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Monday, April 10, 2017

रामचरित मानस : पुनर्पाठ 

अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

मानस-कथा का अगला खंड अयोध्या काण्ड है जिसमें राम के वनवास की कथा है.इसका प्रारंभ भी तुलसीदास शंकरजी और श्रीराम की संस्कृत-वंदना से करते हैं. तब कथा का सूत्र जोड़ते हुए कहते हैं 

      जब तें रामु ब्याहि घर आए, नित नव मंगल मोद बधाए|.|

चारों ओर आनंद ही आनंद छाया है | अब सब यही चाहते हैं कि श्रीराम को युवराज पद दिया जाये | राजा दशरथ भी अपनी वृद्धावस्था देखते हुए ऐसा ही चाह रहे थे | उन्होंने गुरुवर वशिष्ठ को बुला कर अपनी इच्छा जताई और यह समाचार सुनते ही अयोध्या में चारों ओर उल्लास छा गया | तुरंत राज्याभिषेक की तैयारियां होने लगी | सारा नगर सजाया जाने लगा | सर्वत्र बधावे बजने लगे | रनिवास में रानियाँ रत्न-धन खुले हाथों लुटाने लगी | श्रीराम और सीता ने वशिष्ठजी के चरण पखारकर आशीर्वाद पाया | लेकिन राम के मन में ऐसे समय में भरत और शत्रुघ्न के ननिहाल में होने का बहुत  दुःख था | उधर देवता राज्याभिषेक के संवाद से अलग चिंतित हो गए कि यदि राम अयोध्या में राज्य करने लगेंगे तब रावण आदि राक्षसों का नाश कैसे हो सकेगा | अतः वे माँ सरस्वती के पास गए और उनसे विनती की कि वे किसी तरह राम के वनवास की व्यवस्था करें | तब असमंजस में पड़ी सरस्वती लोककल्याण का ध्यान करके इसमें लगीं और रानी कैकेयी की प्रिय दासी कुबड़ी  मंथरा की बुद्धि उन्होंने भ्रष्ट कर दी | मंथरा का ह्रदय इस मंगलमय अवसर का उल्लास देख कर जलने लगा | उसने कैकेयी के पास जाकर अपना कपट-जाल फैलाया | कहा  तुम खुश हो रही हो और राजा की चाल नहीं समझतीं – ‘लखहु न भूप कपट चतुराई’? भरत को पहले ही ननिहाल भेज दिया है और इधर राम का राज्याभिषेक कर रहे हैं? तुमको राजा की यह चाल समझ में नहीं आती? इस पर पहले तो कैकेयी ने मंथरा को ऐसी अशुभ बात बोलने के लिए डांटा | बोलीं  प्रान ते अधिक रामु प्रिय मोरें, तिन्हके तिलक छोभ कास तोरें’? लेकिन सरस्वती द्वारा प्रेरित दुष्ट-बुद्धि मंथरा ने धीरे-धीरे कैकेयी की मति मार ही दी | कैकेयी के मन में कौसल्या के प्रति सौतिया-डाह सुलगा ही दिया | तब मंथरा ने कैकेयी को शहद  में घोल कर जहर की घूँट पिलाई और भरत के राज्याभिषेक और राम के बनवास की पूरी योजना समझाई | उसने कैकेयी को याद दिलाया और वह कथा बताई कि कैसे एक बार राजा दशरथ ने एक संकट से उबारने के लिए कैकेयी को दो वर कभी भी मांग  लेने का वादा किया था |

      दुई बरदान भूप सन थाती, मांगहू आज जुड़ावहु छाती |
      सुतहि राजु रामहि बनवासू, देहु लहू सब स्वत हुलासू |२१.|

कैकेयी पहले रात होते ही कोप-भवन में जाकर सो जाये और जब राजा मनाने लगें तब राजा को सौगंद देकर यही दोनों वर मांगे कि भारत का राज्याभिषेक हो और साथ ही राम का वनवास | मति-मारी कैकेयी ने मंथरा की सलाह मानते हुए ठीक उसने जैसे-जैसे बताया था वैसा ही किया और राज्याभिषेक की पूर्व-रात्रि में कोप-भवन में जाकर लेट गयी 


     
अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 
                  
श्रीराम के राज्याभिषेक के उल्लास में राजा दशरथ जब रात्रि में शयन के लिए कैकेयी के शयन-कक्ष में गए तब जैसे प्रेम ही शरीर धारण करके निष्ठुरता का आलिंगन करने जा रहा हो  –

      सांझ समय सानंद नृपु गयऊ कैकेई गेंह |
      गवनु निठुरता निकट किय जनु धरी देह सनेह |२४|

लेकिन वहां कोप-भवन जैसा दृश्य देख कर राजा दशरथ सन्न रह गए | कैकेयी अस्त-व्यस्त कपड़ों में, बिखरे बाल, जमीन पर औंधे मुंह पड़ी थी | राजा कुछ भावी अनिष्ट सोच कर कैकेयी को मनाने लगे 

      बार-बार कह राऊ सुमुखि सुलोचनि पिक बचनि|
      कारण मोहि सुनाउ गजगामिनी निज कोप कर|२५|

लेकिन कैकेयी को तो कामातुर पति से बस अपनी बातें मनवानी थी | उसे तो   मंथरा की सीख के अनुसार राजा से अपने  दोनों वादे पूरे करा ही लेने थे | झुंझलाती हुई बोली 

      मांगु मांगु पै कहहु पिय कबहूँ न देहु न लेहु|
      देन कहेहु बरदान दुई तेऊ पावत संदेहु | २७|

राजा को क्या मालूम था कि आज की रात कैकेयी उनके प्राणों की ही गाहक बन गयी है | हँसते हुए बोले 

        झूठेहूँ हमही दोषु जनि देहू, दुई के चार मांग मकु लेहु|
        रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्रान जाहुं बरु बचन न जाई|२७|

आँखें नचाते हुए कैकेयी ने अपना घातक तीर चला दिया 

      सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का.देहु एक बार भरतहि टीका|
      मांगऊँ दूसर बर करजोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी |
      तापस बेस बिसेषि उदासी, चौदह बरिस राम बनवासी|२८.-  

ताड़ के वृक्ष पर जैसे अचानक बिजली गिरी हो  राजा को तो सांप सूंघ गया | वे समझ गए कि विधि का विधान प्रतिकूल है | कैकेयी को तरह-तरह से मनाते-समझाते राजा बोले कि राम और भरत मेरी दो आँखों की तरह है | मैं कल ही दूत भेज कर भरत को बुलवाकर उसका राज्याभिषेक कर दूंग | राम तो उसको इतना प्यार करते हैं कि इससे सबसे ज्यादा ख़ुशी उन्हीं को होगी | लेकिन तुम राम के बनवास की अपनी यह अटपटी मांग छोड़ दो | राम के बिना तो एक क्षण भी जीवित रहना मेरे लिए असंभव है – ‘कहऊँ सुभाऊ न छलु मन माहीं, जीवन मोर राम बिनु नाहीं’ | लेकिन कैकेयी का ह्रदय तो पत्थर बन चुका था | बोली 

      कहइ करहु किन कोटि उपाया, इहाँ न लागिहि राउरि माया|
      देहु कि लहू अजसु करि नाहीं, मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं |
      होत प्रात मुनि बेष धरि जों न राम बन जाहिं|
      मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिय मन मांहीं|३२-३३|

राजा जान गए की कैकेयी आज उनका काल ही बन गयी है | व्याकुल होकर धम्म से पृथ्वी पर बैठ गए और हा राम, हा राम रटने लगे | इसी तरह तड़पते हुए राजा की रात बीती | सुबह जब चारों ओर बधावे बज रहे थे राजा शोक में डूबे पड़े थे | देर होते देख मंत्री सुमंत्रजी वहां आये और वहां का भयावह दृश्य देख कर समझ गए कि रानी कैकेयी ने जरूर कोई कुचाल चली है | रूखे स्वर में कैकेयी ने उनसे तुरत राम को लेकर वहां आने को कहा और राम के आने पर उनसे पूरी बात बताई | पर राम ने सब कुछ जान कर अपने मृदुल स्वभाव के अनुकूल माँ कैकेयी से कहा 

      सुन जननी सोइ सुत बड़भागी, जो पितु मातु बचन अनुरागी|...
      भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू, बीधि सब विधि मोहि सनमुख आजू|
      जों न जाऊं बन ऐसेहु काजा, प्रथम गनिय मोहि मूढ़ समाजा|४०.-४१.|

फिर अचेत पड़े अपने पिता को समझाते हुए राम बोले  तात, आप शोक क्यों कर रहे हैं | इससे तो मेरा ही जीवन धन्य होगा कि मैं पिता की आज्ञा का पालन कर पुण्य का भागी बनूँगा | और चौदह वर्ष तो देखते-देखते बीत जायेंगे | मैं और माताओं से भी आज्ञा ले लेता हूँ और शीघ्र ही वन के लिए प्रस्थान करता हूँ | राजा दशरथ वहीँ बिलखते पड़े रहे | राम माताओं से आज्ञा लेने चले गए |




अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : ३ 

राम के वन-गमन का समाचार आग की तरह पूरी अयोध्या में फ़ैल गया | चारों ओर सभी लोग कैकेयी को इस कुकर्म के लिए कोसने लगे| नगर की ब्राह्मणी-वृद्धाएँ तरह-तरह से कैकेयी को समझाने की कोशिश करने लगीं लेकिन वह टस से मस नहीं हुई | राज्य-तिलक के बंधन से मुक्त हो जाने से अत्यंत प्रसन्न राम पहले माता कौसल्या के पास गए और वन-गमन के लिए पिता की आज्ञा के विषय में बताया –‘ पिता दीन्ह मोहि कानन राजू, जंह सब भांति मोर बड काजू’. कौसल्या तो यह सुनते ही  निर्जीव सी हो गयीं | तब मंत्री के पुत्र ने उन्हें सारी बातें समझाई, राम ने भी माता को बहुत ढाढस बंधाते हुए कहा चौदह वर्ष तो देखते-देखते बीत जायेंगे और मैं फिर लौर आऊँगा | विधि के विधान को समझते हुए रोते-बिलखते पर दिल कडा करके कौसल्या ने राम को वन जाने की आज्ञा दे दी | लेकिन सीता को जब ज्ञात हुआ कि राम वन जाने की तैयारी कर रहे हैं तो वह व्याकुल हो गयीं और सास के पास आकर सिर नवाकर रोती हुई गुमसुम बैठ गयीं | तब कौसल्या ने राम से कहा कि सीता तो तुम्हारे बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकती इसलिए तुमको सीता को तो अपने साथ ले ही जाना होगा | किन्तु जंगल की कठिनाईयों के विषय में बताते हुए श्रीराम ने सीता को बहुत तरह से समझाने की चेष्टा की | तब रोती हुई सीता बोल उठीं

      प्राननाथ तुम्ह बिन जग माहीं,मो कहुं सुखद कतहुं कछु नाहीं|
      जिय बिनु देह नदी बिनु बारी, तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी|६४.३|      

राम समझ गए कि सीता उनके बिना जीवित नहीं बचेगी | तब कौसल्या को सीता को भी राम के साथ वन जाने की आज्ञा देनी पड़ी | सीता को असीसते हुए बोलीं, जाओ बेटी  -

      अचल होऊ अहिवातु तुम्हारा, जब लगि गंग जमुन जल धारा|६८.४|

तबतक लक्ष्मण भी रोते हुए दौड़े-दौड़े वहां आ गये | वे भी राम के साथ वन जाने की जिद पर अड़ गए | राम से बोले – ‘मोरे सबइ एक तुम स्वामी, दीनबंधु उर अंतरजामी’ | राम ने बहुत तरह से समझाने की कोशिश की पर लक्ष्मण साथ जाने की जिद पर अड़े रहे | सुमित्रा को मालूम हुआ तो वे भी अपना सिर धुनने लगीं लेकिन उनको भी ज्ञात था कि राम के बिना लक्ष्मण एक क्षण भी नहीं रह सकते | अतः माता सुमित्रा ने भी लक्ष्मण को राम के साथ वन जाने की आज्ञा दे दी |

उधर अयोध्या-वासियों की स्थिति भी – ‘बिकल मनहुं माखी मधु छीनेजैसी हो रही थी | सभी रो-बिलख रहे थे | अंततः सीता और लक्ष्मण के साथ राम राजा दशरथ के पास फिर वन जाने की आज्ञा मांगने गए | अपने ही वचन की सर्प-कुंडली में बंधे हुए राजा दशरथ को विवश होकर श्रीराम को वन-गमन के लिए आज्ञा देनी ही पड़ी | तभी तमकी  हुई कैकेयी वहां तपस्वियों का वेश बनाने के लिए वस्त्र, कमंडल आदि लेकर आ गयी और राम से उन्हें पहन कर शीघ्र वन के लिए प्रस्थान करने को कहा | कैकेयी की ऐसी निष्ठुरता देख कर राजा दशरथ मूर्च्छित हो गए | लेकिन श्रीराम ने तुरत तपस्वियों का वेश धारण कर लिया और सीता तथा लक्ष्मण के साथ गुरुवर वशिष्ठजी के चरण-स्पर्श कर वन की ओर निकल पड़े | पर  इसी के साथ रावण की लंका में तरह-तरह के अपशकुन भी  होने लगे |

यहाँ यह बताना उचित होगा कि रामकथा के ये सारे प्रसंग भगवान राम के मानवीय-रूप की लीलाओं को दर्शाते हैं | राम के विवाह से लेकर उनके वन-गमन आदि के ये सभी प्रसंग यही दर्शाते हैं कि मानव-रूप में अवतार लेने के बाद श्रीराम के जीवन में सब कुछ वैसे ही घटित होता जाता है जैसा हम अपने मानव-जीवन और समाज में चारों ओर घटित होते देखते हैं | तुलसीदास ने यह जताने की कोशिश की है कि मानव-जीवन का स्वरुप यही है हर्ष-विषाद, ईर्ष्या, द्वेष, दुष्टता आदि मानव-जीवन के कटु सत्य हैं  |लेकिन श्रीराम का चरित्र एक आदर्श चरित्र है | पूरी रामकथा में श्रीराम के इसी आदर्श चरित्र का दिग्दर्शन है कि अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना आचरण कितना संयमित और मर्यादित रखना चाहिए | उसे वही करना चाहिए जो उसके लिए सर्वथा उचित और धर्म-संगत है|


    
अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : ४

रामकथा मानव-जीवन और समाज की ही कथा है | जीवन का सारा सुख-दुःख, अच्छा-बुरा उसमें सब मिलता है | राम-कथा जीवन-कथा ही है | उसे कथा का रूप देकर लोगों के लिए रोचक बना दिया गया है, और उस कथा के सहारे ही उसमे धर्म और ज्ञान के सारे उपदेश जो वेद-पुराणों में मिलते हैं, भर दिए गए हैं, ताकि लोग कथा की तरह सुनते हुए उन उपदेशों को अच्छी तरह ग्रहण कर सकें |

पृथ्वी पर असुरों के आतंक के बढ़ जाने से ही देवताओं ने उनके नाश के लिए सारी योजना बनायी थी जिसके अनुसार कैकेयी की बुद्धि मारी गयी और राम को वन जाना पड़ा | क्योंकि राम वन नहीं जाते तो रावण का नाश कैसे होता? तो राम जब सीता और लक्ष्मण के साथ वन चले तो शोकाकुल दशरथ ने अपने मंत्री सुमंत्र से कहा कि आप उनके साथ रथ लेकर जाएँ और कुछ समय बाद उन्हें समझा-बुझाकर वापस ले आवें | लेकिन जब राम का रथ वन की ओर चला तो अयोध्या की प्रजा भी उसके पीछे-पीछे चली | राम के जाते ही सारी अयोध्या सूनी और भयावह लगने लगी | पहले दिन की संध्या में श्रीराम सबके साथ तमसा नदी के तट पर पहुँच कर ठहर गए | रात में श्रीराम ने अयोध्या-वासियों को लौट जाने के लिए  बहुत समझाया पर जब वे नहीं माने तब आधी रात के बाद जब सब लोग सो गए थे श्रीराम ने सुमंत्र से कहा – ‘खोज मारि रथ हाँकहु ताताआन उपाय बनिहि नहिं बाता’ | सुबह हुई तो श्रीराम को न पाकर अयोध्या-वासी व्याकुल होकर रोने-गाने लगे और फिर हार कर अयोध्या को लौट गए |

दूसरे दिन श्रीराम सीता, लक्ष्मण और सुमंत्र के साथ श्रृंगवेरपुर पहुँच गए | वहां सबने गंगा में स्नान किया | तबतक वहां नाव से गंगा पार करानेवाला केवट निषादराज आ गया | श्रीराम के दर्शन पाकर वह अत्यन्य आह्लादित हो गया और श्रीराम से अपनी कुटिया में चलने का आग्रह करने लगा | पर राम ने उसको समझाया कि वनवास के आदेश के कारण वे कहीं गृहवास नहीं कर सकत |. तब निषाद ने एक सुखद वृक्ष के नीचे उनलोगों के लिए कुश और पत्तों की एक सुन्दर सेज बनायी जिस पर रात में सब लोगों ने विश्राम किया | जब सुबह हुई तो फिर सबने स्नान किया और श्रीराम ने बड का दूध मंगा कर तपस्वी जैसा अपना जटा-जूट बनाया – ‘अनुज सहित सिर जटा बनाए, देखि सुमंत्र नयन जल छाये’ – और तब  सुमंत्र जी को समझा-बुझाकर अयोध्या लौटा दिया | फिर उन्होंने केवट निषाद से अपनी नाव से गंगा  पार कराने को कहा | श्रीराम के चरणों के स्पर्श से अहल्या पत्थर से पुनः जीवित हो उठी थी इस लिए निषाद ने इस बात की याद दिलाकर पहले श्रीराम के चरण अच्छी तरह पखारे तब उन्हें अपनी नाव पर बैठाया | उसे डर था कि कहीं श्रीराम के चरणों के स्पर्श से उसकी नाव भी कोई नारी न बन जाये | इस पर श्रीराम और लक्ष्मण खूब हँसे | नाव से नदी पार होने के बाद श्रीराम ने निषाद को कुछ दूर राह दिखाने के लिए साथ ले लिया | प्रयागराज पहुंचकर श्रीराम ने गंगा, जमुना और सरस्वती के त्रिवेणी-संगम का  दर्शन-पूजन किया और स्नान-पूजा के बाद वहां भरद्वाज मुनि के आश्रम में रात बिताई  फिर प्रातः उनसे विदा लेकर जमुना पार किया और आगे चले

      तेहि अवसर एक तापसु आवा, तेज पुंज लघु ब्यास सुहावा|
      कवि अलखित गति बेसु बिरागी, मन क्रम बचन राम अनुरागी|१०९.४|
      सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि|
      पारेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाई बखानि|११०|

कहते हैं ये तापसतुलसीदास स्वयं थे जिन्हें वहां प्रयाग में त्रिवेणी-संगम के पास श्रीराम-सीता और लक्ष्मण के साक्षात् दर्शन हुए थे | तुलसीदास को

      राम सप्रेम पुलकि उर लावा, परम रंक जनु पारस पावा|
      मनहूँ प्रेम परमारथ दोऊ,मिलत धरें तन कह सब कोंऊ|११०.१|

श्रीराम. सीता और लक्ष्मण तीनों ने उस तापस तुलसीदास को आशीर्वाद दिया | निषाद ने भी उस तापस को प्रणाम किया और उसके बाद श्रीराम ने निषाद को लौटा दिया | इसके बाद श्रीराम. सीता और लक्ष्मण आगे के मार्ग पर चले |


अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

तुलसी से मिलने के बाद श्रीराम. सीता और लक्ष्मण  तीनों उस वन प्रांतर में अपने मार्ग पर बढ़ते जाते हैं |

      आगें राम लखनु बने पाछें , तापस वेष बिराजत काछें|
      उभय बीच सिय सोहति कैसें, ब्रह्म जीव बिच माया जैसें|१२२.|

इसी प्रकार कुछ दूर चलने के बाद श्रीराम  सीता और लक्ष्मण मुनिवर वाल्मीकिजी के आश्रम के पास पहुंचे 

      देखत बन सर सैल सुहाए, बाल्मीकि आश्रम प्रभु आए|
      राम दीख मुनि बॉस सुहावन\,सुन्दर गिरी काननु जलु पावन|१२३.|

मुनिवर वाल्मीकिजी का आश्रम परम रमणीक स्थल में था | श्रीराम ने मुनिवर को प्रणाम किया और वाल्मीकिजी ने उन तीनों को आशीर्वाद दिया | बाल्मीकी मन आनंदु भारी. मंगल मूरति नयन निहारी | श्रीराम और मुनिवर वाल्मीकिजी के मिलन का यह प्रसंग रामायण के अत्यंत सुन्दर और सीख-भरे प्रसंगों में है | श्रीराम विनयपूर्वक वाल्मीकिजी से बोले कि हे मुनिवर! आप इतने सुन्दर स्थान में निवास करते हैं | मुझे भी पिता की आज्ञा के अनुसार चौदह वर्षों तक वन में निवास करना है | आप कृपा करके मुझे आस-पास कोई ऐसा स्थान बताएं जहां मैं एक पर्ण-कुटी बनाकर सीता और लक्ष्मण के साथी निवास कर सकूं | इस पर मुनिवर वाल्मीकिजी ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया 

      पूछेहूं मोहि कि रहौं कहँ मैं पूछत सकुचाऊं|
      जहँ न होहु तहं देहु कहि तुम्हहिं देखावौं ठाऊँ|१२७|

वाल्मीकिजी ने कहा कि ऐसा कौन सा स्थान है जहाँ आप नहीं हैं जिसे मैं आपको बता सकूं | इसके बाद कई दोहों और चौपाईयों में वाल्मीकिजी श्रीरामजी को बताते हैं कि श्रीराम तो जगदीश्वर हैं जिन्होंने मानव-रूप में अवतार लिया है – ‘नर तनु धरेहु संत सुर काजा’ | अब इस मानव-रूप में तो उनको  – ‘सोई जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हइ होई जाई’ | ऐसे परमेश्वर-स्वरुप श्रीराम का वास तो सर्वत्र है किन्तु बड़ी ही सुन्दर उक्तियों और उपमाओं से मुनिवर वाल्मीकिजी श्रीरामजी से कहते हैं कि वे सीता और लक्ष्मण सहित इन सात प्रमुख स्थानों में सदा निवास करें |

१.    उन कानों में जो आपकी पवित्र गाथा सुनते कभी अघाते नहीं |
२.    उन आँखों में जो आपके दर्शनों के लिए सदा लालायित रहते हैं |
३.    उन हृदयों में जो आपकी झांकी पाकर तृप्त रहते हैं |
४.    उनकी जीभ पर जो सदा आपके गुण गाती रहती हैं |
५.    उन नासिकाओं में जो आप पर चढ़ाए गए पुष्पों के सुगंध से पूरित रहती हैं |
६.    उन मस्तकों में जो सदा आपके चरणों में झुके रहते हैं |
७.    और उन चरणों में भी जो सदा आपके तीर्थों में भ्रमण करते रहते हैं |

इन सुन्दर उपमाओं से मुनिवर वाल्मीकिजी श्रीरामजी से निवेदन करते हैं कि हे प्रभु! आप सदा ऐसे ही भक्तो के हृदयों में निवास करते रहें |

      स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्हके सब तुम्ह तात|
      मन मंदिर तिन्हके बसहु सीय सहित दोउ भ्रात |१३०|

मानस का यह प्रसंग अत्यंत मनोहारी एवं ज्ञानवर्धक है और इसको पढने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है की श्रीराम की भक्ति का मूल-स्वरुप क्या है | श्रीराम को वन में भ्रमण करते हुए मुनिवर ने कई रमणीय स्थल दिखलाये और अंत में चित्रकूट पर्वत के पास पहुँच कर कहा 

      चित्रकूट गिरि करहु निवासू, तहं तुम्हार सब भांति सुपासू|

यहाँ गंगा की ही प्रशाखा नदी मंदाकिनी प्रवाहित हो रही है और यहीं पर अत्रि  आदि बहुत से श्रेष्ठ मुनिगण निवास करते हैं | आपके स्थायी निवास के लिए यह स्थान परम रमणीक है | आप अपनी कुटिया यहीं बनावें और चित्रकूट को अपने स्थायी निवास का गौरव प्रदान करने की कृपा करें |

आगे की कथा अगले मंगलवार को इसी ब्लॉग पर पढ़ें|





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