गंगा प्रसाद विमल
हिंदी के वरेण्य कवि एवं साहित्यकार श्री गंगा प्रसाद विमल का पिछले दिसंबर
में श्रीलंका के भ्रमण में एक मोटर दुर्घटना में दुखद निधन हो गया था | यह एक
अत्यंत हृदयद्रावक दुर्घटना हुई जिसमें उनके जामाता और नतिनी का भी देहांत हो गया
| मेरा विमलजी से बहुत निकट का परिचय नहीं था, लेकिन कभी-कभार की दो तीन मुलाकातों
में उनसे जब भी मिलना हुआ, बराबर ऐसा लगा हम सदा से परिचित रहे हों | दो-तीन
मुलाकातें याद आती हैं – पहली और दूसरी, दोनों दिल्ली में ही हुई थीं | पहली भेंट
एक जापानी कविता गोष्ठी में हुई थी, जहां मैंने और विमलजी ने भी जापानी से हिंदी
में अनूदित अपनी कुछ कविताओं का पाठ किया था | यही उनसे मेरी पहली मुलाकात थी | एक
प्रसिद्ध पिता का पुत्र होने के कारण और थोडा-बहुत मेरे यदा-कदा हिंदी लेखन के कारण
भी मुझको बहुत से लोग यों भी जानते हैं | उस जापानी काव्य-गोष्ठी में भी विमलजी
मुझसे बड़ी आत्मीयता से मिले, जैसे हम कभी के परिचित हों | उनसे मेरी दूसरी
मुलाकात – जेएनयू में आयोजित, २००८ में, मेरी ही अनुवादित पुस्तक, जापानी उपन्यास
‘चाबी’ के लोकार्पण में हुई, जिसमें डा. मेनेजर पाण्डेय और राजेंद्र यादवजी भी उपस्थित
थे, और राजेन्द्र यादव ने ही उस पुस्तक का लोकार्पण किया था और पुस्तक के सफल
अनुवाद की अभ्यर्थना की थी |
मूल जापानी उपन्यास का नाम भी ‘कागी’ था जो वहां १९५६ में प्रकाशित हुआ था और उसका
अंग्रेजी में हॉवर्ड हिबेट का किया अनुवाद १९६१ में ‘द की’ नाम से प्रकाशित हुआ था
| उपन्यास का विषय दाम्पत्य-जीवन के संश्लिष्ट मनोविज्ञान से जुड़ा था, और उन्हीं
दिनों उसका मेरा किया अनुवाद ‘ज्योत्स्ना’ पत्रिका में धारावाहिक छपा था | फिर इधर
आकर २००८ में मैंने उसे पुस्तकाकार प्रकशित किया | अपने वक्तव्य में मैंने इसी
पुनरानुवाद की जटिल प्रक्रिया पर अपने कुछ विचार प्रस्तुत किये थे | मूल भाषा से
सीधे किसी दूसरी भाषा में अनुवाद और अनूदित भाषा से पुनरानुवाद का प्रश्न अनुवाद
के भाषा-वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा और इसमें
मूल कृति के भाव-जगत का सम्प्रेषण किस सीमा तक या किस रूप में प्रभावित होता है,
मैंने अपने लिखित वक्तव्य में इसी प्रश्न पर विचार किया था | लोकार्पण-कर्त्ता
राजेन्द्र यादव जी ने किसी हद तक मेरे विचारों का समर्थन किया, और बाद के वक्ताओं
ने भी इस जटिल प्रश्न पर अपने विचार प्रस्तुत किए |
इस अवसर पर विमल जी से ये मेरी दूसरी मुलाक़ात थी, और बूफे में एक साथ बैठ कर
हम देर तक अनुवाद के विषय में काफी देर तक बातें करते रहे, क्योंकि विमल जी की
अभिरुचि भी अनुवाद कार्य में बहुत गहरी थी और मेरे वक्तव्य से वे बहुत प्रभावित
हुए थे |
विमलजी से मेरी अंतिम भेंट भी, २०१८ में बीएचयू में १२५वें सपादशती के
उपलक्ष्य में एक त्रि-दिवसीय सेमिनार में हुई थी, जो राहुलजी और शिवपूजन सहाय पर
आयोजित था | इस अंतिम अवसर पर भी अपने पिता के साहित्य पर – विशेष कर उनके आंचलिक
उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ पर - उनके साथ कुछ अन्तरंग बातचीत का समय मिला | मैं विमल
जी के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व से तो पूर्व-परिचित था ही, पर उनको राहुलजी पर
सुनने का मुझे वहीँ सुअवसर मिला था और फिर अपने पिता और राहुलजी के आत्मीय संबंधों
पर ही उनसे कुछ देर बातें होती रहीं थीं | हर मुलाकात में मेरी यह भावना दृढ हुई
कि विमलजी मृदुलता और सौजन्यता के मूर्त्त रूप थे |
विमल जी असमय चले गए, किन्तु उन्होंने साहित्य-भारती का भण्डार अपनी
प्रचुर सृजनशीलता से समृद्ध किया, और
शिक्षा और शोध के क्षेत्र में भी अपना मूल्यवान योगदान देकर गए | उनके असमय निधन
पर अपने ब्लॉग में मैंने उनको अपनी श्रद्धांजलि उन्हीं की एक कविता का अनुवाद करके
समर्पित किया | उस दिन जेएनयू की प्रो. उनीता सच्चिदानंद ने भी श्रद्धांजलि-स्वरुप
फेसबुक पर उनका स्मरण उनकी उसी हिंदी कविता से किया | दिल्ली की दोनों मुलाकातों
में उनीताजी ही कारक बनी थीं, क्योंकि वे वहां जापानी-भाषा की ही वरिष्ठ प्रोफ़ेसर
हैं | विमल जी की एक छोटी-सी कविता है – ‘रूपांतर’ जो अपनी सहजता में उस सघन संवेदना के कवि को हमारी
आँखों में साकार कर देती है, और अपने इस लघु-पुनर्स्मरण में आज उनकी स्मृति को उसी
अनुवाद से मेरी यह श्रद्धांजलि समर्पित है |
CHANGE
History
Myths
Are all false
The only truth
Is the tree
Till it bears fruit
It is truth
When it ceases to give
Either leaves
Or shadow
Its bark goes shrivelling
And one day it ends
Morphs into history
Into myth
And changes from truth
Into a lie
Quietly
Text & Photo
(C) Dr BSM Murty
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