अकबर इलाहाबादी
[१८४६-१९२१]
उर्दू साहित्य की दुनिया
में शेरो-शायरी की लोकप्रियता सबसे बढ़-चढ़ कर है, और इनका असली फॉर्मेट लोगों के
बीच मुशायरों का है | यह जितनी पढ़ी जाती है उससे कहीं कई गुना ज्यादा सुनी और
पीढ़ियों की याददाश्त में दुहराई जाती है | इसके प्रमाण आपको उर्दू-भाषी समाज में –
घरेलू बातचीत से लेकर बाहर के समाज के सामान्य जीवन में – हर जगह, हर वक्त दिखाई देंगे | दैनिक सामाजिक जीवन के हर स्तर पर
आम-फहम की बातचीत में साहित्यिक मिजाज़ की हरदम उपस्थिति आपको और भाषाओँ में शायद
उतनी नहीं मिलेगी |
उर्दू काव्य-साहित्य में हर
ज़माने में सबसे लोकप्रिय विधा शेरो-शायरी की ही रही है | यह उर्दू की एक अपनी
विशेषता ही है कि उसमें कविता और जीवन के बीच कोई विभाजक रेखा होती ही नहीं | आपको
किसी पांच मिनट की हलकी-से-हलकी गुफ्तगू में भी एक आध शेर सुनने को मिल ही जायेंगे
| जीवन में इस तरह रची-बसी कविता शायद ही कहीं और दिखाई देती है | और यह उर्दू की ही विशेषता है कि
शेरो-शायरी की यह रवानगी और मुहावरेदारी उसकी बोलचाल में बिलकुल घुलमिल गयी है |
दरअसल हिंदी भी जब ‘खड़ी बोली’ बनकर खड़ी होने लगी तब उसमें भी उर्दू की यह रवानगी
और मुहावरेदारी मिली हुई नज़र आती है, बाद में जिसे हिंदी भाषा के प्रारम्भिक
निर्माताओं ने प्रयासपूर्वक नए सांचों में ढालना शुरू किया | हिंदी साहित्य के
विकास के लिए यह अलगाव ज़रूरी भी था जब उसको अपनी पहचान नए सिरे से बनानी थी |
लेकिन आम लोगों के बोलने और समझने वाली जो हिंदी है उसका व्याकरण आम-फहम उर्दू से प्रायः
अभिन्न है |
आज हिंदी-उर्दू के एक नए
प्रसंग में उर्दू के जिस शायर की बात से यह चर्चा शुरू करनी है, वह इसकी सबसे
बेहतरीन मिसाल है | आप यह एक शेर देखिये -
जो कहा मैंने कि प्यार आता
है मुझको तुम पर
हंस के कहने लगे और आपको
आता क्या है ?
‘प्यार आता है’, ‘कहने लगे’, ‘और आता क्या है’ – यही भाषा की मौलिक मुहावरेदारी है, जो उर्दू ने हिंदी को दी है | प्यार का इससे प्यारा और सीधा इज़हार भला
और हो क्या सकता है? यहाँ न तो हिंदी
उर्दू का झगडा है, न स्त्री-विमर्श की खींचतान और न धर्म या सम्प्रदाय का फ़िज़ूल
तनाव | यह शेर सचमुच एक मिसाल है कि साहित्य और कविता भाषा के स्तर पर जीवन के
कितने निकट होते हैं – जहाँ कविता किसी बनावट-सजावट में नहीं बल्कि अपनी दिली
सादगी में देखी जा सकती है | कविता में भाषा-रचना के कई स्तर होते हैं जो एक वक़्त
ऐसी दिलकश सादगी से भी दिल चुरा सकते हैं,
और दूसरे वक़्त अत्यंत संस्कृत-फारसी क्लिष्ट शब्दावली से अलंकृत होकर भी अलग तरह
की रसानुभूति करा सकते हैं |
आज उर्दू के एक ऐसे ही मकबूल शायर की चर्चा करनी है जो शायद
अकेले मशहूर इलाहाबादी हैं – जनाब अकबर इलाहाबादी | इलाहाबाद के पास एक गाँव के
मध्य वर्गीय परिवार में जन्मे सैयद अकबर हुसैन कचहरियों के बहुत पापड बेलते हुए
इलाहाबाद हाई कोर्ट में सेशन जज हुए थे | लेकिन मिजाज़न वे ता-उम्र एक
व्यंग्य-विनोद-हास-परिहास-प्रिय शक्सियत रहे, जो उनकी शायरी में हर जगह चुहल और
खिलखिलाहट की गूंज छोडती है | पिता का सूफियाना संस्कार लेकर ‘अकबर’ ने जो शायरी की वह हमेशा आम आदमी के दिल को टटोलने और
गुदगुदाने वाली चीज़ रही | उनका ये शेर भी यही कहता है –
मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं
फालतू की अक्ल मुझमें थी ही
नहीं |
उनकी ग़ज़ल का एक मतला तो नामचीन ग़ज़ल-गायकों का भी बहुत प्रिय
रहा है -
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी
सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो
नहीं की है|
उर्दू-शायरी शबाबो-शराब में शायद कुछ ज्याद ही गर्क मिलती
है, लेकिन आप ‘अकबर’ के विसाल के
के इन शेरोन की संजीदगी भी देखिये -
इलाही कैसी कैसी सूरतें
तूने बनायी हैं
की हर सूरत कलेजे से लगा
लेने के काबिल है |
हया से सर झुका लेना अदा से
मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है
बिजली गिरा देना |
सौ जान से हो जाऊंगा राज़ी
मैं सजा पर
पहले वो मुझे अपना गुनाहगार
तो कर ले |
लेकिन कुछ में चुहल की चुस्कियां भी हैं -
गज़ब हैं वो जिद्दी बड़े हो
गए
मैं लेटा तो उठ के खड़े हो
गए
अकबर दबे नहीं किसी सुलतान
की फ़ौज से
लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से |
बी. ए. भी पास हों मिले
बीवी भी दिल-पसंद
मेहनत की है वो बात ये
किस्मत की बात है |
‘फिराक’ साहब ने एक
वाकया बताया है कि जजी के दिनों में कोई नए ग्रेजुएट साहब मिलने आये और अपना कार्ड
अन्दर भेजेने से पहले कार्ड पर हाथ से बी.ए. जोड़ दिया तो अन्दर से कार्ड की पीठ पर
यह शेर लिख कर लौटा दिया –
शेखजी घर से न निकले और यह
फरमा दिया
आप बी.ए. पास हैं बंदा भी
बीबी पास है !
चुटीला व्यंग्य ‘अकबर’ की शायरी के तरकस का मुख्य तीर था जो ऐसे बहुज्ञात शेरों में दिखाई पड़ता है -
खींचो न कमानों को न तलवार
निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार
निकालो |
हम क्या कहें अहबाब क्या
कारे-नुमायाँ कर गए
बी. ए. हुए नौकर हुए पेंशन
मिली फिर मर गए |
बताऊँ आपको मरने के बाद
क्या होगा
पुलाव खायेंगे अहबाब फातिहा
होगा |
एक गहरी चोट तो अपने ही पेशे के लोगों पर -
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने
कहा
लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो
गए |
और आखिर में एक हलके मिजाज़ का सूफियाने रंग का शेर -
बस जान गया मैं तिरी पहचान
यही है
तू दिल में तो आता है समझ
में नहीं आता |
(C) डा. मंगलमूर्त्ति