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Thursday, November 2, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

अठारहवां अध्याय

मोक्षसन्यासयोग

 
1. अर्जुन ने कहा – हे महाबाहो, हे हृषिकेश, हे केशि को मारने वाले भगवान श्रीकृष्ण ! मैं सन्यास और त्याग के तत्वों को अलग- अलग जानना चाहता हूँ , दोनों में क्या अंतर है यह समझना चाहता हूँ ।

2-3. भगवान श्रीकृष्ण बोले - पवित्र कामना के साथ किये हुए कर्मों के त्याग को  कुछ पंडितजन त्याग कहते हैं | और पूर्ण रूप से कर्मों के फल को त्याग देने को ही विद्वद्जन  त्याग मानते हैं, फिर कुछ ज्ञानीजन तो कर्म-मात्र को दोषपूर्ण मानकर उसे त्याज्य बताते हैं  । लेकिन कुछ अन्य विद्वान यह भी कहते हैं  कि यज्ञ, दान, तप आदि श्रेष्ठ कर्म त्याज्य नहीं हैं  ।

4-6. हे श्रेष्ठ भरतवंशी अर्जुन । त्याग के संबंध में अब तुम मेरा निश्चित मत सुनो । हे पुरुष-व्याघ्र ! त्याग - सात्विक, राजसी और तामसी - तीन प्रकार का कहा गया है । किंतु यज्ञ, दान और तप-रूपी कर्म निश्चय ही त्याग के योग्य  नहीं हैं; अवश्य ही वे सब करने योग्य कर्म हैं । यज्ञ, दान और तप-रूपी कर्म - ये सभी बुद्धिमान मनुष्यों को पवित्र करने वाले कर्म हैं | किंतु हे पार्थ ! इनको, तथा अन्य सभी करने योग्य श्रेष्ठ कर्म  को , आसक्ति-रहित  होकर फल की  कामना का पूर्णत: त्याग करके करना चाहिए । ऐसा ही मेरा उत्तम और निश्चित मत है ।

7 - 9. नियत कर्म का त्याग करना भी उचित नहीं है । यदि मोह के कारण उसका त्याग किया जाता है तो ऐसा त्याग तामसी त्याग है । करने वाले कर्म को दुखदायी मान कर, शरीर–कष्ट के भय से यदि कोइ अपने कर्तव्य - कर्म को त्याग देता है, तो उस राजसी त्याग को करने पर भी वह उस त्याग के फल को प्राप्त नहीं करता ।         हे अर्जुन ! लेकिन इस कर्म का करना नियत कर्त्तव्य है ऐसा मान कर, बिना आसक्ति और फलकामना  के जो कर्म किया जाता हैं, ऐसे त्याग को ही सात्विक त्याग माना गया है ।

10-12. जो मनुष्य  ‘यह कर्म करने योग्य नहीं’  ऐसा समझ कर भी उससे घृणा नहीं करता, अथवा 'यह कर्म करने योग्य है ' ऐसा समझ कर उसमें –आसक्त भी नहीं होता - संशयरहित, विवेकवान और  सात्विक गुणों से युक्त ऐसा मनुष्य ही सच्चा त्यागी होता है । क्योंकि शरीर धारण करने वाले किसी मनुष्य के लिए सभी कर्मों को  पूर्णतः त्याग देना तो संभव ही नहीं  है । इसीलिए कर्मफल को त्यागने वाले मनुष्य को ही त्यागी कहा गया है । कर्मफल के प्रति आसक्ति का भाव रखते हुए उसका त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो तीन प्रकार  का - अच्छा, बुरा या मिला-जुला फल उन्हें मृत्यु के पश्चात मिलता ही है, परंतु कर्म के फल का पूर्णत: त्याग करने वाले या उनके प्रति पूरी अनासक्ति का भाव रखने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में होता ही नहीं ।

गीता में सांख्य का अर्थ है ज्ञान का शास्त्र और सांख्य कृतान्त से अर्थ है वह ज्ञान पद्धति जो हमें कृत या        कर्म–बंधन से मुक्त होने के उपाय बताती है । कर्म के तत्व को समझने के लिए और उसके बंधन से मुक्त होने के लिए उसके पांच कारणों को जानना आवश्यक है | अगले पांच श्लोकों में इसी पर प्रकाश डाला गया है, जिनके अंत में यह भी संकेत है कि निष्काम कर्म के रूप में बिना उसकी फल प्राप्ति में आसक्त हुए जो युद्ध-कर्म अर्जुन करने वाला है, और जो उसके लिए एक अनिवार्य कर्म ही है, वह भी उसे किसी बंधन में नहीं बाँध सकता ।

13-17.  हे महाबाहो वीर अर्जुन ! अब यह भी तुम भलीं-भांति जान लो  कि सांख्य-सिद्धांत में सभी कर्मों को करने  अथवा पूर्ण करने के पांच कारण बताये गए हैं ।  ये पांच कारण हैं – अधिष्ठान या शरीर जो आधार होता है, कर्ता अर्थात कर्म को करने वाला , कर्मों को करने वाली विभिन्न कारक इन्द्रियां , और उस कर्म में उनसे होने वाली विभिन्न चेष्टाएं, और अंत में, पांचवां कारण, इन सबका संचालन करने वाला दैव या देवता, जिसे प्रारब्ध, भाग्य या ईश्वरीय विधान भी कह सकते हैं  । मनुष्य मन, वाणी और शरीर से उचित या अनुचित जो भी कर्म करता है उसके यहीं पांच कारण  होते हैं  ।  ऐसा होने पर भी अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण जो मनुष्य अपने सभी कार्यकलाप में अपनी आत्मा को ही कर्ता के रूप में देखता है, वह अपने अविवेक में यथार्थ को नहीं समझ पाता । लेकिन जिस मनुष्य के अंतःकरण  में ‘मैं  कर्ता हूँ’ ऐसा अहंकार-भाव नहीं होता और जिसकी बुद्धि सांसारिक विषयों में लिप्त नहीं होती, वह तो जैसे किसी को मार कर भी नहीं मारता और न किसी बंधन मेँ बंधता ही है ।

18. कर्म करने की प्रेरणा तीन बातों पर निर्भर होती है  - ज्ञाता, जो जानने का प्रयास करता है; ज्ञेय, जो कुछ जानना  है, और ज्ञान, जो जाना जाएगा । उसी प्रकार कर्म को करना या कर्म–संग्रह भी तीन बातों पर निर्भर होता हैं – कर्ता , अर्थात माया से घिरा हुआ जीवात्मा; करण, अर्थात् उसकी सभी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ -  मन और बुद्धि जिनसे कर्म करना उसके लिए संभव होता है; और तब वह कर्म जो वह  करता है । मनुष्य के लिए यहीं तीन कर्म–प्रेरणायें  होती हैं, और यहीं तीन कर्म-संग्रह होते हैं  ।

19 सांख्य-दर्शन अथवा ज्ञान–शास्त्र में  सत्व, रजस और तमस -  इन तीन गुणों के भेद के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं  । यह भी मैं तुम्हे अच्छी तरह समझा रहा हूँ ।

अगले नौ श्लोकों में सात्विक, राजसी और तामसी गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म और कर्ता के भी तीन-तीन प्रकार बताये गए हैं |

20-22. सात्विक ज्ञान वह होता है जिससे मनुष्य सभी अलग–अलग जीवात्माओं–प्राणियों में परमात्मा को  एक ही अविनाशी, अविभाजित रूप में  सम-भाव में देखता है । ज्ञान राजसी तब होता है जब मनुष्य सभी प्राणियों में परमात्मा को अलग–अलग रूप में देखता है, एक अभिन्न, अविभाजित रूप में नहीं देखता । और तामसी ज्ञान वह होता है जब मनुष्य प्रकृति द्वारा निर्मित अपने शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप मान कर उसी में आसक्त हो जाता है ।

23-25. सात्विक कर्म वह होता है जो शास्त्रविधियों के अनुसार बिना फल की कामना किये, आसक्ति-रहित होकर, राग-द्वेष की भावना के बिना किया जाता है । लेकिन जो कर्म भोगों की कामना मन में लेकर, वहुत परिश्रमपूर्वक, अहंकार–भाव के साथ किया जाता है, वह राजसी कर्म होता है । और जो कर्म मोह के कारण, बिना उसके हिंसा तथा हानिपक्ष पर विचार किये, और विना अपने सामर्थ्य, या उस कर्म के परिणाम के बारे में सोचे किया जाता हैं, वह कर्म तामसी होता है ।

26-28. सात्विक कर्ता उसे कहते है जो अहंकार और आसक्ति से रहित है, धैर्य एवं उत्साह से भरा है, और सफलता या विफलता में हर्ष या विषाद से पूरी तरह मुक्त है । किन्तु अशुद्ध आचरण वाला जो कर्ता आसक्तिपूर्वक कर्म की फल-प्राप्ति की इच्छा लेकर कर्म करता है, लोभी तथा प्रहारों को पीडा पहुंचाने वाले स्वभाव का हैं, हर्ष और शोक से ग्रस्त हो जाता है, यह कर्ता राजसी होता है । और जो मनमाना और असंयमी है, जो पूरी तरह उत्तम संस्कारों से विहीन है, घमंडी, धूर्त और दूसरों की आजीविका छीनने वाला है, सदा दुखी स्वभाव का है, आलसी और काम करने में ढीलाढाला है, वह कर्ता तामसी होता है ।

29. हे अर्जुन ! बुद्धि और धारण-शक्ति अथवा धैर्य के भी इन तीन गुणों - सत्व,  रजस और तमस - के अनुसार तीन प्रकार के भेद होते हैं । उन्हें भी मैं तुमको अलग-अलग पूरी तरह बताता हूँ, सुनो ।

30-32. हे पार्थ !  सात्विक बुद्धि वह होती है जिससे मनुष्य प्रवृत्ति मार्ग,  अर्थात् सांसारिक कर्मों को निष्काम-भाव से करते चलना, एवं निवृति-मार्ग, अर्थात ज्ञान प्राप्त होने पर कर्म से सन्यास लेना -  इन्हें, तथा       उचित–अनुचित कर्तव्य, भय एव अभय, बंधन और मोक्ष को सही रूप में जान लेता है । हे पार्थ ! वहीं राजसी बुद्धि वह होती है जिससे मनुष्य धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य को सही–सही  नहीं जान पाता । और हे पार्थ ! तामसी बुद्धि तो तब होती है जब वह तमोगुण से पूरी तरह घिर जाने से अधर्म को ही धर्म समझ लेती है, और इसी तरह सभी चीजों क्रो उल्टा ही मान कर चलती रहती है ।

33-35. हे पार्थ । सात्विक धृति अथवा धारणाशक्ति या धैर्य वह होता  है जिससे मनुष्य निष्काम कर्मयोग, ध्यान-योग आदि  योगाभ्यास के द्वारा मन, प्राण-वायु और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता  अथवा जीवन में उनका उपयोग करता है । और हे अर्जुन । राजसी धारणशक्ति वह है जिसके द्वारा फल की कामना रखने वाला मनुष्य अत्यंत आसक्ति-पूर्वक धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है, अथवा जीवन में उनका आचरण करता      है । हे पार्थ! तामसी धृति या धारणा-शक्ति वह है जिसके अंतर्गत दुष्ट-बुद्धि मनुष्य सदा निद्रा, भय, शोक और विषाद से ग्रस्त रहता है, तथा अपनी उन्मत्तता  में बराबर पागलों जैसा व्यवहार करता है ।

36-39.  हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! सुनो, सुख भी तीन प्रकार का होता है । सात्विक सुख वह  जो पहले भले ही विष जैसा प्रतीत होता है, किन्तु जिसका परिणाम अंततः अमृत जैसा होता है;  जो आध्यात्मिक चेतना और निर्मल बुद्धि से प्राप्त होता है, और जिसके प्राप्त होने पर दुख का पूरी तरह अंत हो जाता है । उसी प्रकार  राजसी सुख वह है जो भोग-स्वरूप विषयों और इंद्रियों के संयोग से प्राप्त होता है, और पहले तो अमृत जैसा लगता है लेकिन परिणाम में विष जैसा होता है । और जो सुख पहले और बाद में भी आत्मा को मोह में डाल कर निद्रा, आलस्य और  प्रमाद या घमंड उत्पन्न करता हैं, वह तामसी सुख होता है ।

40-44. हे परंतप अर्जुन !  पृथ्वी, स्वर्ग अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनो गुणों से रहित हो । इन्ही तीन गुणों के अनुसार अपने-अपने स्वाभाविक कर्मो के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के वर्ग विभाजित हुए हैं । शम अर्थात मन का नियंत्रण, इंद्रिय-दमन, पवित्रता, तप, क्षमा-भाव, सरलता, ज्ञान और विज्ञान  - ये सब ब्राह्मण  के स्वाभाविक कर्म  हैं  । वीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध-कार्य में दृढ़ता, स्वामीभाव, दान आदि, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं  । कृषि, गोपालन, व्यापार आदि वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं । और सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है ।

ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के नाम से विभाजन का मूल अर्थ कर्मों के अनुसार मानव-समुदाय का वर्ग–निर्धारण है । यह वर्गीकरण सामाजिक जीवन में जीवन–निर्वहन के लिए स्वाभाविक–कर्मों के विभाजन पर आधारित है । इससे किसी रूढ़, कटी-छंटी जाति–व्यवस्था का बोध नहीं होता है । अपने स्वाभाविक–कर्मों के अनुसार ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र होता है, यही तात्पर्य है । कई भाषान्तरों में ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र आदि शब्दों के बदले संत , योद्धा, कृषक, व्यापारी और सेवक जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है , अतः गीता में किसी रूढ़  जाति  व्यवस्था का समर्थन किया गया है , ऐसा समझना ठीक न होगा । बाद में इस मूल कर्म-आधारित विभाजन के विकृत अर्थ-ग्रहण के कारण  हिन्दू समाज के  अनेक जातियों-उपजातियों में बंटते जाने के कारण बहुत सारी भ्रांतियां उत्पन्न होती  चली गयी हैं |

45-46. अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में लगे हुए उनको भलीभांति करने वाले मनुष्य परम सिद्धि अर्थात् परमात्मा को कैसे प्राप्त कर लेते हैं, अब यह सुनो । संसार के सभी प्राणियों की उत्पत्ति जिस पत्मात्मा से हुई है और जिससे यह सारी सृष्टि व्याप्त है, अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा उस परमात्मा की पूजा-अर्चना करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त कर होता है ।

47-48. हे अर्जुन!  अपने नियत, स्वाभाविक कर्म की तुलना में भले ही दूसरों का स्वाभाविक कर्म श्रेष्ठ लगे, तुलना में गुण-रहित लगने पर भी निष्ठापूर्वक अपना नियत, स्वाभाविक कर्म करना ही पाप से बचाता है । इसीलिए दोषयुक्त लगने पर भी अपने स्वाभाविक कर्म को नहीं छोड़ना चाहिएहर कर्म के साथ कोई न कोई दोष तो उसी तरह जुड़ा रहता है जैसे अग्नि के साथ धुआं ।

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पुनः रेखांकित कर रहे हैं कि अर्जुन एक वीर योद्धा है जिसका स्वाभाविक कर्म ही युद्ध करना है जिसमें अग्नि के साथ धुंए की तरह हत्या-कर्म अपरिहार्य होता है ।अतः इस परिस्थिति में अपने स्वाभाविक युद्ध–कर्म से मुह मोड़ना ही उसको पाप का भागी बनाएगा ।

49. जिसकी बुद्धि पूर्णत: अनासक्त हो, जो स्पृहा या कामनाओं से रहित हो, जिसने मन और इन्द्रियों पर पूरी तरह विजय पा ली हो, ऐसा मनुष्य ही सर्वत्र अपने ज्ञानयोग और सन्यास से पूरी तरह निष्कर्मता अथवा निष्काम कर्म की सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

50-53. हे कुंती -पुत्र अर्जुन! अब संक्षेप में यह जान लो कि ऐसी सिद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य कैसे उस परम ब्रहम को प्राप्त कर लेता है, जो ज्ञान की पराकाष्ठा  अथवा चरम सीमा-स्वरुप है । विशुद्ध बुद्धि से युक्त, ममता-रहित और शांत-चित्त ऐसा व्यक्ति, जिसने धृति या धैर्य से अपने अंतःकरण को पूरी तरह नियंत्रित कर  लिया है, अपनी सभी इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर दिया है, राग और द्वेष से मुक्त हो चुका है; जो एकान्तसेवी, मितहारी अर्थात संयमित आहार वाला, शरीर, मन और वाणी पर भी संयम रखने वाला, सदा ध्यान-योग में संलग्न, वैराग्य-युक्त; अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह - अथवा संग्रही-वृत्ति  को सर्वथा त्याग देने वाला है - वही व्यक्ति सच्चिदानंद परम ब्रहम के साथ एकाकार होने योग्य होता है ।

54-55. परम ब्रहम में एकाकार हुआ प्रसन्न-अंतःकरण वाला ऐसा ज्ञानयोगी न कोई आकांक्षा करता है और न शोक करता है । वह सभी प्राणियों में समभाव रखते हुए मेरी परम-भक्ति को प्राप्त कर लेता है । अपनी उस परम -भक्ति अर्थात ज्ञानमय चेतना से वह मुझ परमात्मा को – जैसा मैं हूँ और मेरा जैसा प्रभाव है - मुझे वह तत्व-सहित जान लेता है, और उसी परा-भक्ति से मुझको तत्व-सहित जान कर मुझमें प्रवेश कर जाता है ।

56-58. ऐसा कर्मयोगी पूरी तरह मेरे परायण होकर, अपने सभी कर्मों को सुचारु रूप से करता हुआ, मेरी कृपा से परम पद क्रो प्राप्त कर लेता है । इसलिए पूरी तरह मेरे परायण होकर, अपने सभी कर्मों को मन से मुझे समर्पित करते हुए और वुद्धि-योग का अभ्यास  करते हुए तुम निरंतर मुझमें अपना चित्त लगा लो, क्योंकि इस प्रकार मुझमें चित्त लगा कर मेरी कृपा से तुम सभी संकटों से पार उतर जाओगे । परंतु यदि अहंकारवश मेरी बातों पर ध्यान नहीं दोगे तो निश्चय ही तुम्हारा विनाश भी हो जाएगा ।

59-60. हे अर्जुन ! अपने अहंकार में यदि तुम ऐसा सोच रहे हो कि ‘मैं युद्ध नहीं करूंगा’, तो ऐसा सोचना भी तुम्हारा भ्रम ही हैस्वयं तुम्हारी प्रकृति ही युद्ध में तुम्हें प्रवृत्त कर देगी । मोह में पड़कर अपने जिस अनिवार्य कर्म को तुम नहीं करना चाहते हो, उसे भी अपने स्वाभाविक कर्म से बंधे हए तुम को  करना ही होगा ।

61-63. हे अर्जुन! तुम्हारा यह शरीर तो एक यंत्र जैसा ही है जिस पर तुम सवार हो । तुम जैसे सभी  प्राणियों के हृदय में स्थित अंतर्यामी परमात्मा उन सबके अपने-अपने कर्मों के अनुसार उन्हें अपनी माया से घुमा रहा है । इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम पूरी तरह समर्पित भाव से उसी परमात्मा की शरण में जाओ जिसकी कृपा से तुम परम शांति और परम पद को प्राप्त कर लोगे । मैनें  इसीलिए यह गोपनीय से भी अधिक गोपनीय ज्ञान तुम्हें दिया है । अब इस पर पूरी तरह विचार कर के तुम जैसा उचित हो वैसा करो ।

64-66. सभी गुहृय या रहस्यमय तत्वों से भी गुहृय मेरे इस परम श्रेष्ठ वचन को तुम पुनः एक बार सुन लो । तुम मेरे परम प्रिय हो इसीलिए मैं तुम्हारे लिए इस अति हितकारी वचन को कह रहा हूँ । अब तुम मुझमें ही पूरी तरह अपना मन रमा कर, मेरी ही पूजा करने वाला मेरा भक्त हो जाओ, और मुझे प्रणाम करो । ऐसा करने से तुम मुझे पूर्णत: प्राप्त हो जाओगे, यह मेरी सत्य-प्रतिज्ञा हैतुम मेरे प्रिय-भाजन हो । तुम सभी धर्मो अथवा मत–मतान्तरों और तर्क–कुतर्कों को त्याग कर अब बस पूर्ण समर्पण  के साथ मेरी शरण में  आ जाओ । किंचित भी शोक या चिंता मत करो |  मैं  तुम्हें सभी पाप बंधनों से मुक्त कर दूंगा ।

67. इस गूढ़ रहस्यमय गीतोपदेश को न तो कभी किसी तप-रहित या भक्ति-रहित, अथवा इसे सुनने की इच्छा नहीं रखने वालों  या श्रद्धा - भाव से रहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए, और न ही ऐसे मनुष्य से कहना चाहिए जो मुझमें केबल दोष देखा करता हो ।

 68-71. जो मनुष्य मुझमें उच्चतम भक्ति रखते हुए इस परम गोपनीय रहस्यमय तत्व  को मेरे भक्तों को कहेगा, निःसंदेह वह मुझको ही प्राप्त होगा । और ऐसे मनुष्य से अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्य-समाज से अथवा  इस पूरी पृथ्वी पर ही दूसरा कोई मेरा प्रिय नहीं हो सकता । जो भी मेरे इस धर्ममय संवाद  का अध्ययन करेगा, उसका यह ज्ञान-यज्ञ का प्रयास मेरी पूजा अर्चना से ही होगा, ऐसा मेरा निश्चित मत है । साथ ही, जो मनुष्य श्रद्धा–सहित  और दोष–दृष्टि से रहित होकर इसको सुनेगा, वह भी पूरी  तरह पाप-मुक्त होकर पुण्यात्मा  मनुष्यों के  शुभ-लोकों को प्राप्त कर लेगा ।

72. हे अर्जुन ! क्या तुमने मेरे इस उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है ? हे धनंजय ! क्या मेरा यह उपदेश सुन कर तुम्हारा अज्ञान-जनित संपूर्ण मोह नष्ट हो गया है ?

73. अर्जुन ने यहा – हे अच्युत कृष्ण ! आपकी इस महती कृपा  से मेरा सारा मोह पूरी तरह नष्ट हो गया, और मुझे  स्मृतिस्वरूप आत्मज्ञान प्राप्त हो गया । अब मैं पूर्णतः संशय-रहित होकर स्थिरचित्त हो गया हूँ, और आपके आदेश का पालन करने को तैयार हूँ ।

74-78. अंत में संजय ने अंधे राजा धृतराष्ट्र से  कहा - महर्षि व्यास की कृपा से मैंने वासुदेव श्रीकृष्ण और कुंती-पुत्र अर्जुन के बीच हुआ यह अद्भुत रोमांचकारी संवाद सुन कर आपसे कहा है, और व्यासजी की कृपा से ही मैंने  स्वयं  इस परम गुह्य योग-संवाद को साक्षात योगेश्वर श्री कृष्ण से सुना । हे राजन ! श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस अदभुत और परम कल्याणाकारी संवाद का स्मरण कर मैं बारबार रोमांचित हो रहा हूं । हे महाराज ! श्रीहरि कृष्ण के उस विस्मयकारी रूप को बारं-बार स्मरण कर मेरे मन में महान आश्चर्य  हो रहा है, और मैं  पुन: - पुनः  हर्ष से पुलकित हो रहा हूँ ।

हे राजन जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और गांडीव-धनुष-धारी अर्जुन हैं , वहीं  विजय, विभूति , श्री और
अचल नीति है - ऐसा मेरा मत है ।
     
  || यहीं  श्रीमदभगवदगीता का यह मोक्षसन्यासयोग नामक अंतिम अठारहवां अध्याय समाप्त हुआ  ||



© Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


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