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Thursday, October 28, 2021

 


सात शहरों का सफ़र

लखनऊ सातवाँ शहर है, जहां जीवन के इस अंतिम चरण में आकर मैं स्थिर हो गया हूँ | मेरा जन्म बिहार के दरभंगा जिले में लहेरिया सराय में हुआ – फिर मेरे पिता प्रोफ़ेसर होकर छपरा आये, तब पटना आना हुआ, फिर वहां से मैं भी प्रोफेसरी में मुंगेर पहुंचा | सेवा-निवृत्ति के बाद यमन की पुरानी राजधानी ताईज़ में रहा – लौट कर बनारस, और अंततः  सातवाँ शहर लखनऊ  | जीवन की रेलगाड़ी इस बीच कई और स्टेशनों पर रुकी – कहीं किसी जंक्शन पर कुछ अधिक देर भी, जैसे दो साल दिल्ली में  – पर रहना इन्हीं  सात शहरों में हुआ | और यह भी एक संयोग ही था कि मेरे पिता की जीवन-यात्रा में भी सात ही शहर आये | सबसे पहले – आरा, तब कलकत्ता, फिर लखनऊ (कुछ दिन ही), फिर बनारस, तब लहेरिया सराय, वहां से छपरा (जब मैं भी साथ जुड़ गया ) और अंतिम पड़ाव – पटना | पिता के जीवन के अंतिम तीन शहर ही मेरे प्रारम्भिक जीवन के शामिल तीन शहर रहे | मेरे पहले उनके जीवन में चार प्रवासी शहर आये और उनके बाद मेरे जीवन में भी चार ही  रिहायशी शहर आये | सोचता हूँ जीवन खुद कैसे अपने को एक तरतीब में सजा लेता है ? यह तब पता चलता है जब आप पाब-ए-रक़ाब होते हैं |

देश के पूरबी सिरे पर लहेरिया सराय में शुरू हुआ जीवन लखनऊ में पच्छिमी छोर पर आकर ख़तम होगा – जैसे कोई सीधी सडक हो जो थोडा दायें-बाएं मुडती-घूमती अपन गंतव्य पर पहुंची हो – यह कौन जानता था | यह यात्रा दिल्ली में भी ख़तम हो सकती थी – दिल्ली भी उतनी दूर नहीं थी – लेकिन दिल्ली से भी तो बड़े-बड़े हुनरमंद कभी लखनऊ चले आये थे सुपुर्दे-ख़ाक होने ! ज़िन्दगी के सफ़र का यह नक्शा शायद ये शहर ही आपस में मिल कर तय करते हैं – कब, कहाँ, कितने दिन रहना है |

अंतिम रूप से यहाँ लखनऊ आने से पहले दो या तीन ही बार कुछ-कुछ घंटों के लिए यहाँ आया था, शायद कुछ उसी तरह जैसे मेरे पिता यहाँ बस चंद महीनों के लिए आकर रहे थे | इन्हीं कुछ घंटों वाली दो या तीन आवा-जाही में लखनऊ की दो बड़ी अदबी हस्तियों से मिला था – पहली बार अमृत लाल नागरजी से शायद १९८५ में, और दूसरी बार श्रीलाल शुक्ल जी से १९९६ में |

दूसरी बार एक सेमिनार में आया था  जब ताज होटल में  ठहराया गया था | मेरे एक निकट के सम्बन्धी यहाँ SIDBI के निदेशक थे और उनका निवास इंदिरानगर में ही था | उन्हीं के साथ श्रीलाल शुक्लजी के यहाँ पहुँच गया | उस समय वे पूर्णतः स्वस्थ और सहज थे | उनके स्वागत में जैसे स्नेह का निर्झर बहने लगा | मेरे पिता के प्रति श्रद्धा-भाव ही उसका निर्मल जल था | ऐसा लगा हमलोग उसी पवित्र शीतल जल में स्नान करते हुए मेरे पिता के संक्षिप्त लखनऊ प्रवास की चर्चा में निमग्न हो गए |

शुक्लजी  से मेरा परिचय  उनकी अमर कृति राग दरबारी’ से ही हुआ था, जो हिंदी उपन्यास में एक नया मोड़ था | उपन्यास में एक व्यंग्य-वक्र दृष्टि से स्वतंत्रता के बाद देश के ग्रामीण जीवन के त्वरित शहरीकरण का एक राजनीतिक  भाष्य चित्रित हुआ था, और उपन्यास की इस नयी कथा-वस्तु  के लिए एक नयी प्रखर व्यंग्य में सनी कथा-भाषा का अविष्कार हुआ था, यह आद्योपांत कथानक में परिलक्षित होता था | सामान्यतः हर अभिनव शिल्प के साथ आने वाला उपन्यास एक नयी कथा-भाषा के साथ प्रस्तुत होता है |

उस समय ये सब बातें शुक्लजी से तो नहीं हुई थीं, लेकिन ‘देहाती दुनिया’ की कथा-भाषा के विषय में शुक्लजी ने कुछ ऐसी ही बातें की थीं, ऐसा याद आता है | इसी प्रसंग में ‘रंगभूमि’ की कथा-भाषा की भी चर्चा हुई थी, और फिर मेरे पिता के  उन थोड़े दिनों के लखनऊ-प्रवास की भी बाते हुईं थीं, जिसमें प्रेमचंद और निराला के साथ दुलारेलाल भार्गव के शुद्ध व्यावसायिक व्यवहार पर उन्होंने मनोरंजक टिप्पणियां की थीं | मैं अपने साथ प्रेमचंद के पत्रों वाली अपनी पुस्तक ले गया था जिसे मैंने उनको भेंट किया और उसमें प्रकाशित दुलारेलाल के पत्रों के बारे में उनको बताया | मेरे पिता दुलारेलाल के रूखे, साहित्यिकों से भी गद्दी वाले सेठ जैसे मालिकाना व्यवहार से ही आहत होकर ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग की सम्पादकीय चाकरी छोड़ कर लौट गए थे, क्योंकि दुलारेलाल साहित्यकारों को सम्मान देना जानते ही नहीं थे |

मैंने शुक्ल जी के उपन्यास ‘राग दरबारी’ में स्वतंत्रता के बाद की पंचायती व्यवस्था में होनेवाली पतनशील राजनीति के प्रसंग में  अपने गाँव के पंचायती चुनावों की राजनीति  के अपने निजी अनुभवों के विषय में भी  बताया, जिनकी चर्चा मेरे पिता ने अपनी पुस्तक ‘ग्राम-सुधार’ में की थी | जब मैंने उनको बताया कि मैं अपने पिता के ‘साहित्य-समग्र’ का १० खण्डों में सम्पादन कर रहा हूँ जिसमें उनका सम्पूर्ण साहित्यिक पत्र-साहित्य एवं उनकी पूरी डायरी ५ खण्डों में शामिल होगी तो वे बहुत प्रसन्न हुए | मैंने उनको यह भी बताया कि मैं अपने पिता के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहता हूँ, और प्रारम्भिक कुछ अंश का अनुवाद किया भी है, पर उसमें स्थानीय भोजपुरी प्रसंगों के अनुवाद में बहुत  कठिनाई हो रही है |     

शुक्ल जी के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का अंग्रेजी अनुवाद उस समय तक (पेंगुइन,१९९१ में)  हो चुका था, जिसकी  अनुवादिका गिलियन  राईट से बाद में मेरी मुलाक़ात लखनऊ आ जाने के बाद यहाँ शायद २०१४ में ‘लिट् फेस्ट’ में हुई थी, जिसमें उनके अनुवाद पर उनसे मेरी थोड़ी बातें भी हुई थीं, और उनसे भी मैंने ग्रामीण जीवन पर आधारित अपने पिता के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ के अंग्रेजी अनुवाद में होने वाली भाषा-सम्बन्धी कठिनाइयों की चर्चा की थी |  इसी प्रसंग में शुक्ल जी ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘पहला पड़ाव’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘ओपेनिंग मूव्स’(पेंगुइन,१९९३) – जिसका अनुवाद डेविड रूबिन ने किया था – उसकी एक प्रति अन्दर से लाकर मुझे भेंट की | दोनों पुस्तकों के अनुवाद अत्यंत सफल और सुन्दर हुए हैं,और दोनों के अनुवादकों के साथ शुक्ल जी ने अनुवाद-कार्य में  काफी सहयोग किया था | जैसे शुक्ल जी ने बताया कि ‘पहला पड़ाव’ शीर्षक के अनुवाद के विषय में उन्होंने रूबिन से कहा था कि उपन्यासों- कहानियों  के शीर्षकों के अनुवाद  हमेशा शाब्दिक नहीं हो सकते, क्योंकि वे कथानक और उसके संकेत को ध्यान में रखकर ही किये जाने चाहियें, जैसा उनके मूल-शीर्षक में होता है | हर भाषा का अपना सांस्कृतिक परिवेश और अपनी सांस्कृतिक सम्पदा होती है, जो अनुवादक के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है | अनुवादक की सबसे बड़ी समस्या होती है मूल की भाषा का एक ऐसा स्थानापन्न रूप तैयार करना जिसमें आद्योपांत मूल जैसी समरसता हो और जिसमें खास-ख़ास देशज शब्दों-मुहावरों-कहनों की समरूपता आविष्कृत की जा सके जो स्थानापन्न भाषा में अच्छी तरह खप जा सके | डेविड रूबिन ने अपनी अनुवादकीय प्रस्तावना में भी स्पष्ट लिखा है –

For many Hindi words –titles and nicknames, particularly, and certain foods – there are no exact equivalents in English. Both in order to keep the Indian flavor and to avoid any falsification I have in several cases retained the Hindi word. The context will usually be sufficient for understanding. A large number of Hindi words are now included in standard English dictionaries – pan, tilak, dhoti. etc.; such words require no definition here….

 

अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अनुवादकों – रूपर्ट स्नेल, रुथ वनिता, डेविड रूबेन, आदि ने अनुवाद के इस भाषाई पक्ष पर ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं | डेविड रूबेन ने उपर्युक्त प्रसंग में यह भी लिखा है कि –

Readers who compare the Hindi with the translation will in a few instances find an addition to or deletion from the original text; these have been made at the suggestion of the author.

 

श्रीलाल शुक्ल विश्व-साहित्य के भी उतने ही बहु-पठित विद्वान थे और सृजन-कार्य के अनुवाद पक्ष के तो गहरे परखी थे ही | मैंने उनसे अपने पिता की स्मृति में संगठित न्यास के विषय में बताया जो तब तीन वर्ष पहले स्थापित हो चुका था और उसके दो-तीन अधिवेशन-सत्र संपन्न हो चुके थे | मैंने उनसे अनुरोध किया कि आगामी ९ अगस्त को मेरे पिता की १०३ वीं जयंती न्यास द्वारा मनाई जाएगी और हमारी इच्छा है, उसमें कथा-साहित्य के भाषा-पक्ष  पर ही शुक्ल जी का स्मारक व्याख्यान हो | शुक्लजी  ने मेरे इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया, पर बाद में पत्राचार के क्रम में उन्होंने अस्वस्थ होने के कारण व्याख्यान में उपस्थित होने में अपनी असमर्थता बताई, और वह कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा |

 

शुक्ल जी से यही मेरी अकेली – पहली और अंतिम भेंट थी | उनकी स्मृति स्वरूप उनके अंग्रेजी उपन्यास ‘ओपेनिंग मूव्स’ की यह हस्ताक्षरित प्रति एक धरोहर की तरह मेरे पास रह गयी है | आज मैं उसी – अपने सातवें शहर लखनऊ में स्थायी रूप से रहने लगा हूँ | लेकिन अब तो यहाँ  एक अजनबी की तरह ही |  लखनऊ में भी मेरे पिता की स्मृति  में दो-तीन महत्त्वपूर्ण समारोह न्यास की ओर से मनाये गए हैं जिनके विवरण मेरे इन्हीं ब्लोगों पर उपलब्ध हैं | पुराने समय के अब एक ही व्यक्ति यहाँ  कवि नरेशजी से कभी-कभी मिलना होता रहा है, और अभी तो वह भी कोरोना-काल में नहीं हो पा रहा है | नरेश जी की एक         अविस्मरणीय पंक्ति है –

पुल पार करने से

पुल पार होता है

नदी पार नहीं होती

 

कुछ उसी मनोभाव में  मैं भी सोचता हूँ –

शहर बदलने से

अपनापा बदलता है

शहर नहीं बदलते |

 
 
चित्र : सौजन्य गूगल          

    

     

   

 

 

 

 

 

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