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Thursday, October 28, 2021

 


सात शहरों का सफ़र

लखनऊ सातवाँ शहर है, जहां जीवन के इस अंतिम चरण में आकर मैं स्थिर हो गया हूँ | मेरा जन्म बिहार के दरभंगा जिले में लहेरिया सराय में हुआ – फिर मेरे पिता प्रोफ़ेसर होकर छपरा आये, तब पटना आना हुआ, फिर वहां से मैं भी प्रोफेसरी में मुंगेर पहुंचा | सेवा-निवृत्ति के बाद यमन की पुरानी राजधानी ताईज़ में रहा – लौट कर बनारस, और अंततः  सातवाँ शहर लखनऊ  | जीवन की रेलगाड़ी इस बीच कई और स्टेशनों पर रुकी – कहीं किसी जंक्शन पर कुछ अधिक देर भी, जैसे दो साल दिल्ली में  – पर रहना इन्हीं  सात शहरों में हुआ | और यह भी एक संयोग ही था कि मेरे पिता की जीवन-यात्रा में भी सात ही शहर आये | सबसे पहले – आरा, तब कलकत्ता, फिर लखनऊ (कुछ दिन ही), फिर बनारस, तब लहेरिया सराय, वहां से छपरा (जब मैं भी साथ जुड़ गया ) और अंतिम पड़ाव – पटना | पिता के जीवन के अंतिम तीन शहर ही मेरे प्रारम्भिक जीवन के शामिल तीन शहर रहे | मेरे पहले उनके जीवन में चार प्रवासी शहर आये और उनके बाद मेरे जीवन में भी चार ही  रिहायशी शहर आये | सोचता हूँ जीवन खुद कैसे अपने को एक तरतीब में सजा लेता है ? यह तब पता चलता है जब आप पाब-ए-रक़ाब होते हैं |

देश के पूरबी सिरे पर लहेरिया सराय में शुरू हुआ जीवन लखनऊ में पच्छिमी छोर पर आकर ख़तम होगा – जैसे कोई सीधी सडक हो जो थोडा दायें-बाएं मुडती-घूमती अपन गंतव्य पर पहुंची हो – यह कौन जानता था | यह यात्रा दिल्ली में भी ख़तम हो सकती थी – दिल्ली भी उतनी दूर नहीं थी – लेकिन दिल्ली से भी तो बड़े-बड़े हुनरमंद कभी लखनऊ चले आये थे सुपुर्दे-ख़ाक होने ! ज़िन्दगी के सफ़र का यह नक्शा शायद ये शहर ही आपस में मिल कर तय करते हैं – कब, कहाँ, कितने दिन रहना है |

अंतिम रूप से यहाँ लखनऊ आने से पहले दो या तीन ही बार कुछ-कुछ घंटों के लिए यहाँ आया था, शायद कुछ उसी तरह जैसे मेरे पिता यहाँ बस चंद महीनों के लिए आकर रहे थे | इन्हीं कुछ घंटों वाली दो या तीन आवा-जाही में लखनऊ की दो बड़ी अदबी हस्तियों से मिला था – पहली बार अमृत लाल नागरजी से शायद १९८५ में, और दूसरी बार श्रीलाल शुक्ल जी से १९९६ में |

दूसरी बार एक सेमिनार में आया था  जब ताज होटल में  ठहराया गया था | मेरे एक निकट के सम्बन्धी यहाँ SIDBI के निदेशक थे और उनका निवास इंदिरानगर में ही था | उन्हीं के साथ श्रीलाल शुक्लजी के यहाँ पहुँच गया | उस समय वे पूर्णतः स्वस्थ और सहज थे | उनके स्वागत में जैसे स्नेह का निर्झर बहने लगा | मेरे पिता के प्रति श्रद्धा-भाव ही उसका निर्मल जल था | ऐसा लगा हमलोग उसी पवित्र शीतल जल में स्नान करते हुए मेरे पिता के संक्षिप्त लखनऊ प्रवास की चर्चा में निमग्न हो गए |

शुक्लजी  से मेरा परिचय  उनकी अमर कृति राग दरबारी’ से ही हुआ था, जो हिंदी उपन्यास में एक नया मोड़ था | उपन्यास में एक व्यंग्य-वक्र दृष्टि से स्वतंत्रता के बाद देश के ग्रामीण जीवन के त्वरित शहरीकरण का एक राजनीतिक  भाष्य चित्रित हुआ था, और उपन्यास की इस नयी कथा-वस्तु  के लिए एक नयी प्रखर व्यंग्य में सनी कथा-भाषा का अविष्कार हुआ था, यह आद्योपांत कथानक में परिलक्षित होता था | सामान्यतः हर अभिनव शिल्प के साथ आने वाला उपन्यास एक नयी कथा-भाषा के साथ प्रस्तुत होता है |

उस समय ये सब बातें शुक्लजी से तो नहीं हुई थीं, लेकिन ‘देहाती दुनिया’ की कथा-भाषा के विषय में शुक्लजी ने कुछ ऐसी ही बातें की थीं, ऐसा याद आता है | इसी प्रसंग में ‘रंगभूमि’ की कथा-भाषा की भी चर्चा हुई थी, और फिर मेरे पिता के  उन थोड़े दिनों के लखनऊ-प्रवास की भी बाते हुईं थीं, जिसमें प्रेमचंद और निराला के साथ दुलारेलाल भार्गव के शुद्ध व्यावसायिक व्यवहार पर उन्होंने मनोरंजक टिप्पणियां की थीं | मैं अपने साथ प्रेमचंद के पत्रों वाली अपनी पुस्तक ले गया था जिसे मैंने उनको भेंट किया और उसमें प्रकाशित दुलारेलाल के पत्रों के बारे में उनको बताया | मेरे पिता दुलारेलाल के रूखे, साहित्यिकों से भी गद्दी वाले सेठ जैसे मालिकाना व्यवहार से ही आहत होकर ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग की सम्पादकीय चाकरी छोड़ कर लौट गए थे, क्योंकि दुलारेलाल साहित्यकारों को सम्मान देना जानते ही नहीं थे |

मैंने शुक्ल जी के उपन्यास ‘राग दरबारी’ में स्वतंत्रता के बाद की पंचायती व्यवस्था में होनेवाली पतनशील राजनीति के प्रसंग में  अपने गाँव के पंचायती चुनावों की राजनीति  के अपने निजी अनुभवों के विषय में भी  बताया, जिनकी चर्चा मेरे पिता ने अपनी पुस्तक ‘ग्राम-सुधार’ में की थी | जब मैंने उनको बताया कि मैं अपने पिता के ‘साहित्य-समग्र’ का १० खण्डों में सम्पादन कर रहा हूँ जिसमें उनका सम्पूर्ण साहित्यिक पत्र-साहित्य एवं उनकी पूरी डायरी ५ खण्डों में शामिल होगी तो वे बहुत प्रसन्न हुए | मैंने उनको यह भी बताया कि मैं अपने पिता के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहता हूँ, और प्रारम्भिक कुछ अंश का अनुवाद किया भी है, पर उसमें स्थानीय भोजपुरी प्रसंगों के अनुवाद में बहुत  कठिनाई हो रही है |     

शुक्ल जी के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का अंग्रेजी अनुवाद उस समय तक (पेंगुइन,१९९१ में)  हो चुका था, जिसकी  अनुवादिका गिलियन  राईट से बाद में मेरी मुलाक़ात लखनऊ आ जाने के बाद यहाँ शायद २०१४ में ‘लिट् फेस्ट’ में हुई थी, जिसमें उनके अनुवाद पर उनसे मेरी थोड़ी बातें भी हुई थीं, और उनसे भी मैंने ग्रामीण जीवन पर आधारित अपने पिता के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ के अंग्रेजी अनुवाद में होने वाली भाषा-सम्बन्धी कठिनाइयों की चर्चा की थी |  इसी प्रसंग में शुक्ल जी ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘पहला पड़ाव’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘ओपेनिंग मूव्स’(पेंगुइन,१९९३) – जिसका अनुवाद डेविड रूबिन ने किया था – उसकी एक प्रति अन्दर से लाकर मुझे भेंट की | दोनों पुस्तकों के अनुवाद अत्यंत सफल और सुन्दर हुए हैं,और दोनों के अनुवादकों के साथ शुक्ल जी ने अनुवाद-कार्य में  काफी सहयोग किया था | जैसे शुक्ल जी ने बताया कि ‘पहला पड़ाव’ शीर्षक के अनुवाद के विषय में उन्होंने रूबिन से कहा था कि उपन्यासों- कहानियों  के शीर्षकों के अनुवाद  हमेशा शाब्दिक नहीं हो सकते, क्योंकि वे कथानक और उसके संकेत को ध्यान में रखकर ही किये जाने चाहियें, जैसा उनके मूल-शीर्षक में होता है | हर भाषा का अपना सांस्कृतिक परिवेश और अपनी सांस्कृतिक सम्पदा होती है, जो अनुवादक के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है | अनुवादक की सबसे बड़ी समस्या होती है मूल की भाषा का एक ऐसा स्थानापन्न रूप तैयार करना जिसमें आद्योपांत मूल जैसी समरसता हो और जिसमें खास-ख़ास देशज शब्दों-मुहावरों-कहनों की समरूपता आविष्कृत की जा सके जो स्थानापन्न भाषा में अच्छी तरह खप जा सके | डेविड रूबिन ने अपनी अनुवादकीय प्रस्तावना में भी स्पष्ट लिखा है –

For many Hindi words –titles and nicknames, particularly, and certain foods – there are no exact equivalents in English. Both in order to keep the Indian flavor and to avoid any falsification I have in several cases retained the Hindi word. The context will usually be sufficient for understanding. A large number of Hindi words are now included in standard English dictionaries – pan, tilak, dhoti. etc.; such words require no definition here….

 

अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अनुवादकों – रूपर्ट स्नेल, रुथ वनिता, डेविड रूबेन, आदि ने अनुवाद के इस भाषाई पक्ष पर ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं | डेविड रूबेन ने उपर्युक्त प्रसंग में यह भी लिखा है कि –

Readers who compare the Hindi with the translation will in a few instances find an addition to or deletion from the original text; these have been made at the suggestion of the author.

 

श्रीलाल शुक्ल विश्व-साहित्य के भी उतने ही बहु-पठित विद्वान थे और सृजन-कार्य के अनुवाद पक्ष के तो गहरे परखी थे ही | मैंने उनसे अपने पिता की स्मृति में संगठित न्यास के विषय में बताया जो तब तीन वर्ष पहले स्थापित हो चुका था और उसके दो-तीन अधिवेशन-सत्र संपन्न हो चुके थे | मैंने उनसे अनुरोध किया कि आगामी ९ अगस्त को मेरे पिता की १०३ वीं जयंती न्यास द्वारा मनाई जाएगी और हमारी इच्छा है, उसमें कथा-साहित्य के भाषा-पक्ष  पर ही शुक्ल जी का स्मारक व्याख्यान हो | शुक्लजी  ने मेरे इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया, पर बाद में पत्राचार के क्रम में उन्होंने अस्वस्थ होने के कारण व्याख्यान में उपस्थित होने में अपनी असमर्थता बताई, और वह कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा |

 

शुक्ल जी से यही मेरी अकेली – पहली और अंतिम भेंट थी | उनकी स्मृति स्वरूप उनके अंग्रेजी उपन्यास ‘ओपेनिंग मूव्स’ की यह हस्ताक्षरित प्रति एक धरोहर की तरह मेरे पास रह गयी है | आज मैं उसी – अपने सातवें शहर लखनऊ में स्थायी रूप से रहने लगा हूँ | लेकिन अब तो यहाँ  एक अजनबी की तरह ही |  लखनऊ में भी मेरे पिता की स्मृति  में दो-तीन महत्त्वपूर्ण समारोह न्यास की ओर से मनाये गए हैं जिनके विवरण मेरे इन्हीं ब्लोगों पर उपलब्ध हैं | पुराने समय के अब एक ही व्यक्ति यहाँ  कवि नरेशजी से कभी-कभी मिलना होता रहा है, और अभी तो वह भी कोरोना-काल में नहीं हो पा रहा है | नरेश जी की एक         अविस्मरणीय पंक्ति है –

पुल पार करने से

पुल पार होता है

नदी पार नहीं होती

 

कुछ उसी मनोभाव में  मैं भी सोचता हूँ –

शहर बदलने से

अपनापा बदलता है

शहर नहीं बदलते |

 
 
चित्र : सौजन्य गूगल          

    

     

   

 

 

 

 

 

Sunday, September 19, 2021

Forgotten Stories : 1


 I am a woman first…

By Raja Radhika Raman


The tabla-player Ustadji’s fingers started playing on the tabla but Mohini’s feet, tied with strings of ringing bells, would just not move, let alone start the dance. Wiping the beads of perspiration from his forehead, the Ustadji kooked at Mirza, the sarangi player, who had started playing the soft tune in the mean time. Seventy years past, the Ustadji’s crown was already half-bald, only fringed with chalk-white hair. Ustadji’s hands, when not playing on the tabla, would always keep shaking, but once on the tabla, they would seem charged with electrical energy. Then you could hardly count his fingers there. For decades he had been playing tabla in countless mehfils of wealthy zamindars and aristocrats in their mehfils, but for the last three years he had been playing only for Mohini, living with her on her kotha, may be till his last breath, as he imagined.

He took a pan from the pandan with a pinch of fragrant zarda and looked towards Mirza who had slowly put down his sarangi to one side. One of the guests, in desperation asked the Ustadji – “Ustadji, shall we go then, without hearing any songs tonight?”

        “ What’s the matter beti?” the old man asked Mohini after a while.

        “ Please, Ustadji, I’d like to be forgiven tonight, but I’m not well. I don’t feel like singing at all today”, she said.

 She knew why. Scenes from the past flitted in her memory like dark clouds floating by in the sky. She had noticed Shekhar sitting among her guests, waiting for her song and dance performance. She was absolutely certain, it was Shekhar and none else. He had the same curly hair, that same fair-complexioned face and his slim body, with his large eyes that looked tipsy now. Yes, it was the same Shekhar, the flame of her heart in her early-girly days. It was only six years back. Meanwhile the young man suddenly rose to leave. Mohini was now doubly sure, it was none else but Shekhar.

 Mohini remembered how some years back Shekhar had come from his village, only twentyfive miles off the city where she lived. He must have come from his village by a bus leaving a trail of dust on the country road. His father lived in that village with five more siblings and his mother. In his Matric exams Shekhar had got high marks and had got himself admitted to a college in that city, but instead of living in the college hostel, Shekhar had chosen to live in a small rented room atop a house in a side narrow lane. And almost adjacent, at the corner of the lane, there was a large bungalow with a big compound where a car always remained parked. When he passed from there, Shekhar would often see a beautiful young girl in skirt standing by the railing of the compound amidst the flowers in the lawn. One day while returning from college, as he passed by and saw the girl standing there, she asked him –

          “Do you live in that room atop that house? May I know your name?”

          “Yes, I am Shekhar.’

He felt totally embarrassed as he stood facing a young beautiful girl in blooming youth.

         “ I often see your lights on till late in the night.”

        “ Yes”, replied Shekhar sheepishly. “I have to study for my coming exams.”

        “But keeping awake till late in the night might prove harmful for your health.”

       “ Yes, I know, but I must work hard for a good career.”  Saying this Shekhar hurried forward to his room. Though he had not seen, but he could feel there was a smile on the rosy lips of the girl as she stood watching him go. It was the first conversation between them.

          One day Shekhar asked her – “I often hear music and dancing on the upper floor of your house in the evenings?”

          ‘Yes, it’s my mother singing, and I do my dance practice under her training in the evenings.”

          That evening when Shekhar looked out of his room’s window, he found the girl staring at him. He felt a bit flustered. Was it a glance of desire, he wondered? The very next day when he met her, she openly professed her love for him. “Shekhar, I want to tell you that I love you. Can’t we be together somehow,” she just blurted out to him.

          Since that day, they started going out together to the market and other places in the city.

          “ Aren’t you married yet?” She asked him one day. Shekhar replied in the negative. She quickly said – “Can’t we get married then? I know we love each other!”

 Only a few days later Shekhar noticed a crowd assembled in the compound. He was told that Mohini’s father had died of a sudden heart-attack. The same night, Mohini came to his room and said- “ Shekhar, I have come to share a truth of my life with you. The man who died last night was not my father. In fact, my mother used to live with him as his kept woman, only as a singing-dancing tawaif, just for his pleasure. Now we must leave this house and go somewhere else. But when I told my mother about my love for you, she said,I could get married to you and we could then live together.”

 Shekhar was absolutely flabberghasted. How could he marry a tawaif’s daughter? Will his family accept her as his wife? But just to save the situation, he said. “ Mohini, give me some time to think about it. I’ll soon let you know my answer.” But the very next day, Shekhar shifted to some other place in the city. Mohini also had to move to another city with her mother.

 It was six year later that Shekhar, now a married man but a regular visitor to the locality of the tawaifs in that same new city, happened to ascend the steps of Mohini’s kotha. He had no knowledge that Mohini, too, had joined that sullied profession of a tawaif – now herself a dancing-singing prostitute. After this dismal discovery at Mohini’s kotha, as Shekhar came down the steps in great dejection, he kept thinking about that pretty youthful girl whom he had met and loved six years back. But he felt as if Mohini was following him and whispering in his ears – “ Tell me, Shekhar, what choice did I have in the circumstances, except to become a tawaif   for earning a living? I might have come to this ignoble profession just for a living, but I’m still a woman. The world may have compelled me to choose a sullied profession that I hate from deep within my heart, but how can it force me to choose whom to love. I have always loved only you. If you don’t understand my helplessness even then, what can I do? That has been my fate. And how can I change my fate?

 Mohini’s voice echoed louder and louder in Shekhar’s mind and soon he could bear that agony no more. He retraced his steps immediately to Mohini’s kotha. Mohini was utterly astounded to see Shekhar back at her place.

          “Shekhar, how come you are here again?”, she asked him totally puzzled

          “Yes, I have thought over it and decided to live only with you now”, said Shekhar impulsively.

          “ But how can that be? You are already a married man! No, no! Please go back to your wedded wife. I may be a tawaif, but I am a woman first!”                            

                                                                                                             [From 'Bikhare Moti-3']






Sketches Courtsey GOOGLE

(C)Dr BSM Murty

Note : Nothing is old in literature. Literature transcends time. What we write today is as readable, as what someone wrote a century ago; sometimes, may be still better. Here is a story published 50 years back, by a writer most people have forgotten all about. He was a zamindar-raja of a small estate in Bihar near Ara: Raja Radhika Raman. He was a celebrated figure in literary fiction, a contemporary of Premchand and novelists of that generation like Vrindavan Lal Varma, Chatursen Shashtri, ‘Kaushik’, ‘Sudarshan’, et al. I am writing and compiling two books on him that are shortly to be published by the Sahitya Akademi, Delhi. This short story, edited and translated by me is to be included in one of those two books.  In a short while there will be more on this blog about Raja Radhika Raman. My reminiscence on 'Raja Saheb' is published in my book 'Darpan Me We Din'. There will be more about these recently published books in my running FB posts and my blogs.

Saturday, September 4, 2021

 





रामविवाह

शिवपूजन सहाय

मधुर भाव के रामोपासाक कहते हैं कि आशिकमाशूक की तरह उपासना करनी चाहिए । रामजी का सुन्दर रूप बड़ा रिझवार है | सर्वांसुन्दर चिरतरुण रूप में लुब्ध प्रेयसी की भांति जब उपासना की जाती है जब राम रीझते हैं । जनकपुर के दुल्लह का मंगलमय वेश जब ध्यान में आता है तब वहां की मृग नयनी युवतियों की  लुभाई हुई टकटकी भी ध्यान में आती है |

        चारों भाई जब दुल्लह के रूप में जनकपुर के महल में गये थे तब यहां की सुन्दरी तरुणियों को अपने तनमन की सुधि भूल गर्इ । चारों ओर से चारो दुलहों को घेरकर वे  तरहतरह के विनोद करने लगीं । उस समय दोनों सुमित्रानन्दन ही अपनी सरस बातों से सुन्दरियों का चित्त चोरने लगे । रामजी और भरतजी केवल गंभीरता से मुस्कुराते रहे । रानियों का आनन्द अपार था ।

        जनकपुर के राजप्रसाद के सिंहद्वार पर अयोध्यानरेश की बरात लगी है | संगमर्मर के धवलोज्जवल महल में रत्नखचित स्वर्णस्तम्भों  के बीचबीच कर्पूर के दीपक और कस्तूरी की बत्तियां जल रही हैं । चौदह हजार चार सौ चौरासी खम्भों का सुविशाल मण्डप राजसी स्वागतसामग्रियों  से सम्पन्न है । सुगंधित फूलों की वर्षा अटारियों से हो रही है । अगहन मास है, सिंगारहार के फूल धूप-धूप  में आकाश के तारे हो रहे हैं । बरात के बाजेगाजे के साथ आगे श्वेत सुचित्रित सुसज्जित गजराज पर महर्षि वशिष्ठजी और महामुनि  विश्वामित्रजी विराजमान हैं । पीछे एकदन्त  महागजराज पर महाराज दशरथजी हैं । दोनों हाथियों पर ऊंची अटारियों से प्रसन्नवदना सुन्दरियां बारबार कुसुमांजलि छोड़ रही हैं । कस्तूरी के इत्र का सरस फाहा महाराज को लक्ष्य पर फेंका जा रहा है । आनन्दमग्न  महाराज हंसहंसकर सुख लूटते हैं । बरातियों को इत्रपान बंट रहा है । जाड़े की रात में भीड़ के मारे सबको गर्मी छूट रही है । पंखे झले जा रहे हैं । गुलाबखसकेवड़े का जल सर्वत्र सुलभ है । शीतल निर्मल जल शीतकाल में भी सुखद प्रतीत होता है । कानों से लगकर बोलने पर भी कोई किसी की बात कुछ नहीं सुन पाता । सुविस्तृत रेशमी मण्डप  देवताओं की पुष्पवृष्टि से लद गया है । पुष्पवृष्टि द्वारा पृथ्वी और आकाश पुष्पपाशबद्ध हैं । प्रेमपुष्पों का बंधन बड़ा आनन्दवर्द्धक होता है ।

        जनकपुर के महल का कनककपाट खुला । जरीदार मखमली पर्दा हटा । चार चंचल घोड़ों पर चार दुल्लह भीतर घुसे । बरात  तो बाहर की महोत्सव का आनन्द लेती रही । पर्दा फिर अपनी जगह पर । अन्दर अपसराओं से भी सुन्दरी नारियों की अपार भीड़ । वहां कोई पुरुपवर्ग नहीं । चार तगड़ी तरुणियों ने घोड़ों की लगाम थाम ली । चार नवेली नाइनों ने चारों दुलहों को घोड़ों से उतार लिया । उन नाइनों ने गोद में उठाकर चारों किशोरों को रानियों के बीच में चौके  पर बिठा दिया । रनिवास में परिछन और चुमावन होते समय रामजी मुस्कुराते ही रहे । उनकी मृदुमन्दमधुर  मुस्कान महिलाओं के मन को मोहने लगी । हजारों बड़ीबड़ी आंखें पलकों के अधर  खोल मुस्कानमाधुरी  पीने लगीं । एकटक निहारनेवाली आंखे न थकती थीं न अघाती थीं । चुमावन के समय विनोदवश उमंगभरी किशोरियां जब दुलहों के गाल मीड़ती थीं तब लखनलालजी दोनों भाई भी हंसकर बदला चुकाते थे ।

        जनवासे में बरात गई तो राजसी शान की तैयार देश दंग रह गई । भेदभाव के बिना सबका समान स्वागत । दास और दासी, रथ और हाथीघोड़े, नाना प्रकार के रस और फलफूल, विविध भांति के सुस्वादु भोज्य पदार्थ । इन्द्र और कुबेर का भाण्डार भी वैसा भरपूर न होगा । दासदासियों की अपूर्व सुन्दरता और सेवापरायणता पर बराती चकितस्तम्भितमुग्ध हो रहे । धन्य  जनकपुर !

        विवाहमण्डप में भी रामजी मुस्काते ही रहे । जानकीजी की नीची निगाह रामजी के चरणकमल में भ्रमरीसी लीन थी । प्रभु कभीकभी तिरछी कनखियों से भी महारानीजी की ओर देख लेते थे । मायापति के मायाजाल में मीनाक्षियां फंसकर तड़प रही थीं; पर सौन्दर्य सागर की आनन्दलहरी उन्हें जीवनदान देती चलती थी । वे तरंगों पर उछलती और प्रेमभंवर में डूबती थीं । उनकी लालसाओं के साथ रामजी की हंसीली आंखें खिलवाड़ करती थीं । धन्य मायापति!

        विवाह के बाद कोहबर । सोने के हिंडोले । दुलहों के साथ दुलहिनों को युवतियां झुलाने लगीं । सामने नर्त्तकियां नाचनेगाने लगीं । हास्यरस के रसीले गीत । मृदंग और वीणा  बजाने वाली कलावन्तियाँ नयनों को नचा-नचा कर और नार्त्ताकियां मुस्कराहट के साथ मनोरंजक भावभंगियां दिखाकर रिझाने लगीं । रामजी मुस्कानों की मदिरा पिलाकर मदिराक्षियों को बेसुध करते रहे । सीताजी की दृष्टि दृढ़ता से रामजी के चरणों पर अड़ी रही । अन्य दुलहिनें भी नतनयना थीं ।

        दुलहों को जेवनार के समय सुन्दरियों ने खूब हंसाया । अंगों के आकार की मिठाईयां देख दोनों छोटे भैया खिलखिला उठे । देहाकार के मीठेसलोने पकवानों को लखनलालजी मुट्ठी में मसल कर दिखाते और हंसाते थे । रामजी का रुख देख जब दोनों छोटे भाई चुपचाप जीमने लगे तब फिर सुन्दरी किशोरियों ने छेड़ा । अब दधिकांदों का क्रम चला । श्यामगौर कपोलों पर दही की छाली के गोल टुकड़े वैसे ही सोहते थे जैसे मरकत और कनक पर स्फटिक ।

        महाराज दशरथ की जेवनार हुई तो उनके साथ बड़ेबड़े राजा बरातियों सहित आये । जनकजी की भोजनशाला विचित्र सचित्र बनी थी । उसकी दीवारों और छतों में तीर्थों और देवताओं के रंगबिरंगे चारु चित्र थे । स्फटिक की बेदियों पर ऊनी कालीन और पीताम्बरी गद्दे । हाथी दांत की चुनमुनी चौकियां । उनपर सोने के थाल । छप्पनों प्रकार में सौरभ की बहार । हर सरदार के पास एकदो सेवक सुरक्षित जल की झारी सुराही लेकर खड़े । अटारियों पर सुन्दरियां सरस गाली गा रही थीं । इत्रपान की छूट ।

        दुलहों की उबटौनी होने लगी । नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से प्रस्तुत उबटन शुभांगी कामिनियां लगा रही थीं । रामजी की मांसल छाती, भुजा और जांघ पर उबटन का मर्दन हंसतेहंसते नेत्र नचानचाकर हो रहा था । प्रभु के ललाम लोचनों और अरुणाधरों में मुस्कान गोई हुई थी । लखनलालजी मसखरी का तुक मिला रहे थे । रानियां कौतुक देखती और विनोदानन्द लूटती थीं । धन्य मिथिला!

        जनकपुर में जिन सुन्दरी युवतियों का मनमतंग रामजी के अनूप रूप की रसधारा में क्रीड़ा करता रहा उन सबकी कामना एवं लालसा की पूत्ति के लिए रामजी ने कृष्णावतार धारण किया और वे सुन्दरियां गोपिकाएं होकर अवतरीं । रसिकशिरेामणि ब्रजमण्डलेश्वर कृष्ण के रूप में रामजी ने सबकी साध पूरी की । बरात चली गई, पर युवतियां जीवनभर श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी से छकी रहीं । राम का अलौकिक रूप ही अहर्निश उनके चिन्तनमनन का मुख्य विषय बना रहा । रामजी के रूप का जादू जनकपुरी युवतियों पर ऐसा छा गया कि वे प्रेमोन्मादिनीसी होकर रामजी के सेवा में ही रहने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए दिनरात प्रति क्षण ईश्वर प्रार्थना करती रहती थीं । भूख और नींद हराम हो गई । हा राम, हा राम ही रट कण्ठ के भीतर लगी ही रहती थी । पतिसेवा तथा गुरुजनों की परिचर्या करते हुए भी उनका मन रामरूप में ही अनुरक्त रहता था ।

        रामरूप जिस किसी ने देखा वही उसका उपासकआराधकचिन्तक हो गया । वह रूप ऐसा था कि आंखों में उसके बस जाने पर फिर दूसरा कोई रूप आंखों में अंटता या समाता ही न था । आंखों में रामरूप के व्याप्त होने पर दूसरे किसी रूप के लिए जगह नहीं रह जाती । सर्वव्यापी का व्यापक रूप जहां अड्डा बांधकर जम गया वहां दूसरा रूप कैसे समायेगा ? धन्य वह आंख! धन्य वह मन! दोनों मिलकर उस रूप को आयत्त करें तो अहो भाग्य!

 

              

 राम विवाह छवि वर्णन

    परम पुनीत पीत धोती  द्युति बालरवि दामिनी की ज्योती हरति छवि भूरी है ।

    कलितललित कल किंकिंणि मनोहर कटिसूतू दीर्घ बाहु मणिभुषण सों पूरी है ।

    पीत उपवीत शुभ यज्ञ व्च्याह साज कर मुद्रिका विलोकि मार भागि जात दूरी है ।

    सोहत उरायत महँ भूषण प्रभासमान मञ्जु नखसिखतें सुशोभा अतिरूरी है । ।

    मुक्तामणि झालर सब अञ्चल संवारे चारु पीत कांखासोती सो उपरणा सुभसाजे हैं ।

    कोमल कमल दल लोचन अमल रूरे कलकान कुण्डल सुलोल छवि छाजे है ।

    सकल सुदेश सुखमाके उपमा के चारु माधुरी सुभगता नखसिखते विराजे हैं ।

    भौंह बंक नासा शुकतुंड भालविन्दु चनद्र केसर तिलक छविधाम भल भाजे हैं ।।

सवैया

          कुन्तल कुञ्चित मेचक चिक्कण और मनोहर सोहत मांथे ।

            हंस की दीप्ति हरे अति ज्योति सुमंलमय मुक्तामणि गांथे ।

            मौलि सुदेश की कान्ति महामणि बीच रचे कुसुमावलि साथे ।

            मञ्जुल मौन अनूप छटा छकि गे शशि मैनहूं के मद नाथे ।।

 

©आलेख 'समग्र', न्यास तथा चित्र : डा.मंगलमूर्त्ति /  मिथिला चित्र:सौजन्य गूगल

Wednesday, April 21, 2021

 
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‘देहाती दुनिया’- प्रसंग : १  

शिवपूजन सहाय का गाँव ‘रामसहर’

मंगलमूर्त्ति

बात लगभग सवा सौ साल पुरानी है | बक्सर से कोई १५ किमी दक्षिण में एक गाँव है – ‘उनवांस ’ | वहीँ मुंशी वागीश्वरीदयाल के परिवार में सं. १९५० में श्रावण कृष्ण त्रयोदशी – अंग्रेजी तिथि, ९ अगस्त, १८९३ -  को एक बालक का जन्म हुआ था | उससे पहले वागीश्वरी दयाल की दो-तीन संतानों की अल्पायु में ही मृत्यु हो चुकी थी | बहुत मन्नत-मनौतियों और पूजा-पाठ के बाद मुंशी वागीश्वरीदयाल के परिवार में इस बालक का जन्म हुआ था – डुमरावं-राज्य के राजगुरु पं. दुर्गादत्त परमहंस के हवन-कुंड से प्राप्त ‘विभूति’ के प्रताप से | परमहंसजी  ने ही नवजात शिशु का नामकरण किया था  –‘शिवपूजन’ | यही बालक आगे चल कर ‘हिंदी-भूषण’ शिवपूजन सहाय के  नाम से आधुनिक हिंदी-साहित्य में विख्यात हुआ | अपनी आत्म-संस्मरणात्मक पुस्तक ‘मेरा बचपन’ (१९६०) में अपने बचपन की यह पूरी कहानी शिवपूजन सहाय ने स्वयं विस्तार से लिखी  है |

शिवपूजन सहाय की अमर कृति ‘देहाती दुनिया’ का ‘रामसहर’ उनका यही अपना गाँव ‘उनवांस’ है | और ‘देहाती दुनिया’ के  कथा-नायक - ‘भोलानाथ’ के बचपन की कहानी वास्तव में शिवपूजन सहाय के ही बचपन की कहानी है जिसे आगे चलकर शिवपूजन सहाय ने अपनी  प्रारम्भिक आत्मकथा के रूप में ‘मेरा बचपन’ शीर्षक से बच्चों की एक किताब के रूप में लिखा था  | इन दोनों पुस्तकों को मिला कर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि ‘देहाती दुनिया’ का  ‘भोलानाथ’ और कोई नहीं ‘शिवपूजन सहाय’ स्वयं हैं ( और बचपन के अपने निजी संस्मरण में भी उनका बचपन का घरेलू नाम ‘भोलानाथ’ ही है) | अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘मेरा बचपन’ में शिवपूजन सहाय ने अपने जीवन के प्रारम्भिक १०-१२ वर्षों की पूरी  कहानी लिखी है | यह बचपन के संस्मरणों की पुस्तक अब ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ के खंड-२  में उनके सम्पूर्ण संस्मरण-साहित्य के साथ उपलब्ध है |

‘देहाती दुनिया’ में भोजपुर क्षेत्र के एक कल्पित गाँव  ‘रामसहर’ के  एक ज़मींदार बाबू रामटहल सिंह की कहानी है | ‘भोलानाथ’ के (अनाम) पिता उन्हीं बाबू रामटहल सिंह के  दीवान  हैं | उसी गाँव की बेटी,  ‘भोलानाथ’ की माँ, जो अपने पिता की एकमात्र संतान थी, पिता के मरने के बाद, अपने घर की जमीन-जायदाद संभालने के लिए अपने पति के साथ  आकर अपने  मायके के गाँव ‘रामसहर’ में ही बस गयी है | वास्तव में ‘देहाती दुनिया’ के ‘भोलानाथ’ की यह कथा स्वयं लेखक शिवपूजन सहाय के अपने पूर्वज ‘सुथर दास’ की ही  कहानी है जिसे शिवपूजन सहाय ने अपने पूर्वजों से सुना होगा | पांच-सात  पीढ़ी पहले उनके ही पुरखा ‘सुथर दास’ गाजीपुर जिले के शेरपुर गाँव से अपने माता-पिता के साथ आकर, कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में,  उनवांस (अपने ननिहाल)  में बस गए थे | सुथर दास का वंश फिर उनवांस में ही फूला-बढ़ा, और शिवपूजन सहाय के परिवार के वंशवृक्ष के अनुसार सुथर दास के बाद  उनके पौत्र अथवा प्रपौत्र देवी दयाल (बीच की पीढ़ियों में कुछ अस्पष्टता है) के पुत्र वागीश्वरी दयाल के ही ज्येष्ठ पुत्र हुए शिवपूजन सहाय |

‘देहाती दुनिया’ उपन्यास में वाचक  ‘भोलानाथ’ के पिता ‘रामसहर’ के जमींदार सरबजीत सिंह के बेटे रामटहल सिंह की दीवानगिरी संभालने उनवांस आये, जिस पद पर पहले उनके (अनाम) ससुर काम करते रहे थे | इस ज़मींदारी और दीवानगिरी का कथा-सूत्र शिवपूजन सहाय के अपने समय की परिस्थिति से मिलता-जुलता है, क्योंकि आगे चल कर शिवपूजन सहाय के पिता वागीश्वरी दयाल भी आरा के ज़मींदार बक्शी हरिहर प्रसाद सिंह के पटवारी-पद पर काम करते थे, जो दीवानगिरी ही जैसा काम था | हालांकि उससे पहले वागीश्वरी दयाल के पूर्वज साधारण काश्तकार किसान ही थे | सुथर दास के पिता भी अपने मृत ससुर की जमीन-जायदाद संभालने उनवांस आकर बसे थे, पर उनको किसी जमींदार की दीवानगिरी मिलने की कोई बात ज्ञात नहीं है | उपन्यास की कथा संरचना में – ‘भोलानाथ’ का अपने ननिहाल में आकर बसना, और उनके पिता का ‘राम सहर’ के ज़मींदार बाबू रामटहल सिंह की दीवानगिरी संभालना – लेखक की अपनी पारिवारिक पूर्व-गाथा के  इन दो सूत्रों (अतीत और वर्त्तमान) को एक आत्मकथात्मक कथानक में पिरोया गया है, ऐसा स्पष्ट  प्रतीत होता है |

इस उपन्यास को लिखने के ७-८ वर्ष पूर्व - जब वे आरा में स्कूल शिक्षक थे और अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ ही कर रहे थे - शिवपूजन सहाय ने अपनी १९१६ की डायरी में लिखा था कि वे  ‘देहाती दुनिया’ नाम से एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखना चाहते हैं, जिससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि उनका यह उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ - आत्मकथात्मक करघे पर बुनी हुई, गाँव के लोगों के ओढ़ने की एक चादर-जैसी   कृति है, और ‘राम सहर’ और उस गाँव के सभी चरित्र उस चादर पर बने बेल-बूटों की  तरह  शिवजी के अपने गाँव-जवार के ही चरित्र हैं | जीवन के अंतिम वर्षों में लिखे शिवजी के कुछ ग्रामीण चरित्रों के शब्द-चित्रों  – ‘महेस पांडे’, ‘उदित पांडे’, ‘लोकनाथ पंडित’, आदि  - को पढने पर यह धारणा और संपुष्ट होती है कि शिवजी की ‘देहाती दुनिया’ के चरित्र और उनका परिवेश उनके अपने गाँव उनवांस के आस-पास के ही हैं |  वस्तुतः, ‘मेरा बचपन’ और इन कुछ पूरक शब्द-चित्रों को पढने से यह धारण और दृढ होती है कि ‘देहाती दुनिया’ की – ‘राम सहर’ की - यह कहानी  लगभग पांच-सात पीढ़ी पहले की उनकी अपनी  पारिवारिक जीवन-गाथा के धागों से ही बुनी हुई कहानी है | स्पष्टतः,‘देहाती दुनिया’ उपन्यास के ताने-बाने में यह कथानक लेखक की अपनी जीवन-स्मृति-सामग्री के  अर्द्ध-सत्य और आधी कल्पना की ही एक कलात्मक बुनावट है |

शिवपूजन सहाय का जब जन्म हुआ (१८९३ ई.) तब उनकी दादी जीवित थीं, हालांकि दादा देवीदयाल मर चुके  थे | अतः, अधिक संभावना है कि शिवजी ने अपनी दादी (‘नारायणी’) से या पिता और चाचा लोगों से ही सुथर दास के पिता के शेरपुर से आकर उनवांस में बसने वाली यह कहानी सुनी हो, और उसीको अपने उपन्यास के  कथानक का आधार बनाया हो |

जिला गाजीपुर का शेरपुर गाँव तो आज एक छोटा शहर बन चुका है | पुराना यह शेरपुर गाँव गंगा नदी के उत्तरी  छोर पर (उत्तर प्रदेश में) ही स्थित है, और दक्खिनी छोर पर है बक्सर (जो अब बिहार में एक नया  जिला-मुख्यालय है), जहाँ से उनवांस गाँव सीधे १५ किमी दक्षिण पड़ता है | शेरपुर से ही सुथर दास (शिवजी  के पूर्वज) अपने पिता-माता के साथ अपने मृत नाना की जमीन-जायदाद संभालने  ननिहाल-गाँव  उनवांस में आकर बस गए थे जो वास्तव में ‘देहाती दुनिया’ के कथानक का ‘रामसहर’ गाँव ही  है | उपन्यासकार ने अपने उत्कृष्ट शिल्प-कौशल से उपन्यास के कथानक को इन दोनों गाँवों को आधार बनाकर  – और अतीत और वर्त्तमान के घटित तथ्यों को जोड़-घटाकर बुना है, और इसमें बहुत सारी भौगोलिकता को जान-बूझ कर अस्पष्ट रहने दिया है  | उपन्यास के पहले अध्याय ‘माता का अंचल’ में यद्यपि पिता के मछलियों को दाना खिलाने गंगा-तट की और जाने का ज़िक्र है – जिससे एक अस्पष्ट संकेत मिलता है कि इस समय ‘भोलानाथ’ का शैशव अपने पिता के गंगा-तटीय गाँव में ही बीता था, जो उपन्यास की कथा-संरचना के अनुकूल है | फिर कुछ बड़े होने पर ही वह अपने माता-पिता के साथ अपने ननिहाल के गाँव ‘राम सहर’ में आया था, लेकिन ध्यान से देखने पर लेखक का इस तथ्य को एक कुहासे में अस्पष्ट बनाये रखने का यह प्रयास उसके संश्लिष्ट कथा-शिल्प की पुष्टि करता है | और इस प्रकार उपन्यास का यह संश्लिष्ट कथा-शिल्प, कल्पना के स्तर पर, पिता और माता के इन दो गाँवों को ‘रामसहर’ के रूप में एक-दूसरे पर अध्यारोपित कर देता है | इसीलिए वाचक के बचपन की आत्म-स्मृति का यह ‘राम सहर’ गाँव ‘उनवांस’ गाँव ही है |      (ध्यातव्य है कि उनवांस गाँव  से सटे पूरब एक ‘कोचान’ नदी भी बहती है जो फिर उत्तर में गंगा में जा मिलती है |) इस तरह उपन्यास के शिल्प में, बचपन के अपने उनवांस गाँव की ‘कोचान’ नदी ही ‘गंगा’ का रूप ग्रहण कर लेती है | यह स्मृति-विज्ञान की एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है जो उपन्यास को एक मिथकीय कुहेलिका से आवृत्त करता है |  

उपन्यास के अंत में, जैसे कथावृत्त पूरा हो रहा हो, कहानी फिर एक बार ‘भोलानाथ’ के उसी गंगा-तटीय ददिहाल के अनाम गाँव की ओर लौटती है, जब ‘भोलानाथ’ अपने पिता के साथ ददिहाल के उसी गाँव के मूसन तिवारी के भतीजे की बरात में उधर ही पास के किसी गाँव में जाता है | पर जब ‘भोलानाथ’ पिता के साथ उस  बरात से अपने  ददिहाल के गाँव लौटता है, तभी ननिहाल वाले गाँव ‘रामसहर’ से  रामटहल सिंह का हजाम उनकी चिट्ठी लेकर वहाँ आता है कि पसुपत पांडे का बेटा गोबर्धन रामटहल सिंह की पत्नी महादेई को लेकर भाग गया है, और रामटहल सिंह ने भोलानाथ के पिता को तुरत वापस रामसहर बुलाया है | इस तरह ‘देहाती दुनिया’ दो गाँवों की कथा है (हालांकि ददिहाल के गाँव का नाम उपन्यास में कहीं  नहीं लिया गया है), और यद्यपि उपन्यास के  अंत में ददिहाल के गाँव का अस्पष्ट उल्लेख अवश्य आता है, किन्तु  उपन्यास का कथानक मुख्य रूप से वाचक (‘भोलानाथ’) के ननिहाल के गाँव  -  ‘राम सहर’ में प्रारम्भ से ही  केन्द्रित रहता है | स्पष्ट है कि यह ‘राम सहर’ गाँव ‘देहाती दुनिया’ के लेखक शिवपूजन सहाय का अपना गाँव उनवांस ही है |

















(‘दे'हाती दुनिया’ उपन्यास पर मेरा समालोचनात्मक लेख आप मेरे ब्लॉगvibhutimurty.blogspot.com पर पढ़ सकते हैं, जहां इस उपन्यास के इस आत्मकथात्मक तथ्य को - जिसकी ओर सामान्य समालोचनात्मक विवेचन में अभी तक ध्यान नहीं दिया गया था -  विशेष रूप से रेखांकित किया गया है | इस प्रसंग में इसी ब्लॉग पर  इस श्रृंखला की आगे की कुछ कड़ियों में  हमारे गाँव ‘उनवांस’, और गाँव में पिता के साथ बीते  मेरे अपने बचपन तथा मेरे गाँव और परिवार से सम्बद्ध अन्य विवरण और संस्मरण सामग्री पढ़ी जा सकेगी | )         

आलेख एवं सभी चित्र © आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास

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