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Wednesday, March 29, 2017


नव-संवत्सर 
चैत्र नवरात्रि

                            श्रीमद्दुर्गासप्तशती
                   [कथा-सार : अध्याय १ से ७ तक]

[श्रीमद दुर्गासप्तशती अध्याय निर्देशिका

प्रथम अध्याय में राजा सुरथ और वैश्य समाधि मेधा ऋषि से मधु और कैटभ के विष्णु द्वारा वध की कथा सुनते हैं| दूसरे अध्याय में देवताओं के तेज से देवी के प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना के वध की चर्चा है|तीसरे अध्याय का प्रारम्भ भी देवी के स्वरुप के ध्यान से हुआ है और इसमे सेनापतियों सहित महिषासुर के वध की कथा है|चौथेअध्याय में इन्द्रादि  देवताओं द्वारा देवी की स्तुति की गई है|पांचवें अध्याय में पहले देवताओ द्वारा देवी की स्तुति की गयी है, फिर वह प्रसंग वर्णित हुआ है, जिसमें चंड मुंड के मुख से देवी अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर राक्षसराज शुम्भ देवी के पास दूत भेजता है, और दूत के सामने ही शुंभ और निशुंभ का मखौल उड़ाकर देवी उस दूत को निराश वापस कर भेज देती है| छठवें अध्याय का आरम्भ सर्वज्ञेश्वर भैरव की अंकशायिनी पद्मावती देवी के ध्यान से होता है तथा  इसमें धूम्रलोचन के वध की कथा वर्णित है|सातवें अध्याय का प्रारम्भ मातंगी देवी के ध्यान से होता है तथा इसमें चंड और मुंड के वध की कथा है आठवेंअध्याय का आरम्भ माता भवानी देवी के ध्यान से होता है इसमें देवी को नमस्कार करके 108 बार नवार्ण  मन्त्र का जाप होता है इसमें रक्तबीज नामक राक्षस के वध की कथा दी गई है नवम अध्याय का प्रारम्भ अर्धनारीश्वर के ध्यान से होता है तथा इसमें निशुम्भ वध की कथा कही गई है   दशम अध्याय का प्रारंभ शिवशक्ति स्वरूपा भगवती कामेश्वरी के ध्यान से होता है तथा इसमें शुम्भ के वध की कथा कही गयी है  एकादश अध्याय भुवनेश्वरी देवी के ध्यान से प्रारम्भ होता है, तथा इसमें देवताओं द्वारा देवी की स्तुति एवं देवी द्वारा देवताओं को वरदान देने का विवरण है| द्वादश अध्याय का प्रारम्भ दुर्गादेवी के ध्यान से होता है, तथा इसमें देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य वर्णित हुआ है|श्रीमददुर्गासप्तशती के इस अंतिम त्रयोदश अध्याय का प्रारंभ शिवा देवी के ध्यान से होता है, तथा इसमें राजा सुरथ और वैश्य समाधि को देवी के वरदान देने का प्रसंग वर्णित है|]




   



                              प्रथम अध्याय
                                     ध्यान महाकाली

पूर्वकाल में स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे, जिनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार
था, और जो प्रजापोषक थे। उनसे शत्रुता रखनेवाले कोलविध्वंसी क्षत्रियों से उनका युद्ध हुआ और संख्या
में अपने शत्रुओं से अधिक होने पर भी राजा सुरथ पराजित हो गए। हारकर जब वे अपनी राजधानी लौटे ,
तो वहां भी शत्रुओं ने उन पर आक्रमण कर दिया। उनके विश्वासघाती मंत्रियों ने उनकी सेना और कोष
पर अधिकार कर लिया ,और राजा दुखी होकर घोड़े पर शिकार खेलने के बहाने जंगल की ओर निकल
गए। वहां मेघा मुनि के आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद उन्हें फिर अपने राज्य की चिंता सताने लगी।
आश्रम के पास ही उनकी भेंट समाधि नामक  एक वैश्य से हो गई जिसने राजा से अपना दुखड़ा रोते हुए
बताया कि  उसके दुष्ट स्त्री एवं पुत्रों ने भी धन के लोभ से उसे घर से बाहर निकाल  दिया था। वह
स्वयं भी अपने स्वजन की कुशल के लिए बहुत चिंतित था। राजा सुरथ ने  समाधि  से पूछा कि  वह वैसी
स्त्री और पुत्रों के लिए दुखी क्यों हो रहा है, जिन्होंने उसे इस प्रकार घर से निकाल दिया है। सुरथ ने
कहा न जाने क्यों उसका मन ऐसे स्वार्थी स्वजनों के लिए निष्ठुर नहीं हो पाता, इसे वह बिलकुल समझ
नहीं पा रहा है। इसी तरह की मनः स्थिति में राजा और वैश्य दोनों मेधा मुनि के पास गए और उन्होंने
मुनिवर से अपनी शंका प्रकट की : क्यों उन दोनों का मन उन्ही वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति अब भी
आसक्त है, जिनसे उन्हें अपमान या विकर्षण प्राप्त हुआ है।

मेधा ऋषि ने दोनों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्हें बताया कि विषयासक्ति और मायामोह से सभी प्राणी
चाहे वे मनुष्य हो या पशुपक्षी समान रूप से ग्रस्त होते हैं। पक्षी भी अपनी भूख की परवाह ना करके
अपने बच्चों की चोंच में ही दाना डालते हैं। उसी तरह मनुष्य भी अपने किये हुए पालन-पोषण के
बदले में अपनी संतान से प्रतिफल चाहते हैं। यह सब ममतामयी महामाया भगवती के प्रभाव से होता है।
यही महामाया भगवान विष्णु की योगनिद्रा के रूप में हैं।  जिनसे यह सारा जगत मोहित है।
राजा ने पूछा - भगवन ! किन्तु ये महामाया भगवती कौन हैं ? इनके प्रभाव, स्वरुप और  आविर्भाव
आदि  के  विषय में हमें विस्तार से बताइये।ऋषि बोले - वास्तव में तो वे देवी नित्य और अजन्मा हैं ,
सम्पूर्ण जगत उन्हीं  का रूप है, फिर भी वे समय-समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध  करने के लिए
प्रकट होती हैं।

एक बार कल्प के अंत में जब सम्पूर्ण जगत जलमय ( एकार्णव ) हो रहा था, और भगवान विष्णु
शेषनाग की शय्या  पर  सो रहे थे, तभी उनके कानों के मैल  से दो भयंकर राक्षस मधु और कैटभ 
उत्पन्न हुए , और विष्णु की नाभि से उपजे कमल पर बैठे ब्रह्मा का वध करने को तैयार हो गए। ब्रह्मा
ने इस संकट को देखकर भगवान विष्णु की आँखों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ
कर दिया, जो  भगवान विष्णु की ही अनुपम शक्ति हैं, और संसार को धारण, पालन और संहार करने वाली हैं। अपनी स्तुति में ब्रह्मा ने कहा कि -  हे देवी] स्वयं मुझको ,शंकर तथा विष्णु को भी तो तुमने ही शरीर धारण कराया है। अब तुम ही इन दोनों भयंकर असुरों मधु और कैटभ को मोह में डाल दो, और भगवान विष्णु को शीघ्र  जगाकर उन्हें इन राक्षसों को मारने की बुद्धि प्रदान करो।
योगनिद्रा ब्रह्मा की स्तुति से प्रसन्न हो उनके सामने प्रकट हो गईं और तब भगवान विष्णु भी जागकर उठ बैठे तथा दोनों राक्षसों से युद्ध करने लगे जो पांच हज़ार वर्षों तक चलता रहा। योगनिद्रा की माया से मोहित दोनों
राक्षस तब भगवान विष्णु  से बोले हम तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हैं, अब तुम वर मांगो। भगवान विष्णु
बोले - और क्या वर मांगना है, अब तुम दोनों मेरे द्वारा मारे जाओ।राक्षसों ने सारे जगत को जलमय देखकर चतुराई से कहा कि जहाँ जल न हो, वहीँ सूखी जमीन पर हमारा वध कर सकते हो। भगवान विष्णु  ने तुरंत दोनों राक्षसों की गर्दनें अपनी जांघ पर रख कर अपने चक्र से काट डाला। और यह सब योगनिद्रा देवी के प्रभाव से ही हुआ।


                             यहीं सप्तशती का पहला अध्याय समाप्त होता है।

                                  दूसरा अध्याय
      ध्यान महालक्ष्मी

इस अध्याय में देवताओं के तेज से देवी के प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना के वध की चर्चा है। प्रत्येक
अध्याय  का आरम्भ विनियोग एवं ध्यान  से होता है, जिसमें देवताओं का स्मरण एवं भगवती के
स्वरुप का ध्यान किया जाता है

फिर मेधा ऋषि बोले कि पूर्वकाल में देवताओं  और असुरों में पूरे सौ साल तक घोर संग्राम हुआ था।
जिसमें देवता असुरों से पराजित हो गए थे। इस युद्ध में देवताओ के नायक इंद्र व असुरों का स्वामी
महिषासुर  था

इंद्र की पराजय के बाद महिषासुर  इंद्र बन बैठा था। हारे हुए सभी देवता दल बांधकर ब्रह्माजी को
अपना नायक बनाकर उस स्थान  पर गए जहाँ शंकर और विष्णुजी विराजमान थे। उनसे अपना दुखड़ा
रोते हुए देवताओ ने कहा कि महिषासुर ने सभी देवताओं को स्वर्ग से निष्काषित कर दिया है , और अब
वे सब पृथ्वी पर निरुपाय विचर रहे हैं। दोनों देवाधिपतियों से देवताओं ने यह प्रार्थना की कि वे
महिषासुर का शीघ्र वध कर , उसके त्रास से सभी देवताओं को मुक्ति दिलावें । यह वृतांत सुनकर शंकर
और विष्णु आदि सभी देवता क्रुद्ध हो गए और उनके शरीर से एक बड़ा भारी तेज निकलने लगा। वह
तेजपुंज एकत्रित होकर पर्वत जैसा दिखाई देने लगा और धीरे-धीरे उसने एक नारी का रूप धारण कर
लिया। उस नारी के अंग-प्रत्यंग विभिन्न देवताओं के तेज पुंज से ही निर्मित हुए थे।
फिर सभी देवताओं ने उस नारी को नाना प्रकार के अलंकरण और शस्त्रास्त प्रदान किये , जैसे शंकर  ने
शूल , विष्णु ने चक्र , इंद्र ने वज्र , वरुण ने शंख , वायु ने धनुष आदि तथा अन्य देवताओं ने अन्यान्य
वस्त्राभूषण तथा शस्त्रास्त प्रदान किये।

इस प्रकार से सुसज्जित होने के बाद उस नारी शक्ति ने अट्हास पूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की , जिससे
पर्वत काँप उठे और समुद्र में हलचल मच गई। उनके घोष से प्रसन्न होकर सभी देवता उनका स्तवन
करने लगे। इधर सम्पूर्ण त्रिलोक को क्षोभग्रस्त देखकर सभी राक्षस सावधान हो गए और नारी शक्ति के
जयघोष को सुनकर महिषासुर क्रुद्ध होकर उनकी ओर दौड़ा। शीघ्र ही देवी और असुरों में घमासान युद्ध
छिड़ गया। अपनी अपनी विशाल सेनाएं लेकर चामर, उदग्र, महाहनु, असिलोमा, वाष्कल, परिवारित ,
विडाल, आदि महादैत्य भी देवी से युद्ध करने लगे। घमासान युद्ध होने लगा। देवी खेल खेल में ही
दैत्यों पर शस्त्रास्त्र वर्षा करती रही और उनका वाहन सिंह भी क्रोध में अपने गर्दन के बाल हिलाता हुआ
उस असुर सेना को रोंदने लगा। देवी अम्बिका युद्ध करती हुई जितने निःस्वास छोड़ती उनसे सैकड़ों
हज़ारों गण उत्पन्न होकर असुरों के छक्के छुड़ाने लगे। देखते ही देखते युद्ध भूमि में असुरों की सेना के
रक्त की बड़ी बड़ी नदियां बहने लगी और जैसे पलक झपकते देवी ने असुरों की विशाल सेना को उसी
तरह नष्ट कर दिया जैसे आग देखते ही देखते घासफूस के भारी ढ़ेर को जला डालती है। इससे प्रसन्न
होकर सभी देवता आकाश से फूल बरसाने लगे।

तीसरा अध्याय
 ध्यान जगदम्बा

तीसरे अध्याय का प्रारम्भ भी देवी के स्वरुप के ध्यान से हुआ है और इसमे सेनापतियों सहित महिषासुर
के वध की कथा है। मेघा ऋषि बोले  - दैत्यों की विशाल सेना को इस प्रकार तहस-नहस होते देख कर
महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रुद्ध होकर देवी अम्बिका से युद्ध करने को आगे आया। किन्तु घमासान युद्ध
के बाद वह देवी के हाथों मारा गया। तब फिर चामर आगे बढ़ा लेकिन शीघ्र ही देवी ने उसका भी वध
कर दिया और इस प्रकार शेष सभी महादैत्यों को भी मौत के घाट उतार दिया। तब इस प्रकार अपनी
सेना और सेनापतियों का नाश होते देख कर महिषासुर भैंसे का विशाल रूप धारण करके देवी के गणों पर
प्रहार करने लगा। उन सबों को देखते देखते धराशायी करने के बाद वह महादेवी के वाहन सिंह पर झपटा
, तब भगवती ने अत्यंत क्रुद्ध होकर उस पर अपना पाश फेंक कर बांध दिया। लेकिन मायावी राक्षस
महिषासुर ने तुरंत अपना भैंसे का रूप त्याग कर सिंह का रूप धारण कर लिया। तब जब जगदम्बा
उसका सर काटने को उद्दत हुईं , उसने खड्गधारी पुरुष का रूप धारण कर लिया। महादेवी ने तुरंत उसे
बाणों से बींध डाला और ढाल तलवार से उस पर वार करने लगी. तभी उसने गजराज का रूप धारण कर
लिया और देवी के वाहन सिंह को सूंढ़ से खींचने लगा। उसी पल देवी जगदम्बा ने तलवार से उसकी सूंढ़
काट डाली। तब उस महादैत्य ने पुनः भैंसे का रूप धारण कर लिया और उत्पात मचाने लगा। अंततः
महादेवी ने बार बार उत्तम मधु का पान किया और आँखें लाल-लाल कर के बोली  - रे मूढ़ राक्षस! अब पल
भर और तू उत्पात मचा ले। और इतना कह कर देवी उछल कर उस महादैत्य पर सवार हो गईं फिर
अपने  पैर से उसे दबा कर उस पर शूल से आघात किया। दबा होने के कारण भैंसे के शरीर से वह अपने असली रूप में आधा ही निकल पाया था कि देवी ने तलवार से उसका मस्तक काट गिराया।
महिषासुर के मरते ही सारी असुर सेना हाहाकार करती हुई भाग गई और देवता  देवी का हर्षित होकर
स्तवन करने लगे। 
                     इस प्रकार यह तीसरा अध्याय समाप्त होता है।


                            चतुर्थ अध्याय
                                   (ध्यान जया : दुर्गा देवी )

इस अध्याय में इन्द्रादि  देवताओं द्वारा देवी की स्तुति की गई है। मेधा ऋषि कहते हैं - महिषासुर के वध के पश्चात् इन्द्रादि सभी देवता भक्ति पूर्वक देवी का स्तुति गान करने लगे। देवतागण ने फिर नंदनवन के पुष्पों एवं गंध-चन्दन आदि से देवी की पूजा की। जिससे अत्यंत प्रसन्न होकर देवी ने सभी देवताओं को प्रणाम करते हुए उनसे कहा - हे देवगण ! मैं आपकी पूजा- स्तुति से अत्यंत प्रसन्न हूँ। आप सब अपना इच्छित वर मांगने की कृपा करें। देवता बोले कि हे देवी , असुरों का वध करके तो आपने हमारे सारे कष्ट हर लिए। अब हमें और क्या चाहिए। फिर भी आपकी इच्छा है तो हम यही चाहते हैं कि , आप हमें , जब जब हम आपका स्मरण - स्तवन करें , आप हमें दर्शन देने की कृपा करें, और साथ ही जो भी मनुष्य इन स्त्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करे , उसे वित्त , समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पति को भी बढ़ाने के लिए आप सदा हम पर प्रसन्न रहें।  

देवताओं की यह सर्व कल्याणकारी प्रार्थना सुनकर देवी अतीव प्रसन्न हुई और  तथास्तु कहकर वहीँ अंतर्ध्यान हो गईं। 
अंत में मेधा ऋषि राजा सुरथ को सम्बोधित कर बोले - हे भूदाल ! देवताओं के शरीर के पुंजभूत तेज के रूप में प्रगट हुई देवी ने जिस प्रकार  महिषासुर आदि असुरों का संहार किया, वह कथा मैंने सुनाई। 

अब पुनः देवताओं का उपकार करने वाली वो देवी , दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ - निशुम्भ का वध करने एवं लोकों की रक्षा करने के लिए , गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं , वह प्रसंग अब आपको सुनाता हूँ।

                    इस प्रकार चतुर्थ अध्याय समाप्त होता है।


                                                                 पंचम अध्याय 
                               ध्यान महासरस्वती

इस पांचवें अध्याय में पहले देवताओ द्वारा देवी की स्तुति की गयी है, फिर वह प्रसंग वर्णित हुआ है, जिसमें चंडमुचंड के मुख से देवी अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर राक्षसराज शुम्भ देवी के पास दूत भेजता है, और दूत के सामने ही शुंभ और निशुंभ का मखौल उड़ाकर देवी उस दूत को निराश वापस कर भेज देती हैं ।मेधा ऋषि कहते हैं - पूर्वकाल में शुंभ और निशुंभ नामक असुरों ने देवराज इंद्र से तीनों लोक छीन लिए थे, और सभी देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। पराजित और अपमानित देवताओं ने तब देवी दुर्गा के दिए वरदान का स्मरण किया जिसमे उन्होंने देवताओं को आश्वस्त किया था की वह विपदा में जब भी देवी का स्मरण करेंगे, तब वे उनकी सभी विपत्तियों का नाश कर देंगी। यह विचार तभी देवता गिरिराज हिमालय पर  गए और वहां भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे। [ यहीं वह सुन्दर स्तुति है- “या देवी सर्वभूतेषु विष्णु-मायेति शब्दिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः फिर स्तुति के बाद ऋषि आगे कहते हैं- जब देवगण इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय देवी पार्वती गंगा में स्नान करने वहां आयीं देवताओं को इस प्रकार स्तुति करते देख पार्वती ने पूछाआप लोग यहाँ किसकी स्तुति कर रहे हैं। तब पार्वती देवी के शरीर-कोष से ही प्रगट हुई शिवादेवी बोली कि शुंभ और निशुंभ से तिरस्कृत यह देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं
(पार्वती देवी के शरीर-कोष से ही देवी अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था , इससे वे समस्त लोकों में कौशिकी के नाम से जाने जाती है। )कौशिकी के प्रगट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया, अतः वे हिमालय पर रहने वाली कलिका देवी के नाम से विख्यात हुई। इसके बाद शुंभ और निशुंभ के भृत्य चंडमुंड वहां आये और उन्होंने परम रूपिणी अम्बिका देवी को देखा, फिर वे शुम्भ के पास जाकर बोलेमहाराज एक अत्यंत सुन्दर स्त्री अपने रूप के प्रकाश से सरे हिमालय को प्रकाशित कर रही है आप उस सुन्दरी को पकड़ कर ले आइये
महाराज! आपके पास देवताओं से छीना हुआ सब कुछ हैधन, रत्न, हाथी, घोड़े, विमान  आदि  सभी कुछ किन्तु इस स्त्री रत्न को जब तक आप अपने पास नहीं ले आते, आपका सारा संग्रह सूना है। अपने भृत्यों चंडमुंड की इन बातों को सुनकर दैत्यराज शुम्भ ने अपने राक्षस सुग्रीव को अपना दूत बना कर देवी अम्बिका के पास अपने प्रेम का सन्देश लेकर भेजा और उसे आदेश दिया कि वह अपनी मधुर वाणी से रिझाकर देवी को ले आये। सुग्रीव ने देवी अम्बिका के पास जाकर अत्यंत मधुर स्वर में अपने दैत्यराज शुम्भ का सन्देश सुनाया उसने अम्बिका से 
अपने स्वामी  शुम्भ के बल एवं पराक्रम का वर्णन करते हुए उनसे अपने स्वामी का वरण करने का  सन्देश कहा तथा उन्हें अपने साथ साथ शुम्भ के पास चलने के लिए आमंत्रित किया दूत की बातें सुनकर देवी गंभीर होकर मुस्कुराने लगीं और बोलींदूत तुमने सच ही कहा है तुम्हारा राजा शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है मैं उसका आग्रह स्वीकार करती, लेकिन मेरी कठिनाई ये ही है कि मैंने पहले से एक अटपटी प्रतिज्ञा ये कर रखी है, कि मैं उसी का वरण  करूंगी मुझे संग्राम में जीतकर मेरे अभिमान को चूर कर देगा इसलिए यदि शुम्भ- निशुम्भ स्वयं आकर मुझसे युद्ध करें और मुझे पराजित करें तो वे मेरा पाणिग्रहण कर सकते हैं इस पर उस दूत ने कहा कि सुन्दरी देवी ! तुम किस बल पर इतना घमंड कर रही हो तीनो लोकों में कोई भी ऐसा नहीं है जो शुम्भ- निशुम्भ का मुकाबला कर सके फिर तुम एक अबला स्त्री होकर इतनी गर्व भरी बातें कर क्यों कर रही हो ? अतः तुम मेरी बात मानकर मेरे साथ मेरे स्वामी के पास चलकर उनका वरण कर लो, नहीं तो मेरे स्वामी स्वयं आकर बलपूर्वक तुम्हें केश पकड़ कर घसीट ले जायेंगे, तब तुम्हें चाहते हुए भी अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा ।इस पर हंसकर देवी बोलीतुम्हारा कहना तो ठीक है, पर मैं अपनी प्रतिज्ञा से लाचार हूँ अतः तुम दैत्य राज से मेरी बात जाकर कह दो फिर वे जैसा उचित समझें , करें
                     इस प्रकार पांचवा अध्याय समाप्त होता है

                               छठवा अध्याय

इस अध्याय का आरम्भ सर्वज्ञेश्वर भैरव की अंकशायिनी पद्मावती देवी के ध्यान से होता है तथा  इसमें धूम्रलोचन के वध की कथा वर्णित है मेधा ऋषि कहते हैंहे! राजन(सुरथ ), देवी के ऐसे वचन सुनकर वह दूत बड़ा खीजा ,और उसने शुम्भ को जाकर सारी  बात बताई , जिसे सुनकर शुम्भ कुपित हो उठा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन को आदेश दिया कि वह सेना के साथ जाकर उस गर्विणी स्त्री को केश पकड़ कर घसीटता हुआ ले  आये   धूम्रलोचन साठहज़ार असुरों की सेना लेकर देवी के पास पहुंचा और बोलाअरी बडबोली औरत ! तेरी इतनी मजाल कि त्रिभुवन के स्वामी राक्षसराज शुम्भ की आज्ञा की अवहेलना करे सीधी तरह तू मेरे साथ शुम्भनिशुम्भ के पास चल , नहीं तो मैं तेरा झोंटा पकड़ कर घसीटता हुआ तुम्हें वहां ले जाऊँगा धूम्रलोचन की बात सुनकर देवी ने कहाठीक है , जैसी तुम्हारी इच्छा देवी के इतना कहते ही धूम्रलोचन उनकी और लपका तब अम्बिका ने हूं शस्य के उच्चारण मात्र से ही उस राक्षस को भस्म कर दिया, और शीघ्र ही उस असुरी सेना का विध्वंस कर डाला जब शुम्भ ने सुना कि अम्बिका ने धूम्रलोचन व् उसकी सेना का विनाश कर दिया है, तो वह क्रोध  से कांपने लगा, और चंड मुंड नामक दो महा दैत्यों को फिर एक बड़ी सेना के साथ भेजा कि वह उस देवी का झोंटा पकड़ कर अथवा बांध कर उसके पास ले आवे भले ही उसकी लाश ही क्यों लानी पड़े
                                        इसके साथ ही छठा अध्याय समाप्त होता है

                               सातवाँ अध्याय
इस अध्याय का प्रारम्भ मातंगी देवी के ध्यान से होता है तथा इसमें चंड और मुंड के वध की कथा है । मेधा ऋषि राजा सुरथ से बोले - तब शुम्भ की आज्ञा पाकर चंड और मुंड आदि दैत्य अपनी चतुरंगी सेना लेकर हिमालय की ओर चल पड़े ।  वहां पर्वत के एक ऊंचे शिखर पर सिंह की सवारी पर बैठी देवी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी, लेकिन जब राक्षसगण उनकी ओर लपके तो क्रोध से देवी का मुंह  काला पड़ गया, और उसमें से तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुईं जो तलवार और पाश लिए हुए थीं । उन्होंने चीते के चमड़े की साडी पहन रखी थी और नरमुंडों की माला धारण किये हुए थीं । उनके शरीर का मांस सूखकर केवल हड्डी का एक ढांचा भर रह गया था । उनका चेहरा अत्यंत डरावना था और लाल जीभ लपलपा रही थी ।
देखते ही देखते कालिका देवी राक्षसों  पर टूट पड़ीं  और उनका भक्षण करने लगीं । यह देखकर चंड और मुंड उनकी ओर झपटे, तब देवी ने बड़ी-सी तलवार खींचकर हुंकार ध्वनि करते हुए चंड के केश पकड़कर उसका मस्तक काट डाला । फिर जब मुंड लपका तब उसकी भी वही दशा हुई ।चंड और मुंड जैसे पराक्रमी राक्षसों को मरते देख उनकी बाकी सेना भी आर्तनाद करती हुई भाग खड़ी हुई । इसके बाद काली ने चंड और मुंड का मस्तक हाथ में लेकर चंडिका देवी के पास जाकर  प्रचंड अट्टहास करते हुए कहा – देवी! चंड और मुंड नामक इन दो महापशुओं को तो मैंने मार दिया है । अब तुम शुम्भ और निशुम्भ का वध स्वयं ही करना ।

                  इस प्रकार सातवाँ अध्याय समाप्त होता है ।

             [इसके बाद की कथा पढ़ें ५ अप्रैल - रामनवमी - के पोस्ट में] 







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