सरल
श्रीमदभगवद्गीता
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति
सोलहवां अध्याय
दैवासुरसंपदविभागयोग
देव और असुर क्रमशः अच्छाई और बुराई, प्रकाश और अन्धकार , उत्थान और पतन के प्रतीक हैं । देवत्व यदि आत्मोन्नति, अर्थात परमात्मा से मिलन की ओर ले जाता है, तो असुरत्व मनुष्य को पतन और अवनति की ओर ले
जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण इस अध्याय में इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के
सद्गुणों–दुर्गुणों के विषय में
बता रहे हैं । दोनों प्रकार के गुण–अवगुण देवत्व और असुरत्व की सम्पदा या विशेषता
हैं, जिसे अलग-अलग जानना और समझना आवश्यक है । पहले तीन
श्लोकों में दैवी–सम्पदा के छब्बीस लक्षण
बताये गए हैं, और चौथे श्लोक में आसुरी
सम्पदा के छ: दुर्गुण बताये गए हैं ।
1-3. भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे पार्थ ! निर्भयता, अंतःकरण की निर्मलता, योग-साधना और तत्व-ज्ञान में दृढ़ आस्था, दान, इंद्रिय-संयम, यज्ञकर्म, धर्मग्रंथों का अध्ययन, तप-कर्म अर्थात भगवत्-प्राप्ति में कष्ट-सहन, सरलता, त्याग, सत्य, अहिंसा, क्रोध से मुक्ति, शांति, निंदा-कर्म से सदा परहेज, बिना किसी आकांक्षा के
दया करना, विषय-भोग में निर्लिप्तता, कोमल व्यवहार, अनुचित कर्मों के प्रति लज्जा का भाव, स्वभाव में चंचलता का
अभाव, तेजस्विता, क्षमा, धैर्य, भीतर-बाहर एक जैसी पवित्रता, शत्रु-भाव से मुक्ति, किसी प्रकार की अहम्मन्यता
या अभिमान का न होना ये सभी दैवी गुणों से युक्त मनुष्य के लक्षण हैं ।
4. और इनके विपरीत सभी दुर्गुण - पाखंड, दंभ या घमंड, अहम्मन्यता, क्रोध, क्रूरता , अज्ञान आदि ये सब आसुरी दुर्गुणों से युक्त मनुष्य के लक्षण हैं ।
5. हे अर्जुन ! दैवी संपदा या सद्गुणों से मुक्ति या मोक्ष की
प्राप्ति होती है, और आसुरी संपदा या दुर्गुणों
से मनुष्य बंधनों में ही बंधा रह जाता है । किन्तु हे अर्जुन ! तुम शोक मत करो, तुम तो दैवीसंपदा से भूषित होने के लिए ही उत्पन्न हुए हो ।
6. हे पार्थ! इस लोक में मनुष्य-तन-धारियों के दो वर्ग है - एक दैवी और दूसरा आसुरी । दैवी प्रकृति वाले मनुष्य-वर्ग के विषय में तो मैंने अभी विस्तार से तुम्हें
बताया है , अब मैं आसुरी प्रकृति
वाले मनुष्य-वर्ग के विषय में तुम्हें बताता हूँ ।
7-8. आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए - यह बिलकुल नहीं जानते । उनमें न शुद्धता होती हैं, न अच्छा आचरण, और न सत्य की पहचान | वे कहते है कि इस सृष्टि में सत्य कहीं नहीं
है, और न इसका कोई आधार है, न कोई परमेश्वर ही कहीं
है । यह सारा संसार केवल दो प्राणियों के यौन-संयोग से बना है, और सब कुछ केवल स्वाभाविक कामवासना से उत्पन्न होता है ।
उनके अनुसार इसमें और क्या है ?
9-10. परंतु ऐसी मिथ्यादृष्टि से सब कुछ
को देखने वाले, भ्रष्ट आत्मा और मंद
बुद्धि वाले, कूरकर्मी, सबका अहित करने वाले, ऐसे आसुरी लोग केवल संसार
का नाश ही करने वाले होते है, जो मान-मद और घमंड में चूर रह कर, अपने मोह के कारण कभी न तृप्त होने वाली कामनाओं में फंसे
हुए, भ्रष्ट नियमों और झूठी– बेकार की बातों में उलझे हुए, संसार में अपना जीवन व्यर्थ बिताते है ।
11-12. ऐसे आसुरी स्वभाव वाले
मनुष्य जीवन-भर अनेक दुश्चिंताओं से
ग्रस्त रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । सदा विषय-भोगों में लिप्त रहते हुए वे बस यही सोचते हैं
कि संसार में इतना ही-भर सुख है । वे हमेशा आशा
के अनेक फंदों में फंसे हुए, काम और क्रोध में सदा
लिपटे हुए, अपने विषय-भोगों के लिए गलत ढंग से बहुत सारा धन बटोरने में ही लगे रह जाते हैं ।
13-16. ऐसे लोग यही सोचते रहते हैं कि "मैंने आज यह पा लिया, मैं अब यह मनोरथ पूरा कर
लूँगा , इतना तो मेरे पास हो ही गया है, और अब इतना धन और मैं
प्राप्त कर लूँगा । मैंने इस दुश्मन को तो मार डाला है और अब अपने अन्य शत्रुओं को भी ठिकाने लगा दूंगा ।
मैं तो ईश्वर ही हूँ , सारा ऐश्वर्य मेरे भोगने के लिए ही तो है; मुझे तो सारी सिद्धियां प्राप्त हो ही चुकी हैं; मुझसे अधिक बलशाली और सुखी दूसरा कौन है ? मैं धनी भी हूँ, उच्च कुल का तो हूँ ही । मेरे बराबर
और कौन है ? मैं यज्ञ, दान आदि भी करूंगा और सभी
सुख भोगूँगा।" - इस तरह अज्ञान से मोहित, अत्यंत भ्रमित चित्त वाले, सघन मोह-जाल में फंसे हुए, तरह-तरह के सांसारिक सुख भोगने में पूरी तरह लिप्त आसुरी वृत्ति वाले मनुष्य घोर नरक में जा गिरते
हैं ।
17-20. आसुरी वृत्ति वाले ये लोग ऐसे होते हैं जो हठी, घमंड में चूर, धन और मान-सम्मान के मद से भरे हुए, अपना यज्ञ-कर्म भी दंभ-पूर्वक बिना उचित विधियों के करते हए मुझे भजते
हैं । ऐसे लोग अहंकार, बल, दर्प, क्रोध और कामवासना में
पूरी तरह डूबे रहते हैं, तथा परस्पर एक-दूसरे की निंदा में सुख पाने वाले ये लोग भूल
जाते हैं कि सबके अन्तःकरण में तो मैं ही वास करता हूँ , तो इस तरह से परस्पर निदा-कर्म में लगे हुए तो वे मेरी ही निंदा करते हैं, मुझसे ही द्वेष करते हैं । और इसीलिए ऐसे द्वेष करने वाले, पापाचारी, कूरधर्मी नराधमों को मैं
पुन:पुन: इस मृत्यु लोक में आसुरी योनियों में ही जन्म देकर भेजता हूँ , इस तरह ऐसे पापाचारी लोग आसुरी योनियों में
जन्म लेते हुए उनसे भी नीच गति को प्राप्त होते हैं, और मुझको कभी प्राप्त
नहीं हो पाते ।
21-22. काम, क्रोध और लोभ – ये आत्मा का पूरी तरह नाश करने वाले नरक के तीन
प्रवेश-द्वार हैं । इनका अवश्य त्याग कर देना चाहिए । हे अर्जुन! अन्धकार के इन तीनों द्वारों से बचने वाला मनुष्य अपने
कल्याण का आचरण करता है, और इस प्रकार परम गति को
प्राप्त होता है ।
23-24. जो मनुष्य शास्त्रों में बताई
विधियों को छोड़ कर जीवन में मनमाना आचरण करता है, उसे न कोई सुख मिलता है, न किसी प्रकार की सिद्धि, और न उसे परम गति ही
प्राप्त होती है । इसीलिए क्या करना चाहिए
या नहीं करना चाहिए इस विषय में
तुम्हारे लिए शास्त्र ही प्रमाण है, यह जान कर शास्त्रों के विधान के अनुसार कर्म
करना ही तुम्हारे लिए उचित है ।
|| यहाँ श्रीमदभगवदगीता का दैवासुरसंपदविभागयोग नामक यह सोलहवां अध्याय समाप्त हुआ ||
©
Dr BSM Murty
bsmmurty@gmail.com
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