मैग्नोलिया का फूल
आंद्रे शाम्सों
अनुवाद : मंगलमूर्त्ति
माँ की जो सहेली उस साल उससे मिलने आई थी उसे मैंने पहली
बार देखा था | माँ कहती थी वह उसके साथ कॉलेज में पढ़ी थी और फ्रेंच होते हुए भी
अंग्रेजी इतनी सहजता से बोलती थी कि अक्सर फ्रेंच बोलने में भी अंग्रेजी लहजा झलक
जाता था | उसकी उम्र माँ जितनी ही रही होगी | उसके साथ उसकी एक लड़की भी थी जो
मुझसे कुछ बड़ी तो होगी, पर अभी बिलकुल जवान नहीं हुई थी | लेकिन शोख तो इतनी कि
आते ही मुझसे दोस्ती हो गयी | रंग उसका खूब गोरा था और कद भी लम्बा, छरहरा | और शरीर
इतनी कि कस कर मेरा हाथ पकड़ लेती और तेजी से दौडाते हुए मुझको खेतों की ओर लिए चली
जाती | नदी के किनारे हेज़ेल की झाड़ियों तक पहुँचते-पहुँचते मेरी सांस बिलकुल फूल
जाती | लेकिन उसके अन्दर लगता जैसे सहसा कोई आंधी उठ आई हो और उसके होंठ भी हलकी
चिकनाहट से भींग जाते | एक अजीब अल्हड़पन से भरी वह वहीँ झाड़ियों के पास गिर जाती,
और एक झटके से मुझको भी खींच कर अपने पास गिरा लेती | फिर हाँफते-हाँफते ही मेरे हाथ
खींच कर अपने गालों से सटाती, और फिर धीरे-धीरे न जाने कब उन्हें अपने फ्रॉक में
भी डाल लेती | तब फिर सहसा एक लापरवाह अदा से अपना सिर झटकती और खिल-खिला कर हंसने
लगती | और मैं तो शर्म से एकदम काठ हो
जाता – मेरे हाथ जहाँ होते, बस वहीँ जैसे चिपके रह जाते |
लेकिन मुझको इस तरह का
खेल बिलकुल पसंद नहीं था, और उसकी इन हरकतों से मैं बिलकुल चिढ जाता | हालांकि मैं
यदि थोडा भी ताकत आजमाता तो उसको वहीँ दबोच देता, लेकिन वैसी चुलबुली लड़की से मैं
लड़ता भी तो कैसे | वह गुस्से से एकाएक मेरा हाथ दूर झटक देती और अपनी तनी आँखों से
मुझको घूरने लगती | लेकिन फिर दूसरे ही क्षण वही झरने-वाली खिलखिलाहट. वही
खींच-तान, वही भाग-दौड़ |
उसकी इन अजीब आदतों से कुछ ही दिनों में मुझको उससे बहुत
चिढ-सी हो गयी, और मैं उससे दूर-दूर रहने लगा | यहाँ तक कि उससे बचने के लिए अक्सर
मैं किसी पेड़ पर चढ़ कर छिप जाता | लेकिन न जाने कैसे वह जान जाती, और पेड़ों पर भी
मेरा पीछा नहीं छोडती | एक दिन मैं अहाते में एक मैग्नोलिया के ऊँचे पेड़ पर चढ़ कर
छुप गया | मैग्नोलिया का वह पेड़ बिजली के खम्भे की तरह सपाट सीधा और चिकना था | और
काफी ऊंचा भी था | उसकी डालें भी सब अलग-अलग छितराई हुई-सी थीं | मैंने सोचा यहाँ
वह कभी पहुँच नहीं पायेगी | धीरे-धीरे मैं उस पेड़ की आखिरी लचीली डाल पर जा बैठा,
जहाँ से आस-पास के ऊंचे-ऊंचे मकानों की छतें भी नीचे दीख रही थीं |
मैग्नोलिया की
उस डाल पर मैं बड़े आराम से पेड़ के तने से लग कर बैठ गया | चारों ओर सब कुछ बिलकुल
शांत लग रहा था | हवा के नर्म झोंके पूरे बदन को जैसे प्यार से सहला जाते थे और एक
ताज़गी से भर दे रहे थे | छिप कर इस तरह बैठने में मुझे बहुत ख़ुशी हो रही थी | ऊपर
आसमान के कुछ नीले-हरे टुकड़े मैग्नोलिया के फूलों में उलझ-सुलझ रहे थे | तभी नीचे
से किसी के हांफने की आवाज़ मिली | झुक कर नीचे देखने की कोशिश में मैं गिरते-गिरते
बचा |
नीचे फिर वही लड़की थी जो अब धीरे-धीरे इसी पेड़ पर ऊपर चढ़ती
आ रही थी | पेड़ के चिकने काले तने को अपनी दोनों जाँघों से दबाये हुए वह धीरे-धीरे
ऊपर सरकती चली आ रही थी, और देखते-देखते वह मेरे बहुत करीब आ गयी थी | एक-एक डाल को पकड़ती हुई वह
बड़ी मुश्किल से ऊपर चढ़ पा रही थी | उसके स्कर्ट की सलवटें इसमें चूर-चूर हो रही
थीं, और शायद पेड़ की खुरदरी खाल की रगड़ से उसका चमडा भी छिल चुका था | लेकिन फिर
भी वह जिद्दी लड़की हांफती-चढ़ती धीरे-धीरे ऊपर बढती आ रही थी | मैं मन में हंसा –
खैर, इस बार उसे अच्छी सीख मिल जाएगी | लेकिन तब तक तो वह मेरी डाल के बिलकुल पास
पहुँच चुकी थी |
-
देखना, मैग्नोलिया की ये डालें बहुत नाज़ुक होती
हैं |
-
मुझे भी अपने पास चढ़ा लो नहीं तो मैं गिर
जाऊंगी |
-
लेकिन दो यहाँ कैसे बैठ सकेंगे ?
-
अरे, मैं तुम्हारी गोद में बैठ जाऊंगी !
-
वाह, हम दोनों का भार संभालेगी ये डाल?
-
कोई बात नहीं, गिरेंगे भी तो साथ ही न ?
-
पागल हो गयी हो ! इस तरह स्कर्ट पहने हुए तुम
मेरी गोद में बैठोगी भला कैसे | जांघें तो तुम्हारी बिलकुल खुली हुई हैं |
-
कोई नहीं, तुम्हारी कौन-सी नहीं खुली हैं !
कहती हुई वह ऊपर आ गयी और मेरी बगल में चढ़ आई | आज भी वह उसी तरह
हांफ रही थी जैसे उस दिन हांफ रही थी - नदी किनारे, हेज़ल झाड़ियों के पास | उसका मुहं बिलकुल मेरे मुहं के पास था, और मैंने देखा उसकी
आँखों में एक हरियाली की अजीब-सी चमक थी | उसकी गर्दन कबूतरों की गर्दन जैसी कोमल
और मुलायम थी | आहिस्ता-आहिस्ता वह मेरी गोद में सरक आई थी, और उसकी पीठ मेरी छाती
से एकदम सट रही थी | उसके दोनों पैर मेरे पैरों के ऊपर से होकर डाल की दोनों ओर
झूल रहे थे | धीरे-से उसने अपना रेशमी बालों वाला माथा मेरे बांये कंधे पर टिका
लिया, जिससे उसके गर्म, मुलायम गाल मेरे बांये गाल से सट गए थे |
-
अब तो तुम बिलकुल ठीक हो ना ? – उसने आंखें
नचाते हुए पूछा | मैंने अपने पैन्ट को घुटने तक खींचने की कोशिश करते हुए झुंझला
कर जोर से कहा – नहीं !
-
निरे उल्लू हो तुम ! – उसने शैतानी से अपना बोझ
मुझ पर और निढालते हुए कहा |
-
उतरने दो मुझे !
-
तुम मुझको अपनी बांहों में लेकर उतरो, मैं कुछ
नहीं कहूँगी |
-
मरने का इरादा है क्या ? – मैं और झुंझलाया |
-
मैं तुम्हारी ओर घूम कर बैठ जाती हूँ – और तब
मेरे कान में धीरे-से फुसफुसा कर बोली – जानते हो मैं घूम कर बैठ जाऊंगी तो...
मेरी चुप्पी को शायद उसने मेरी हामी समझा, और
ज्योंही घूम कर बैठने के लिए मुझसे थोडा अलग हुई, मैं जल्दी से उस डाल से नीचे
खिसक आया और एक सर्राटे में पेड़ से नीचे उतर गया | फिर जब ऊपर देखा तो बीस-पच्चीस
फीट ऊपर पेड़ के तने से लगी वह उसी तरह आराम से बैठी खिलखिला रही थी - मैग्नोलिया की उन शोख डालियों की ही तरह जो
उसके ऊपर हवा में इधर-से-उधर झूम रहीं थीं |
बीच में कुछ दिन तक परीक्षा के कारण उससे मेरी
जान बची | माँ और उसकी सहेली की गंभीरता-भरी बातों के बीच मैं उस शोख लड़की को एक
तरह से भूल ही गया था | हालांकि न जाने क्यों, माँ की सहेली के पाँव मुझे बहुत
अच्छे लगते थे | लेकिन जब भी मैं उन्हें देखता,
मुझे अपनी माँ के पाँव याद आ जाते, और न जाने क्यों लगता मेरे मन में कोई पाप घुस
आया हो | एक दिन झटके से किवाड़ की
फांक से मैंने माँ की सहेली के पाँव घुटनों तक नंगे देख लिए, और उसी एक क्षण में
उसके साए के भीतर की झालर तक दीख गई | माँ
ने एक दिन मुझसे कहा था की उसकी सहेली अपने पति को तलाक देना चाहती है | माँ ने यह
भी कहा कि उसके बाद उसकी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल जाएगी | लेकिन इन बातों को सुनने से
मेरा मन अजीब हो जाता था | मुझको लगता इन गन्दी, फालतू बातों का असर कहीं मेरे
परीक्षा-फल पर न पड़े | इस तरह की बेकार बातों को जान कर मैं भला परीक्षा के सवालों
की तैयारी कैसे पूरी करता? इनसे तो मेरे दिमाग में हमेशा इसी तरह की गन्दी बातें
चक्कर काटती रहतीं |
लेकिन आखिर इस तरह की बातों से अपने को पूरी
तरह अलग करके मैं जोर-शोर से परीक्षा की तैयारी में लग गया | परीक्षा के दिन मेरा
दिमाग पूरी तरह अपनी पढ़ाई के सवाल-जवाब से भरा हुआ था – सायों, घुटनों या जाँघों
की तस्वीरें उसमें से मिट चुकी थीं | उस दिन पहले से ही मैंने अपनी पेंसिल की नोक
भी तराश कर नुकीली बना ली थी, और कलम में
भी स्याही पूरी भर ली थी | सौभाग्य से परीक्षा में सवाल भी सब वही पूछे गए थे, जिन
पर मेरी तैयारी पूरी थी | आखिर परीक्षा ख़तम हुई, और कुछ घंटे बाद ही शिक्षकों के कमरे से बाहर आकर
हेड मास्टर साहेब ने परीक्षा-फल सुना दिया – मैं पास था | थोड़ी ही देर बाद
इंस्पेक्टर साहेब के रोबदार दस्तखत से सजा हुआ मेरा सर्टिफिकेट भी मुझको मिल गया |
हवा से होड़ लगाता दौड़ता-भागता मैं घर पहुंचा,
तो गेट पर ही खड़ी मिली वही लड़की – मेरी दुश्मन, जो झाड़ियों और पेड़ों तक मुझे खदेड़ती फिरती थी |
-
मैं पास कर गया | - मैंने हँसते हुए कहा |
-
अच्छा, चलो इस बला से तुम्हारा पल्ला तो छूटा |
लेकिन अब तुम इसी वक्त से इसे बिलकुल भूल जाओ |
लत्तरों के उस महकते कुञ्ज की ओर देखते हुए
उसने फिर एक बार धीरे-से मेरा हाथ दबाते हुए मेरी ओर देखा | आज फिर उसकी बड़ी-बड़ी
आँखों में हरियाली की वही चमक मौजूद थी | धीरे-से मुझसे बोली – उधर चलो न !
-
किधर ?
-
यहीं, यहीं !
-
यहाँ तो हम हैं ही | - मैंने अपना हाथ झटकना
चाहा, लेकिन मेरे हाथ में जैसे कोई जोर ही न रह गया हो | आज फिर उसी दिन की तरह
उसका मुहं मेरे मुंह के बिलकुल पास था, और उसकी आँखों की हरियाली और गहरी हो गई थी |
-
कितने बुद्धू हो तुम ! मुझको चूम भी नहीं सकते?
सहसा न जाने क्यों मुझको लगा कि यह वही पहले
वाली अल्हड लड़की नहीं थी जो मुझको खेतों की ओर खींच कर भगा ले जाती थी, और झाड़ियों
के पास पहुँच कर, इठला कर गिर जाती थी, मुझको साथ लिए-दिए | वही लड़की – पेड़ों पर
चढ़ती, मेरा पीछा करती, और मेरी गोद में ज़बरदस्ती आ बैठने वाली लड़की | आज वह अचानक
कितनी गंभीर लग रही थी | हवा जैसे हमारी बातें सुनने के लिए वहां थोड़ी देर ठहर गई
थी | और चारों-ओर फैले लत्तरों की खुशबू जैसे उसके बदन की खुशबू बन गई थी – जिसमें एक ज़हरीला तीखापन-सा आ गया था |
-
चूमोगे नहीं मुझे ? - पैर पटकते हुए वह झुंझला कर बोली |
-
नहीं, नहीं, मुझको यह सर्टिफिकेट पहले अपनी माँ
को दिखाना है | तुम्हारी माँ को भी दिखाऊंगा |
-
फु: ! इस कागज़ को दिखाना है ? क्या होगा इसे
दिखाकर ?
-
ये कागज़ नहीं है | मेरा सर्टिफिकेट है ये | इस
पर मेरे स्कूल-इस्पेक्टर का दस्तखत है, ये देखो | लेकिन तुमने तो इसे तोड़-मरोड़ कर
रख दिया | - लगभग रुआंसा होकर मैंने कहा |
-
अरे, ये तो तुम्हारी बेवकूफी का सर्टिफिकेट है
!
-
अच्छा ! तुम्हारे पास तो ऐसा सर्टिफिकेट नहीं
हैं न ?
-
मेरे पास क्या-क्या है, तुम क्या जानोगे?
-
और न मैं जानना चाहता हूँ ! – मैंने खीझ कर कहा
|
-
हाँ, इसलिए कि तुम अभी बड़े हुए कहाँ हो जो यह
सब समझ सकोगे?
-
जाओ, जाओ, मैं तुमसे सब कुछ बहुत ज्यादा जानता
हूँ !
-
तुम ! मुझसे ज्यादा?
-
क्यों, अभी देखा नहीं तुमने मेरा ये सर्टिफिकेट
?
-
तुम और तुम्हारा ये सर्टि –फि-केट !
-
अच्छा, छोडो, मुझे जाने दो ! – मैंने अपना हाथ
छुड़ाना चाहा
|
-
नहीं मानोगे? जाओगे ही ? ठीक है मैं गिनती हूँ –
एक – दो – ढाई ...
क्षण-भर के लिए उसकी आँखे जैसे जम गईं – जैसे
उसकी आँखों की हरियाली में आस-पास के लत्तरों की हरियाली एकबारगी और गहरा गई |...
-
ती—न ! ठीक है जाओ !
उसने मेरा हाथ छोड़ दिया, और क्षण-भर में ऐसे
बदल गई जैसे कोई और हो – वह न हो | फिर धीरे-धीरे वह उन लत्तरों वाले कुञ्ज से
बाहर आ गई, और मैं भी उसके पीछे-पीछे चुपचाप वहां से खिंचा चला आया |
उसकी माँ और मेरी माँ – दोनों उस मैग्नोलिया के
पेड़ के नीचे एक हरे बेंच पर बैठी बातें कर रही थीं, और वह भी जाकर वहीँ, उनकी बगल
में बैठ गई | दोनों हाथों से अपना स्कर्ट घुटनों पर से नीचे की ओर खींचती हुई वह
लापरवाही से बोली –
-
यह पास हो गया !
- 'नया ज्ञानोदय' (सितं. २०१८) में प्रकाशित
- 'नया ज्ञानोदय' (सितं. २०१८) में प्रकाशित
(C) मंगलमूर्त्ति चित्र: सौजन्य गूगल छवि-संग्रह
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२०१९
दिसं.१ : मग्नोलिया का फूल (अनूदित कहानी) / नवं. २४ : मेरी
कहानी-२: बूढा पेड़ / नवं. १४ : मेरी कहानी-१: कहानी का अंत / नवं २ : बिरवा-१ / अक्तू.
२७ : झरोखा-७ ताकूबोकू इशिकावा / अक्तू.
१८ : झरोखा-६ स्पेंसर / सितं २३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान भाषण (विडिओ) / अगस्त १७ :
नागर-स्मृति, ये कोठेवालियां / अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक / जुलाई २१ : झरोखा-३ बर्न्स / जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ :
कविता का झरोखा - १ : ब्राउनिंग
२०१८
नवं २६ : जगदीश चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर
बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून १२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन.
२४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण (व्याख्यान, राजभाषा विभाग,
पटना)
२ ०१७
नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ
श्रीमदभगवद गीता के १८ अध्यायों का सरल अनुवाद पढ़ें :
खुले हुए पेज में पहले दाएं २०१७ पर क्लिक करें | फिर
पहले अध्याय के लिए जून २८ पर क्लिक करें और तब New Posts पर क्लिक करते हुए सभी
१८ अध्याय पढ़ें | और उसी प्रकार -
सम्पूर्ण रामचरितमानस के कथा-सार के लिए
-
पहले दाएं २०१७ पर क्लिक करें | फिर मानस के पहले अध्याय के लिए १९ मार्च और अयोध्याकाण्ड के लिए १० अप्रैल पर क्लिक करें और तब Newer Posts पर क्लिक करते हुए आगे
के सभी अध्याय पढ़ें | उसी
प्रकार -
और श्रीदुर्गासप्तशती के
कथा-सार के लिए -
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लिए २८ मार्च पर क्लिक करें और तब Newer Posts पर
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