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Friday, July 28, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

पांचवां अध्याय  : कर्मसंन्यासयोग


1. अर्जुन ने कृष्ण से कहा - हे श्रीकृष्ण ! आप कभी तो सन्यास की और फिर कभी कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । कृपया दोनों में से जो भी एक मेरे लिए निश्चित रूप से कल्याणकारी हो, आप मुझे उसके विषय में बताइए ।

2 तब श्रीकृष्ण बोले - देखो अर्जुन, वैसे तो सन्यास एवं कर्मयोग दोनों ही मोक्षप्राप्ति में सहायक होते हैं, लेकिन इन दोनों में कर्मों से सन्यास की तुलना में अनासक्त कर्मयोग अधिक श्रेष्ठ है ।

3. हे परमवीर अर्जुन ! जो मनुष्य किसी से न द्वेष करता है और न ही कोई कामना करता है, ऐसा कर्मयोगी ही सच्चा सन्यासी होता है, क्योंकि राग-द्वेष जैसे द्वंद-भाव से रहित मनुष्य सुखी होकर कर्म के बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।

4-5 वास्तव में कर्मों का परित्याग करते  हुए सन्यास-भाव से ज्ञानयोग का अभ्यास करने वाले विवेकरहित मनुष्य ही समझते हैं कि ऐसे सांख्ययोग तथा अनासक्त-भाव से किए हुए कर्मयोग के लक्ष्य अलग-अलग होते हैं । लेकिन पंडितजन ऐसा नहीं मानते । इन दोनों में से किसी एक मार्ग पर चलते हुए मनुष्य दोनों के अभीष्ट लक्ष्य - परमात्मा को प्राप्त हो सकता है। जो परमपद ज्ञानयोगियों द्वारा प्राप्त हो सकता है, वही परमपद कर्मयोगियों द्वारा भी प्राप्त होता है। इसीलिए लक्ष्य की दृष्टि से जो ज्ञानयोग एव कर्मयोग को एक ही समझता है,  वहीं ठीक समझता है ।

6-7. हे अर्जुन ! कर्मयोग के बिना सांख्य योगी के लिए भी ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मत्याग द्वारा सन्यास का निर्वहन कठिन है । वहीं मननशील कर्मयोगी के लिए परमात्मा को प्राप्त करना संभव हो जाता है । पवित्र अन्तःकरण  वाले जिस व्यक्ति ने मन और इंद्रियों को वश में कर लिया है, और सभी प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा के साथ जो एकात्म-भाव से युक्त हो चुका है, ऐसा कर्मयोगी सब कर्मों को करता हुआ भी उन कर्मों में लिप्त नहीं होता ।

8-9 अनासक्त सांख्ययोगी जो तत्त्वज्ञानी है, देखते, सुनते, सूंघते, स्पर्श करते, भोजन करते, चलते-फिरते सोते, श्वास लेते, मल त्याग करते, कुछ ग्रहण करते, और अपनी आंखें खोलते-मूंदते हुए भी - यानी कुछ भी करते हुए – ऐसा  अनुभव करता है कि सभी इंद्रियां अपना-अपना कर्म स्वाभाविक रूप से कर रही हैं, और वह स्वयं कुछ नहीं कर रहा है ।

10.11. सारी आसक्तियों को त्यागकर और परमात्मा को समर्पित करते हुए जो मनुष्य अपने सभी कर्म करता है वह जैसे जल में रहने वाला कमल-पत्र जल से सर्वथा अछूता रहता है, वैसे ही सभी कर्मों को करतें हुए भी पाप में कभी लिप्त नहीं होता । ऐसा मनुष्य सारी आसक्तियों को त्यागकर शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा केवल आतंरिक शुद्धि के लिए अपने सभी कर्म करता है ।

12-13.कर्मफल में अनासक्त कर्मयोगी अपनी कर्मनिष्ठा से उत्पन्न शांति को स्वत: प्राप्त कर लेता है, किन्तु कर्मफल में आसक्त सकाम मनुष्य अपनी कामनाओं में ही बंधा रह जाता है । अपने अन्तःकरण को पूरी तरह वश में रखनेवाला तत्त्वदर्शी मनुष्य मन से अपने कार्यों के प्रति अनासक्त होकर, समस्त कर्मों को त्याग कर, जैसे कुछ न करता हो और न करवाता हो,  अपने नौ द्वारों वाले शरीर-रूपी घर में, परमात्मा से एकात्म होकर, आनंदपूर्वक निवास करता है ।

14-15 वास्तव में परमात्मा लोगों में कर्तापन के भाव को अथवा उनके कर्मों को या कर्मफ़लों को भी स्वयं नहीं रचता, बल्कि यह सब कुछ उनकी अपनी प्रकृति या स्वभाव द्वारा संचालित होता है । परमात्मा किसी के पाप या पुण्य को कभी ग्रहण नहीं करता । लोगों का अज्ञान उनके ज्ञान को ढंक लेता है जिससे वे मोह से फंसे रहते हैं ।

16-17. किन्तु तत्त्वज्ञान द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है, सूर्य की भांति उनका वह ज्ञान उनके भीतर परमात्मा को उद्भासित कर देता है । परम ब्रह्म के साथ जिनकी बुद्धि और मन एकरूप हो गए हैं, और जो परमात्मा के प्रति पूर्णत: निष्ठावान हैं, और बस उसे ही प्राप्त करने में लगे रहते हैं; जिनके समस्त पाप ज्ञान के द्वारा नष्ट हो गए हैं, वे फिर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते ।

18-19. विद्या तथा विनय से संपन्न ऐसे ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण और चांडाल, गौ, हाथी या कुत्ते - सभी को समभाव से देखते हैं, और जिनका मन समभाव में स्थित होता है, वे अपनी जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार को जीत लेते हैं । परमब्रहृम स्वयं दोषमुक्त और समभाव-स्थित है, इसलिए ऐसे ज्ञानीजन परमात्मा मेँ ही स्थित हो जाते हैं ।

ब्रहमज्ञानी सदा समचित्त रहता है । वह कभी अपनी समचित्तता से विचिलित नहीं होता ।

20-21. जो मनुष्य न प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है, और न अप्रिय को पाकर उद्विग्न, ऐसा संशयरहित, स्थिरचित्त, ब्रह्मज्ञानी मनुष्य निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा में अविचल रूप से स्थित होता   है । सभी प्रकार के वाह्य विषयों में आसक्तिरहिंत अन्तःकरण वाला ऐसा मनुष्य अपने भीतर स्थित आंतरिक आनंद को पूरी तरह प्राप्त कर लेता है, तथा इस परमात्मा से सर्वथा एकात्म होकर  अक्षय आनंद का निरंतर अनुभव  करता है।

22-23. इंद्रियों द्वारा क्षणिक और अनित्य विषय-सुख देने वाले समस्त भोग तत्काल सुखद प्रतीत होते हुए भी अंतत: निस्संदेह दुख के ही कारण होते हैं । इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य उनमे नहीं  रमते । ऐसे मनुष्य अपने जीवनकाल में काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले मनोवेगों को पूरो तरह शांत करने में समर्थ होते हैं, और इस प्रकार परमात्मा में एकात्म योगी के रूप में परम सुखी जीवन व्यतीत करतें हैं ।

24-25. जो मनुष्य अपने भीतर ही सुख का अनुभव करता है और अपनी आत्मा में रमा रहता है, तथा अपने अंतःकरण में ही आत्म-ज्योति के दर्शन करता है, परम ब्रह्म के साथ एकात्म ऐसा ज्ञानयोगी परमपद अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । परमात्मा में पूर्णत: एकात्म एवम् मन को पूरी तरह जीत लेने वाले जिस मनुष्य के सभी पाप, सभी दोष, सब प्रकार के संशय नष्ट हो चुके हैं, और जो सभी प्राणियों के हित में ही सदा संलग्न रहता है,  ऐसा ब्रह्मज्ञानी मनुष्य सहज ही ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त कर लेता है ।

26. काम और क्रोध से रहित मनुष्य जिसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया है, और जो सदा परमात्मा से एकात्म रहता है, ऐसे ब्रह्मज्ञानी के लिए तो सभी ओर परमात्मा ही होता है ।

27-29. वाह्य जगत के स्पर्श-सुखों से अलग रहकर, भौंहों के बीच में दृष्टि को स्थिर करके तथा नासिका से आने-जाने वाले तथा अपान वायु को भी सम करकेबुद्धि और मन को पूरी तरह जीत लेने वाला , जो मोक्ष-परायण योगी भय, क्रोध और इच्छा से रहित हो चुका है, वह परम मुक्त है । और ऐसा योगी मनुष्य मुझको सभी प्रकार के यज्ञों एव तपों  का भोग कराने वाला, समस्त लोकों का परमेश्वर, तथा सभी प्राणियों का सुहृद जानता हुआ परम शांति प्राप्त कर लेता है ।

      || यहाँ श्रीमदभगवदगीता का कर्मसन्यासयोग नामक पाचवां अध्याय समाप्त हुआ ||

© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com


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Friday, July 21, 2017


सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 


चौथा अध्याय : ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

1-3.भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! पहले मैंने इस अविनाशी योग को बिवस्वान् सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य ने इस योग को अपने पुत्र मनु को बताया, और मनु ने फिर अपने बेटे इक्ष्वाकु को इसकी शिक्षा दी । इसी प्रकार की सात्विक पंरपरा में राजाश्रय मेँ रहने वाले राजर्षियों ने इसकी शिक्षा को बहुत काल तक सुरक्षित रखा, किन्तु बाद में इस लोक से यह लुप्त हो गया । लेकिन क्योकिं तुम मेरे प्रियजन मित्र और भक्त हो,  इसीलिये आज उसी पुरातन योग को, जो उत्तम और गूढ़ रहस्यमय है, तुम्हें फिर से बता रहा हूँ।

4. इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा - परंतु आप तो इसी युग मेँ जन्मे हैं, और विवस्वान तो पुरातन काल में हुआ, तब उस पुरातन काल में आपने यह योगशिक्षा विवस्वान को दी थी यह कैसे संभव है ।

5-6. श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! तुम्हें नहीं मालूम, लेकिन पहले भी मेरे-तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके है, जिन्हें तुम तो नहीं जानते लेकिन मैं जानता हूँ । क्योंकि सभी प्राणियों का ईश्वर, अविनाशी और अजन्मा होने के बावजूद मैं अपने को प्रकृति के अधीन रखते हुए अपनी योगमाया से प्रकट होता रहता हूँ ।

7-8. हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं फिर से अपने दिव्य रूप की रचना करता हूँ । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्ट जनों के विनाश तथा सत्य और धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए मैं हर युग में अवतरित होता हूँ ।

9-11. मेंरे जन्म-कर्म सब दिव्य और अलौकिक हैं । जो मनुष्य इस सत्य को पूरी तरह जान लेता है वह इस नश्वर शरीर को एक बार त्यागने के बाद पुन: जन्म नहीं लेता, और मेरे साथ एकरूप हो जाता है । मुझे जो मनुष्य जिस प्रकार भजता है, स्मरण करता है, मैं उसे उसी प्रकार प्रेम से अपनाता हूँ । इस प्रकार सभी विवेकवान मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।

12-13. इस मनुष्य-लोक में लोग अपने कर्मों की फल प्राप्ति की इच्छा रखते  हुए देवताओं की पूजा करते हैं , क्योंकि इस प्रकार उनके कर्मों की फल प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है । मैंने मनुष्य के चार वर्णो की रचना उनमें सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण के भिन्न-भिन्न सम्मिश्रण के आधार पर की है, लेकिन उनका रचयिता होने पर भी तुम मुझको कर्म से अलग अविनाशी परमात्मा के रूप में ही देखो ।

14-15. कर्मों के फल में मेरी कोई आसक्ति नहीं है, न उनमें मैं लिप्त होता हूँ । और जो मुझे इस रूप में जानता है वह स्वयं भी कर्मों के बंधन में नहीं बंधता । पुरातन काल में मोक्ष चाहने वाले मनुष्यों द्वारा इसी प्रकार कर्म किए जाते रहे हैं, इसलिए ऐसे निर्लिप्त भाव से कर्म करने वाले पूर्व पुरुषों की भांति ही तुम भी अपने सभी कर्म करो ।

16-18. कर्म और अकर्म क्या है, अर्थात क्या करने योग्य है तथा क्या नहीं करने योग्य है, यह एक अत्यंत गूढ़ विषय है । इसे समझने में बुद्धिमान मनुष्यों की बुद्धि भी भ्रमित हो जाती   है । इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कर्म-तत्व को मैं तुमको अच्छी तरह समझा देता हूँ, जिसे जानकर तुम सभी प्रकार के पापमय कर्म-बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे । तुमको कर्म और अकर्म - दोनों का सही स्वरूप जानना चाहिए । साथ ही तुम्हें यह भी जानना चाहिए कि असत्य, कपट, हिंसा आदि विकर्म अथवा निषिद्ध कर्म जाने जाते हैं । तुम यह भी समझ लो कि एक ही कर्म किसी के लिए करने योग्य होता है तो किसी दूसरे के लिए वही कर्म अकरणीय होता है । हिंसा सामान्यतः निषिद्ध कर्म है, किंतु वीर मनुष्य के लिए यही उचित कर्म भी है । जो मनुष्य सामान्यतः नहीं करने योग्य कर्म में भी अपना उचित कर्तव्य देखता है, अथवा सामान्यतः  करणीय कर्म को भी समय के अनुसार अकरणीय जान लेता है, वही मनुष्य वस्तुत: बुद्धिमान कहा जाता है, जो परमात्मा से संयुक्त योगी की तरह – क्या कब करना या नहीँ करना चाहिए - अपने सभी कर्मों को समझ-बूझकर करता है ।

19-20. जिस मनुष्य के सभी कर्म काम-भावना और संकल्प से रहित हो जाते है, अर्थात जिसमें कुछ प्राप्त करने की इच्छा या प्रयास का भाव नहीं होता, जो ऐसे ज्ञान की अग्नि में अपनी काम-भावना और संकल्प को पूर्णत: भस्म करके अपने सभी कर्म करता है, ऐसे मनुष्य को ही ज्ञानीजन पंडित कहते है । ऐसा मनुष्य सांसारिक लगावों से पूरी तरहे मुक्त और उतना ही आत्मतृप्त जीवन व्यतीत करता है । कर्मों के फल से पूरी तरह अनासक्त होने के कारण यह अच्छी तरह अपने कर्म करते हुए भी जैसे कुछ भी नहीं करता ।

21-23. जिस मनुष्य ने अपने शरीर एवं मन को जीत लिया है, तथा सभी सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त हो कर जो सारी भोग-सामग्री से निर्लिप्त हो गया है, यह अपने सभी शारीरिक कर्मों को करते हुए भी कभी पाप में नहीं फंसता । ऐसा व्यक्ति जो कुछ सहज रूप से बिना कामना के प्राप्त हो जाए उसी से संतुष्ट रहने वाला, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-असफलता, हर्ष-शोक जैसी विरोधी भावनाओं से पूरी तरह मुक्त जीवन व्यतीत करने वाला, अपने सभी कर्मों को करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं बंधता । ऐसे मनुष्य की सभी आसक्तियां नष्ट हो चुकी होती हैं, उसका चित्त ज्ञान मेँ स्थित हो चुका होता है । वह केवल यज्ञ-स्वरूप अपने सभी कर्म करता है, जिससे उसके सारे कर्म अकर्म हो जाते है, अर्थात कर्म करते हुए भी वह अपने कर्मों के फल से अलग हो जाता है ।

ऐसे योगी द्वारा यज्ञकर्म में अर्पण तथा आहुति देकर हवन किया जाता है। आगे के सात श्लोकों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों – ब्रह्म-यज्ञ, दैव यज्ञ, अभेददर्शन यज्ञ, आदि का वर्णन है ।

24. यज्ञकर्म में हवन सामग्री, यज्ञकर्ता के द्वारा उसका अर्पण और आहुति देकर हवन करना - ये सभी ब्रहम-स्वरूप कर्म होते है, और इस ब्रहम-स्वरूप कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त होने वाला फल भी ब्रहम होता है ।

इन्द्रियों में भोग की स्वाभाविक प्रवृत्ति को संयम की अग्नि में भस्म करना एक यज्ञकर्म ही है जिससे आत्मा का उन्नयन होता है | आँख, कान ,नाक, जीभ और त्वचा - ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं; इनके व्यवहार का पूर्ण निषेध नहीं, बल्कि पूर्ण संयम आवश्यक होता है, तभी मनुष्य सच्चे आत्मानन्द को प्राप्त कर सकता है।

25. कुछ योगी देवतागण की पूजा को यज्ञ के रूप मेँ संपन्न करते है, कुछ अन्य यज्ञरूप अपने 'स्व' को ही ब्रहमरूप यज्ञ की अग्नि में होम करके यज्ञ संपन्न करते है और इस प्रकार ब्रहम से एकाकार होते हैं ।

26. कुछ योगीज़न श्रोत्र अर्थात सुनने की इंद्रिय तथा अपनी अन्य ज्ञानेद्रियों को बिषयभोग से रोककर वश में करते हुए संयमरूपी अग्नि में होम करते है । उसी प्रकार कुछ अन्य शब्द आदि इंद्रियों के विषयों को इंद्रियों की ही अग्नि में होम करते हुए उन्हें समाप्त कर देते है।इन्द्रियों की भोगवृत्ति को संयम की अग्नि में जला डालना भी एक यज्ञ है , जिससे आध्यात्मिक चेतना विकसित होती है । सुनने, बोलने और देखने जैसी इन्द्रियों को तपाकर शुद्ध करना भी यज्ञ' ही है जिससे आत्मा का निश्चित उन्नयन होता है ।

27-28. ऐसे योगीज़न ज्ञान से आलोकित हो कर अपनी समस्त हद्रियों के कर्मों तथा प्राणवायु से जुडी सभी क्रियाओं को भी आत्मसंयम की अग्नि में होम कर देते हैं । अन्य योगी मनुष्य द्रव्य-दान और तप-योग द्वारा – अर्थात विभिन्न वस्तुओँ के त्याग द्वारा तथा तप और साधना आदि द्वारा यज्ञ करते है । कुछ अन्य अहिंसा आदि कठिन व्रतों के पालन एवं स्वाध्यायपूर्वक ज्ञानार्जन द्वारा यज्ञ करते हैं ।

परमात्मा के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित कोई जनहितकारी श्रेष्ठ कर्म एक यज्ञ ही होता है । जो द्रव्य दान, तपश्चर्या आदि के रूप में किया जाता है, और जिससे आत्मा के उन्नयन एवं परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । अगले दो श्लोकों में योगाभ्यास की प्राणायाम विधियों की चर्चा   है । शरीर में वायु-प्रवाह के जो पांच प्रकार हैं उनको पञ्च–प्राण कहते हैं । सम्पूर्ण शरीर में इनके क्रमशः पांच स्थान हैं – हृदय , मूलाधार या रीढ़, नाभि, कंठ, और सम्पूर्ण शरीर । इस वायु प्रवाह को हम मुख्यतः प्राण और अपान – श्वास और अशुद्ध वायु – के रूप में जानते हैं, जो हमारे शरीर से निःसृत होती हैं । योग में प्राण–वायु को  अपान-वायु में पूरक योगकर्म  द्वारा तथा अपान-वायु को प्राण-वायु में रेचक योग्कर्म द्वारा विलीन करते हैं, तथा इस दोनों प्रकार के वायु को कुम्भक योगकर्म द्वारा रोकना प्राणायाम यज्ञ का एक स्वरुप होता है । इन श्लोकों में इन्हीं योगक्रियाओं का वर्णन हैं जो योगीजन द्वारा किये जाने वाले प्राणायाम-यज्ञ  के विभिन्न प्रकार हैं।

29-30. अन्य कुछ योगीज़न अपान-वायु में प्राण-वायु का हवन कर देते है, अथवा प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं । कुछ अन्य प्राण-वायु और अपान-वायु को रोककर प्राणायाम करते हैं। इसी प्रकार अन्य योगीज़न नियमित आहार वाले प्राणों को प्राण वायु में ही हवन कर देते है । इस प्रकार के यज्ञों द्वारा अपने पापों का विनष्ट करने वाले योगीज़न यज्ञ का महत्व जानने वाले होते हैं ।

31-32. हे अर्जुन ! ऐसे यज्ञों से बचे हुए अमृत को पान करनेवाले योगीज़न सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य इन यज्ञों को नहीं कर पाते उनका यह लोक तो सुखमय नहीं ही होता, फिर भला उनका परलोक सुखदायी कैसे हो सकता है । ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों के विषय में वेदों में विस्तार से बताया गया है । यह जान तो कि ऐसे सभी यज्ञ दैहिक क्रियाओं द्वारा संपन्न किए जा सकते हैं । इसे जान लेने पर तुम सारे बंधनों से मुक्त हो जाओगे ।

विभिन्न द्रव्यों अथवा सामग्रियाँ से तो यज्ञ संम्पन्न करते ही हैं, चिंतन-मनन आदि से ज्ञानयज्ञ भी करते हैं, परन्तु द्रव्य-यज्ञ में क्रिया तथा ज्ञान–यज्ञ में विचार की प्रधानता होती है, और यद्यपि द्रव्य-यज्ञ से मनुष्य-जीवन सुखी होता है, किन्तु ज्ञान–यज्ञ की परिणति जब ज्ञान चेतना में होती है, तभी अंतिम सिद्धि की प्राप्ति होती है । ज्ञान उस अग्नि की तरह है, जिसमें सभी कर्म हुत होकर भस्म हो जाते हैं, और मनुष्य कर्मों के बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।  अतः -

33-34. हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यादि से किए हुए यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ होता है । और द्रव्ययज्ञ द्वारा चित्तशुद्धि हो जाने पर अंततः ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, क्योकिं संपूर्ण यज्ञकर्म की पराकाष्ठा ज्ञान ही है । तत्वज्ञानी महात्माओं के पास जाकर उनको  प्रणाम करने, उनकी सेवा करने , और आत्मशुद्धि पूर्वक उनसे प्रश्न पूछने से तुम यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हो । इस प्रकार वे तत्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें ज्ञान का उपदेश देंगे ।

35-36 उस ज्ञान को पा लेने के बाद हे अर्जुन ! मोह-बंधन से तुम सर्वथा मुक्त हो जाओगे, और संसार के सभी प्राणियों को तुम अपने में अपने जैसा ही देखोगे, अथवा सबको ही मुझमें देख सकोगे । और यदि तुम सभी पापीज़न से भी बढ़कर पापी होगे, तब भी उस ज्ञान की नौका से पाप की उस नदी को आसानी से पार कर लोगे ।

37-38. हे अर्जुन । जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि समिधा-सामग्री को जलाकर भस्म कर देती है, उसी तरह ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है । ज्ञान जैसा सब कुछ को पवित्र कर देने वाला निश्चय ही इस संसार में और कुछ नहीं है । जिस व्यक्ति ने कर्मयोग द्वारा कालक्रम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लिया है, वह उस ज्ञान को स्वयं ही अपने आत्मा में प्राप्त कर लेता है ।

39-40. श्रद्धावान मनुष्य अपनी सभी इंद्रियों को पूर्णत: वश में रखते हुए ज्ञानप्राप्ति के प्रयास मेँ तत्पर होकर ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, और इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है । ज्ञान और श्रद्धा से रहित एवं सदा संशययुक्त रहने वाला  मनुष्य तो नष्ट हो जाता है, क्योंकि सदा संशय में रहने वाले को कभी सुख नहीं प्राप्त होता । वस्तुत: ऐसे मनुष्य के लिए न यह लोक सुखदायी होता है और न परलोक में ही उसे सुख प्राप्त होता है ।

41-42. हे अर्जुन ! जिसने योगकर्म से अपने सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित का दिया है, एवं विवेकपूर्वक अपने सभी संशयों को नष्ट कर दिया है, तथा अपने अन्तःकरण  को पूरी तरह वश में कर लिया है, ऐसे मनुष्य को लोककर्मं अपने पाश में नहीं बाँध सकते । अतः हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम अज्ञान से उत्पन्न अपने हृदय में स्थित इस संशय को ज्ञान की तलवार से काट डालो और पूरी तरह कर्मयोग में स्थिर होकर उठ खड़े हो ।

  || यहीं श्रीमदभगवद्गीता का ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक चौथा अध्याय समाप्त हुआ ||


© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com

मो.+91-7752922938

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