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Wednesday, June 28, 2017


सुनो पार्थ !

सरल श्रीमदभगवद्गीता

संक्षिप्त परिचय, सरल अनुवाद और व्याख्या : डॉ. मंगलमूर्ति

इतिहासकारों के अनुसार लगभग 5000 वर्ष पहले महाभारत नामक एक महायुद्ध हुआ था।  यह महायुद्ध एक ही राजवंश की दो शाखाओं - कौरवों तथा पांडवों -  के बीच दिल्ली से उत्तर कुरुक्षेत्र नामक स्थान पर हुआ था। आज का कुरुक्षेत्र हरियाणा में स्थित है। कहते हैं - महाभारत के इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोक हैं। जिनकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। यह महाग्रंथ सचमुच एक अगाध महासागर की तरह है। इस वृहत महाकाव्य में अट्ठारह पर्व हैं।

इसी के छठे पर्व - भीष्म पर्व  में- श्रीमदभगवद्गीता के अट्ठारह अध्याय गुंफित है । अठारह खंडों में विभाजित सात सौ श्लोकों  की यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना एक अलग ग्रंथ के रूप में श्रीमदभगवद्गीता के नाम से जगप्रसिद्ध  है,  इसे हिन्दुओं का एक परम पवित्र ग्रंथ माना जाना है । किन्तु  यह ग्रंथ समस्त मानवता के लिए एक सार्वजनीन एवं शास्वत महत्व का ग्रंथ है।
महाभारत  में भारत के कुरु वंश के कौरव – पांडव  राजाओं की वीरता  एवं उनके विनाशकारी युद्धकर्म की कथा का वर्णन है। गीता  के उपदेश को आत्मसात करने से पूर्व महाभारत  के कथासृत्र को जान लेना आवश्यक है । द्वापर  युग में कुरु वंश में एक प्रतापी राजा शांतनु  हुए थे । भीष्म  उन्ही के पुत्र थे जिन्होंने आजन्म व्रहमचर्य का वचन ले लिया था । उनके भाई बिचित्रवीर्य राजा हुए, लेकिन युवावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई । उनकी दोनों पत्नियों  को दो  पृत्र हुए –धृत्रराष्ट्र औ पांडू । धृत्रराष्ट्र  जन्म  से अंधे थे। उनके दुर्योधन, दुशासन आदि सौ पुत्र हुए ।

पांडु को पांच पुत्र हुए -युधिष्ठिर, भीम,अर्जुन, नकुल और सहदेव । महाभारत  में अन्य अनेक कथाओं के साथ प्रमूख रूप से इन्हीं कौरवों तथा पांडवों की पारिवारिक शत्रुता और अंत में उनके बीच अठारह दिन तक चलने बने महायुद्ध  की कथा है ।

महाभारत  के युद्ध में जब कौरवों तथा पांडवों की सेनाएं आमने-सामने खडी थीं, तब भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों के सबसे प्रवीण धनुर्धर अर्जुन को युद्ध-नीति के रूप में गीता का यह उपदेश दिया था । पारिवारिक युद्ध  में अपने ही सगे - संबंधियों को आमने-सामने  देख-कर अर्जुन मोहग्रस्त  हो गए थे । उनके इसी मोह के निवारण के  लिए भगवान कृष्ण ने उन्हें गीता के रूप में यह उपदेश दिया था । श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से श्री अर्जुन का विवाह हुआ था,  इस युद्ध में वे अर्जुन के रथ  के सारथी थे ।

महाभारत  महाकाव्य में अनेक कथाएं हैं, र कहते  हैं कि महाभारत  में जो  है वो अन्यत्र सब जगह है और जो इसमें नहीं हैं, वह कहीं नहीं है । इसे एक शलोक में इस प्रकार कहा गया है ।

“धर्मेहयर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ, यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत क्वचित 

"धर्म,  अर्थ, काम और मोक्ष से संबद्ध जो कुछ 'महाभारत-नामक इस ग्रंथ से हे, यहीं अन्यत्र है, और जो इससे नहीं है, यह कहीं नहीं है।"

महाभारत में कौरवों और पांडवों के पारिवारिक कलह और विरोध की कथा विस्तार से कही गई है, जिसके परिणाम-स्वरूप महाभारत का यह विनाशकारी युद्ध हुआ था तथा  जिसमें कौरवों की पराजय हुई धी । अविवेकपूर्ण परस्पर वैमनस्य से युद्ध और हिंसा का परिणाम विनाशकारी होता है, यहीं इस महाकाव्य का संदेश है। और यह संदेश एक शाश्वत संदेश है जो सदा के लिए सत्य के रूप में देखा जा सकता है। कल, आज़ और आने वाले कल के लिए भी यह एक शाश्वत महत्त्व का संदेश है । लेकिन इस पवित्र ग्रंथ में जीवन और मृत्यु के गूढ़ रहस्य की व्याख्या भी बड़े सुदर ढंग से की गई है।

गीता का प्रसंग युद्ध के इसी दृश्य से प्रारंभ हाता है जिससे कौरवों और पांडवों की सेनाएं  आमने – सामने युद्ध के लिए प्रस्तुत है। सौ कौरव पुत्रों के पिता धृतराष्ट्र अंधे है और युद्धभूमि में वे एक और अपने रथ पर बैठे है, और उनका मंत्री और सारथि संजय उनको  युद्ध की स्थिति का पूरा विवरण दे रहा है । पूरी गीता संजय के इसी विवरण में निहित है । युद्ध का पूरा विवरण अंधे धृतराष्ट्र अपने सारथि संजय से सुनना चाहते है ।यहीं से गीता का प्रथम अध्याय प्रारंभ होता है।

प्रथम अध्याय 

1. राजा धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा हे संजय ! यहाँ कुरुक्षेत्र की इस युद्धभूमि मेँ, युद्ध की इच्छा से एकत्रित मेरे पुत्रों और मेरे भाई राजा पांडु के पुत्रों ने क्या किया, यह तुम मुझे बताओ ।

2-6. संजय बोले : हे राजन ! पांडवों की सेना को व्यूह-रचना में खड़े देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर कहा – हे आचार्य, पांडु के पुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए जिसकी व्यूह-रचना राजा दुपद के पुत्र एवं आपके बुद्धिमान शिष्य धृष्टधुम्न ने की है । पांडवों की इस विशाल सेना मेँ भीम और अर्जुन के समान बलशाली तथा धनुर्धारी महारथी, सात्यकि, विराट और राजा दुपद, वीर धृष्टकैतु, चेकितान और काशिराज, नरश्रेष्ठ  पुरुजित,कुंतिभोज और शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु, वीयंवान उस्तमौजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु , द्रोपदी के पुत्र, ये सभी वीरगण उपस्थित है । ये सब के सब महारथी योद्धा है ।

7-9. हे द्विजश्रेष्ठ आचार्य ! अब मैं आपको अपने पक्ष की सेना के प्रमुख नायकों के नाम बताता हूं। उन्हें भी आप जान ले । एक तो स्वय आप हैं ही, फिर पितामह भीष्म है तथा कर्ण तथा रण-विजयी कृपाचार्य है । अश्वत्थामा, विकल हैं, सोमदत्न का पुत्र भूरिंश्रवा आदि भी यहाँ उपस्थित हैं । इनके अलावा भी अनेक ऐसे शूर-वीर यहीं है जिन्होंने हमारे लिए आज अपने प्राणी की बाजी लगा ही है । ये सभी लोग अनेक प्रकार के अस्त्र-गौओं से पूर्ण सुसज्जित है ।

10-11. और यह सेना जिसकी रक्षा भीष्म पितामह कर रहे हैं, सब प्रकार से अपार और अजेय है, जबकि पांडवों की सेना जिसका रक्षक भीम है, बहुत ही सीमित तथा जीतने में सुगम है । इसीलिए व्यूह-रचना के अनुसार अपने-अपने मोर्चे पर दृढ़तापूर्वक जमे हुए आप सभी लोग सब
ओर से भीष्म पितामह की ही रक्षा करें ।

12-13. इसी समय कौरवों में वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के ह्रदय  में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जन के समान उच्च स्वर में अपना शंख पहुँका जिसके साथ ही पूरी कौरव सेना में शंख, भेरियां, ढोल, नगाड़े, नरसिंघे आदि एकबारगी बज उठे, जिससे बडा भयंकर शोर मच गया।

14-17. तभी सफेद घोडों से जुते हुए अपने विशाल रथ में बैठे श्रीकृष्ण ने पांचजन्य, और अर्जुन ने देवदत्त नामक अपने-अपने अलौकिक शंख फूंके । वहुत भोजन करने वाले और भयंकर   कार्यों को करने वाले भीम ने भी पोंद्रु नामक अपना महाशंख बजाया । कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक अपने अपने शंख बजाए । और इसी प्रकार महाधनुर्धर काशीराज़, महारथी शिखंडी धृष्टधुम्न, विराट, अजेय, सात्यकि आदि ने भी अपने-अपने शंख बजाए।

18-19. हे पृथ्वी के स्वामी! साथ ही साथ द्रुपद और द्रोपदी के पांचों पुत्रों और लम्बी  भुजाओं वाले सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु ने भी चारों ओर से अपने-अपने शंख  बजाए । पांडव वीरों के शंखों की उस प्रचंड ध्वनि से पृथ्वी और आकाश गूंज उठे और उस भयंकर नाद से आपके पुत्रों के हृदय दहल गए ।
20-23. तब महाबीर हनुमान की छवि से भूषित ध्वजावाले अपने रथ पर आरूढ अर्जुन ने अपने-अपने मोर्चों पर डटे हुए आपके पुत्रों क्रो देखा, और जब शस्त्रास्त्र लगभग चलने ही वाले थे, तब अपने गांडीव धनुष से शर-संधान करते हुए वह अपने भगवान् श्रीकृष्ण से बोला हे हृषिकेश ! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओ के बीच में खड़ा कीजिए, जिससे मैं उन लोगों का देख सकूं जो आज यहाँ युद्ध की इच्छा से उपस्थित हुए है,  और जानू कि मुझे किसके साथ युद्ध करना है । मैं उन्हें देखना चाहता हूँ जो धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधन की ओर से उसकी प्रसन्नता के लिए हमसे लड़ने को इकट्ठे हुए हैं ।

24-25. संजय बोला हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अर्जुन के ऐसा कहने पर हृषिकेश श्रीकृष्ण रथ को हांक कर दोनो सेनाओं के बीच में ले गए । यहाँ उस श्रेष्ठ रथ को भीष्म, द्रोण और सभी राजाओं  सामने खडा करके उन्होंने अर्जुन से कहा  हे पार्थ यहाँ एकत्रित इन कौरवों को देखो ।

26-30. अर्जुन ने देखा वहां दोनो ही सेनाओं में उसके चाचा, मामा, दादा-परदादा, भाई-भतीजे, बेटे-पोते, आचार्यगण, संगी - साथी, श्वसुर आदि सब खड़े है । अपने उन सभी संबंधियों को वहां उपस्थित देखकर कुंती - पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से भर गया और वहुत उदास होकर भगवान श्रीकृष्ण से बोला हे श्रीकृष्ण । अपने ही लोगों को अपने सामने युद्ध के लिए इस तरह उत्सुक खड़े देखकर मेरे तो सारे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूख रहा है, शरीर कांप रहा है और रोए सिहर रहे है । हाथ से गांडीव धनुष छूटा जा रहा है । लगता है सारी त्वचा जल रही है । मन भी मेरा जैसे चकरा रहा है, और खड़ा रहना भी मेरे लिए अब कठिन लग रहा है ।

31-34. हे केशव ! मुझे तो सारे लक्षण ही विपरीत दिखाई पड़ रहे है । इस युद्ध में अपने ही इन संबंधियों की हत्या करने से मुझे तो कोई भलाई नहीं दीखती । हे कृष्ण ! मुझे न तो ये विजय चाहिए, न ये राज्य और न ही ये सुख ।

हे गोविंद ! अब मुझे राज्य से क्या लेना-देना, अथवा सुख-भोग या इस जीवन से ही क्या लेना-देना । जिन अपनों के लिए ही हम ये राज्य, ये सुख-भोग  सब चाहते हैं, वे ही सब लोग तो अपने प्राणों और धन-संपत्ति का मोह त्याग कर यहाँ युद्ध में आ खड़े हुए हैं । गुरुजन, पिता-चाचा, पुत्र और पितामह, मामा श्वसुर, पौत्र, साले-संबंधी सब तो यहां खड़े है ।

35-39. हे मधुसूदन ! मैं मारा भी जाऊं तो भी अपने इन सगे-संबंधियों और सुहृदों की हत्या मैं नहीं कर सकूंगा । तीनो लोकों के राज्य के लिए भी नहीं, फिर इस धरती के राज्य की तो बात ही क्या । हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मारकर हमेँ कौन-सा सुख मिलेगा ? इन आतताइयों – दुष्कर्मियों  को मारकर भी तो हमें पाप ही लगेगा । इसलिए हे माधव ! अपने बांधव, धृतराष्ट्र के इन पुत्रों का मारना हमारे लिए उचित नहीं है । अपने ही लोगों को मारकर हम भला कैसे सुखी हो सकते हैं ? ये सारे लोग भले ही चित्तभ्रष्ट होकर कुल के नाश से होने वाले दोषों और मित्र के साथ द्रोह करने के पाप को नहीं देख पा रहे; किंतु हे जनार्दन ! हम तो कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोषों को अच्छी तरह देख रहे हैं । फिर हम इस पाप से बचने के उपाय क्यों न सोचें ।

40-44. कुल का नाश होने से परंपरा से चले आ रहे कुल के धम-नियम आदि नष्ट हो जाते हैं, और धर्म का नाश होने पर अधर्म सारे कुल को सब ओर से दबा लेता है । हे कृष्ण ! अधर्म के फैल जाने पर कुल की स्त्रियाँ अत्यंत दूषित हो जाती है, और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर सताने उत्पन्न होती है। वर्णसंकर संतान सारे परिवार को और सभी कृलघातियों को भी नरक से ले जाती है, और इस तरह कुल में पिंड और ज़लदान, श्राद्ध-तर्पण आदि क्रियाओं के लुप्त हो जाने से पितरों का भी पतन हो जाता है। कुल का नाश करने वाले इन वर्णसकरोंके दोष से शाश्वत कुलधर्म और जातियाँ सब नष्ट हो जाते है । हे जनार्दन ! हम ऐसा सुनते आए है कि जिन लोगों के कुलधर्म नष्ट हो जाते है, उन्हें अनिश्चित काल तक नरक में रहना पड़ता है ।

45-46. ओह ! बडा खेद होता है कि हमने यह एक वहुत भारी  पाप करने का निश्चय कर लिया है राज्य और सुख के लोभ से अपने ही लोगों को मारने को तैयार हो गए हैं । धृतराष्ट्र के पुत्र तो यदि अपने हथियार लेकर मुझे मार भी डाले, और मैं बिना शस्त्र उठाए, बिना उनका विरोध किए युद्ध में मारा भी जाऊं, तो वह भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारी ही होगा ।

47. संजय बोले युद्धभूमि में ऐसा कहकर अर्जुन अपना धनुष-बाण छोड़, शोक से व्याकुल होकर, रथ के पिछले भाग में बैठ रहा ।

                                    | यहीं विषाद-योग का प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ।

(C) डा. मंगलमूर्ति 

चित्र: सौजन्य गूगल 

विशेष : 
इससे पूर्व सम्पूर्ण रामचरित मानस और सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का कथा-सार आप इसी ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं| Blog Archive देखें और इस पोस्ट के नीचे Older Posts पर क्लिक करते हुए उन्हें पढ़ें और कृपया अपनी सम्मति भी अंकित करें|  


Sunday, June 18, 2017


रामचरित मानस : पुनर्पाठ 
श्रंखला-समापन 











उत्तर काण्ड 
कथासूत्र
      
शंकरजी पार्वतीजी से काकभुशुण्डी और गरुड़ के मिलन की कथा सुनाते हुए उनको  लंकाकाण्ड के उस प्रसंग का स्मरण दिलाते हैं जब मेघनाद ने श्रीराम को अपने मायाजाल के पाश में बाँध लिया था, और नारद मुनि के कहने से गरुड़ ने जाकर उस बंधन को काटा था| पर गरुड़ को बड़ा संशय भी हुआ था कि मानव-मात्र को सभी बंधनों से मुक्त करने वाले भगवान राम को एक राक्षस ने नाग-पाश में कैसे बाँध लिया| जब अपनी शंका गरुड़ ने नारदजी से बताई तो उन्होंने गरुड़ को ब्रह्मा के पास जाने को कहा, और तब ब्रह्मा ने भी गरुड़ को मेरे पास भेज दिया| उस समय मैं कुबेर के यहाँ जा रहा था, और मैंने गरुड़ से कहा कि राह चलते इतने गूढ़ प्रश्न का समाधान मैं कैसे कर दूं – इसके लिए तो लम्बे समय तक सत्संग करना ज़रूरी होगा| आप उत्तर दिशा में स्थित नील पर्वत पर जाएँ जहाँ काकभुशुण्डीजी का निवास है| वहां निरंतर श्रीराम की कथा होती रहती है और तरह-तरह के पक्षी वहां जुट कर इस कथा को विस्तार से सुनते हैं, और अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करते हैं| जैसा मैंने कहा - ‘समुझई खग खगही कै भाषा’, तो मुझे लगा गरुड़ की शंकाओं का सही समाधान उस पक्षी-मंडल में ही सबसे अच्छी तरह होगा|

गरुड़ जी उस नील पर्वत पर जब गए तो काकभुशुण्डीजी अपनी राम-कथा को एक बार फिर से प्रारम्भ कर ही रहे थे| गरुड़ के आने से काकभुशुण्डीजी बहुत प्रसन्न हुए और हर प्रकार से उनका स्वागत-सत्कार किया| तब गरुड़ ने काकभुशुण्डीजी से अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा –

      अब श्रीराम कथा अति पावनि, सदा सुखद दुःख पुंज नसावनि
      सादर तात सुनावहु मोही, बार-बार बिनवऊं प्रभु तोही|६३.२|

श्रीराम के स्मरण-मात्र से पुलकित होकर काकभुशुण्डीजी ने श्रीराम के अयोध्या में जन्म और उनकी बाल-लीला से लेकर पूरी राम-कथा का प्रवचन प्रारम्भ किया| फिर कथा के अंत में काकभुशुण्डीजी ने कहा कि – हे पक्षिराज,आप तो स्वयं परम ग्यानी हैं| श्रीराम की कथा सुनाने से मनुष्य माया-जाल से मुक्त हो जाता है, और उसको श्रीराम के सगुण-निर्गुण दोनों ही रूपों का रहस्य समझ में आ जाता है| एक रूपक से इसको आप समझें –

      नौकारूढ़ चलत जग देखा, अचल मोह बस आपुहि लेखा|
      बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी, कहहिं परस्पर मिथ्याबादी| ७२.३|
नौका पर चढ़े हुए मनुष्य को किनारे के पेड़-पर्वत ही चलते हुए दिखाई देते हैं, जबकि वे सब स्थिर होते हैं और वह स्वयं चलायमान रहता है| घुमरी खेलते हुए बालक को भी घर-आँगन ही सब नाचते हुए दीखते हैं, जबकि वे सब स्थिर होते हैं, और बालक स्वयं चक्कर काटता होता है|  परमेश्वर-रूप श्रीराम के विषय में भी कुछ ऐसा ही भ्रम मनुष्य को व्यापता है और वह उनको मानव-रूप में देख कर भ्रम में पड़ जाता है| यहाँ तक कि श्रीराम के सुगम और अगम चरित्रों को सुन कर ऋषि-मुनि भी भ्रम में पड जाते हैं| इसके बाद काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ को अपने मोह के विषय में बताते हैं|

      सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई, कहऊँ जथा मति कथा सुहाई|
      जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही, सोउ सब कथा सुनावहुँ तोही|७३.१|
       जब जब राम मनुज तनु धरहीं, भक्त हेतु लीला बहु करहीं,
       तब तब अवधपुरी मैं जाऊं, बाल चरित बिलोकि हरषाऊँ|७४.२|      


उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

काकभुशुण्डीजी ने पक्षिराज गरुड़ से बताया कि वे बार-बार अयोध्या जाकर श्रीराम की बाल-लीला देखते रहे थे| जब श्रीराम अपने बाल-रूप में महल के आँगन में खेलते रहते तब काकभुशुण्डीजी कौवे के रूप में वहीं आँगन में उनके पीछे-पीछे फुदकते चलते और श्रीराम जो जूठन गिराते उसको खा जाते थे| पक्षिराज गरुड़ को श्रीराम की बाल-लीला सुनाते-सुनाते काकभुशुण्डीजी भाव-विभोर हो रहे थे| वे जब भी श्रीराम के चरणों के पास जाते, बालक श्रीराम हंसने लगते, और इनके दूर जाने पर रो पड़ते|

यह देखकर काकभुशुण्डीजी को मन में शंका होती है कि भगवान राम यह कैसा चरित्र उन्हें दिखा रहे हैं| और ऐसी शंका में पड़ते ही काकभुशुण्डीजी पर माया का प्रकोप हो जाता| एक बार बालक श्रीराम उनको पकड़ने को दौड़े| काकभुशुण्डीजी बोले कि मैं डर कर आकाश में उड़ने को भागा| लेकिन मैं जितना ही ऊपर उडता, बालक श्रीराम का हाथ मेरे पीछे ही होता – ‘जिमि जिमि दूरि उडाऊं अकासा, तंह भुज हरि देखेउँ निज पासा’|

मैं भयभीत हुआ उडता-उडता ब्रह्मलोक तक चला गया, किन्तु हाथ तब भी मेरे बिल्कुल पीछे ही रहा| तब डर के मारे मेरी आँखें अपने-आप मुद गयीं| जब आँख खुली तो मैं फिर वहीँ महल के आँगन में था| मझे घबराया देख कर बालक श्रीराम हंस पड़े और तभी मैं उनके मुहं में समां गया| बालक श्रीराम के पेट में पहुंचते ही वहां मुझको एक-से-एक विचित्र ब्रह्मांडों के दर्शन हुए| वहां मुझको अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवतागण,और तरह-तरह के प्राणी दीखे –


      लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता, भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसि त्राता|
      नर गंधर्ब भूत बेताला, किन्नर निसिचर पसु खग ब्याला|८०.१|

वहां मैं कई कल्प तक जितने भी ब्रह्मांडों में भ्रमण करता रहा, मुझे हर जगह श्रीराम की लीलाएँ ही दिखाई पड़ती थीं|

      भ्रमत मोहि ब्रह्माण्ड अनेका, बीते मनहुं कल्प सत एका|
      फिरत फिरत निज आश्रम आयऊँ, तंह पुनि रहि कछु काल गवाँयऊँ|८१.१|


उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

इस प्रकार काकभुशुण्डीजी कथा को आगे बढाते हुए पक्षिराज गरुड़ से बोले कि
तब फिर अयोध्या में श्रीराम के जन्म का समाचार जान कर मैं वहां गया, और फिर बालक श्रीराम को वहां आँगन में खेलते देखा| वहां जैसे ही वे फिर हँसे मैं उनके मुंह से फिर बाहर निकल आया| मुझे व्याकुल देख कर उन्होंने कृपापूर्वक मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया, और प्रसन्न होकर मुझसे वर माँगने को कहा| तब मैंने विनयपूर्वक भगवान श्रीराम से मुझको अपनी अविरल एवं निष्काम भक्ति का वरदान देने की प्रार्थना की| हँसते हुए भगवान बोले –

      सुनु बायस तैं सहज सयाना, काहे न मागसि अस बरदाना|...
      सब सुख खानि भगति तैं मागी, नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी|८४.१-२|

श्रीराम ने काकभुशुण्डी के रूप में उस कौवे से कहा – तुमने बड़ी चतुराई से सर्वोच्च वरदान के रूप में मेरी भक्ति मांग ली है| अब मेरी कृपा से तुम्हारे ह्रदय में मेरी अचल भक्ति के साथ सभी शुभ गुणों का वास रहेगा| भगवान राम का वरदान पाकर काकभुशुण्डीजी एकदम भाव-विभोर हो गए|

     
तब श्रीराम काकभुशुण्डीजी से बोले – मेरी भक्ति धारण करने से ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग सब तुम्हें सहज ही प्राप्त होंगे और माया से तुम सदा मुक्त रहोगे| मेरी माया से ही यह सारा संसार उत्पन्न हुआ है –

      मम माया संभव संसारा, जीव चराचर बिबिध प्रकारा|
      सब मम प्रिय सब मम उपजाए, सब ते अधिक मनुज मोहि भाए|८५.२|

इस प्रकार श्रीराम ने - जो स्वयं ईश्वर के अवतार हैं – काकभुशुण्डीजी को उपदेश देते हुए  कहा कि मैंने मनुष्य में ही चिंतन और विवेक की क्षमता दी है जिससे ईश्वर की भक्ति का सुयोग भी प्राणी-मात्र में केवल उसको ही प्राप्त है| काकभुशुण्डीजी को कई प्रकार से उपदेश देकर श्रीराम पुनः अपनी बाल-लीला में लग गए|

कथा को आगे बढाते हुए काकभुशुण्डीजी ने पक्षिराज गरुड़ से कहा कि कुछ दिन इसी प्रकार श्रीराम की बाल-लीला देखते हुए अयोध्या में रहने के बाद वे फिर अपने आश्रम में लौट आये|

      निज अनुभव अब कहऊँ खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा|
      राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जनि न जाई राम प्रभुताई|८८.३|

इसी प्रकार बहुत समय तक काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ से इश्वर-भक्ति, ज्ञान और उपदेश की बहुत-सी सुन्दर बातें सुनाते रहे|

      सुनी भुसुंडि के बचन सुहाए, हरषित खगपति पंख फुलाए|
      नयन नीर मन अति हरषाना, श्रीरघुपति प्रताप उर आना|९२.१|

काकभुशुण्डीजी के पवित्र उपदेश सुनकर पक्षिराज गरुड़ आत्म-विभोर हो गए और उनकी आँखों से अश्रु-धारा बह चली|
          
उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

पक्षिराज गरुड़ भगवान श्रीराम के विषय में काकभुशुण्डीजी के प्रवचन सुन कर  अत्यंत हर्षित हो गए थे| उन्हें स्पष्ट अनुभव हुआ कि काकभुशुण्डीजी ने गुरु-रूप से जो पवित्र वचन उनसे कहे हैं उससे उनके माया के सारे बंधन टूट गए| प्रसन्न मन से वे काकभुशुण्डीजी से बोले – हे गुरुवर काकभुशुण्डीजी! ‘तव प्रसाद मम मोह नसाना, राम रहस्य अनुपम जाना’| किन्तु, एक शंका मेरे मन में यह है कि इतने बड़े तत्त्वज्ञानी और वैराग्यी होते हुए भी आपने यह कौवे का शरीर कैसे प्राप्त किया| और मैनें तो शिवजी से यह भी सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता|

      तुम्हहिं न व्यापत काल, अति कराल कारन कवन|
      मोहि सो कहहु कृपाल,ज्ञान प्रभाव कि जोगबल| ९४|

ऐसा आपके ज्ञान के कारण हुआ है अथवा आपके योगबल के कारण? हे भुशुण्डी जी! वैसे मेरा मोह और भ्रम तो आपके आश्रम में आते ही नष्ट हो गया है|

पक्षिराज गरुड़ की बात सुन कर काकभुशुण्डीजी अत्यंत प्रसन्न हो गए और बोले – हे पक्षिराज गरुड़! सारे जप, तप, यग्य, वैराग्य, ज्ञान और विवेक श्रीराम की कृपा से ही प्राप्त होते हैं| श्रीराम की भक्ति मुझे इसी शरीर से प्राप्त हुई है| और यद्यपि मेरा मरण मेरी इच्छा पर है, फिर भी, अनेक जन्म प्राप्त करने पर भी  मैं इसी शरीर से श्रीराम के भजन में लीन रहता हूँ| हे पक्षिराज! सुनिए, मैं आपको अपने प्रथम जन्म की कथा सुनाता हूँ| पूर्व के एक कल्प में, पापमय कलियुग में मेरा पहला जन्म अयोध्या में एक शूद्र के रूप में हुआ था| तब मैं शिव का भक्त होते हुए भी अत्यंत अभिमानी और दम्भी था| अयोध्या में जन्म पाने पर भी मुझे श्रीराम के प्रभाव का कुछ भी भान नहीं था| उस कलियुग में सभी प्राणी पाप-कर्मों में लिप्त रहा करते थे|

यहाँ गोस्वामी तुलसीदास कलियुग ( सोलहवीं शताब्दी के अपने समय) का एक यथार्थ और विशद चित्र उपस्थित करते हैं जो अपने उग्रतर रूप में हमारे समय में आज भी वर्त्तमान है|

      कलिमल ग्रसे धर्म सब, लुप्त भये सदग्रंथ|
      दम्भिन्ह निज मति कल्पि करि, प्रगट किये बहु पंथ|
      भये लोग सब मोह बस, लोभ ग्रसे सुभ कर्म|९७|...
      मार्ग सोइ जा कहुं जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा|...
      जाकें नख अरु जटा बिसाला, सोइ तापस प्रसिद्द कलिकाला|९७.२-४|

इस प्रकार काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ से (तुलसीदास के शब्दों में) कलियुग के धार्मिक और नैतिक अनाचार का विस्तार से वर्णन करते हैं, और उन्हें बताते हैं कि कलियुग के पापाचार से मुक्ति का बस एक ही मार्ग है – राम की दृढ भक्ति|

      कलिजुग केवल हरि गुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा|...
      कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना, एक आधार राम गुन गाना|१०२.२-३|  

कलियुग का महत्व इसीलिए विशेष है क्योंकि इसमें रामनाम के प्रति अटूट भक्ति एवं श्रीराम के नाम का भजन करने मात्र से सद्गति सहज ही प्राप्त हो जाती है| और इसीलिए श्रीराम का पवित्र चरित गा कर तुलसीदास को परमपद प्राप्त हो गया और वे अमर हो गए|    

उत्तर काण्ड 
कथासूत्र १०

      हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिं|
      भजिय राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिं|१०४|

तुलसीदास रामकथा के अंत में इस काकभुशुण्डी-गरुड़ संवाद में आज के कलियुग से निस्तार पाने का अचूक मन्त्र रामनाम को ही बताते हैं| भगवान श्रीराम पर जिनकी भी अटूट आस्था हो गयी वे कलियुग के इस पापमय जगत में रहते हुए भी सहज ही सद्गति को प्राप्त कर सकते हैं|

काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ से कहते हैं – हे हरिवाहन! इसी प्रकार मैं अनंत काल तक अयोध्या में रह गया| लेकिन जब एक बार वहां अकाल पड़ा, तब मैं वहां से दरिद्र और दुखी होकर उज्जैन चला गया और वहीँ भगवान शंकर की आराधना करने लगा| वहां मुझे एक परम साधु ब्राह्मण मिले जो शंकरजी के अनन्य उपासक थे, और जिनकी श्रीराम पर भी बड़ी भक्ति थी| मैं कपटपूर्वक उन्हीं ब्राह्मण की सेवा में लग गया, और वे भी मुझे अपने पुत्र की तरह मानने लगे, और वेद-पुराण की उत्तम शिक्षा भी देने लगे| उन्होंने मुझे शिवजी का मन्त्र दिया जिसे मैं शिवजी के मंदिर में जाकर नियमित जाप करता था| धीरे-धीरे मेरे मन में अपनी भक्ति और ज्ञान को लेकर बड़ा दंभ और अहंकार उत्पन्न होने लगा|

      संभु मन्त्र मोहिं द्विजबर दीन्हां, सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हां|
      जपऊँ मन्त्र सिव मंदिर जाई, ह्रदय दंभ अहमिति अधिकाई |१०४.४|
      गुरु नित मोहि प्रबोध, दुखित देखि आचरण मम|
      मोहि उपजइ अति क्रोध, दंभिहि नीति कि भावई|१०५|

गुरूजी मुझे बार-बार समझाते और बताते की शिवजी की सच्ची भक्ति का फल यही होता है कि उससे श्रीराम के चरणों में दृढ भक्ति उत्पन्न होती है| मेरी धृष्टता और घमंड को देख कर तंग आकर वे मुझको डांटते भी कि - अरे मूर्ख, अभागे! शिवजी की भक्ति का क्या फल तुझे मिलेगा जब तू श्रीराम से ही द्रोह कर रहा है| लेकिन मैं तो अपने दंभ में ही अंधा हो रहा था, गुरु के सद्वचन मुझको कैसे अच्छे लगते –

      अधम जाति मैं बिद्या पायें, भयऊँ जथा अहि दूध पिलायें|
      मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती, गुरु कर द्रोह करऊँ दिन राती|
      जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा|...
      सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा|
      कबि कोबिद गावहिं अस नीती, खल सन कलह न भल नहिं प्रीती|१०५.३-७|

अधम जाति के मुझ पर गुरु के सद्वचनों का कोई असर नहीं होता था, जैसे सांप को कितना भी दूध पिलाओ, उसमें ज़हर ही पैदा होता है| अब तो मैं अपने गुरु से ही द्रोह करने लगा, यद्यपि तब भी वे मुझे अच्छी शिक्षा ही देते रहते| कलियुग में सच यही है कि नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह पहले उसी की बुराई में जी-जान से लग जाता है| इसीलिए हे पक्षिराज! बुद्धिमान को कभी नीच का संग नहीं करना चाहिए, क्योंकि दुष्ट से न कलह ही अच्छा होता है और न प्रीति ही|

इसी बीच एक दिन ऐसा हुआ कि मैं शिव-मंदिर में पूजा कर रहा था और मेरे गुरु वहां आ गए| लेकिन दंभ-वश मैं न तो खड़ा हुआ और न गुरु को प्रणाम ही किया| गुरूजी तो कुछ नहीं बोले, पर शंकरजी को गुरु का यह प्रत्यक्ष अपमान सहन नहीं हुआ, और उन्होंने मुझे शाप देते हुए कहा – ‘जे सठ गुर सन इरिषा करहीं, रौरव नरक कोटि जग परहीं’| रे पापी, तू गुरु के आने पर भी खड़ा नहीं हुआ, अजगर की भाँति बैठा ही रहा, और न उनको प्रणाम ही किया – जा, इसीलिए, तू एक सांप ही बन जा और अब किसी पेड़ के खोंखड में अपना जीवन बिता|

क्रुद्ध शिवजी का भयंकर शाप सुन कर गुरुजी तो भयभीत हो गए और तुरत वहीं बैठ कर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगे| उत्तरकाण्ड में यह शिवजी की एक अपूर्व स्तुति है, जो गुरु ने अपने दुष्ट शिष्य के पाप-निवारण के लिए शिवजी के प्रति की है –

      नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं|
      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाश वासं भजेहं|१०७|...     

गुरु की स्तुति से जब शिवजी प्रसन्न हुए तब उन्होंने अपना शाप-निवारण करते हुए कहा कि गुरु की इस स्तुति से प्रसन्न होकर मैं तेरे शाप का शमन करता हूँ, फिर भी तुझे अनेक जन्मों से गुजरने के बाद ही अयोध्या में जन्म मिलेगा जहाँ तू मेरी भक्ति करते हुए भगवान श्रीराम की अनन्य भक्ति को प्राप्त हो सकेगा|

काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ से कहते हैं कि इस प्रकार मेरे कई जन्म हुए पर मुझे शिवजी के वचन सदा स्मरण रहे| मैं बराबर शिवजी के साथ-साथ श्रीरामजी का जप-ध्यान करता रहा| तब मेरा अंतिम जन्म ब्राह्मण के घर में हुआ, और मेरी राम-भक्ति निरंतर दृढ़तर होती गयी| माता-पिता की मृत्यु के बाद मैं विरक्त होकर वन-प्रांतर में घूम-घूम कर श्रीराम का यशगान करता फिरता और बराबर ऋषि-मुनियों का सत्संग भी करता| लेकिन इन सत्संगों के बाद भी  –

        निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई, सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई|१०९.८|

श्रीराम का भजन करते हुए मेरा यह भ्रमण इसी प्रकार चलता रहा, और मेरी  भक्ति श्रीराम के सगुण-रूप में बढती ही गयी|

उत्तर काण्ड 
कथासूत्र ११

      गुर के बचन सुरति करि राम चरण मनु लाग|
      रघुपति जस गावत फिरऊँ, छन छन नव अनुराग|११०|   

काकभुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़ से कहते हैं कि गुरु के उपदेश के अनुसार ही मेरा मन सभी प्रकार से श्रीराम की भक्ति में लग गया, और मैं घूम-घूम कर श्रीराम की यशोगाथा सर्वत्र गाता फिरता| यत्र-तत्र-सर्वत्र भ्रमण के क्रम में ही मैं सुमेरु पर्वत के पास जा पहुंचा जिसके शिखर पर एक वट-वृक्ष की छाया में मुझे लोमश ऋषि के दर्शन हुए| उन्होंने बड़े प्रेम से मेरे आने का कारण पूछा, तो मैनें उनसे प्रार्थना की कि हे ऋषिवर आप मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना की विधि बताने की कृपा करें| निर्गुण मत को मैं नहीं समझ पाता; मैं श्रीरामजी को अपनी इन्हीं आँखों से सगुण रूप में देखना चाहता हूँ| तब ऋषिवर लोमश पहले मुझे विस्तार से ब्रह्म के अजन्मा,अद्वैत और निर्गुण रूप को समझाने लगे| पर बीच-बीच में मैं उनसे प्रश्नोत्तर भी करता रहा| इससे वे कुछ क्रुद्ध हो गए, क्योंकि मैं उनकी बातों को ध्यान से नहीं सुनता था और उनसे बार-बार प्रश्न ही करता रहता था| अंत में अत्यंत क्रोध में वे बोले – अरे मूर्ख! तू बार-बार अपनी ही बात का हठ करता जाता है और मेरी बात पर कुछ भी ध्यान नहीं देता| अतः तू चांडाल! जा एक कौवा हो जा और ऐसे ही कावं-कावं करता रह| लेकिन फिर तुरत जब लोमश ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो वे पछताने लगे, और तब फिर प्रेम से मुझे बुलाकर मुझे श्रीराम का मन्त्र बताया और उनका ध्यान करने की विधि भी बतायी|

      मुनि मोहि कछुक काल तहं राखा, रामचरितमानस तब भाषा|
      सादर मोहि यह कथा सुनाई, पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई|
      रामचरित सर गुप्त सुहावा, संभु प्रसाद तात मैं पावा|
      तोहि निज भगत राम कर जानी, ताते मैं सब कहेउँ बखानी|११२.५-६|

तब इस प्रकार ऋषिवर लोमश से प्रगाढ़ राम-भक्ति का प्रसाद और आशीर्वाद पाकर मैं लौट कर अपने आश्रम में आ गया| और अब इसी कौवे के शरीर में मैं यहाँ सत्ताईस कल्प से निवास कर रहा हूँ| संक्षेप में, मेरे काक-शरीर धारण करने की यही कथा है| मैं यहाँ अपने आश्रम में सदा श्रीराम के गुणों का गायन करता रहता हूँ, और चतुर पक्षियों को यह राम-कथा सुनाया करता हूँ| फिर जब-जब श्रीराम का जन्म अयोध्या में होता है, मैं वहीँ चला जाता हूँ, और वहां श्रीराम की बाल-लीला का आनंद लेता रहता हूँ|

यह सारी कथा सुनकर पक्षिराज गरुड़ अत्यंत आनंद-मग्न हो गए और बोले कि हे
काकभुशुण्डीजी! मेरे मन की एक और शंका का समाधान करने की कृपा करें| मुझे यह बताएं की ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है| इस गूढ़ प्रश्न से प्रसन्न होकर काकभुशुण्डीजी बोले –

      भगतिहि ज्ञानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा|
      नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर, सावधान सोउ सुनु बिहगम्बर|११४.७|

भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है| दोनों मार्गों से संसार के दुखों से मुक्ति मिल जाती है| लेकिन श्रीरामजी अचल भक्ति से अधिक सहजता से प्राप्त हो जाते हैं| इसके बाद काकभुशुण्डीजी (तुलसीदास जी के शब्दों में) ज्ञान और भक्ति की   विषद व्याख्या करते हैं और कहते हैं –‘ज्ञान पंथ कृपान कै धारा’| ज्ञान का मार्ग तलवार की धार जैसा होता है, परन्तु ज्ञान-मार्ग से भी कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति होती है| फिर भी, भक्ति-मार्ग से, श्रीराम के निरंतर भजन से, वह सहज ही प्राप्त हो जाता है| ज्ञान यदि एक प्रकाशमान दीपक है तो भक्ति एक मणि-स्वरुप होती है जो स्वयं में ही प्रकाश फैलाती रहती है| सच्ची भक्ति की मणि जिसके ह्रदय में होती है वह काम, क्रोध, लोभ. मोह आदि से सर्वथा मुक्त रहता है| पर वह मणि केवल श्रीरामकृपा से ही प्राप्त होती है|

यहाँ पक्षिराज गरुड़ काकभुशुण्डीजी से ज्ञान और भक्ति के विषय में सात प्रश्न पूछते हैं जिसके उत्तर में काकभुशुण्डीजी बताते हैं कि मानव शरीर ही सबसे दुर्लभ शरीर होता है जिससे निरंतर श्रीराम की अचल भक्ति की प्राप्ति संभव होती है| संतों का सत्संग ही सबसे बड़ा सुख है और असंतों-दुष्टों का संग ही सबसे दुखकारी होता है| अज्ञान, मोह और अहंकार ही सबसे बड़ा रोग होता है, और धर्माचरण, तप और ज्ञान ही उनका उत्तम उपचार है| वास्तव में श्रीराम की अखंड भक्ति ही जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता होती है| हे पक्षिराज! मैंने आपको श्रीराम की वही कथा सुनाई है जो शुकदेवजी, सनकादि मुनि और शिवजी को भी सदा प्रिय है| और आप जानिये कि एक चांडाल समझे जाने वाले कौवे को भी श्रीराम की भक्ति के कारण  उनकी पवित्र कथा सुनाने-सुनाने का सौभाग्य मिला| हे पक्षिराज! –

      नाथ जथामति भाषेऊँ, राखेऊँ नहिं कछु गोइ|
      चरित सिन्धु रघुनायक, थाह कि पावइ कोइ|१२३|

 काकभुशुण्डीजी के पवित्र प्रवचन सुनकर पक्षिराज गरुड़ बार-बार हर्षित होते रहे और फिर अंत में उनको प्रणाम निवेदित कर श्रीराम को ह्रदय में रखते हुए वैकुण्ठ को चले गए| तुलसीदास लिखित यह पावन काकभुशुण्डी-गरुड़ संवाद एक प्रकार से रामचरितमानस के अमृतमय उपदेशों का निचोड़ और पूरी रामकथा का सिरमौर ही  है| तुलसीदास कहते हैं –

      मुनि दुर्लभ हरि भगति नर, पावहीं बिनहिं प्रयास|
      जे यह कथा निरंतर, सुनहिं मानि बिस्वास|१२६|

उत्तरकाण्ड का यह सुन्दर काकभुशुण्डी-गरुड़ संवाद पुनः शिव-पार्वती के संवाद पर आकर समाप्त होता है| मानस की यह कथा शिवजी ही पार्वतीजी को सुना रहे थे जिसमें ये सभी अन्य संवाद-श्रृंखलाएं - काकभुशुण्डी-गरुड़ संवाद, याज्ञवल्क्य-भारद्वाज संवाद आदि समाहित हुई हैं| शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं –

      मति अनुरूप कथा मैं भाखी, जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी|
      तव मन प्रीति देखि अधिकाई, तब मैं रघुपति कथा सुनाई|१२७.१|

तुलसीदास फिर कहते हैं –

      सुनि सब कथा ह्रदय अति भाई, गिरिजा बोली गिरा सुहाई|
      नाथ कृपा मम गत संदेहा, राम चरन उपजेउ नव नेहा|१२८.४|

पार्वती को श्रीराम को वन में भ्रमण करते देखकर जो शंका हुई थी, शंकरजी के  पूरी रामकथा सुनाने से उनकी उस शंका का पूरी तरह समाधान हो गया| और इसी व्याज से रामचरितमानस के पढ़नेवालों की श्रीराम की सगुण-भक्ति के विषय में होने वाली सभी शंकाओं का भी समाधान हो गया| और इसी प्रकार रामकथा को उसकी सम्पूर्णता में जान कर इसके सभी पाठकों को श्रीराम के सगुण-रूप की अनन्य भक्ति के द्वारा इस माया-जगत के सभी बंधनों से मुक्ति का मार्ग सहज ही प्राप्त हो गया|   

और तब मानस के अंत में तुलसीदास कहते हैं –

      रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं|
      कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं|१२९.छं.२|


सरल, सुबोध भाषा में तुलसीदास-कृत रामचरित मानस का यह पुनर्पाठ सभी सामान्य गृहस्थ-जन के पठन-पाठन के निमित्त लिखा गया है और आशा है, इस पुनर्पाठ से सभी जिज्ञासुओं का मनोरंजन और ज्ञान वर्धन हो सकेगा| तथास्तु|

            || संत तुलसीदास-कृत रामचरित मानस पुनर्पाठ सम्पूर्ण ||

                     
                        ऊँ  ऊँ  ऊँ  ऊँ  ऊँ

[ आगामी मंगलवार से श्रीमदभगवद्गीता के अठारहों अध्यायों का सरल हिंदी में सुबोध व्याख्या के साथ अनुवाद पढ़ें प्रति मंगलवार| ]

     रामचरितमानस और श्री दुर्गासप्तशतीके पूर्वांश पढ़ें :
२०१७ :  
२० जून : उत्तर काण्ड (उत्तरार्द्ध) समापन
१३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध)
३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध)
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)


 (C) डा. मंगलमूर्ति 

चित्रावली : सौजन्य गूगल छवि-संग्रह


                           

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