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Wednesday, August 30, 2017








सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 


दसवां अध्याय :  विभूतियोग

1-3. श्रीकृष्ण बोले - मेरे प्रति अतिशय प्रेम रखने वाले हे महाबाहु वीर अर्जुन ! मेरी बातों को तुम पुन: ध्यान से सुनो, जिन्हें मैं तुम्हारे हित के लिए तुम से कह रहा हूँ। मेरी उत्पत्ति  अथवा प्रभाव के विषय में न तो देवगण जानते है और न महर्षिगण ही, क्योंकि मैं तो स्वयं उनकी उत्पत्ति  का आदिकारण हूँ। किंतु जो मुझे सर्वथा अजन्मा - कभीजन्म नहीं लेने वाला, आदिरहित – अर्थात जिसका कोई आदि या अंत न हो,  और सभी लोकों के महान ईश्वर के रूपमें जानते हैं, ऐसे ज्ञानी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाते हैं ।

4-5. मनुष्य में नाना प्रकार के भाव होते हैं, जैसे बुद्धि - जिससे विचार और विवेक उत्पन्न होते है, ज्ञान - जिससे मोह से मुक्ति और क्षमा की शक्ति प्राप्त होती है, सत्य-पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है, इंद्रियों पर नियत्रण के लिए बल मिलता है, मन संयमित होता है; सुख और दुख, उत्पत्ति और विनाश अथवा होने और नहीं होने का भाव; भय और अभय या भय से पूर्ण मुक्ति; अहिंसा और समता का भाव, जब मनुष्य राग, द्वेष और अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो; संतोष और तप अर्थात शरीर में सहन-शक्ति का विकास, दान द्वारा लोक-कल्याण तथा यश-अपयश अर्थात लोक-प्रशंसा अथवा लोक-निदा में सम-भाव - ये अथवा अन्य सभी प्रकार के भाव मनुष्य में मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा समझो ।

6-7. कश्यप, वशिष्ठ आदि सात महर्षि, तथा उनसे भी पहले सृष्टि के आदि में हुए, मुझमें आस्थावान एवं मेरे ही संकल्प से उत्पन्न - सनक, सनातन आदि चार महर्षि और वैवस्वत आदि चौदह मनु, जिनकी चर्चा पुराणों में है, और जिन सबसे सारी प्रजाओं की सृष्टि हुई है, ये सब मेरी ही ऐश्वर्यरूपी विभूतियां है, और जो मनुष्य मेरे इस ऐश्वर्यरूपी विभूति वाले स्वरूप तथा सृष्टि रचने की मेरी योगशक्ति को तत्व से जानता है वह दृढ़ भक्तियोग द्वारा मुझसे जुड़ जाता है, इसमें तनिक भी सदेह नहीं है ।

8-9. सारी सृष्टि की उत्पत्ति का कारण मैं ही हूँ, और सब कुछ मुझसे ही प्रारंभ और चेष्टावान होता है । ऐसा जानकर, भक्ति-भाव से युक्त होकर, ज्ञानीजन मुझ परमेश्वर को ही भजते हैं; निरंतर मुझमें ही अपने चित्त को संस्थित करके, मुझमें ही अपने प्राणों को अर्पित करके ऐसे भक्तजन परस्पर सदा मेरी ही चर्चा, मेरा ही स्मरण करते हुए परम संतुष्ट रहते हैं,  और सर्वदा मुझमें ही रमे रहते हैं ।

10-11. सदा-सर्वदा भक्ति-भाव से मेरे साथ जुडे और प्रेमपूर्वक मुझको भज़ने वाले अपने भक्तों को मैं ही बुद्धि के सदुपयोग की प्रेरणा देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं । मैं ही उन पर कृपा करके, उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ, अपने प्रकाशमय ज्ञानदीपक से उनमें अज्ञान से उत्पन्न हुए संपूर्ण अंधकार को नष्ट कर देता हूँ ।

12-15. तब अर्जुन ने कहा - हे श्रीकृष्ण, आप तो परम पवित्र, परमधाम, परमब्रह्म हैं । सब ऋषिगण भी आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं । देवर्षिगण नारद, असित, देवल तथा व्यास भी ऐसा ही कहते हैं और आप तो स्वय मुझे यहीं बताते हैं । और हे केशव ! आप जो भी मुझसे कहते हैं, मैं उसे पूर्णत: सत्य जानता हूँ | आपके इस लीलामय रूप को तो वस्तुतः न दानव जानते  हैं और न ही देवता  जानते हैं। हे परमेश्वर, आप तो इस जगत के जड़-चेतन सभी कुछ को उत्पन्न करने वाले हैं, सबके ईश्वर, देवों के देव और जगत के स्वामी हैं, और स्वय अपने को जानने वाले भी तो आप ही हैं  ।

16-18. अपनी जिन दिव्य विभूतियों से इन लोकों को व्याप्त करके आप उनमें स्थित हैं, उन दिव्य विभूतियों के विषय में पूरी तरह बताने में तो आप ही समर्थ हैं । हे योगेश्वर !  मैं किस प्रकार सदा आपका चिंतन करते हुए आपको भलीभांति जानूं, और यह भी बताएं कि आपके किन-किन भावों अथवा रूपों मेँ मैं आपका चिंतन कर सकता हूँ। हे जनार्दन ! आप कृपापूर्वक अपनी योगशक्ति  और अपनी विभूतियों के विषय में मुझे पुन: विस्तार से बताएं, क्योंकि आपकी अमृतमयी वाणी को सुनते हुए मुझे तृप्ति ही नहीं होती ।

19-20. श्रीकृष्ण बोले - कौरव-कुल में श्रेष्ठ हे अर्जुन ! सुनो, अब मैं प्रधानता से तुमको अपनी विधियों के विषय में बताऊंगा, यद्यपि मेरे कथन के विस्तार का तो कोई अंत नहीं है । निद्रा को जीत लेने वाले गुडाकेश, हे अर्जुन ! सभी  प्राणियों के हृदय में  स्थित सबका आत्मा , उन सबका आदि,  मध्य और अंत भी मैं  ही हूँ।

आगे के श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी विभूतियों के विषय में व्यापक उपमाओं से समझाते हैं, जिनसे सम्बद्ध कथाएँ पुराणों में विस्तार से मिलती हैं  इन सभी उपमाओं द्वारा विस्तार से भगवान अपनी अनंत  विभूतियाँ से अर्जुन को परिचित करा  रहे हैं।

21-30. हे पार्थ ! मैं अदिति के बारह आदित्य पुत्रों में विष्णु हूँ, ज्योतियों में किरणवान  सूर्य, उनचास वायुदेवों में वायुदेव मरीच तथा नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ;  वेदों में सामवेद और देवताओं में इंद्र हूँ; सभी इंद्रियों में मन तथा प्राणियों में चेतना;  ग्यारह रुद्रो में शंकर एवं  यक्ष और राक्षसों में धनपति कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ। पुरोहितों में  तुम मुझे वृहस्पति जानो। सेनापतियों में मैं स्कंद और जलाशयों मैं समुद्र हूँ। महर्षियों में मैं भृगु और शब्दों में  ‘ऊँ’ हूँ । यज्ञों में जप-यज्ञ हूँ मैं, और स्थावरों में हिमालय पर्वत तथा सभी वृक्षो में श्रेष्ठ पीपल वृक्ष हूँ । 

देवर्षियों मेँ मैं नारद हूँ, गंधवों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ। अश्वों में अमृत से उत्पन्न अश्व उच्चै:श्रवा, हाथियों में ऐरावत तथा मनुष्यों में तुम मुझे राजा जानो । शस्त्रों में मैं वज्र, गौओं में कामधेनु, प्रजनन-क्रिया के लिए कामदेव और  सर्पों  में सर्पराज वासुकि मैं ही हूँ। नागों में मैं शेषनाग, जलचरों  में उनका अधिपति वरुणदेव , पितरों में अर्यमा तथा शासकों में यमराज हूँ। मैं दैत्यों में प्रहलाद , गणना करनेवालों में समय, पशुओं में सिंह तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ, तुम ऐसा जानो ।

31-38. हे अर्जुन! पवित्र करने वालों में मैं पवन हूँ, शस्त्र धारण करने वालों में राम,  मछलियों  में मगरमच्छ और नदियों में मैं गंगा नदी हूँ। सृष्टि का आदि, मध्य और अंत भी तुम मुझे ही जानो । विद्याओं में ब्रहूमविद्या  और  विवाद की स्थिति में मैं वाद हूँ। अक्षरों में मैं अकार और समासों में द्वंद समास हूँ । मैं विराट-स्वरूप कभी क्षय नहीं होनेवाला काल  तथा सबका घारक-पोषक हूँ। सबकी उत्पत्ति करने वाला, और सबको मारने वाली मृत्यु भी मैं ही हूं।

नारियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ, तथा गायन की श्रुतियों में बृहत्साम और छन्दो में गायत्री छन्द हूँ। महीनों में में मार्गशीर्ष या माघ और ऋतुओं में वसंत ऋतु हूँ। छल करने वालों में भी मैं जुआ और तेजस्वी लोगों में उनका तेज भी मैं हूँ । विजेताओं में मैं विजय हूँ तो निश्चय करने वालों का निश्चय, और सात्विकजन का सात्विक-भाव भी मैं ही हूँ। मैं वृष्णिवंशियों  में वासुदेव, पांडवों मेँ मैं धनंजय या स्वयं तुम, और कवियों में कवि-श्रेष्ठ शुक्राचार्य भी मुझे ही  जानो । दमन करने वालों का दंड,  विजय की कामना रखने वालों की नीति, गोपनीय भावों का मौन और समस्त ज्ञानियों  का ज्ञान भी तुम मुझे ही जान लो।

39-42. और हे अर्जुन ! तुम मुझे सभी प्राणियों का बीज अथवा उत्पत्ति का कारण जानो, क्योंकि चर और अचर मेँ ऐसा कोई नहीं जो मुझसे रहित हो । हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियों  का कोई अंत  नहीं है,  और अपनी विभूतियों का यह जो विस्तार मैंने तुमको बताया है, इसे भी तुम एक संक्षेप ही समझो । वास्तव से तो जो भी विभूषित, कांतियुक्त अथवा शक्तियुक्त है, उस सभी को तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न समझो ।

हे अर्जुन! भली-भाति जानने से तुम्हारा जो प्रयोजन है, तुम बस यह जान लो कि मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।


    || यहीं श्रीमदभगवद्गीता का विभूतियोग नाम का यह दसवां अध्याय समाप्त हुआ ।|


(C) डा. मंगलमूर्त्ति


bsmmurty@gmail.com


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Wednesday, August 23, 2017







सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

नवां अध्यायराजविध्याराजगुह्ययोग

1-2. भगवान् श्रीकृष्ण बोले- हे अर्जुन ! तुम दोष-रहित हो अतः इस परम गोपनीय ज्ञान को मैं तुम्हारे लिए इसके विज्ञान सहित तुम्हें बताऊंगा जिसे जानकर तुम सारे अशुभों से मुक्त हो जाओगे, क्योंकि यह ज्ञान सभी विद्याओं और गुहय विषयों में श्रेष्ठ है, एवं पवित्र, उत्तम, सुगम, अविनाशी, धर्मयुक्त तथा प्रत्यक्ष फल देने वाला है ।

3-6. धर्म तो ब्रह्मविद्या  का रूप है । उसमें श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर इस मृत्यु-रूपी संसार-चक्र में विचरण करते रहते हैं । मैं परमात्मा-रूप में पूर्णतः अव्यक्त और सूक्ष्म हूँ,  जैसे बर्फ जल से, और यह सारा जगत मुझसे परिपूर्ण है, और समस्त प्राणी मुझमें स्थित हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, और वे समस्त प्राणी भी मेरे उस परम आत्मतत्व में स्थित नहीं हैं । ठीक जैसे आकाश में उत्पन्न वायु सदा आकाश में ही प्रवहमान होकर उसमें ही स्थित होती है, वैसे ही सब प्राणी भी मुझ परम तत्व में स्थित हैं।

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ परमात्मा की विचित्र महिमा का वर्णन करते हुए एक अत्यंत सूक्ष्म एवं गूढ़ रहस्य को एक विरोधाभासी वक्तव्य के द्वारा अर्जुन को समझाते हैं । जैसे वे कहते हैं कि सारा जगत मुझमें स्थित है और एक विशेष अर्थ में नहीं भी है । उसी प्रकार मुझसे सारा जगत परिपूर्ण है, फिर भी मैं उसमें स्थित नहीं हूँ । सूक्ष्म और निराकार परमात्मा ही समस्त स्थूल एवं दृश्य चराचर जगत को उत्पन्न एवं समाप्त करता है । इस अर्थ में यह स्थूल एवं दृश्य चराचर जगत परमात्मा की सत्ता में ही स्थित है । लेकिन जैसे जल द्वारा निर्मित होने पर भी बर्फ के स्थूल रूप में जल पूर्णतः वर्तमान रहकर भी उसमें कहीं दृश्यमान नहीं होता, उसी तरह अव्यक्त निराकार परमात्मा से परिपूर्ण होने पर भी  स्थूल एवं दृश्य चराचर जगत से परमात्मा पूर्णतः परे होता है -  उसमें कहीं दृश्यमान या स्थित नहीं होता है | आकाश और वायु की उपमा भी इसी विरोधाभास की ओर इंगित करती है । आकाश में ही वायु का अस्तित्व होता है पर वायु में आकाश होते हुए भी कहीं नहीं होता । यह चराचर जगत परमात्मा से अभिन्न होने के कारण परमात्मा में ही स्थित है, किन्तु असीम होने के कारण परमात्मा उस चराचर जगत की सीमाओं से परे होता है, जैसे समुद्र तरंग में व्याप्त होता है, लेकिन समुद्र की सत्ता तरंग में सीमित नहीं होती, समुद्र की कल्पना तरंग के परे असीम होती है । श्रीकृष्ण यहाँ इस उपमा से परमात्मा और उसकी दृश्यमान सृष्टि के परस्पर सम्बन्ध को अर्जुन को  समझाते हैं ।

7-9. हे कुंतीनंदन अर्जुन ! सृष्टि के प्रलय - काल में समस्त प्राणी मेरी प्रकृति में विलीन हो जाते हैं, और पुन: कल्प के प्रारंभ में मैं उनकी नये सिरे से रचना करता हूं । अपनी ही प्रकृति के विधान के अंतर्गत बंधा हुआ मैं समस्त प्राणियों वाली इस सृष्टि की पुनः पुनः रचना किया करता हूँ ।
हे धनंजय ! अपने इस स्वाभाविक कार्यकलाप में आसक्तिरहित एवं उदासीन रहते हुए ही मैं यह सारा कार्य संपन्न करता रहता हूँ।

10-13. हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! प्रकृति का अधिष्ठाता मैं ही हूँ, और मेरी ही प्रेरणा से प्रकृति संपूर्ण चराचर जगत की रचना करती है, और मेरी उसी प्रेरणा से यह संसार-चक्र चलायमान रहता है । इस परम भाव को नहीं जानने वाले मूढ़ देहधारी मनुष्य संपूर्ण प्राणियों के स्वामी मुझ महान परमात्मा को , अपनी मूढ़ता के वशीभूत होकर, तुच्छ समझते है, क्योंकि व्यर्थ ज्ञान, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ आशा के वश में रहते हुए ऐसे विपरीत बुद्धि वाले मनुष्य तो सदा राक्षसी, आसुरी और मोहाच्छादित प्रकृति से ही लिपटे रह जाते है । परंतु हे पार्थ ! देवी प्रकृति में  आश्रित महात्माजन मुझ अविनाशी परमात्मा को ही सभी प्राणियों का आदि कारण जानते हुए अविचलित मन से मुझको भजते     रहते हैं ।

14-15. दृढ़ निश्चय वाले मेरे भक्त सदा मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा भगवत् प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करते हुए, मुझे नमन करते हुए, सदा मुझसे एकात्म हुए, मेरी उपासना करते हैं । वहीं अन्य ज्ञानी योगीजन ज्ञानयज्ञ द्वारा एकत्व भाव से मुझ निर्गुण, निराकार ब्रहम का पूजन करते हैं । कुछ और भक्तजन अन्य भक्तिभाव से तथा और भी वहुत तरह के भक्त मुझ विश्वरूप परमात्मा की इसी तरह उपासना करते हैं ।

 अगले चार श्लोकों में  भगवान श्रीकृष्ण यज्ञादि  से सम्बद्ध सभी प्रकार के कर्मों तथा चेष्टाओं के विषय में विस्तार से बताते हैं और कहते है कि यज्ञ के  विधान  से जुडे सभी कर्मों व चेष्टाओं  में वे  स्वय वर्तमान होते हैं |  परमात्मा-प्राप्ति के प्रयास से जुडे सभी कर्मों में  प्रेरणा के रूप में वे स्वयं रहते हैं, और समस्त साधना के अतिंम लक्ष्य या गंतव्य भी वहीं हैं | वही सत और असत दोनों है - अर्थात  जो चिरंतन और कभी नष्ट नहीं होता, तथा जो सर्वथा नित्य एवं विनाशशील है - दोनों परमात्मा पर  ही आधारित  हैं | परमात्मा ही अमृत हैं और मुत्यु भी वहीं हैं | यहाँ यज्ञादि से सबंधित जो पारिभाषिक  शब्दावली  हैं उसमें ‘ क्रतु का अर्थ है यज्ञ सम्बन्धी कर्म, 'स्वधा'  का अर्थ है पितरों के निमित्त दिया हुआ अन्न, तथा 'औषधि'’ हवन में  प्रयुक्त वनस्पति-सामग्री है

16-19. भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - यज्ञ का क्रतु तथा संपूर्ण यज्ञ-कर्म, उसमें स्वधा, औषध, मंत्र, घी और अग्नि, आहुति अथवा हवन की क्रिया - सब कुछ मैँ ही हूँ । मैं ही इस जगत का धारक, माता, पिता और पितामह - सब हूँ ।

पवित्र जानने योग वेद , 'ऊं' कार, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद - सब मैं ही हूँ । सबको परमगति  देने वाला,  सब का भरण- पोषण करने वाला , सब का साक्षी, स्वामी, निवास, शरणदाता , प्रत्युपकार की कामना न रखने वाला हितैषी, सबकी  उत्त्पति और विनाश का कारण, सबका आधार, सबके  कर्मों के समर्पण का निधान या आश्रय और अविनाशी सत्ता मैं ही हूँ । सूर्य के रूप में भी मैं ही तपता हूँ , तथा उस ताप से जल को सुखा कर वर्षा भी मैं ही करता हूँ । हे अर्जुन हूँ, मैं ही सत् भी हूं और असत् भी, अमृत भी और मृत्यु भी ।

20-21. तीनो वेदों -  ऋग्वेद , सामवेद  और यजुर्वेद में बताए गए सकाम कर्मों के करने वाले , अर्थात वेदों में वर्णित विधियों के अनुसार कामनापूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले, सोमरस पान करने वाले अर्थात दिव्य खानपान करने वाले,पापमुक्त मनुष्य स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा से अपने यज्ञकर्म द्वारा मेरा पूजन करने स्वर्गलोक प्राप्त करते है और वहां देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं, जिसके बाद पुण्य क्षीण होने पर वे फिर मृत्युलीक को लौट आते हैं, और ऐसी वैदिक रीति से सकाम जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य बारंबार इसी प्रकार के आवागमन को प्राप्त  होते हैं ।

22. जो भक्त अनन्य-माव से एकाग्रचित्त होकर निष्काम भक्ति से मेरा भजन करते है, मुझसे जुड़ जाने वाले अपने ऐसे भक्तों का संपूर्ण योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं।

योगक्षेम – वहन से यहां भगवान श्रीकृष्ण का तात्पर्य भक्त की योग साधना के क्रम में उसकी हर आवश्यकता की पूर्ति , उसके सभी  हितों का ध्यान रखना है

 22-25. हे कौन्तेय अर्जुन ! जो भक्तजन मन में तरह-तरह की कामना लेकर अज्ञानवश अन्य देवताओं को पूजा करते है वे भी वास्तव में मुझे ही पूजते हैं, क्योंकि सभी यज्ञों का भोक्ता  और स्वामी तो मैं ही हूँ । किन्तु मुझ परमात्मा को तत्वत: नहीं जानने के कारण, पाप  के भागी होकर, ऐसे अज्ञानी भक्त पुनर्जन्म पाते हैं । ऐसे सभी भक्तजन जो अन्य देवताओं को पूजते  हैं  वे उन देवताओं को ही प्राप्त होते हैं, जो पितरों को पूजते है, पितरों को प्राप्त होते है, और जो क्षुद्र कामनाओं के वश होकर भूत –पिशाच आदि को पूजते है, वे भी भूत –पिशाच आदि को ही प्राप्त जाते है । पर जो मुझको भजते है वे सदा मुझे ही प्राप्त होते हैं ।

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं  कि देवताओं के विभिन्न रूपों की विभिन्न भक्तिमार्गों  से पूजा करने वाले सभी भक्त वस्तुत: परमात्मा की ही पूजा करते है । लेकिन बिभिन्न  रूपों में  देवताओं की पूजा करने वाले  भक्त यह नहीं समझते के सभी देबता परमात्मा के ही रूप हैं । और जो तत्वज्ञानी  केवल परमात्मा ही एक हैं ऐसा जानकर उसकी पूजा करते है वे बारम्बार पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करके परमात्मा में एकात्म हो जाते हैं | सकाम और निष्काम पूजा में यही अंतर है ।

26-28. जो भक्त श्रद्धापूर्वक मुझको फल - जल, पत्र - पुष्प अर्पित कर मेरी पूजा करता है, उस पवित्रचित्त भक्त द्वारा भक्ति-पूर्वक अर्पित की हुई पूंजा-सामग्री को मैं प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूँ,  और उसका भोग लगाता हूँ । हे कौन्तेय ! इस कारण तुम जो भी कर्म करते हो, खाते हो, हवन करते हो, तप या दान करते हो,  यह सब कुछ तुम मुझको ही समर्पित करो । और इस प्रकार कर्म - सन्यास का अभ्यास करते हुए परमात्मा के प्रति सब कुछ समर्पण करके तुम शुभ और अशुभ कर्मों की फल-प्रप्ति के बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाओगे,  और बंधन-मुक्त होकर मुझको प्राप्त हो जाओगे ।

29-31. हे अर्जुन ! सभी प्राणियों में मैं समान रूप से व्याप्त हूँ,  मेरा न कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय, लेकिन मुझे प्रेम से भजने वाले सभी भक्त मुझमें होते है,  और मैं भी उनमें होता हूँ । यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझे भजता है जो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवान होता है,  और शीघ्र ही धर्मात्मा होकर अविचल शान्ति को प्राप्त हो जाता है । अत: तुम यह निश्चयपूर्वक जान तो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता ।

32-33. चाहे स्त्री हो, वैश्य, शूद्र अथवा निम्न कुल का कोई भी हो, मेरी शरण में आकर वह अवश्य परमगति को प्राप्त होता है । और जो पुण्यात्मा तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण में होते हैं वे तो परम-गति प्राप्त करते ही हैं । इसीलिए हे अर्जुन ! इस नश्वर, सुख से रहित लोक में रहने वाले तुम मेरा ही भजन करो ।

34. केवल मुझ सच्चिदानंद परमात्मा में तुम अनन्य मन, अनन्य भक्ति वाले हो जाओ; केवल मुझे प्रणाम करो और मेरी ही पूजा करो ।

|| यहीं श्रीमदभगवद्गीता का राजविधाराजगुह्ययोग नाम का यह नवां अध्याय समाप्त हुआ ।|


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