भारतेंदु हरिश्चंद्र
साहित्य में अल्पायु में दिवंगत होने वाले रचनाकारों के
सृजनात्मक जीवन का अध्ययन एक पुस्तक का रोचक विषय हो सकता है | पूरी उन्नीसवीं सदी
में भारत में औसत आयु २५ वर्ष ही थी जो बीसवीं सदी में भी आजादी के बाद ही लगातार
बढ़ी है | हिंदी के महत्त्वपूर्ण लेखकों में सर्वाधिक अल्पायु – ३५ वर्ष - में मरने
वालों में भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं, जिन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध के मात्र
१७-१८ वर्षों में – जब कि आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का प्रारम्भ ही हो रहा था –
उन्होंने अकूत साहित्य लेखन किया | भारतेंदु वाले अपने संस्मरण में मेरे पिता ने
लिखा है -
उनकी ग्रंथावली छः बड़े-बड़े खण्डों में विभक्त है | उसमें
छोटे-बड़े लगभग पौने दो सौ ग्रन्थ हैं | पात्र पत्रिकाओं, कवि समाजों और सभा-सोसाइटियों के लिए लिखी गई स्फुट
रचनाओं की कोई गणना नहीं | हिसाब लगा कर देखा जाय तो जान पड़ेगा कि १७-१८ वर्ष का
समय अहर्निश लिखते ही बीता | हज़ारों पेज लिखा भी और संसार के अन्यान्य सुखों का
उपभोग भी किया | संभवतः प्रत्येक क्षण आनंद में ही बिताया |... और नाट्यकार ऐसे
सच्चे कि अंतिम समय में जब दासी समाचार पूछने आई तो कहा कि हमारे जीवन के नाटक का
प्रोग्राम नित्य नया छप रहा है – जिसके पहले दिन ज्वर की, दूसरे दिन शूल की और तीसरे
दिन खांसी की सीन तो हो चुकी; अब देखें लास्ट नाइट कब होती है !
मेरे पिता पिछली सदी में २० के दशक में बनारस में रहे थे |
उससे चौथाई सदी पूर्व भारतेंदु का निधन हुआ था | फिर भी अभी भारतेंदु की स्मृतियाँ
काशी-वासियों की दैनिक चर्चा का विषय थीं | शिवपूजन सहाय - प्रसाद और प्रेमचंद की मंडली के अन्तरंग सदस्य
रहे, काशी के उस साहित्य-तीर्थ में, भारतेंदु जिसके एक पूज्य देव-पुरुष जैसे ही थे
| इसी प्रसाद-मंडली के सदस्य थे विनोद शंकर व्यास जिनके पितामह पं. रामशंकर व्यास
बाबू हरिश्चंद्र के अन्तरंग मित्र थे और जिन्होंने ही पहले-पहल बाबू हरिश्चंद्र को
‘भारतेंदु’ उपाधि देने का प्रस्ताव किया था | शिवपूजन सहाय ने अपने काशी-प्रवास के
संस्मरणों (‘समग्र’, खंड-२) में उन दिनों की विस्तार से चर्चा की है | स्वयं मुझको
भी १२-१५ वर्ष बनारस में रहने का सौभाग्य मिला | वहां रहते हुए मैंने उन सभी
साहित्यिक महत्त्व के स्थानों को देखा था, जिसमें प्रेमचंद का गाँव लमही, प्रसाद
का गोवर्धन सराय का निवास, सुंघनी साव की दूकान, और भारतेंदु का चौखम्भा-स्थित
निवास – सब को मैंने घूम-घूम कर देखा और
उनके चित्र लिए |
मेरे पिता ने
भारतेंदु पर एक सुन्दर संस्मरण लिखा है (उपर्युक्त पंक्तियाँ वहीँ की हैं ) जिसमें
भारतेंदु की अभूतपूर्व दानशीलता तथा
भाषा-बहुज्ञता के दो प्रसंग विशेष स्मरणीय
हैं | भारतेंदु जी एक बार राजघाट के रेलवे पुल पर टहलने गए | वहां उनको पं. वंदन
पाठक मिले जिनके साथ एक गरीब ब्राह्मण भी था | पाठक जी ने उस गरीब ब्राह्मण की ओर
इशारा करके कहा कि इस दरिद्र ब्राह्मण की कन्या सयानी हो गई है, विवाह के लिए इसके
पास कोई धन नहीं है | आपकी दानशीलता के विषय में सुनकर आया है | पाठक जी की बात
सुनकर मुस्कुराते हुआ भारतेंदु बोले – अभी तो मेरे पास द्रव्य कुछ भी नहीं है |
अपनी ये सारी पोशाक दे देता हूँ | शहर
में इसे बेचने से विवाह योग्य धन मिल
जायेगा | और यह कहते हुए बदन से उतार कर भारतेंदु ने दुशाले की कुल पोशाक, अपनी
घडी-छड़ी आदि सब कुछ दे दिया, और अपने मित्र अम्बिका दत्त व्यास की चादर लेकर ओढ़ ली
|
दूसरी घटना और रोमांचक है | भारतेंदु एक बरात में कभी आरा आये
थे | भारतेंदु बहुभाषाविज्ञ भी थे – संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू-फारसी
के अलावा बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि कई भाषाओं पर उनका अधिकार था | शिव जी
ने अपने उसी संस्मरण में लिखा है :
(आरा में) उस समय लोगों के आग्रह से उन्होंने २६ पंक्तियों
में १३ भाषाओं की लिपियाँ लिखी थीं | उनकी वह अमूल्य हस्तलिपि आरा की नागरी
प्रचारिणी सभा को बाबू रामकृष्ण अग्रवाल ने दी थी | मैं सभा का सहायक मंत्री था और उस हस्तलिपि को शीशे
में मढ़ा कर अ. भा. हिंदी साहित्य सम्मलेन के पटना वाले दशम अधिवेशन की प्रदर्शनी
में ले गया था | लेकिन पता नहीं, उसे प्रदर्शनी से किसने गायब कर दिया |
इस देश में यह कोई अनहोनी
घटना नहीं है | मेरे पिता के जीवन में ( और स्वयं मेरे जीवन में भी) कई बार ऐसा
हुआ है जब लोग मूल्यवान साहित्यिक सामग्री लौटाने का वादा करके ले गए और फिर नहीं
लौटाया | शिवजी की तो बहुत सारी साहित्यिक सामग्री, उनकी पांडुलिपियाँ, डायरियां,
पत्र-संग्रह आदि दो प्रकाशकों ने – जो अब स्मृति शेष हैं - रख लिया, और बहुत आग्रह
के बाद भी नहीं लौटाया | स्वयं मेरी अपनी जानकारी में भी ऐसे लोगों की एक ऐसी सूची
है जिन लोगों ने साहित्यिक महत्त्व की सामग्री का चौर्य्यकरण किया और उसे अपने
उपयोग के लिए रख लिया, कभी लौटाया नहीं |
इस प्रसंग में एक अंतिम
दृष्टान्त ! आरा के शिवनंदन सहाय (१८६०-१९३२)
मेरे पिता के गुरुतुल्य साहित्यकार और भारतेंदु के प्रथम और सबसे प्रामाणिक
जीवनी के लेखक थे | उस जीवनी–लेखन के लिए कई बार काशी जा-जाकर सामग्री जुटाने में
‘उन्होंने घोर परिश्रम किया था’| उनके संस्मरण में शिवजी ने लिखा है -
व्रजनंदन सहाय
‘व्रजवल्लभ’ (शिवनंदन सहाय के पुत्र) जब रोग शैय्या पर मरणासन्न थे तब मैं उनसे
मिलने के लिए आरा गया था और उनसे पूछा था कि भारतेंदु-जीवनी की (उनके पिता द्वारा
संगृहीत) वह शेषांश सामग्री और बेठन में बंधा वह कागज़-पत्र का बस्ता कहाँ है ?
उन्होंने उत्तर दिया कि “पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, सब समेट कर उठा ले गए –
जीते-जी उसको लौटाया ही नहीं, मरने पर तो वह दुर्लभ ही हो गया |”
इसी सन्दर्भ में शिवजी की
डायरी की ये पंक्तियाँ विशेष रूप से उद्धरणीय हैं ] “नोटबुक, डायरी, बहुमूल्य
पुस्तक, महत्त्वपूर्ण चिट्ठी, सुन्दर पत्र-पत्रिका, खोज करके लिखे गए नोट आदि
अमूल्य एवं अलभ्य वस्तुओं को आँखों से ओझल होने पर पुनः प्राप्त करना असंभव होता
है | इन्हें दूसरों को देना या सुरक्षित स्थान से निकाल कर कहीं बाहर भेजना
दुर्भाग्य तो है ही, मूर्खता भी है | यह
स्वानुभूति है |”
ध्यातव्य है कि इस स्वानुभूति का सम्बन्ध शिवजी के नाम लिखे ‘निराला’जी के एक लम्बे और अत्यंत महत्त्वपूर्ण मूल पत्र से है, जिसे शिवजी ने सा. हिन्दुस्तान के तत्कालीन सम्पादक को प्रकाशनार्थ (जनवरी, १९६२ में ) रजिस्ट्री डाक से भेजा था, पर जिसे सम्पादक महोदय ने शिवजी के बार-बार लिखने पर भी नहीं लौटाया, और वह एक अनखुला रहस्य ही रह गया !
कॉपी राईट डा. मंगलमूर्ति / चित्र : सौजन्य गूगल