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Thursday, September 7, 2023


मेरी किताबें



प्रोफेसरी से सेवा-निवृत्ति (१९९९) के बाद मैं अपने निजी बिखरे हुए लेखन को सहेजने में लगा, लेकिन सबसे पहले अपने स्वर्गीय पिता के साहित्य को व्यवस्थित-संपादित करने के कार्य को इस प्रकाशन-अभियान में प्राथमिकता देना मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ | अतः प्रारम्भ में मैंने ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र को १० खण्डों में  २०११ में सम्पादित-प्रकाशित किया तथा अपने पिता के साहित्य से सम्बद्ध कई और पुस्तकें प्रकाशित कराईं | यह सिलसिला करीब २००५ में ही शुरू हुआ था | ‘समग्र के सम्पादन-प्रकाशन में लगभग १० वर्ष लग गए थे | उसके प्रकाशन के बाद मैंने अपने लेखन को व्यवस्थित-प्रकाशित करने का कार्य प्रारम्भ किया जिसमें मेरी हिंदी और अंग्रेजी की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं | मेरी कुछ किताबें -  जैसे ‘चाबी (जापानी उपन्यास ‘कागी का अनुवाद ), ‘प्रेमचंद पत्रों में, ‘हिंदी-भूषण शिवपूजन सहाय आदि तो ‘समग्र से पूर्व ही प्रकाशित हो चुकी थीं, लेकिन मेरी ज़्यादातर अंग्रेजी और कुछ और हिंदी पुस्तकें भी तीन साल-लम्बे ‘कोरोना-काल (२०१९-’२२ ) में प्रकाशित हुईं | इधर फेसबुक पर मैं उनके विषय में कभी-कभी लिखता रहा, लेकिन यह काम भी पिछले एक साल (१९२२-’२३) में मेरी गंभीर अस्वस्थता के कारण बिलकुल नहीं हो सका था  |

 

अपनी अंग्रेजी किताबों के विषय में तो मैंने अपने अंग्रेजी के ब्लॉग – murtymuse.blogspot.com – पर ही लिखना उचित समझा | उस ब्लॉग पर मेरी अंग्रेजी किताबों के बारे में कुछ परिचयात्मक जानकारी उपलब्ध है | मेरी ये सारी हिंदी-अंग्रेजी किताबें अमेज़न पर उपलब्ध हैं | यहाँ इस हिंदी ब्लॉग पर मैं केवल उन सभी हिंदी पुस्तकों के कवर-चित्र लगा रहा हूँ | अधिकतर इन पुस्तकों के शीर्षकों  से उनकी सामग्री का परिचय मिल जायेगा | लेकिन उनके विषय में कुछ विशेष जानकारी भी इस परिचयात्मक पोस्ट से मिल सकेगी | आ. शिवजी के नाम पर हमलोगों ने उनके शती-वर्ष १९९३ में ‘आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास की स्थापना की थी | उनके लिखे सम्पूर्ण साहित्य का कॉपीराईट  न्यास का है | न्यास की योजना के अनुसार आ. शिवजी का या उनसे सम्बद्ध सारा साहित्य  न्यास द्वारा व्यक्तियों को ५०% छूट पर न्यास के डाक-खर्च से उपलब्ध कराने की व्यवस्था है | मेरी हिंदी-अंग्रेजी पुस्तकें भी इसी व्यवस्था के अंतर्गत उपलब्ध हैं | इसके लिए संपर्क सूत्र है – ईमेल : bsmmurty@gmail.com  अथवा WhatsApp no. 7752922938/ 9415336674

 

आ. शिवजी की अन्य पुस्तकों से सम्बद्ध  न्यास की इस योजना के विषय में पूरी सूचनाओं के लिए न्यास का ब्लॉग – shivapoojan.blogspot.com देखा जा सकता है | यहाँ केवल  मेरी कुछ हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है | 


       

  

 


'दर्पण में वे दिन' सबसे हाल में प्रकाशित संस्मरणों की पुस्तक है जिसमें साहित्यकारों पर लिखे मेरे  लगभग ४० संस्मरण हैं जो मेरे जीवन के प्रारम्भिक ४ दशकों की स्मृतियों पर आधारित हैं जिनमें अधिकांश मेरे पिता के साथ बीते बचपन की स्मृतियों को दुहराते हैं, और बहुत सारे - आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, विनोदशंकर व्यास, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, 'नटवर', रामवृक्ष बेनीपुरी, नलिनविलोचन शर्मा  आदि से सम्बद्ध हैं जिनमें द्विवेदीजी और प्रेमचंद के सिवा शेष सभी के साथ स्मृति-संस्पर्शपूर्वक जुड़ने का मुझे उन प्रारम्भिक दशकों में अवसर मिला जब मैं अपने पिता के साथ छपरा और पटना में रहा | सजिल्द -७००/-

'चाबी' एक जापानी लघु-उपन्यास का अंग्रेजी से किया हुआ अनुवाद है जिसमें एक अधेड़ प्रोफ़ेसर और उसकी नव-यौवना पत्नी के यौन जीवन की उनकी डायरियों के माध्यम से खुलती हुई सनसनीखेज़  कहानी है | 'हिंदी-भूषण शिवपूजन सहाय' मेरे पिता पर लिखे उनके  समकालीन साहित्यकारों के श्रेष्ठ पठनीय संस्मरण हैं | मेरे पिता की रचनाओं का - जिसमें उनका 'देहाती दुनिया' उपन्यास पूरा है, तथा उनकी कहानिया, संस्मरण, निबंध अदि संकलित हैं -  यह रचना-संचायन साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है | इससे पूर्व एक ऐसा ही रचना-संचयन नेशनल बुक ट्रस्ट से भी १९९६ में प्रकाशित हुआ था जो अब अनुपलब्ध है |
 
'चाबी' - २००/-                           'हिंदी-भूषण शिवपूजन सहाय'- २००/-            रचना-संचायन   - ४७५/-



श्रीरामचरितमानस (सरल कथा-सार) तुलसीदास-कृत 'मानस' का सरल हिंदी में रूपांतर है, जिसको पढ़कर आज का पाठक 'मानस' की सम्पूर्ण कथा और भारतीय हिन्दू जीवन-दर्शन से सहज ही परिचित हो सकता है | 
रु - २९५/-

'प्रेमचंद पत्रों में' प्रेमचंद और उनके समकालीन साहित्यकारों के लिखे पत्रों का काल-क्रम से सजा हुआ एक संग्रह है जिसके विषय में श्री अशोक वाजपेयी ने अपनी समीक्षा में लिखा था कि पुस्तक में एक उपन्यास पढने जैसी रोचकता है जिसमें प्रेमचंद के जीवन और समय के प्रत्यक्ष दर्शन होते   हैं |         रु.- ३५०/-  


'जानवर फ़ार्म' प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ओरवेल के लघु उपन्यास 'एनीमल फ़ार्म' का हिंदी अनुवाद है जो जब द्वितीय महायुद्ध के बाद प्रकाशित हुआ था उस समय उसमें  स्तालिनवादी अधिनायकवाद का सबसे कठोर प्रतिवाद एक व्यंग्य-पशुकथा के रूप में सामने आया था |     रु.-२२५/-


बाबू जगजीवन राम की जीवनी जहाँ एक ओर एक गरीब दलित के जीवन-संघर्ष को चित्रित करती है, वहीँ कांग्रेस की और इंदिरा गांधी के आपातकाल की रोचक कथा नए सिरे से उद्घाटित करती है |        रु.- ४५०/-


शिवपूजन सहाय का कथा साहित्य उनकी कहानियों और उनके एकमात्र आंचलिक उपन्यास 'देहाती दुनिया' पर लिखे गए श्रेष्ठ समालोचनात्मक लेखों का पहला प्रामाणिक संकलन है जिसमें नामवर सिंह, विजय मोहन सिंह, परमानंद श्रीवास्तव, रमेश उपाध्याय, दूधनाथ सिंह, मधुरेश आदि के निबंध हैं | इसमें मेरे और श्री आनंदमूर्ति  के भी २-३ पठनीय  निबंध हैं | रु.- ९९५/-

'मन एक वन' मेरी कविताओं की पुस्तक है जिसमें मेरी लगभग ५० कवितायेँ है और लगभग उतनी ही अंग्रेजी कवियों - शेक्सपियर, कीट्स. शेली. टेनिसन से लेकर आधुनिक इलियट और ऑडे तक की कविताओं के अनुवाद हैं, और इन लगभग २० कवियों पर लम्बी परिचयात्मक टिप्पणियाँ है जिनमें  अंग्रेजी काव्य-परंपरा का एक संक्षिप्त इतिहास पढ़ा जा सकता    है | पुस्तक की भूमिका आधुनिक हिंदी के ख्यात कवि श्री अरुण कमल ने लिखी है |   रु.- ३९५/-


प्रवासी की आत्मकथा स्व. भवानी दयाल सन्यासी  की १९४५ में प्रकाशित पुस्तक का नया परिमार्जित संस्करण है जिसमें उनके कई लम्बे-लम्बे पत्र भी शामिल किये गए हैं तथा और दस्तावेजी सामग्री जोड़ी गयी है | इस पुस्तक में गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का प्रमाणिक इतिहास भी सम्मिलित है | भवानी दयालजी के पिता जयराम सिंह कैसे गिरमिटिया जोड़ा  बनकर द. अफ्रीका पहुंचे थे उसकी अत्यंत रोचक कहानी इस आत्मकथा में मिलेगी |  रु.- ९९५/-

राजा राधिका  रमण राच्घना-संचयन  में राजा  साहब का पूरा साहित्य संक्षिप्त रूप में पढ़ा जा सकता है | वे  सुर्यपुरा (आरा के पास) के राजा थे जिनका वृहदाकार प्रसिद्ध उपन्यास 'राम रहीम' इस संचयन में अपने संक्षिप्त रूप में पूरा पढ़ा  जा सकेगा और साथ ही उनके पूरे रचना-संसार से परिचित हुआ जा सकेगा | मेरे द्वारा संपादित यह संचयन साहित्य अकादेमी से हाल में ही प्रकाशित हुआ है |    रु.- ३४०/- 

अंत में, 'सुनो पार्थ' श्रीमद भगवद्गीता का सरल सुबोध हिंदी में बड़ी कुशलता से किया हुआ अनुवाद है जो इस पवित्र ग्रंथ के सारे रहस्य को सुलझाते हुए उसको आज के जीवन के निकट ला देता है और उसके पावन ज्ञान को आज के पाठक के लिए सुलभ बना देता है |   रु.- २९५/-

इनमें से अधिकांश पुस्तकें अमेज़न पर उपलब्ध है | किसी तरह की कठिनाई होने पर मुझसे संपर्क करें तो इनमें से ज़्यादातर पुस्तकें आधे मूल्य पर मुफ्त डाक-खर्च पर  प्राप्त हो सकती हैं |

संपर्क-सूत्र : bsmmurty@gmail.com WApp no. 7752922938 



 


 

Tuesday, June 27, 2023

 

गंगा बाबू                                                    

 

काल के प्रवाह में, समाज में कुछ ऐसे व्यक्तियों का भी प्रादुर्भाव होता है जो अपने समय में अपना अत्यंत प्रभावशाली जीवन व्यतीत करते हैं, उनके कार्य-कलाप भी अत्यंत लोक-प्रभावी एवं महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन इतिहास की इबारत में उनका जीवनाख्यान अंकित होने से छूट जाता है, और वह अपनी पीढ़ी की परतों में ही दबा जैसे मिट जाता है | बिहार में वैसे भी ऐसा अनेक क्षेत्रों में बहुधा होता रहा है | स्वाधीनता संग्राम के दौरान समाज में और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बिहार में ऐसे अनेक नाम हैं जो अपनी पीढ़ी के साथ ही लोक-स्मृति से विलुप्त हो गए | कुछ ऐसे ही नाम हैं – ब्रजकिशोर प्रसाद, मजहरुल हक, पं. सकल नारायण शर्मा; संगीत के क्षेत्र में पं. रामचतुर मल्लिक; कला के क्षेत्र में ईश्वरी प्रसाद वर्मा, आदि |

इन्हीं में एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण नाम जुड़ता है – बाबू गंगा शरण सिंह का जो समाज, राजनीति और साहित्य के बीच एक सेतु की तरह रहे| साहित्य के वृत्त से– शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी, सुधांशु और दिनकर से वे उसी सहृदयता से जुड़े रहे जिस तरह राजेंद्र प्रसाद और  जेपी जैसे कांग्रेसी और समाजवादी खेमे के नेताओं से | गूगल पर उनके विषय में अत्यल्प सूचनाएं हैं, लेकिन वे ३-४ सत्रों में राज्यसभा के सांसाद भी रहे, और साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में बेनीपुरी आदि के साथ जुड़े रहे | तीस के आंदोलित दशक में बेनीपुरी के साथ ‘युवक नामक क्रांतिकारी साहित्यिक पत्रिका का सह-सम्पादन करते रहे, और आजीवन बिहार की पत्रकारिता में – जनता, योगी, नवराष्ट्र, नई धारा, आदि साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े रहे | बेनीपुरी ने ‘मुझे याद है’ शीर्षक अपनी संस्मरण-पुस्तक में ‘युवक के दिनों की विस्तार से चर्चा की है जब गंगा बाबू ने ‘युवक के प्रकाशन के लिए अपनी पत्नी के स्वर्णाभूषणों को बेच कर पैसे इकट्ठे किये थे. और किस मुफलिसी में पटना कॉलेज के सामने एक साधारण सी कोठरी में बेनीपुरी के साथ, अपनी रसोई बनाकर, बर्त्तन धोकर और चटाई पर एक ही रजाई में सो कर रातें बिताई थीं |

मेरे पिता ५० के दशक में पटना आ गए थे | ‘जनता का प्रकाशन उसी समय हुआ था | मेरे बहनोई श्री वीरेन्द्र नारायण उसमें बेनीपुरी के साथ सह-सम्पादक थे | नया टोला में उसका छोटा सा दफ्तर था | मैं वीरेन्द्रजी के साथ ही रहता था | वीरेंद्रजी मेरे पिता के कारण जेपी, बेनीपुरी और अन्य सभी समाजवादी नेताओं के अत्यंत प्रियजन थे और उनके साहचर्य में मेरा उन सभी समाजवादी नेताओं – जेपी, बेनीपुरी, बसावन सिंह, अवधेश प्रसाद सिंह, बी.पी. सिंह (बारिस्टर), श्यामनंदन सिंह ‘बाबा, रज़ी अहमद,  आदि से निकट का संपर्क रहता था | गंगा बाबू काग्रेस के समाजवादी दल के ही नेता थे | साहित्य से गंभीर रूप से जुड़े होने के कारण वे मेरे पिता के भी उतने ही समीपी रहे | उनदिनों बाद में मैं अपने पिता के साथ बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन में ही रहने लगा था जहाँ रोज शाम में इन सभी लोगों का – ख़ास कर साहित्य से जुड़े लोगों – बाबूजी, बेनीपुरीजी, सुधान्शुजी, नलिन जी, रजा साहेब, दीक्षितजी, दिनकरजी, आदि से नित्यप्रति की भेंट हुआ करती थी | सम्मलेन भवन का एक बड़ा-सा कमरा ‘अनुशीलन विभाग कहलाता था जिसमें ये जमावड़ा अक्सर हुआ करता था | उनदिनों मुझको फोटोग्राफी का नया शौक हुआ था और उस समय की मेरी खींची हुई कुछ तस्वीरें आप यहाँ भी देख सकते हैं | ऐसी तस्वीरों का एक बड़ा ज़खीरा मेरे संग्रह में है | ( यद्यपि मैं इन दिनों स्वास्थ्य-लाभ के लिए अपनी बेटी के पास गोवा में हूँ, जहाँ बहुत-सी सन्दर्भ सामग्री मेरे पास अभी नहीं है |)

गंगा बाबू बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के संचालक मंडल के सदस्य भी रहे, और मेरे पिता की डायरियों में गंगा बाबू से सम्बद्ध अनेक प्रसंग अंकित हैं | (देखें ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र, खंड ६-७) | यहाँ जो चित्र दिए गए हैं उनमें एक तो अनुशीलन विभाग का है जिसमें (बाएं से) पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, गंगा बाबू, शिवजी, दीक्षित जी और पं. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा देखे जा सकता हैं, और दूसरे दो चित्र १९५६ के हैं जब जेपी परिषद् में गंगा बाबू के साथ आये थे | जेपी और मेरे पिता के परस्पर सम्बन्ध भी पारिवारिक तो थे ही  साहित्यिक भी अत्यंत घनिष्ठ थे | जिस दिन जेपी परिषद् में मिलने आये थे उनको माथे में थोड़ी चोट लगी हुई थी जिस पर पट्टी लगी है | उस अवसर के दोनों चित्र भी सम्मेलन भवन के ही हैं | सीढ़ी से उतरते हुए चित्र में शिवजी, बेनीपुरी, गंगा बाबू और जेपी हैं | और उसी अवसर के दूसरे समूह चित्र में बाएं से अनूप लाल मंडल, शिवजी, जेपी, बेनीपुरी और गंगा बाबू देखे जा सकते हैं |

गंगा बाबू पर एक स्मृति-ग्रन्थ का प्रकाशन होना चाहिए था | उषाकिरण जी ने बताया कि ऐसा एक ग्रन्थ महिला चरखा समिति, पटना, से प्रकाशित भी हुआ था | लेकिन गंगा बाबू के यथोपलब्ध सम्पूर्ण लेखन और उनपर लिखी गई संस्मरण-सामग्री का एक सुलभ पुस्तकाकार प्रकाशन भी अवश्य होना चाहिए | बालक, युवक, जनता, योगी, नवराष्ट्र, नई धारा आदि  बिहार के उन दिनों के पत्रों में ढूँढने पर पर्याप्त सामग्री अभी भी मिल सकती है, यदि कोई इस दिशा में सघन प्रयास करे | आशा है इसकी ओर ध्यान अवश्य दिया जायेगा |

सभी चित्र (C) डा. मंगलमूर्ति 

कृपया बिना पूर्वानुमति के इन चित्रों को कहीं प्रकाशित न करें |

संपर्क: bsmmurty@gmail.com Mob. 7752922938


 
      

      

                  

 

 

Sunday, January 15, 2023

 


अकबर इलाहाबादी

[१८४६-१९२१]

 

उर्दू साहित्य की दुनिया में शेरो-शायरी की लोकप्रियता सबसे बढ़-चढ़ कर है, और इनका असली फॉर्मेट लोगों के बीच मुशायरों का है | यह जितनी पढ़ी जाती है उससे कहीं कई गुना ज्यादा सुनी और पीढ़ियों की याददाश्त में दुहराई जाती है | इसके प्रमाण आपको उर्दू-भाषी समाज में – घरेलू बातचीत से लेकर बाहर के समाज के सामान्य जीवन में – हर जगह, हर वक्त दिखाई देंगे | दैनिक सामाजिक जीवन के हर स्तर पर आम-फहम की बातचीत में साहित्यिक मिजाज़ की हरदम उपस्थिति आपको और भाषाओँ में शायद उतनी नहीं मिलेगी |

 

उर्दू काव्य-साहित्य में हर ज़माने में सबसे लोकप्रिय विधा शेरो-शायरी की ही रही है | यह उर्दू की एक अपनी विशेषता ही है कि उसमें कविता और जीवन के बीच कोई विभाजक रेखा होती ही नहीं | आपको किसी पांच मिनट की हलकी-से-हलकी गुफ्तगू में भी एक आध शेर सुनने को मिल ही जायेंगे | जीवन में इस तरह रची-बसी कविता शायद ही कहीं और दिखाई देती  है | और यह उर्दू की ही विशेषता है कि शेरो-शायरी की यह रवानगी और मुहावरेदारी उसकी बोलचाल में बिलकुल घुलमिल गयी है | दरअसल हिंदी भी जब ‘खड़ी बोली’ बनकर खड़ी होने लगी तब उसमें भी उर्दू की यह रवानगी और मुहावरेदारी मिली हुई नज़र आती है, बाद में जिसे हिंदी भाषा के प्रारम्भिक निर्माताओं ने प्रयासपूर्वक नए सांचों में ढालना शुरू किया | हिंदी साहित्य के विकास के लिए यह अलगाव ज़रूरी भी था जब उसको अपनी पहचान नए सिरे से बनानी थी | लेकिन आम लोगों के बोलने और समझने वाली जो हिंदी है उसका व्याकरण आम-फहम उर्दू से प्रायः अभिन्न है |

 

आज हिंदी-उर्दू के एक नए प्रसंग में उर्दू के जिस शायर की बात से यह चर्चा शुरू करनी है, वह इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल है | आप यह एक शेर देखिये -   

जो कहा मैंने कि प्यार आता है मुझको तुम पर

हंस के कहने लगे और आपको आता क्या है ?

 

‘प्यार आता है, ‘कहने लगे, ‘और आता क्या है – यही भाषा की मौलिक मुहावरेदारी है, जो उर्दू ने हिंदी को दी  है | प्यार का इससे प्यारा और सीधा इज़हार भला और हो क्या सकता है?  यहाँ न तो हिंदी उर्दू का झगडा है, न स्त्री-विमर्श की खींचतान और न धर्म या सम्प्रदाय का फ़िज़ूल तनाव | यह शेर सचमुच एक मिसाल है कि साहित्य और कविता भाषा के स्तर पर जीवन के कितने निकट होते हैं – जहाँ कविता किसी बनावट-सजावट में नहीं बल्कि अपनी दिली सादगी में देखी जा सकती है | कविता में भाषा-रचना के कई स्तर होते हैं जो एक वक़्त ऐसी दिलकश सादगी से भी दिल चुरा  सकते हैं, और दूसरे वक़्त अत्यंत संस्कृत-फारसी क्लिष्ट शब्दावली से अलंकृत होकर भी अलग तरह की रसानुभूति करा सकते हैं |

 

आज उर्दू के एक ऐसे ही मकबूल शायर की चर्चा करनी है जो शायद अकेले मशहूर इलाहाबादी हैं – जनाब अकबर इलाहाबादी | इलाहाबाद के पास एक गाँव के मध्य वर्गीय परिवार में जन्मे सैयद अकबर हुसैन कचहरियों के बहुत पापड बेलते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में सेशन जज हुए थे | लेकिन मिजाज़न वे ता-उम्र एक व्यंग्य-विनोद-हास-परिहास-प्रिय शक्सियत रहे, जो उनकी शायरी में हर जगह चुहल और खिलखिलाहट की गूंज छोडती है | पिता का सूफियाना संस्कार लेकर ‘अकबर ने जो शायरी की वह हमेशा आम आदमी के दिल को टटोलने और गुदगुदाने वाली चीज़ रही | उनका ये शेर भी यही कहता है –

     

मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं

फालतू की अक्ल मुझमें थी ही नहीं |

 

उनकी ग़ज़ल का एक मतला तो नामचीन ग़ज़ल-गायकों का भी बहुत प्रिय रहा है -

 

हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है|

 

उर्दू-शायरी शबाबो-शराब में शायद कुछ ज्याद ही गर्क मिलती है, लेकिन आप ‘अकबर के विसाल के के इन शेरोन की संजीदगी भी देखिये -

 

इलाही कैसी कैसी सूरतें तूने बनायी हैं

की हर सूरत कलेजे से लगा लेने के काबिल है |

 

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना

हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना |

 

सौ जान से हो जाऊंगा राज़ी मैं सजा पर

पहले वो मुझे अपना गुनाहगार तो कर ले |

 

लेकिन कुछ में चुहल की चुस्कियां भी हैं - 

 

गज़ब हैं वो जिद्दी बड़े हो गए

मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए

 

 

अकबर दबे नहीं किसी सुलतान की फ़ौज से

लेकिन शहीद  हो गए बीवी की नौज से |

 

बी. ए. भी पास हों मिले बीवी भी दिल-पसंद

मेहनत की है वो बात ये किस्मत की बात है |

 

‘फिराक साहब ने एक वाकया बताया है कि जजी के दिनों में कोई नए ग्रेजुएट साहब मिलने आये और अपना कार्ड अन्दर भेजेने से पहले कार्ड पर हाथ से बी.ए. जोड़ दिया तो अन्दर से कार्ड की पीठ पर यह शेर लिख कर लौटा दिया –

 

शेखजी घर से न निकले और यह फरमा दिया

आप बी.ए. पास हैं बंदा भी बीबी पास है !

 

चुटीला व्यंग्य ‘अकबर की शायरी के तरकस का मुख्य तीर था जो ऐसे बहुज्ञात शेरों में दिखाई पड़ता है -

 

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो

जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो |

  

हम क्या कहें अहबाब क्या कारे-नुमायाँ कर गए

बी. ए. हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए |

 

बताऊँ आपको मरने के बाद क्या होगा

पुलाव खायेंगे अहबाब फातिहा होगा |

 

एक गहरी चोट तो अपने ही पेशे के लोगों पर - 

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा

लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो गए |

 

और आखिर में एक हलके मिजाज़ का सूफियाने रंग का शेर -

बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है

तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता |

 

(C) डा. मंगलमूर्त्ति

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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