताल” बताया गया है।भारतीय पुलिस की छवि आम जनता में एक जटिल, असंवेदनशील, अलोकप्रिय व्यवस्था के रूप में ही रही है, जिसमें से औपनिवेशिकता का बदरंग आज भी पूरी तरह गया नहीं है। उसमें स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों का प्रवेश किस हद तक स्वीकार्य एवं कारगर हो पाया है, इसका एक जायज़ा इस प्रामाणिक आख्यान से अवश्य मिलता है। एक प्रकार से पुस्तक का शीर्षक ‘मैडम सर’ ही इस लोक-संरक्षक व्यवस्था के अंतर्विरोध और उसके भीतर के असमंजस की एक व्यंग्यात्मक झलक दिखा देता है।

पुस्तक के कथानक और उसके स्वाभाविक शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सहजता और प्रवाहमय रोचकता। सामंती और किसी हद तक राजसी परिवेश में बीते प्रारंभिक पारिवारिक उलझे-सुलझे जीवन के त्वरित चित्रण के बाद सीधे मुख्य आख्यान में पुलिस प्रशिक्षण (१९७६) और पटना कोतवाली के प्रशिक्षु थाना-प्रभारी से ऊपर उठते हुए दानापुर में सहायक पुलिस अधीक्षक, बोकारो और फिर पटना में पुलिस अधीक्षक एवं तदनंतर उप-महानिरीक्षक, फिर समयानुसार महानिरीक्षक के रूप में पदोन्नत होते हुए अंततः केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल में विशेष महानिदेशक के पद से २०१० में सेवा-निवृत्ति – लगभग ३५ साल की निष्ठावान एवं विशिष्ट सेवा का एक अत्यंत घटना-संकुल वृत्तांत पढ़ने को मिलता है। इस लंबे कार्य-काल में पुलिस-विभाग के विभिन्न पदों पर रहते हुए एवं साथ ही पारिवारिक स्त्रियोचित मर्यादाओं का पालन करते हुए व्यतीत एक आदर्श जीवन का आख्यान जितना रोचक है उतना ही प्रेरणाप्रद भी है।

पुस्तक के अंत में ये पंक्तियाँ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं – “इन पन्नों में मैंने एक महिला पुलिस अधिकारी के रूप में अपना जीवन परत-दर-परत सामने रखा (पर) मुझे लगता है कि एक समर्पित पत्नी, एक वात्सल्यपूर्ण माँ और एक अच्छी अफसर होना संभव है… अपने नारीत्व का मूल हमें संजोकर रखना चाहिए।”

स्त्री-पुलिस अफसरों की और भी आत्म-गाथाएँ उपलब्ध हैं, किंतु इस पुस्तक की विशेषता पुरुषों द्वारा लगभग पूर्णतः नियंत्रित इस समाजोपयोगी सेवा में स्त्रियों की संवेदनशीलता का हस्तक्षेप और दोनों – कठोर/ निर्मम और कोमल/ ममतामय – के  इसी अनन्य संतुलन में है, जिसे मंजरी जारुहार की यह पुस्तक अत्यंत कल्पनाशीलता एवं सफलता से प्रस्तुत करती है ।                                             

[राजकमल प्रकाशन के लखनऊ में आयोजित ‘किताब उत्सव  मंजरी जारुहार की इस पुस्तक पर उनके साथ मेरी एक बातचीत आप यूट्यूब पर 'किताब उत्सव' श्रंखला में
सुन सकते हैं |]           

 

(C) डा. मंगलमूर्ति  

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