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Wednesday, October 4, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

 
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 


 चौदहवां अध्याय

गुणत्रयविभागयोग

1-2. भगवान श्रीकृष्ण बोले - सभी ज्ञानों से उत्तम इस परम ज्ञान को मैं एक बार फिर तुम्हें समझा कर कहूँगा, जिसे जान कर समस्त मुनिगण अथवा मननशील मनुष्य इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धियों को प्राप्त हो गए । ऐसे सभी मनुष्य जो मेरे ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वे फिर सृष्टि के पुन: प्रारंभ होने पर भी जन्म नहीं लेते, और प्रलय काल में भी वे कभी कष्ट नहीं पाते ।

3-4.  हे भरतवंशी अर्जुन ! सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाली यह मायामय प्रकृति, जो मेरा ही महत् ब्रहमरूप है, यह त्रिगुणात्मक प्रकृति ही सभी प्रकार के प्राणियों को जन्म देने वाला क्षेत्र है, और मैं उस प्रकृति रूपी क्षेत्र में चेतना रूपी बीज की स्थापना करता हूँ, जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति  होती है । हे कौन्तेय ! मनुष्य,  पशु, पक्षी आदि समस्त योनियों में जितने भी प्रकार के प्राणी उत्पन्न होते हैं, उनको उत्पन्न करने का क्षेत्र प्रकृति है, और मैं उनको उत्पन्न करने वाला पिता हूँ ।

5-8. हे निष्पाप, महाबाहु अर्जुन! प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण -  सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण अविनाशी जीवात्मा को बंधन में डाल देते है । इनमें सत्व गुण तो निर्मल होने के कारण विकार रहित और प्रकाश देने वाला है, फिर भी वह सुख और ज्ञान की आसक्ति से जीवात्मा को बंधन में डाल देता है । उसी प्रकार राग के रूप मेँ रजोगुण कामना और  आसक्ति से उत्पन्न होता है, और जीवात्मा को उसके कर्मों और उनके फलों की आसक्ति में बांध देता   है ।और  सभी देहधारियों को मोह में डालने वाला तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है । यह प्रमाद या घमंड, निद्रा और आलस्य के द्वारा जीवात्मा को पूरी तरह बांध लेता है ।

9-13.  हे अर्जुन! सत्वगुण मनुष्य को सुखी बनाता है, रजोगुण मनुष्य को कर्म में लगाता है और तमोगुण  तो ज्ञान को ढंक कर प्रमाद या घमंड ही उत्पन्न करता है ! जव सत्वगुण बढता है तो यह रजोगुण और तमोगुण को दबा देता है । उसी प्रकार जब रजोगुण बढता है तब वह सत्वगुण और तमोगुण को दबाता है, और जब तमोगुण की वृद्धि होती है तब वह सत्वगुण और रजोगुण को पूरी तरह अभिभूत कर लेता है । किंतु जब सत्वगुण का उत्कर्ष होता है तब इस शरीर के सभी द्वारों में प्रकाश और ज्ञान उत्पन्न होता है । हे कुरुनंदन अर्जुन ! जब रजोगुण की वृद्धि होती है तब लोभ, अशांति, कर्म करने की प्रवृत्ति  और सकाम कर्मों का आरंभ, तथा भोग्य पदार्थों की लालसा आदि उत्पन्न होते हैं ।उसी तरह तमोगुण की वृद्धि होने पर अप्रकाश अथवा अंधकार अप्रवृत्ति अथवा कार्य करने में उदासीनता, प्रमाद अथवा घमंड और मोह उत्पन्न हो जाते हैं  ।

14-15. सत्वगुण के आचरण वाला जीवन व्यतीत करके सतोगुण-वृद्धि की स्थिति में मृत्यु को प्राप्त होने पर मनुष्य उत्तम कर्मों को करने वालों के दिव्य लोक  को प्राप्त होता है ।  उसी प्रकार रजोगुण के आचरण वाला  जीवन व्यतीत करके रजोगुण-वृद्धि की स्थिति में मृत्यु को प्राप्त होने पर मनुष्य कर्मों में आसक्त रहने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है । और तमोगुण के आचरण वाला जीवन व्यतीत करके तमोगुण-वृद्धि की स्थिति में मृत्यु को प्राप्त होने पर मनुष्य मूढ़ अथवा निकृष्ट योनियों में जन्म लेता है ।

 सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के फल भी अलग - अलग  होते हैं ।

16-18. सात्विक कर्मो का फल निर्मल होता है । राजस कर्मों का फल सदा दुखदायी तथा तामस कर्मों का फल हमेशा ही बुद्धि विवेक को भ्रष्ट करने और अज्ञान उत्पन्न करने वाला होता  है । सत्वगुण से ज्ञान  की प्राप्ति होती है, किन्तु रजोगुण से केवल लोभ उत्पन्न होता है, और तमोगुण से तो मोह और प्रमाद के रूप में बस अज्ञान ही उत्पन्न होता है । सत्वगुण का आचरण करने वाले उर्द्वगामी होते हैं, अर्थात  उनकी गति उन्नति की ओर होती है, उन्हें सुख-शांति और सुयश प्राप्त होते हैं । रजोगुण का आचरण करने वाले बीच में ही उलझ जाते हैं, ऊपर नहीं उठ पाते, और तमोगुण का आचरण वाले तो अधोगामी  होते हैं, बराबर नीचे ही गिरते जाते हैं ।

 अगले दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण उस सर्वोच्च स्थिति का वर्णन करते हैं जो सत्व, राजस और तमस इन तीनों गुणों से परे एक गुणातीत स्थिति है | तमोगुण और रजोगुण से ऊपर उठकर सतोगुण की स्थिति प्राप्त कर लेने पर भी मनुष्य कर्म एवं कर्मफल के बंधन से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाता है | अपने को एक शरीर समझने का भाव तब भी उसके साथ ही लगा रहता है  | किन्तु इस त्रिगुण बंधन से मुक्त मनुष्य , देह-बोध से भी मुक्त होकर , त्रिगुण से बुने  हुए इस मायाजाल को तोड़ देता है , और सघन आत्मचिंतन द्वारा निर्गुण निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है | देह में रहते हुए भी वह ज्ञानी मनुष्य त्रिगुण मायाजाल से मुक्त होकर अमृतमय परमात्मा से एकात्म होकर स्वयं अमृतमय हो जाता है  |

19-20. जब मनुष्य तीनों गुणों से मुक्त होकर कर्ता का भाव त्यागकर, केवल द्रष्टा के रूप में शरीर से पूर्णत: तटस्थ हो जाता है, और निर्गुण – निराकार ब्रहम को भली-भांति जान जाता है, तब वह मुझ परमात्मा को प्राप्त होता है । ऐसा ही मनुष्य शरीर की उत्पत्ति से जुड़े इन तीन गुणों के बंधन से ऊपर उठकर जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु और अन्य सभी भौतिक दुखों से उबर कर अमृतमय परमपद को प्राप्त होता है ।

21 अर्जुन ने कहा- हे प्रभु! इन तीनो गुणों से मनुष्य किस प्रकार ऊपर उठ पाता है, किस प्रकार गुणातीत हो जाता है, और तब वह किन लक्षणों से युक्त हाता है, तब उसका आचरण कैसा होता है?  कैसे वह इन तीनों गुणों से परे होकर ऊपर उठ पाता है ? कृपया मुझे बताएं ।

22-25. श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन ! मनुष्य में सत्वगुण का उदय होने से उसे ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । उसी प्रकार रजोगुण का उदय होने से उसमें कामना-पूर्ति की प्रवृत्ति जागृत होती है । और तमोगुण का उदय होने से उसमें अज्ञान का अंधकार उत्पन्न होता है, तथा कर्म करते हुए प्रमाद एवं आलस्य-भाव बढ़ता जाता है । लेकिन जो मनुष्य इन तीनो गुणों के प्रति न तो द्वेष का भाव रखता है, ना ही उनसे निवृति या मुक्ति पाकर मन में फिर उनकी आकांक्षा करता है , वही मनुष्य गुणातीत होता है | जो मनुष्य इन तीनो गुणों को एक तटस्थ साक्षी की भांति देख कर उनसे  तनिक भी विचलित नहीं होता, और उनके  परस्पर जोड घटाव से भी पूर्णत: अप्रभावित रहता है; जो इस प्रकार परमात्मा में एक्य भाव से स्थित रहते हुए किसी प्रकार से भी विकार-युक्त नहीं होता, वही मनुष्य गुणातीत होता है । ऐसा मनुष्य जो आत्मभाव में स्थित रहते हुए, सुख-दुख में समान रहने वाला; मिटटी के ढेले या पत्थर अथवा सोना को एक भाव से देखने वाला; एक ज्ञानी की भांति प्रिय और अप्रिय को समान समझने वाला, अपनी निंदा  और स्तुति से भी सम-भाव रखने वाला, मान-अपमान, मित्र-शत्रु दोनों को ही समान मानने वाला, और सभी कार्यों को करता हुआ भी किसी प्रकार का अभिमान नहीं करने वाला मनुष्य ही गुणातीत कहा जाता है ।

26-27. जो मनुष्य अनन्य भक्तिपूर्बक मुझे भजता है, वह इन तीनों गुणों की सीमाओं को पार कर लेता है, और मुझ सच्चिदानंद परमब्रह्म को प्राप्त करने योग्य हो जाता है । ऐसे ज्ञानी मनुष्य का परम आश्रय - अविनाशी ब्रहम, सनातन धर्म, अखंड आनंद और अमृतस्वरूप - मैं ही हूँ ।

           |। यहीं श्रीमद्भगवद्गीता का  गुणत्रयविभागयोग नामचौदहवां अध्याय समाप्त हुआ ।|

 © Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


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