सुनो पार्थ !
सरल श्रीमदभगवद्गीता
संक्षिप्त परिचय, सरल अनुवाद और व्याख्या : डॉ. मंगलमूर्ति
इतिहासकारों के अनुसार लगभग 5000 वर्ष पहले
महाभारत नामक एक महायुद्ध हुआ था। यह
महायुद्ध एक ही राजवंश की दो शाखाओं - कौरवों तथा पांडवों - के बीच दिल्ली से उत्तर कुरुक्षेत्र नामक स्थान
पर हुआ था। आज का कुरुक्षेत्र हरियाणा में स्थित है। कहते हैं - महाभारत के इस
महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोक हैं। जिनकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। यह
महाग्रंथ सचमुच एक अगाध महासागर की तरह है। इस वृहत महाकाव्य में अट्ठारह पर्व
हैं।
इसी के छठे पर्व - भीष्म पर्व में- श्रीमदभगवद्गीता के अट्ठारह
अध्याय गुंफित है । अठारह खंडों में विभाजित सात सौ श्लोकों की यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना एक अलग ग्रंथ के
रूप में श्रीमदभगवद्गीता के नाम से जगप्रसिद्ध है, और इसे हिन्दुओं का एक परम पवित्र ग्रंथ माना जाना
है । किन्तु यह ग्रंथ समस्त मानवता के लिए
एक सार्वजनीन एवं शास्वत महत्व का ग्रंथ है।
महाभारत में भारत के
कुरु वंश के कौरव – पांडव राजाओं की वीरता
एवं उनके विनाशकारी युद्धकर्म की कथा का
वर्णन है। गीता के उपदेश को आत्मसात करने
से पूर्व महाभारत के कथासृत्र को जान लेना
आवश्यक है । द्वापर युग में कुरु वंश
में एक प्रतापी राजा शांतनु हुए थे । भीष्म उन्ही
के पुत्र थे जिन्होंने आजन्म व्रहमचर्य का वचन ले लिया था । उनके भाई बिचित्रवीर्य
राजा हुए, लेकिन युवावस्था में
ही उनकी मृत्यु हो गई । उनकी दोनों पत्नियों को दो पृत्र हुए –धृत्रराष्ट्र और पांडू । धृत्रराष्ट्र जन्म से
अंधे थे। उनके दुर्योधन, दुशासन आदि सौ पुत्र
हुए ।
पांडु को पांच
पुत्र हुए -युधिष्ठिर, भीम,अर्जुन, नकुल
और सहदेव । महाभारत में अन्य अनेक कथाओं
के साथ प्रमूख रूप से इन्हीं कौरवों तथा पांडवों की पारिवारिक शत्रुता और अंत में
उनके बीच अठारह दिन तक चलने बने महायुद्ध
की कथा है ।
महाभारत के युद्ध
में जब कौरवों तथा पांडवों की सेनाएं आमने-सामने खडी थीं, तब भगवान श्री
कृष्ण ने पांडवों के सबसे प्रवीण धनुर्धर अर्जुन को युद्ध-नीति के रूप में गीता का
यह उपदेश दिया था । पारिवारिक युद्ध में
अपने ही सगे - संबंधियों को आमने-सामने
देख-कर अर्जुन मोहग्रस्त हो गए थे । उनके इसी मोह के निवारण के लिए भगवान कृष्ण ने उन्हें गीता के रूप में यह
उपदेश दिया था । श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से श्री अर्जुन का विवाह हुआ था, और इस युद्ध में वे अर्जुन के रथ के सारथी थे ।
महाभारत महाकाव्य
में अनेक कथाएं हैं, और कहते हैं कि महाभारत में जो है
वो अन्यत्र सब जगह है और जो इसमें नहीं हैं, वह कहीं नहीं है । इसे एक शलोक में इस प्रकार कहा गया है ।
“धर्मेहयर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ, यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत क्वचित “
"धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से
संबद्ध जो कुछ 'महाभारत-नामक इस ग्रंथ से हे, यहीं अन्यत्र है, और जो इससे नहीं है, यह कहीं नहीं है।"
महाभारत में कौरवों और पांडवों के पारिवारिक कलह और विरोध
की कथा विस्तार से कही गई है, जिसके परिणाम-स्वरूप महाभारत का यह विनाशकारी युद्ध
हुआ था तथा जिसमें कौरवों की पराजय हुई धी
। अविवेकपूर्ण परस्पर वैमनस्य से युद्ध और हिंसा का परिणाम विनाशकारी होता है, यहीं इस महाकाव्य का संदेश है। और यह संदेश एक
शाश्वत संदेश है जो सदा के लिए सत्य के रूप में देखा जा सकता है। कल, आज़ और आने वाले
कल के लिए भी यह एक शाश्वत महत्त्व का संदेश है । लेकिन इस पवित्र ग्रंथ में जीवन
और मृत्यु के गूढ़ रहस्य की व्याख्या भी बड़े सुदर ढंग से की गई है।
गीता का प्रसंग युद्ध के इसी दृश्य से प्रारंभ हाता है
जिससे कौरवों और पांडवों की सेनाएं आमने –
सामने युद्ध के लिए प्रस्तुत है। सौ कौरव पुत्रों के पिता धृतराष्ट्र अंधे है और
युद्धभूमि में वे एक और अपने रथ पर बैठे है, और उनका मंत्री
और सारथि संजय उनको युद्ध की स्थिति का
पूरा विवरण दे रहा है । पूरी गीता संजय के इसी विवरण में निहित है । युद्ध का पूरा
विवरण अंधे धृतराष्ट्र अपने सारथि संजय से सुनना चाहते है ।यहीं से गीता का प्रथम अध्याय प्रारंभ होता है।
प्रथम अध्याय
1. राजा धृतराष्ट्र
ने संजय से पूछा … हे संजय ! यहाँ कुरुक्षेत्र
की इस युद्धभूमि मेँ, युद्ध की इच्छा
से एकत्रित मेरे पुत्रों और मेरे भाई राजा पांडु के पुत्रों ने क्या किया, यह तुम मुझे बताओ ।
2-6. संजय बोले : हे राजन ! पांडवों की सेना को व्यूह-रचना
में खड़े देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर कहा – हे आचार्य, पांडु
के पुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए जिसकी व्यूह-रचना राजा दुपद के पुत्र एवं
आपके बुद्धिमान शिष्य धृष्टधुम्न ने की है । पांडवों की इस विशाल सेना मेँ भीम और
अर्जुन के समान बलशाली तथा धनुर्धारी महारथी, सात्यकि, विराट और राजा दुपद, वीर धृष्टकैतु, चेकितान और
काशिराज, नरश्रेष्ठ पुरुजित,कुंतिभोज और शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु, वीयंवान उस्तमौजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु , द्रोपदी के पुत्र, ये सभी वीरगण उपस्थित है । ये सब के सब महारथी
योद्धा है ।
7-9. हे द्विजश्रेष्ठ आचार्य ! अब मैं आपको अपने पक्ष की
सेना के प्रमुख नायकों के नाम बताता हूं। उन्हें भी आप जान ले । एक तो स्वय आप हैं
ही, फिर पितामह भीष्म है तथा कर्ण तथा रण-विजयी
कृपाचार्य है । अश्वत्थामा, विकल हैं, सोमदत्न
का पुत्र भूरिंश्रवा आदि भी यहाँ उपस्थित हैं । इनके अलावा भी अनेक ऐसे शूर-वीर
यहीं है जिन्होंने हमारे लिए आज अपने प्राणी की बाजी लगा ही है । ये सभी लोग अनेक
प्रकार के अस्त्र-गौओं से पूर्ण सुसज्जित है ।
10-11. और यह सेना
जिसकी रक्षा भीष्म पितामह कर रहे हैं, सब प्रकार से
अपार और अजेय है, जबकि पांडवों की सेना
जिसका रक्षक भीम है, बहुत ही सीमित
तथा जीतने में सुगम है । इसीलिए व्यूह-रचना के अनुसार अपने-अपने मोर्चे पर दृढ़तापूर्वक
जमे हुए आप सभी लोग सब
ओर से भीष्म पितामह की ही रक्षा करें ।
12-13. इसी समय कौरवों
में वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जन के समान उच्च
स्वर में अपना शंख पहुँका जिसके साथ ही पूरी कौरव सेना में शंख, भेरियां, ढोल, नगाड़े, नरसिंघे आदि एकबारगी
बज उठे, जिससे बडा भयंकर शोर मच गया।
14-17. तभी सफेद घोडों से जुते हुए अपने विशाल रथ में बैठे
श्रीकृष्ण ने पांचजन्य, और अर्जुन ने
देवदत्त नामक अपने-अपने अलौकिक शंख फूंके । वहुत भोजन करने वाले और भयंकर कार्यों को करने वाले भीम ने भी पोंद्रु नामक अपना
महाशंख बजाया । कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय और नकुल तथा सहदेव ने
सुघोष और मणिपुष्पक नामक अपने अपने शंख बजाए । और इसी प्रकार महाधनुर्धर काशीराज़, महारथी शिखंडी धृष्टधुम्न, विराट, अजेय, सात्यकि
आदि ने भी अपने-अपने शंख बजाए।
18-19. हे पृथ्वी के स्वामी! साथ ही साथ द्रुपद और द्रोपदी
के पांचों पुत्रों और लम्बी भुजाओं वाले
सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु ने भी चारों ओर से अपने-अपने शंख बजाए । पांडव वीरों के शंखों की उस प्रचंड
ध्वनि से पृथ्वी और आकाश गूंज उठे और उस भयंकर नाद से आपके पुत्रों के हृदय दहल गए
।
20-23. तब महाबीर हनुमान की छवि से भूषित ध्वजावाले अपने रथ
पर आरूढ अर्जुन ने अपने-अपने मोर्चों पर डटे हुए आपके पुत्रों क्रो देखा, और जब शस्त्रास्त्र
लगभग चलने ही वाले थे, तब अपने गांडीव
धनुष से शर-संधान करते हुए वह अपने भगवान् श्रीकृष्ण से बोला … हे हृषिकेश ! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओ के बीच
में खड़ा कीजिए, जिससे मैं उन लोगों का देख सकूं जो आज यहाँ युद्ध की इच्छा से
उपस्थित हुए है, और
जानू कि मुझे किसके साथ युद्ध करना है । मैं उन्हें देखना चाहता हूँ जो धृतराष्ट्र
के पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधन की ओर से उसकी प्रसन्नता के लिए हमसे लड़ने को इकट्ठे
हुए हैं ।
24-25. संजय बोला … हे भरतवंशी
धृतराष्ट्र ! अर्जुन के ऐसा कहने पर हृषिकेश श्रीकृष्ण रथ को हांक कर दोनो सेनाओं
के बीच में ले गए । यहाँ उस श्रेष्ठ रथ को भीष्म, द्रोण और सभी
राजाओं सामने खडा करके उन्होंने अर्जुन से
कहा … हे पार्थ यहाँ
एकत्रित इन कौरवों को देखो ।
26-30. अर्जुन ने देखा वहां दोनो ही सेनाओं में उसके चाचा, मामा, दादा-परदादा, भाई-भतीजे, बेटे-पोते, आचार्यगण, संगी - साथी, श्वसुर आदि सब खड़े है । अपने उन सभी संबंधियों
को वहां उपस्थित देखकर कुंती - पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से भर गया और वहुत उदास
होकर भगवान श्रीकृष्ण से बोला … हे श्रीकृष्ण ।
अपने ही लोगों को अपने सामने युद्ध के लिए इस तरह उत्सुक खड़े देखकर मेरे तो सारे अंग
शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूख रहा है, शरीर कांप रहा है और रोए सिहर रहे है । हाथ से
गांडीव धनुष छूटा जा रहा है । लगता है सारी त्वचा जल रही है । मन भी मेरा जैसे चकरा
रहा है, और खड़ा रहना भी मेरे लिए अब कठिन लग रहा है ।
31-34. हे केशव ! मुझे
तो सारे लक्षण ही विपरीत दिखाई पड़ रहे है । इस युद्ध में अपने ही इन संबंधियों की
हत्या करने से मुझे तो कोई भलाई नहीं दीखती । हे कृष्ण ! मुझे न तो ये विजय चाहिए, न ये राज्य और न ही ये सुख ।
हे गोविंद ! अब मुझे राज्य से क्या लेना-देना, अथवा सुख-भोग या इस जीवन से ही क्या लेना-देना
। जिन अपनों के लिए ही हम ये राज्य, ये सुख-भोग सब चाहते हैं, वे ही सब लोग तो
अपने प्राणों और धन-संपत्ति का मोह त्याग कर यहाँ युद्ध में आ खड़े हुए हैं ।
गुरुजन, पिता-चाचा, पुत्र और पितामह, मामा श्वसुर, पौत्र, साले-संबंधी सब
तो यहां खड़े है ।
35-39. हे मधुसूदन ! मैं मारा भी जाऊं तो भी अपने इन
सगे-संबंधियों और सुहृदों की हत्या मैं नहीं कर सकूंगा । तीनो लोकों के राज्य के
लिए भी नहीं, फिर इस धरती के राज्य की तो बात ही क्या । हे जनार्दन !
धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मारकर हमेँ कौन-सा सुख मिलेगा ? इन आतताइयों –
दुष्कर्मियों को मारकर भी तो हमें पाप ही
लगेगा । इसलिए हे माधव ! अपने बांधव, धृतराष्ट्र के इन
पुत्रों का मारना हमारे लिए उचित नहीं है । अपने ही लोगों को मारकर हम भला कैसे सुखी
हो सकते हैं ? ये सारे लोग भले ही चित्तभ्रष्ट होकर कुल के नाश से होने वाले दोषों
और मित्र के साथ द्रोह करने के पाप को नहीं देख पा रहे; किंतु हे जनार्दन
! हम तो कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोषों को अच्छी तरह देख रहे हैं । फिर हम
इस पाप से बचने के उपाय क्यों न सोचें ।
40-44. कुल का नाश होने से परंपरा से चले आ रहे कुल के धम-नियम
आदि नष्ट हो जाते हैं, और धर्म का नाश होने पर अधर्म सारे कुल को सब ओर
से दबा लेता है । हे कृष्ण ! अधर्म के फैल जाने पर कुल की स्त्रियाँ अत्यंत दूषित
हो जाती है, और हे वार्ष्णेय!
स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर सताने उत्पन्न होती है। वर्णसंकर संतान सारे
परिवार को और सभी कृलघातियों को भी नरक से ले जाती है, और इस तरह कुल
में पिंड और ज़लदान, श्राद्ध-तर्पण आदि क्रियाओं के लुप्त हो जाने
से पितरों का भी पतन हो जाता है। कुल का नाश करने वाले इन वर्णसकरोंके दोष से शाश्वत कुलधर्म
और जातियाँ सब नष्ट हो जाते है । हे जनार्दन ! हम ऐसा सुनते आए है कि जिन लोगों के
कुलधर्म नष्ट हो जाते है, उन्हें अनिश्चित काल तक नरक में रहना पड़ता है ।
45-46. ओह ! बडा खेद होता है कि हमने यह एक वहुत भारी पाप करने का निश्चय कर लिया है … राज्य और सुख के
लोभ से अपने ही लोगों को मारने को तैयार हो गए हैं । धृतराष्ट्र के पुत्र तो यदि अपने
हथियार लेकर मुझे मार भी डाले, और मैं बिना शस्त्र उठाए, बिना उनका विरोध
किए युद्ध में मारा भी जाऊं, तो वह भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारी ही होगा ।
47. संजय बोले … युद्धभूमि में
ऐसा कहकर अर्जुन अपना धनुष-बाण छोड़, शोक से व्याकुल
होकर, रथ के पिछले भाग में बैठ रहा ।
| यहीं विषाद-योग
का प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ।
(C) डा. मंगलमूर्ति
चित्र: सौजन्य गूगल
विशेष :
इससे पूर्व सम्पूर्ण रामचरित मानस और सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का कथा-सार आप इसी ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं| Blog Archive देखें और इस पोस्ट के नीचे Older Posts पर क्लिक करते हुए उन्हें पढ़ें और कृपया अपनी सम्मति भी अंकित करें|