Followers

Sunday, October 27, 2019


कविता का झरोखा : ७

ताकुबोकू इशिकावा की कुछ कविताएँ

कविता का झरोखा इस बार प्रशांत महासागर की ओर खुलता है – बीसवीं सदी के प्रारम्भ के एक प्रसिद्ध जापानी कवि ताकुबोकू इशिकावा (1886-1912) की कुछ कविताओं के साथ |

लघुता में सौन्दर्यका दर्शन बीसवीं सदी उत्तरार्द्ध में शूमाकर की एक अर्थशास्त्रीय प्रतिपत्ति थी। लेकिन  लघुता अथवा आकुंचन का  सौन्दर्य जापानी काव्य-परंपरा में सातवीं-आठवीं शताब्दी में ही आविर्भूत हो चुका था । ‘हाइकू’ और ‘टान्का’ के संक्षिप्त रूपाकार में काव्य-बिंबों का अक्षय कोष जापानी  काव्य-परंपरा में सदियों से प्रकाशमान रहा है । जापानी कवि ताकुबोकू इशिकावा ने तो बीसवीं सदी के प्रथम पहर में आधुनिक संवेदना एवं काव्य-बोध के साथ इस प्राचीन काव्य-परंपरा का पुनर्स्थापन एक बार फिर एक नये मुहावरे में  किया ।

परंपरागत जापानी काव्य-सांचाटान्कामें  ‘५-७-५-७-७’ - अक्षर-विन्यास के रूप में पदों की संरचना होती है, जिसमें भाव और  बिंब की एकात्मता अत्यंत सघन हो जाती है, और जैसा इस प्राचीन काव्य-विधा के नामटान्कासे अभिहित होता है, एक चमकते मोती या नग की तरह एक चित्र कल्पना में टंक जाता है । इशिकावा की कुछटान्काकविताओं में यह चमक यहाँ दिखाई देगी |

बर्फ-ढंके चीड़ के पेड़ 
खड़े हैं ठिठुरे घर के रास्ते में 
लेकिन हम लौट रहे हैं - 
दुनिया है ये बर्फ की एक झील 
और हमारे हाथ में हाथ गर्म हैं 

जापानी काव्य-रूपहाइकूभी जापानी काव्य का एक ऐसा ही लघुकृत रूप है जिसमें भी ऐसे ही लघु-शिल्प का प्रयोग होता है । आधुनिक हिंदी कविता में भीहाइकूकविताएं खूब लिखी गई हैं, लेकिन इन दोनों ही प्रकार की लघु-रूपाकार वाली कविताएं शायद जापानी भाषा एवं उसकी विशिष्ट चित्रात्मक लिपि से नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होती हैं, और किसी अन्य भाषा-लिपि में उनका अनुकरण  उस काव्य-रूप के प्रति न्याय नहीं कर पाता । इशिकावा नेटान्काके इस पुराने सांचे में काव्य-बिंबों के छोटे-छोटे नये आधुनिक नगीने प्रस्तुत किए हैं, जिसके कुछ बेमिसाल नमूनों की एक झलक-भर यहां देखी जा सकती  है।

 इशिकावा का जीवन अंगरेजी के रोमांटिक कवियों - कीट्स और शेली जैसा ही अल्पायु था। जीवन-संघर्ष तो और कठिन और संकटग्रस्त रहा । पढ़ाई अधूरी रह गई और स्वाध्याय से ही उसने जापानी एवं पाश्चात्य  साहित्य का गहरा अध्ययन किया । जीवन-यापन का जरिया अखबारनवीसी और प्रूफ-रीडिंग रहा और कीट्स की तरह ही तपेदिक से उसका त्रासद अंत हुआ। प्रारंभ में जापानी रूमानी काव्य-परंपरा के साथ ही वह प्रकृतिवादी कविता की ओर आगे बढ़ा लेकिन शीघ्र ही उसकी कविता सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के चौड़े रास्ते पर चलने लगी।

उसका पहला 551टान्काकविताओं वाला महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन - ‘एक मुट्ठी रेत1910 में प्रकाशित हुआ, जिसमेंटान्काके परंपरागत काव्य-सांचे में इशिकावा ने एक तल्ख बौद्धिकता एवं गहरी आधुनिक संवेदना भर दी, और उस नवीकृतटान्का- काव्य की स्फूर्त्ति और उर्जा ने तत्कालीन जापानी साहित्य-जगत में उसकी धूम मचा दी।  उसके संघर्षमय जीवन की डायरीरोमाजी    डायरीशीर्षक से प्रकाशित हुई जिसे उसने रोमन अक्षरों में लिखा था, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी उसके जीवन की करुण व्यथा-कथा उसकी डायरी में  पढ़ सके ।  

जीवन के अंतिम वर्ष में उसकी समकालीन कविताओं का एक संकलनसीटी और बांसुरीप्रकाशित हुआ था जिसमें उसकी समाजवादी-अराजकतावादी विचारधारा की कविताएं संगृहीत हुई थीं । उसका अंतिम काव्य-संकलनउदास खिलौना’ 1912 में ही उसके देहांत के बाद प्रकाशित हुआ । यहां प्रस्तुत हैं इशिकावा की पांचटान्कातथा कुछ अन्य कविताएं |

१.     नाना यामा पर्वत पर आरूढ़ 
      देवाधिदेव-से देवदारु वृक्ष को
अंगारों के रंग में रंगता हुआ  
डूब चुका है सूरज और
कैसी नीरवता फैल गई है ।

२.     सुन रहा मैं सर टिकाये
बेशकीमत अवसाद के 
पारदर्शी नीलम पत्थर पर
          चीड़-पत्तों की सायं-सायं
           रात-भर अकेले ।

३.     मन पर अवसाद का बोझ लादे 
      मैं चढ़ आया उस पहाड़ी पर
          जहां मुझको मिली एक 
          छोटी-सी चिड़ियाअनाम,
          नागफनी के लाल टेस फूल टूंगती ।

४.     झिलमिला रहीं  हैं सरोवर के 
     नीले जल में संध्याकाश के
     बादलों की सिंदूरी किनारियां
     पतझड़ की बारिश के बाद
     एक-दूसरे में उलझीं  ।

५.     पतझड़ का आना जैसे  
     धुल जाना, और बिलकुल  
     स्वच्छ हो जाना मेरे ह्रदय का - 
     सभी विचारों और भावों का
          पूरी तरह नवीन हो जाना ।
 
फूल तुम्हारा

एक गुलाब-सा ही है तुम्हारे यौवन का वह अंकुर
हालांकि एक रेशमी पर्दे से ढंका हुआ -
और उसका फूल-सा रंग निखर आया चुपके-से बाहर
और किंकर्त्तव्यविमूढ़  युवा ह्रदय तुम्हारा
इतस्ततः हिलती काली आस्तीनें तुम्हारी
सब कुछ ढकतीं, पर वह मधुर सुगंध
हवा पर तिरती भारी-भारी ।

अरे, सचमुच नहीं ढंक पाते रंग तुम्हारा
ऊष्ण रक्त-रंजित जीवन से रंगे तुम्हारे गाल
छिपने वाला मधुगंध बिखेरते सब ओर
और तब तिर आती नयनों में तुम्हारे तारों की सुरभि
बतातीं बातें छिपनेवाले तुम्हारे युवा-प्रणय की
और उस पात्र में सुलगती प्रणय की अगिन-उसांसें
जिससे पूरी गहराई तक रंग जाता तुम्हारा वो फूल ।

बिना किसी आवाज़ के
अब सो रहा है सारा शहर
तभी निस्तब्धता में गूंजती-फैल जाती  है
ज़ोर की एक चिल्लाहट घने कुहरे में यहां-वहां
तैरती-तिरती दूर-दूर तक
ठीक काले प्रवाह के गर्जन की भांति ।

वह डरावनी आवाज़
ज़रूर उस शोरगुल-भरे दिन से दलित-पीड़ित
आत्मा की ही आवाज़ होगी जिससे पाप-जनित कराहें उठती होंगी
नहीं तो होगी दिन-भर के जद्दो-ज़हद से थके हुए
उस ह्रदय की आखिरी पुकार ।

केंकड़े के प्रति

ज्वार के आते ही घुस जाता है केंकड़ा बिल में;
फिर निकल आता है भाटा के जाते ही ।
टेढ़े-टेढ़े, बिना रुके, चलता है सारा दिन
पूर्वी टापू के बालू-भरे सागर-तट पर
रे, चतुर केंकड़े, अब यहीं से शुरू करता है तू
बहा जाता हुआ विपदा की लहरों से
आकर्षित हुआ एक सुंदरी की चमकती,
खुलती-झपकती, बार-बार तुझे देखती आंखों से
मानो किसी पवित्र ह्रदय-मंदिर से निकलती पावन आभा से -
हालांकि तेरी सबसे छोटी आंख से भी बहुत छोटी -
और अब तू इससे जाने या अनजाने, अपनी राह पकड़ता है ।

सोगाई, मेरे दोस्त, के प्रति

डूबता हुआ चांद, ठीक मरते हुए मानुष-मन जैसा
वैसा ही सिकुड़ा-सा, पंख फड़फड़ाता-उड़ता पेड़ो के बीच आता,
और अंततः आते वसंत की उस पहाड़ी पर नन्ही घास की जड़ों में समा जाता
री नीरवता, वह क्या है उसके अंदर गहरी सांसें लेने वाली
मैं साफ सुनता हूं अपनी देह में दिल की धड़कनों की आवाज़
मानों  दूर के किसी प्रदेश से रहे
मेरे दोस्त के घोड़े की टाप धमकती हो ।

रात के इस पहर में, वहां  रहते हुए, जहां डूब रहा हो चांद,
तुम अब क्या सोच रहे मेरे दोस्त?
उतने उंचे उन प्राचीन पीली पड़ी किताबों के इस ढेर पर
चमकती उस रोशनी को बुझाओ मत, भले डूब रहा हो चांद,
ख़ैर मैं सपने में तुम्हें मिलूंगा ।


आलेख और अनुवाद (C) मंगलमूर्त्ति



चित्र : सौजन्य, गूगल छवि-संग्रह
ऊपर : एक जापानी टांका कविता 
दायें : इशिकावा का स्मारक-स्थल

 VAGISHWARI.BLOGSPOT.COM


ध्यान  दें : इस ब्लॉग की सामग्री पढने के लिए -

ब्लॉग खोलने पर जो पृष्ठ खुलता है वह सबसे नया पोस्ट है | ब्लॉग पर उपलब्ध सामग्री की सूची इस पोस्ट के अंत में दी गई है, जिसे आप वहीँ OLDER POSTS पर क्लिक करके क्रमश: पीछे जाते हुए पढ़ सकते हैं | पहले पृष्ठ पर दायें २०१७, २०१८ आदि वर्ष दिए गए हैं | सूची के अनुसार आप जिस वर्ष की सामग्री पढ़ना चाहते हैं, पहले उस वर्ष पर क्लिक करें, और फिर OLDER POSTS पर क्लिक करके पीछे जाते हुए पढने वाले पोस्ट को खोल सकते हैं |
   
२०१९
अक्तू. १८ : झरोखा-६ स्पेंसर / सितं २३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान भाषण (विडिओ) / अगस्त १७ : नागर-स्मृति, ये कोठेवालियां / अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक / जुलाई २१ : झरोखा-३ बर्न्स / जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ : कविता का झरोखा - १ : ब्राउनिंग 

२०१८
नवं २६ : जगदीश चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून १२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन. २४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण (व्याख्यान, राजभाषा विभाग, पटना) 
  
२ ०१७
 नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ

श्रीमदभगवद गीता

नवं. २ से पीछे जाते हुए पढ़ें गीता के सभी १८ अध्याय

अध्याय: अंतिम-१८ ( २ नवं.) / १७ (२५ अक्तू.), १६ ( १८ अक्तू.), १५ (१२ अक्तू.), १४ (४ अक्तू.),            १३ (२७ सितं.),१२ (१७ सितं.), ११ (७ सितं.), १० (३० अगस्त ), ९ (२३ अगस्त ), ८ (१६ अगस्त ), ७ (९ अगस्त), ६ (३ अगस्त), ५ (२८ जुल.),४ (२१ जुल.), ३ (१३ जुल.), २ (६ जुल.),  प्रारम्भ : सुनो पार्थ -१ (२८ जून) |


रामचरितमानस और श्री दुर्गासप्तशतीके पूर्वांश पढ़ें :
२० जून : उत्तर काण्ड (उत्तरार्द्ध) समापन / १३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध) /  ६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध) / ३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध) / २३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध) /  १६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण) /  २ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७) / २४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४) / १७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०) / १० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५) / १९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)

दुर्गा सप्तशती :
४ अप्रैल : (अध्याय ८ – १३) / २९ मार्च : (अध्याय १ – ७) /  २८ मार्च : ( परिचय-प्रसंग)







  सैडी इस साल काफी गर्मी पड़ी थी , इतनी कि कुछ भी कर पाना मुश्किल था । पानी जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था कि सतह के पत्...