अरण्यकाण्ड
कथासूत्र : १
रामचरित मानस हिन्दू धर्म और संस्कृति की महत्ता को
प्रतिपादित करने वाला ग्रन्थ है| रामकथा वास्तव में मानव-जीवन की ही कथा है, जिसमे
यह दर्शाया गया है कि मानव जीवन में अच्छाइयां और बुराईयाँ क्या हैं, और एक अच्छा,
सार्थक और आदर्श जीवन कैसा होना चाहिए| देवता अच्छाईयों के प्रतीक हैं और राक्षस
अथवा असुर बुराईयों के प्रतीक हैं| जहाँ राम सद्गुणों के मूल के रूप में दिखाये गए
हैं वहीं रावण को सभी दुर्गुणों के मूल के रूप में प्रस्तुत किया गया है| रामलीला
में भी गाँव-गवंई के लोगों को प्रतीक-रूप में यही बात समझाई जाती है| ध्यान देने
की बात है कि तुलसीदास ने बहुसंख्यक ग्रामीण लोगों के लिए ही उनके समझने-गाने और
याद रखने लायक भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की है जिसको रामलीला में भी दर्शाया
जाता है| शहर के आज के लोगों को बहुत सी बातें इस कथा में बेतुकी भी लग सकती हैं,
क्योंकि इसमें ४०० साल पुराने समाज में प्रचलित सामाजिक रहन-सहन का ही चित्रण
है,लेकिन यदि उनकी दृष्टि हमारी मूल ग्रामीण संस्कृति के प्रति उदार होगी तो वे भी
देखेंगे कि इसमें जीवन के शाश्वत सत्यों, मूल्यों और आदर्शों का सुन्दर प्रतिपादन
हुआ है|
अरण्य का अर्थ वन या जंगल होता है| अयोध्या से राम पहले
चित्रकूट आये जो आज के इलाहबाद के पास है| उसके बाद वहां कुछ समय बिताने के बाद यह
सोच कर कि अब वहां भी बहुत से लोग उनका रहना जान कर आयें-जायेंगे, उन्होंने और घने
वन-प्रदेश में जाकर रहने का निश्चय किया| अरण्य काण्ड में राम चित्रकूट से आगे बढ़
कर पंचवटी-प्रदेश में जाकर रहने लगे| यह स्थान नासिक के समीप गोदावरी के तट पर
स्थित है|
अरण्य काण्ड का प्रारंभ भी भगवान शिव और श्री रामचन्द्रजी
की वंदना से होता है| प्रारंभ में एक छोटी-सी कथा इंद्र के पुत्र जयंत की है जो यह
दर्शाती है कि जो राम की भक्ति करता है वह तो जीवन-मुक्त हो जाता है, लेकिन जो
उनकी अवज्ञा या उनका विरोध करता है वह जीवन में मोह-ग्रस्त होकर विनाश को प्राप्त
होता है| जयंत ने घमंड में आकर राम की शक्ति-परीक्षा लेना चाहा| एकबार श्रीराम
सीता के साथ बैठे प्रेमालाप कर रहे थे और फूलों के हार से उनका श्रृंगार कर रहे थे
| उसी समय जयंत ने कौवे का रूप बनाकर चुपचाप जाकर सीता के चरणों में अपनी चोंच से
खरोंच लगा दी और उड़कर भागने लगा| श्रीराम ने तुरत धनुष पर एक सींक चढ़ाकर उसको
मारा| भयभीत जयंत तीनों लोकों में व्याकुल होकर भागता फिरा लेकिन कहीं उसको शरण
नहीं मिली| तब नारदजी ने उसको राम की शरण में ही जाने को कहा| त्राहि-त्राहि कहता
हुआ जयंत श्रीराम के चरणों में लिपट कर अभय मांगने लगा| राम ने उसको इतना दंड दिया
कि उसको एक आँख का काना बना कर अभयदान दे दिया| यह छोटी-सी कथा यहीं समाप्त हो
जाती है जिसका अर्थ यही है कि राम से द्वेष-भाव रखने वाला दुःख का भागी होता है|
तुलसी कहते हैं –
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह,
ता सन आई कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह |१|
अरण्यकाण्ड
कथासूत्र : २
इंद्र के पुत्र जयंत की इस छोटी-सी प्रतीकात्मक कथा से
अरण्य काण्ड का प्रारम्भ करने से तुलसीदास का अभिप्राय एक ओर तो राम के मानवीय रूप
को दिखाना है, और दूसरी ओर यह बताना है कि प्रमाद में आकर ईश्वर की अवज्ञा
करनेवाले को दंड भी अवश्य मिलता है| और यह भी कि पश्चाताप करने पर ईश्वर हल्का दंड
देकर क्षमा भी कर देते हैं|
रामचरित मानस का दो-तिहाई भाग बालकाण्ड और अयोध्या कांड में
है, और शेष पांचो काण्ड – अरण्य,
किष्किन्धा, सुन्दर, लंका और उत्तर काण्ड बाकी के केवल तिहाई भाग में ही समाप्त
होते हैं| अर्थात, अरण्य काण्ड से रामकथा
का प्रवाह सहसा तेज हो जाता है|
कुछ समय चित्रकूट में व्यतीत करने के बाद श्रीराम ने कहीं
और निर्जन प्रदेश में चलकर रहने का निर्णय किया | आगे चलते हुए वे अत्रि ऋषि के
आश्रम में पहुंचे| श्रीराम-सीता और लक्ष्मण को देखते ही जैसे अत्रि मुनि
प्रेम-विभोर हो गए| - ‘देखि राम छबि नयन जुड़ाने, सादर निज आश्रम तब आने|’ यहाँ पर
श्रीराम के प्रति एक अत्यंत सुन्दर और सरल
संस्कृत वंदना अत्रि मुनि ने गाई है – ‘ नमामि भक्त वत्सलं,कृपालु शील कोमलं|’
पूरे मानस में ऐसी लगभग २०-२२ अत्यंत सुन्दर और सरल वन्दनाएँ हैं | भजन-कीर्तन की तरह
इन वन्दनाओं को पूजा या शयन के समय तन्मय होकर गाने से बड़ी शांति मिलती है|
इसी समय सीता भी अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया से चरणस्पर्श
कर मिलीं| अनसूया ने सीता को प्रेम से बैठा कर श्रेष्ठ नारी-धर्म पर बहुत सारे
सदुपदेश दिए| कहा कि –‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी,आपदकाल परिखिअहिं चारी|’ विपत्ति
की घडी में ही धैर्य्य, धर्म, मित्र और नारी की सही पहचान होती है| नारी के
पतिव्रत-धर्म पर भी अनसूया ने सीता को बहुत सारा उपदेश दिया| फिर ऋषि-दम्पति के
चरणों में सिर नवाकर राम-लक्ष्मण और सीता अपने मार्ग पर आगे बढे| वन में एक साथ
चलते हुए तीनो ऐसे लग रहे थे – तुलसी कहते हैं कि -
उभय बीच श्री
सोहई कैसी, ब्रह्म जीव बिच माया जैसी|
चलते हुए राम और लक्ष्मण के बीच सीता को देख कर ऐसा लग रहा
था जैसे ब्रह्म (राम) और मनुष्य या जीव (लक्ष्मण) के बीच माया (सीता) ही चल रहे
हों| इस एक उपमा में ही तुलसीदास ने राम को ईश्वर के अवतार, और साथ ही लक्ष्मण को
मनुष्य के रूप में तथा दोनों के बीच में एक परदे की तरह सीता को माया के रूप में
दर्शा दिया है| यह एक गूढ़ उपमा है|
अरण्यकाण्ड
कथासूत्र : ३
अत्रि मुनि से विदा लेकर जब श्रीराम आगे बढे तो सघन वन में
उन्हें विराध राक्षस मिला जिसे देखते ही उन्होंने मार गिराया| कुछ और आगे जाने पर
उन्हें शरभंग मुनि मिले जो मरणासन्न दीखे| श्रीराम को सम्मुख देखकर वे बहुत
प्रसन्न हुए और तत्काल अपने को योगाग्नि में जलाकर परमपद को प्राप्त हो गए| वहां
इकट्ठे अन्य मुनिगण शरभंग मुनि की प्रभु राम के सम्मुख ही सद्गति प्राप्त करने से
अत्यंत प्रसन्न हुए, क्योंकि श्रीराम को सामने देखते हुए शरीर-त्याग करने से बढ़ कर
कोई और सौभाग्य हो ही नहीं सकता| श्रीराम जब आगे चले तो मुनिगण भी उनके साथ-साथ
चले| थोड़ी ही दूर आगे जाने पर उन्होंने एक स्थान पर हड्डियों का ढेर पड़ा देखा|
-‘अस्थि-समूह देखि रघुराया, पूछी मुनिन्ह लागी अति दाया|’ तब साथ चल रहे मुनियों
ने बताया कि ये राक्षसों द्वारा खाए हुए ऋषि-मुनियों की हड्डियाँ हैं| यह सुनकर –
‘सुनि रघुवीर नयन जल छाये’| और तब –
निसिचर हीन करऊँ महि भुज उठाई पन कीन्ह|
सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाई जाई सुख दीन्ह |९|
आगे जाने पर श्रीराम ने देखा अगस्त्य मुनि के शिष्य
सुतीक्ष्णजी उन्हें आता देखकर प्रेम-विभोर होकर आँखें मूद लीं थीं, और तब श्रीराम
ने उन्हें अपने गले से लगा लिया| आनंदित होकर सुतीक्ष्णजी श्रीराम की वंदना करने
लगे – ‘निर्गुण सगुन विषम सम रूपं, ज्ञान गिरा गोतीतमनूपम’| अर्थात, श्रीराम अपने
इस रूप में निर्गुण और सगुण – दोनों रूपों
में सम्मुख हैं, जिसको ज्ञान और वाणीं दोनों से नहीं बखाना जा सकता| यहाँ पर तुलसी
यह दर्शाते हैं कि सगुण मानव रूप में भी देखे जानेवाले राम उतने ही निर्गुण, उतने
ही अव्यक्त, उतने ही अज्ञेय हैं| वहां से आगे बढ़ने पर श्रीराम अगस्त्य ऋषि से
मिले| सुतीक्ष्णजी भी श्रीराम के साथ हो लिए थे| अगस्त्य ऋषि ने चरण पर झुके दोनों
भाइयों को ह्रदय से लगा लिया|वहां उपस्थित सभी मुनिगण श्रीराम आदि को देख कर परम
हर्षित हो गए| तब श्रीराम ने अगस्त्य ऋषि से वह मन्त्र देने को कहा जिसके बल पर वे
दुष्ट राक्षसों को मार सकें| अगस्त्य ऋषि
ने तब कहा कि प्रभु आप तो सर्वग्य हैं ही’ मेरी पार्थना है कि आप अब आगे दंडक वन
में पंचवटी नामक स्थान में चल कर गोदावरी नदी के निकट अपनी कुटिया बनाकर वास करें|
वहां श्रीराम की भेंट गृद्धराज जटायु से हुई और तब वहीँ गोदावरी नदी के निकट अपनी
पर्णकुटी बनाकर श्रीराम-सीता और लक्ष्मण रहने लगे|
गीधराज सें भेंट भई बहु बिधि प्रीति बढाई|
गोदावरी निकट प्रभु रहे परं गृह छाई | १३|
अरण्यकाण्ड
कथासूत्र : ४
तुलसी कहते हैं – ‘जब ते राम कीन्ह तहं बासा| सुखी भए मुनि
बीती त्रासा|’ वहां सुख से रहते हुए श्रीराम बराबर लक्ष्मण को ज्ञान और वैराग्य की
बातें समझाते रहते थे| यहाँ तुलसी ने श्रीराम के मुख से ज्ञानयोग और भक्तियोग की
गूढ़ बातें लक्ष्मण को बताईं हैं| मैं और मेरा, तू और तेरा – यही माया है जो मनुष्य
को घेर लेती है| और सभी में ईश्वर के दर्शन करना ही ज्ञान है| भक्ति वह सुगम मार्ग
है जिस पर चलते हुए मनुष्य ईश्वर को सहज ही प्राप्त कर लेता है|
मम गुन
गावत पुलक सरीरा, गदगद गिरा नयन बह नीरा|
काम आदि मद दंभ न जाकें, तात निरंतर बस मैं ताकें| १५.६|
यहीं पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा एक दिन घूमती हुई
श्रीराम की कुटिया के पास आ गयी| दो अति सुन्दर युवकों को देखकर प्रेम-मोहित हो
गयी और सुन्दर रूप बनाकर श्रीराम के पास गयी और कहा – ‘ऐ सुन्दर युवक, देख मुझ
अपूर्व सुंदरी को, और चल हम एक-दुसरे से विवाह रचावें’| दोनों भाई उस राक्छ्सी का
कपट देख कर हंसने| क्रुद्ध होकर जब शूर्पणखा ने अपना असली राक्छ्सी रूप दिखाया तब
तुरत लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट डाले| शूर्पणखा रोती-चिक्कारती अपने भाई खर और
दूषण के पास गयी| लहुलुहान शूर्पणखा को देख कर खर और दूषण क्रोधित होकर अपनी
राक्छ्सी सेना के साथ श्रीराम पर आक्रमण करने चला, लेकिन श्रीराम ने वीरतापूर्वक
उनसब को मार डाला| जब शूर्पणखा ने यह देखा तो वह तुरत रावण के पास गयी और कहने लगी
– तुम्हारे रहते हुए मेरी ऐसी दुर्दशा हो
गयी और तुम -‘करसि पान सोवसि दिन राती, सुधि नहीं तव सिर पर आराती’? शूर्पणखा की
ऐसी दुर्दशा देखकर और अपने भाइयों – खर, दूषण और त्रिशिरा आदि राक्छ्सों की मृत्यु
का हाल सुन कर रावण क्रोधित तो हुआ ही उसे बड़ी चिंता भी होने लगी| उसे स्पष्ट हो
गया कि अवश्य ही राम और लक्ष्मण साधारण मनुष्य नहीं हैं, ईश्वर के अवतार हैं -
‘सुर रंजन भंजन महि भारा, जों भगवंत लीन्ह अवतारा’| तभी उसके मन में यह कुटिल
विचार आया कि मुझे इन दो भाइयों को सबक सिखाने के लिए चलना चाहिए और सीता को ही
कपटपूर्वक हर कर ले आना चाहिए| यह सोचकर वह तुरत मारीच राक्छस के पास सहायता लेने
चला|
चला अकेल
जान चढ़ी तहवाँ, बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ|२२.४|
||अरण्यकाण्ड : कथासूत्र ५ -७ अगली श्रंखला में||
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२०१७
२४ अप्रिल : अरण्य कांड (कथा-सूत्र
१ – ४)
१७ अप्रिल : अयोध्या काण्ड
(कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रिल : अयोध्या काण्ड
(कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रिल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय
८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय
१ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती (
परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२,
उसके नीचे १-५)