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Monday, April 24, 2017

अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : १



रामचरित मानस हिन्दू धर्म और संस्कृति की महत्ता को प्रतिपादित करने वाला ग्रन्थ है| रामकथा वास्तव में मानव-जीवन की ही कथा है, जिसमे यह दर्शाया गया है कि मानव जीवन में अच्छाइयां और बुराईयाँ क्या हैं, और एक अच्छा, सार्थक और आदर्श जीवन कैसा होना चाहिए| देवता अच्छाईयों के प्रतीक हैं और राक्षस अथवा असुर बुराईयों के प्रतीक हैं| जहाँ राम सद्गुणों के मूल के रूप में दिखाये गए हैं वहीं रावण को सभी दुर्गुणों के मूल के रूप में प्रस्तुत किया गया है| रामलीला में भी गाँव-गवंई के लोगों को प्रतीक-रूप में यही बात समझाई जाती है| ध्यान देने की बात है कि तुलसीदास ने बहुसंख्यक ग्रामीण लोगों के लिए ही उनके समझने-गाने और याद रखने लायक भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की है जिसको रामलीला में भी दर्शाया जाता है| शहर के आज के लोगों को बहुत सी बातें इस कथा में बेतुकी भी लग सकती हैं, क्योंकि इसमें ४०० साल पुराने समाज में प्रचलित सामाजिक रहन-सहन का ही चित्रण है,लेकिन यदि उनकी दृष्टि हमारी मूल ग्रामीण संस्कृति के प्रति उदार होगी तो वे भी देखेंगे कि इसमें जीवन के शाश्वत सत्यों, मूल्यों और आदर्शों का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है|

अरण्य का अर्थ वन या जंगल होता है| अयोध्या से राम पहले चित्रकूट आये जो आज के इलाहबाद के पास है| उसके बाद वहां कुछ समय बिताने के बाद यह सोच कर कि अब वहां भी बहुत से लोग उनका रहना जान कर आयें-जायेंगे, उन्होंने और घने वन-प्रदेश में जाकर रहने का निश्चय किया| अरण्य काण्ड में राम चित्रकूट से आगे बढ़ कर पंचवटी-प्रदेश में जाकर रहने लगे| यह स्थान नासिक के समीप गोदावरी के तट पर स्थित है|

अरण्य काण्ड का प्रारंभ भी भगवान शिव और श्री रामचन्द्रजी की वंदना से होता है| प्रारंभ में एक छोटी-सी कथा इंद्र के पुत्र जयंत की है जो यह दर्शाती है कि जो राम की भक्ति करता है वह तो जीवन-मुक्त हो जाता है, लेकिन जो उनकी अवज्ञा या उनका विरोध करता है वह जीवन में मोह-ग्रस्त होकर विनाश को प्राप्त होता है| जयंत ने घमंड में आकर राम की शक्ति-परीक्षा लेना चाहा| एकबार श्रीराम सीता के साथ बैठे प्रेमालाप कर रहे थे और फूलों के हार से उनका श्रृंगार कर रहे थे | उसी समय जयंत ने कौवे का रूप बनाकर चुपचाप जाकर सीता के चरणों में अपनी चोंच से खरोंच लगा दी और उड़कर भागने लगा| श्रीराम ने तुरत धनुष पर एक सींक चढ़ाकर उसको मारा| भयभीत जयंत तीनों लोकों में व्याकुल होकर भागता फिरा लेकिन कहीं उसको शरण नहीं मिली| तब नारदजी ने उसको राम की शरण में ही जाने को कहा| त्राहि-त्राहि कहता हुआ जयंत श्रीराम के चरणों में लिपट कर अभय मांगने लगा| राम ने उसको इतना दंड दिया कि उसको एक आँख का काना बना कर अभयदान दे दिया| यह छोटी-सी कथा यहीं समाप्त हो जाती है जिसका अर्थ यही है कि राम से द्वेष-भाव रखने वाला दुःख का भागी होता है| तुलसी कहते हैं –

        अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह,
        ता सन आई कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह |१| 

         

अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : २
इंद्र के पुत्र जयंत की इस छोटी-सी प्रतीकात्मक कथा से अरण्य काण्ड का प्रारम्भ करने से तुलसीदास का अभिप्राय एक ओर तो राम के मानवीय रूप को दिखाना है, और दूसरी ओर यह बताना है कि प्रमाद में आकर ईश्वर की अवज्ञा करनेवाले को दंड भी अवश्य मिलता है| और यह भी कि पश्चाताप करने पर ईश्वर हल्का दंड देकर क्षमा भी कर देते हैं|

रामचरित मानस का दो-तिहाई भाग बालकाण्ड और अयोध्या कांड में है, और शेष पांचो काण्ड  – अरण्य, किष्किन्धा, सुन्दर, लंका और उत्तर काण्ड बाकी के केवल तिहाई भाग में ही समाप्त होते हैं| अर्थात, अरण्य काण्ड से रामकथा  का प्रवाह सहसा तेज हो जाता है|

कुछ समय चित्रकूट में व्यतीत करने के बाद श्रीराम ने कहीं और निर्जन प्रदेश में चलकर रहने का निर्णय किया | आगे चलते हुए वे अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे| श्रीराम-सीता और लक्ष्मण को देखते ही जैसे अत्रि मुनि प्रेम-विभोर हो गए| - ‘देखि राम छबि नयन जुड़ाने, सादर निज आश्रम तब आने|’ यहाँ पर श्रीराम के प्रति  एक अत्यंत सुन्दर और सरल संस्कृत वंदना अत्रि मुनि ने गाई है – ‘ नमामि भक्त वत्सलं,कृपालु शील कोमलं|’ पूरे मानस में ऐसी लगभग २०-२२ अत्यंत सुन्दर और सरल  वन्दनाएँ हैं | भजन-कीर्तन की तरह इन वन्दनाओं को पूजा या शयन के समय तन्मय होकर गाने से बड़ी शांति मिलती है|

इसी समय सीता भी अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया से चरणस्पर्श कर मिलीं| अनसूया ने सीता को प्रेम से बैठा कर श्रेष्ठ नारी-धर्म पर बहुत सारे सदुपदेश दिए| कहा कि –‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी,आपदकाल परिखिअहिं चारी|’ विपत्ति की घडी में ही धैर्य्य, धर्म, मित्र और नारी की सही पहचान होती है| नारी के पतिव्रत-धर्म पर भी अनसूया ने सीता को बहुत सारा उपदेश दिया| फिर ऋषि-दम्पति के चरणों में सिर नवाकर राम-लक्ष्मण और सीता अपने मार्ग पर आगे बढे| वन में एक साथ चलते हुए तीनो ऐसे लग रहे थे – तुलसी कहते हैं कि -
     उभय बीच श्री सोहई कैसी, ब्रह्म जीव बिच माया जैसी|
चलते हुए राम और लक्ष्मण के बीच सीता को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे ब्रह्म (राम) और मनुष्य या जीव (लक्ष्मण) के बीच माया (सीता) ही चल रहे हों| इस एक उपमा में ही तुलसीदास ने राम को ईश्वर के अवतार, और साथ ही लक्ष्मण को मनुष्य के रूप में तथा दोनों के बीच में एक परदे की तरह सीता को माया के रूप में दर्शा दिया है| यह एक गूढ़ उपमा है|              
         


अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : ३

अत्रि मुनि से विदा लेकर जब श्रीराम आगे बढे तो सघन वन में उन्हें विराध राक्षस मिला जिसे देखते ही उन्होंने मार गिराया| कुछ और आगे जाने पर उन्हें शरभंग मुनि मिले जो मरणासन्न दीखे| श्रीराम को सम्मुख देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और तत्काल अपने को योगाग्नि में जलाकर परमपद को प्राप्त हो गए| वहां इकट्ठे अन्य मुनिगण शरभंग मुनि की प्रभु राम के सम्मुख ही सद्गति प्राप्त करने से अत्यंत प्रसन्न हुए, क्योंकि श्रीराम को सामने देखते हुए शरीर-त्याग करने से बढ़ कर कोई और सौभाग्य हो ही नहीं सकता| श्रीराम जब आगे चले तो मुनिगण भी उनके साथ-साथ चले| थोड़ी ही दूर आगे जाने पर उन्होंने एक स्थान पर हड्डियों का ढेर पड़ा देखा| -‘अस्थि-समूह देखि रघुराया, पूछी मुनिन्ह लागी अति दाया|’ तब साथ चल रहे मुनियों ने बताया कि ये राक्षसों द्वारा खाए हुए ऋषि-मुनियों की हड्डियाँ हैं| यह सुनकर – ‘सुनि रघुवीर नयन जल छाये’| और तब –

        निसिचर हीन करऊँ महि भुज उठाई पन कीन्ह|
        सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाई जाई सुख दीन्ह |९|

आगे जाने पर श्रीराम ने देखा अगस्त्य मुनि के शिष्य सुतीक्ष्णजी उन्हें आता देखकर प्रेम-विभोर होकर आँखें मूद लीं थीं, और तब श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगा लिया| आनंदित होकर सुतीक्ष्णजी श्रीराम की वंदना करने लगे – ‘निर्गुण सगुन विषम सम रूपं, ज्ञान गिरा गोतीतमनूपम’| अर्थात, श्रीराम अपने इस रूप  में निर्गुण और सगुण – दोनों रूपों में सम्मुख हैं, जिसको ज्ञान और वाणीं दोनों से नहीं बखाना जा सकता| यहाँ पर तुलसी यह दर्शाते हैं कि सगुण मानव रूप में भी देखे जानेवाले राम उतने ही निर्गुण, उतने ही अव्यक्त, उतने ही अज्ञेय हैं| वहां से आगे बढ़ने पर श्रीराम अगस्त्य ऋषि से मिले| सुतीक्ष्णजी भी श्रीराम के साथ हो लिए थे| अगस्त्य ऋषि ने चरण पर झुके दोनों भाइयों को ह्रदय से लगा लिया|वहां उपस्थित सभी मुनिगण श्रीराम आदि को देख कर परम हर्षित हो गए| तब श्रीराम ने अगस्त्य ऋषि से वह मन्त्र देने को कहा जिसके बल पर वे दुष्ट राक्षसों  को मार सकें| अगस्त्य ऋषि ने तब कहा कि प्रभु आप तो सर्वग्य हैं ही’ मेरी पार्थना है कि आप अब आगे दंडक वन में पंचवटी नामक स्थान में चल कर गोदावरी नदी के निकट अपनी कुटिया बनाकर वास करें| वहां श्रीराम की भेंट गृद्धराज जटायु से हुई और तब वहीँ गोदावरी नदी के निकट अपनी पर्णकुटी बनाकर श्रीराम-सीता और लक्ष्मण रहने लगे|
             गीधराज सें भेंट भई बहु बिधि प्रीति बढाई|
         गोदावरी निकट प्रभु रहे परं गृह छाई | १३|          
            
           
अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : ४

तुलसी कहते हैं – ‘जब ते राम कीन्ह तहं बासा| सुखी भए मुनि बीती त्रासा|’ वहां सुख से रहते हुए श्रीराम बराबर लक्ष्मण को ज्ञान और वैराग्य की बातें समझाते रहते थे| यहाँ तुलसी ने श्रीराम के मुख से ज्ञानयोग और भक्तियोग की गूढ़ बातें लक्ष्मण को बताईं हैं| मैं और मेरा, तू और तेरा – यही माया है जो मनुष्य को घेर लेती है| और सभी में ईश्वर के दर्शन करना ही ज्ञान है| भक्ति वह सुगम मार्ग है जिस पर चलते हुए मनुष्य ईश्वर को सहज ही प्राप्त कर लेता है|

        मम गुन गावत पुलक सरीरा, गदगद गिरा नयन बह नीरा|
        काम आदि मद दंभ न जाकें, तात निरंतर बस मैं ताकें| १५.६|

यहीं पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा एक दिन घूमती हुई श्रीराम की कुटिया के पास आ गयी| दो अति सुन्दर युवकों को देखकर प्रेम-मोहित हो गयी और सुन्दर रूप बनाकर श्रीराम के पास गयी और कहा – ‘ऐ सुन्दर युवक, देख मुझ अपूर्व सुंदरी को, और चल हम एक-दुसरे से विवाह रचावें’| दोनों भाई उस राक्छ्सी का कपट देख कर हंसने| क्रुद्ध होकर जब शूर्पणखा ने अपना असली राक्छ्सी रूप दिखाया तब तुरत लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट डाले| शूर्पणखा रोती-चिक्कारती अपने भाई खर और दूषण के पास गयी| लहुलुहान शूर्पणखा को देख कर खर और दूषण क्रोधित होकर अपनी राक्छ्सी सेना के साथ श्रीराम पर आक्रमण करने चला, लेकिन श्रीराम ने वीरतापूर्वक उनसब को मार डाला| जब शूर्पणखा ने यह देखा तो वह तुरत रावण के पास गयी और कहने लगी – तुम्हारे रहते हुए मेरी ऐसी दुर्दशा  हो गयी और तुम -‘करसि पान सोवसि दिन राती, सुधि नहीं तव सिर पर आराती’? शूर्पणखा की ऐसी दुर्दशा देखकर और अपने भाइयों – खर, दूषण और त्रिशिरा आदि राक्छ्सों की मृत्यु का हाल सुन कर रावण क्रोधित तो हुआ ही उसे बड़ी चिंता भी होने लगी| उसे स्पष्ट हो गया कि अवश्य ही राम और लक्ष्मण साधारण मनुष्य नहीं हैं, ईश्वर के अवतार हैं - ‘सुर रंजन भंजन महि भारा, जों भगवंत लीन्ह अवतारा’| तभी उसके मन में यह कुटिल विचार आया कि मुझे इन दो भाइयों को सबक सिखाने के लिए चलना चाहिए और सीता को ही कपटपूर्वक हर कर ले आना चाहिए| यह सोचकर वह तुरत मारीच राक्छस के पास सहायता लेने चला|

     चला अकेल जान चढ़ी तहवाँ, बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ|२२.४|       

           ||अरण्यकाण्ड : कथासूत्र ५ -७ अगली श्रंखला में||



वागीश्वरी ब्लॉग के पहले के पोस्ट पढ़ें 

२०१७



२४ अप्रिल : अरण्य कांड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रिल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रिल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रिल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)


Monday, April 17, 2017



अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

वाल्मीकि ऋषि ने श्रीराम से कहा - 

     चित्रकूट गिरि करहु निवासू, तहं तुम्हार सब भांति सुपासू|१३१.२|

आपके स्थायी निवास के लिए यह स्थान परम रमणीक है | आप अपनी कुटिया यहीं बनावें और चित्रकूट को अपने स्थायी निवास का गौरव प्रदान करने की कृपा करें| लक्ष्मणजी को भी यह स्थान अत्यन्य मनोरम लगा और तब सभी देवगण ने  कोल-भील के रूप में वहां आकर विश्वकर्माजी के साथ दो सुन्दर कुटियों का निर्माण किया  - एक बड़ी, और एक सुन्दर छोटी-सी लक्ष्मणजी के लिए | जब उन कुटियों में वहां श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ रहने लगे तब आस-पास रहने वाले ऋषि-मुनि भी निर्भय होकर अपना जप-तप करने लगे | उस वन-प्रांतर में रहने वाले कोल-भील भी आकर श्रीराम-सीता की सेवा करने लगे |

अब कथा को अयोध्या की ओर मोड़ते हुए तुलसीदासजी कहते हैं 

     कहेउँ राम बन गमन सुहावा, सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा |१४१.२|
                                     
श्रीराम के जाने के बाद सुमंत्रजी उदास और चिंतित अयोध्या लौट गए | पर अयोध्या तो शोक में डूबी थी. राजमहल अँधेरे पड़े थे | रनिवास सूना-सूना था | राजा दशरथ और सभी रानियाँ जहाँ-तहां उदास पड़ी थीं | सुमंत्र को देखते ही राजा दशरथ  बोल उठे – ‘राम कुसल कहू सखा सनेही, कह रघुनाथ लखनु बैदेही’ | सुमंत्र ने उन्हें ढाढस देते हुए समझाया की श्री राम का पहला निवास तो तमसा के तट पर हुआ, लेकिन रात में वे श्रृंगवेरपुर (आज का सिंगरौर) बढ़ गए | और फिर वहीँ से प्रातः काल स्नान-पूजा करके, जटा-जूट धारण करके निषाद की नौका से गंगा पार करके आगे बढ़ गए | निरुपाय होकर वहां से मुझको लौट आना पड़ा | सुमंत्र से इतना सुनते ही राजा कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े और सभी रानियाँ विलाप  करने लगीं | थोडा होश आने पर राजा दशरथ को वह प्रसंग याद हो आया जब उन्होंने भूल से शब्द-वेधी वाण से श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता की हत्या कर दी थी जिसके शाप-स्वरुप आज वे स्वयं मृत्यु के द्वार पर खड़े थे | राजा दशरथ अधिक देर तक यह शोक नहीं झेल सके 

     राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम |
     तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयऊ सुरधाम |१५५|   

रानियाँ पछाड़ खा-खाकर रोने लगीं | सारी अयोध्या में हाहाकार मच गया | सभी लोग कैकेयी को कोसने लगे कि उसीने यह दुर्दिन दिखाया है | तब वशिष्ठ मुनि ने सबको सांत्वना दी और राजा के पार्थिव शरीर को नाव में तेल भरवाकर उसमें रखवाया ताकि भरत-शत्रुघ्न के ननिहाल से आने तक वह सुरक्षित रह सके | भरत-शत्रुघ्न को ननिहाल से बुलाने के लिये दूत भेजे गए | शोक में डूबे रोते-बिलखते भरत जब अयोध्या आये तब वहां कैकेयी आरती सजा कर भरत का स्वागत करने लगीं| लेकिन जैसे ही उनको सारा हाल मालूम हुआ 

     भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु |
     हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु |१६०|

सारे अनर्थ के मूल वे स्वयं हैं, यह जान कर तो वे एकदम स्तंभित-मौन रह गए| दुखी होकर वे अपनी माता कैकेयी को डांटने-कोसने लगे कि एक पापिनी होकर तुमने तो कुल का नाश ही कर दिया| भरत का आना सुनकर तभी वहां मंथरा इठलाती हुई आई तब क्रोध में शत्रुघ्न ने उसको खूब मारा-पीटा| रात वैसे ही रोते-गाते बीती और सुबह हुई तब गुरुवर वशिष्ठजी वामदेव ऋषि के साथ आये और सभी सभासदों के साथ भरत को बहुत समझाने-बुझाने लगे|

     तात हृदयं धीरज धरहु करहु जो अवसर आजु|
     उठे भरत गुरु बचन सुनि कारन कहेउ सब काजु|१६९|

तब राजा दशरथ के पार्थिव शरीर का पवित्रता के साथ सरयू के तट पर अंतिम संस्कार किया गया| उसके बाद कुछ दिन तक अशौच मनाया गया. उस बीच सारी अयोध्या में राज्य-शोक मनाया जाता रहा      


अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

पिता की मृत्यु और राम-सीता-लक्ष्मण के वन-गमन से भरत और शत्रुघ्न  दोनों भाई अत्यंत शोकाकुल थे, लेकिन गुरु वशिष्ठजी और सभासदों के बहुत समझाने-बुझाने से उनका चित्त किसी तरह शांत होने लगा था | गुरु वशिष्ठजी भरत से  बोले - हे भरत! अब तुम मेरे हितकर बचन सुनो| तुम्हारे पिता तो अब देवलोक को चले गए | अब शोक-संताप छोड़ कर पिता की आज्ञा के अनुसार प्रजा का पालन करना ही तुम्हारा परम धर्म है|

     अवसि नरेस बचन फुर करहू,पालहु प्रजा सोकु परिहरहू|...
     करहु राजु परिहरहु गलानी, मानहु मोर बचन हित जानी |१७४.-|

गुरुवर, मंत्रिगण और कौसल्या आदि के बहुत समझाने पर भरत बोले कि आप सब मेरे गुरुजन और हितैषी हैं और आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है, किन्तु – ‘एकइ उर बस दुसह दवारी, मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी’ | मेरी एक ही प्रार्थना है कि कल ही हम सब लोग –‘ प्रातकाल चलिहऊँ प्रभु पाहीं’, और उन्हें मनावें जिससे कि – ‘आवहिं बहुरि राम रजधानी’| अत्यंत विकल होकर भरत ने कहा 

     आपनि दारुन दीनता कहऊँ सबहि सिरु नाइ |
     देखें बिन रघुनाथ पद जिय के जरन न जाइ |१८२|

भरत के सुन्दर विचार सबको अच्छे लगे और राम के प्रति उनके अविरल प्रेम की सभी सराहना करने लगे| - ‘भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे, राम सनेह सुधा जनु  पागे’| सबका यही विचार हुआ कि सभी लोग भरत के साथ चलें और राम को सीता और लक्ष्मण के साथ वन से मनाकर लौटा लाने का प्रयास करें| भरत ने यह भी कहा  - कहेउ लेहु सब तिलक समाजू, बनहिं देब मुनि रामहि राजू’| श्रीराम का राजतिलक वशिष्ठजी वन में ही संपन्न करेंगे और तब राजा राम अयोध्या लौटेंगे| अगले ही दिन प्रातःकाल सबलोग साजो-सामान के साथ चित्रकूट की ओर चल पड़े| रात में पड़ाव सई नदी के तीर पर विश्राम करके अगले दिन भरतजी सदलबल श्रृंगवेरपुर पहुँच गए| वहां भरत को एक बड़ी सेना के साथ आते देखकर निषादराज को संदेह हुआ कि भरत श्रीराम से युद्ध करने आ रहे हैं| उसने अपने सभी कोल-भील लोगों को भरत की सेना के साथ युद्ध करने के लिए जुटा लिया| लेकिन फिर बड़े-बूढों की सलाह पर वह पहले अकेले भरत से मिलने गया| श्रीराम के बारे सब कुछ सुन कर रोते हुए भरत ने निषाद को गले से लगा लिया – ‘तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता, मिलत पुलक परिपूरित गाता’| भरत का सहज स्नेह  देख कर निषाद भी प्रेम-मग्न हो गया| उसने सब लोगों के ठहरने की वहाँ सुन्दर व्यवस्था कराई | फिर निषाद ने भरत को वह स्थान भी दिखाया जहां पवित्र अशोक वृक्ष के नीचे श्रीराम-सीता ने विश्राम किया था| वह स्थान देख कर भरत और सभी लोग विह्वल हो गए| फिर रात भर विश्राम करने के बाद दूसरे दिन प्रातः काल सब लोगों ने नाव से नदी पार किया और तीसरे पहर प्रयाग पहुंचे 

     भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग |
     कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग |२०३|


    
अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

सदलबल प्रयाग पहुँच कर भरतजी ने त्रिवेणी-संगम पर स्नान और पूजा-कर्म संपन्न किया | फिर सबके साथ वे भरद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचे| भरद्वाज मुनि ने हर्षित होकर उनका स्वागत करने के बाद उनको समझाते हुए शोक नहीं करने को कहा और कहा कि यह सब कुछ पूर्व-निश्चित विधान के अनुसार ही हो रहा है | तुम्हारे पिता ने तुमको प्रजा-पालन का आदेश दिया और श्रीराम को वन जाकर ऋषि-मुनियों के तप और यज्ञ-कर्मों में सुरक्षा प्रदान करने की आज्ञा देकर उचित ही किया | और राम के मन में भी तुम्हारे प्रति अगाध प्रेम है | राम से मिलने और उन्हें मनाने जाने का तुम्हारा यह प्रयास भी अत्यंत सराहनीय है | भरद्वाज मुनि की बातों से भरत को बड़ा संतोष हुआ, परन्तु उन्होंने कहा कि उनके ह्रदय में इसी बात से बड़ा संताप हो रहा है कि इस घनघोर वन-प्रांतर में श्रीराम सीता और लक्ष्मण को कितना कष्ट हो रहा होगा | किसी प्रकार श्रीराम अयोध्या लौट आवें तो सभी लोग सुखी हो जायेंगे | भरद्वाज मुनि ने तब सभी लोगों को वहीं रात-भर विश्राम करने को कहा और दूसरे दिन प्रातःकाल फिर स्नानादि और पूजन के पश्चात सबको चित्रकूट की ओर विदा किया | इधर भरत के प्रेम और उनके द्वारा श्रीराम को लौटा लाने के प्रयास को देख कर इंद्र को चिंता होने लगी कि कहीं भरत श्रीराम को लौटा ले आये तो असुरों के नाश का देवताओं का सारा खेल बिगड़ जायेगा | लेकिन उनके गुरुवर वृह्स्पतिजी ने उनकी शंका को निराधार बताते हुए कहा कि श्रीराम लोकहित के लिए ही वनवास कर रहे हैं, और देवताओं का सारा कार्य उनके द्वारा संपन्न होकर रहेगा | इस बीच भरतजी अपने दल के साथ यमुना-तट पहुँच गए और उस दिन वहीं ठहर कर दूसरे दिन फिर आगे चले | अब वे लोग मनोहारी पर्वत कामदगिरी के पास पहुँच रहे थे जहां पयस्विनी मंदाकिनी नदी के तट पर कुटिया में श्रीराम का निवास था | उस मार्ग में एक रात और बिता कर फिर वे लोग दूसरे दिन आगे की ओर बढे | इधर रात में अपनी कुटिया में सीता को स्वप्न में आभास हुआ कि शोक-संतप्त भरतजी उनलोगों से मिलने आये हैं | सीता के स्वप्न की बात जान कर लक्ष्मण के मन में कुछ संदेह उत्पन्न हो गया कि कहीं भरत किसी बुरी मंशा से तो नहीं आने वाले हैं | लेकिन श्रीराम ने उन्हें समझाया कि – ‘लखन तुम्हार सपथ पितु आना, सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना’ – पिता और तुम्हारी शपथ लेकर मैं कह सकता हूँ कि भरत के समान सुबंधु दूसरा और नहीं हो सकता | इधर भरतजी सब लोगों को मन्दाकिनी के तट पर टिका कर स्वयं शत्रुघ्नजी को लेकर श्रीराम से मिलने चले | श्रीराम की कुटिया के चारों ओर का वातावारण अत्यंत मनोहारी था | श्रीराम की वह पर्ण-कुटी मंदाकिनी नदी के किनारे एक अत्यंत विशाल वट-वृक्ष की छाया में शोभित हो रही थी | वह सुन्दर कुटिया सभी ओर ऋषि-मुनियों के आश्रमों से घिरी हुई थी | इतना सुखद-सुन्दर वातावरण देख कर और श्रीराम से मिलने का मन में उल्लास लिए भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई अत्यधिक उल्लसित होकर उसी दिशा में आगे बढ़ने लगे | वहां दूर से ही भरत ने देखा 
    जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय राम सुजान|
    सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान |२३७|

वनवास में राम ऋषि-मुनियों के सम्पर्क में हैं, उनकी पर्णकुटी के चारों ओर ऋषि-मुनियों के आश्रम हैं| वहां के शांत, रमणीय वातावरण में वे निरंतर वेद-पुराण और आध्यात्मिक विषयों के मनन-मंथन में लीन रहते हैं, तुलसी ने साभिप्राय  अयोध्याकाण्ड में इसका बहुत विस्तार से वर्णन किया है|

अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : 

भरत और शत्रुघ्न अपनी तीनों माताओं, गुरुवर वशिष्ठ और असंख्य अयोध्या-वासियों के साथ राम और सीता के आश्रम के पास खेमा डाल कर ठहर गए थे और पहले भरत और शत्रुघ्न निषाद के साथ राम की कुटिया में पहुंचे थे| भाइयों को वहां आया देख कर राम प्रेम-विभोर हो गए और सबको गले लगा लिया| फिर केवट से यह सुन कर कि पास ही गुरुवर वशिष्ठ और तीनों माताएं भी ठहरी हुई हैं राम तुरत वहां जा पहुंचे और सबसे पहले वशिष्ठजी और फिर तीनों माताओं के चरणस्पर्श किये| माताओं को उन्होंने बहुत समझाया कि यह सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही घटित हो रहा है|

     भेंटी रघुबर मातु सब करी प्रबोध परितोषु|
     अम्ब ईस आधीन जगु कहू न देईय दोषु | २४४|

किन्तु गुरुवर वशिष्ठ से पिता की मृत्यु की बात जानकार राम सहसा शोक में डूब गए| गुरुवर के बहुत समझाने के बाद राम ने फिर पिता के श्राद्धकर्म की सभी क्रियाएं पूरी कीं और जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए तब वशिष्ठजी ने राम से अब अयोध्या लौट चलने का निवेदन किया| उन्होंने एक विकल्प सुझाया कि राम सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौट कर राजकार्य संभालें और उनके स्थान पर भरत और शत्रुघ्न यहाँ वन में रहकर पिता के वचन को पूरा करें| गुरुवर की राय सुन कर भरत और शत्रुघ्न को जैसे मनोवांछित फल मिल गया| अपने प्रति भरत का प्रेम देख कर राम भी आत्मविभोर हो गए और वशिष्ठजी से बोले 

     नाथ सपथ पितु चरन दोहाई |भयऊ न भुअन भरत सम भाई||२५८.२|

भरत ने भी राम से बहुत विनती की और तरह-तरह से उनसे अयोध्या लौट जाने की प्रार्थना की, और कहा कि वे स्वयं शत्रुघ्न और लक्ष्मण के साथ  तीनो भाई  उनके बदले वन में रह जाएँगे, पर वे अयोध्या लौट जाएँ, क्योंकि सारी प्रजा उनके बिना व्याकुल होकर उनको वापस लेने यहाँ तक चली आई है| भरत के आर्त वचन सुन कर राम गहरे सोच में पड गए|

इसी समय जनकपुरी से राजा जनक के दूत यह समाचार लेकर आये कि राम के वनवास का हाल सुन कर राजा जनक भी सपत्नीक सदल-बल वहां आ पहुंचे हैं| इस प्रकार जैसे अयोध्या और जनकपुरी की सारी जनता ही वहां चित्रकूट के उस   जंगल में आ पहुंची थी, और सबकी एक ही इच्छा थी कि राम अयोध्या लौट कर वहां का राज-काज संभालें और भरत को युवराज का पद प्रदान करें| अयोध्या और जनकपुरी के जन-समुदाय के वहां एकत्र हो जाने से वह सारा वन-प्रांतर जैसे सभी परिजन-पुरजन का सुखद मिलन स्थल हो गया था, और इस सुखद संयोग का तुलसी अत्यंत विस्तार के साथ इस प्रसंग में सुन्दर वर्णन करते हैं |   
| कथा-सूत्र : १० अगले अंक में जारी |
  

अयोध्या काण्ड
कथा-सूत्र : १० 

तुलसीदास ने रामचरित मानस में राम और भरत के चित्रकूट में इस मिलन का जो वर्णन किया है उसका विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है| राम के प्रति भरत की भक्ति जैसे भक्ति-मार्ग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करती है| रामचरित मानस भक्ति-मार्ग का अनुसरण करने को ही श्रेष्ठ मानता है| जैसा फा. कामिल बुल्के ने लिखा है  तुलसी अपने अयोध्या कांड में भरत को आदर्श भक्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं और इस बात पर विशेष बल देते हैं कि राम, लक्ष्मण और सीता की अपेक्षा भरत अधिक सराहनीय हैं|

        लखन राम सिय कानन बसहीं|
        भरत भवन बसि तप तनु कसहीं||
        दोउ दिसि समुझी कहत सब लोगू|
        सब बिधि भरत सराहन जोगू||
फा. बुल्के का तात्पर्य यह है कि तुलसीदास के भक्तिमार्ग पर चलने वाले  अपना परलोक सुधारने के लिए इहलोक की उपेक्षा नहीं करते| भरत गृहस्थाश्रम में रहते हुए, अपने सभी कर्मों का विधिवत पालन करते हुए, भक्तिमार्ग का अनुसरण करते हैं| वास्तव में राम और भरत के चरित्र एक-दूसरे के अनुपूरक हैं| राम का चरित्र यदि आदर्श जीवन-धर्म में नैतिकता की स्थापना करता है तो भरत का चरित्र आदर्श भक्ति का दिग्दर्शन करता है| मानस में तुलसी ने राम और भरत के चरित्र के रूप में नैतिकता तथा  भगवद्भक्ति का अपूर्व समन्वय किया है|

इस समन्वय और सम्मिलन की झांकी ही यहाँ अयोध्याकाण्ड में इस स्थल पर  प्रस्तुत हुई है| भरत के आदर्श चरित्र को सराहते हुए ही राजा जनक रानी सुनयना से कहते हैं 

     सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि| भरत कथा भव बंध बिमोचिनी ||...
     भरत चरित कीरति करतूती|धरम सील गुन बिमल बिभूती|२८७.२,|...
     भरत अमित महिमा सुनु रानी| जानहिं राम न सकहिं बखानी|२८८.१|

आगे की कथा के अनुसार सभी लोगों ने वहां वन में कई दिन प्रवास किया| अंततः श्रीराम ने भरत को दिवंगत पिता की अंतिम आज्ञा की याद दिलाते हुए बहुत समझाया और अयोध्या वापस जाकर राज-काज संभालने को कहा| स्थिति को समझते हुए भरत ने राम की आज्ञा पालन करना ही श्रेयस्कर समझा और श्रीराम की दोनों चरण-पादुकाओं (खडाऊं) को लेकर सबके साथ अयोध्या लौट गए| वहां जाकर भरत ने दोनों खडाऊं को राज-सिंहासन पर रख कर राज्यकर्म का पालन प्रारम्भ किया और राम ही की तरह एक पर्णकुटी निकट के नन्दीग्राम में बनाकर वहीँ रहकर राज-काज चलाने लगे| अर्थात, एक ऋषि का जीवन जीते हुए भी मनुष्य राज्यकर्म का पूर्ण निर्वाह कर सकता है| इस प्रकार भरत का चरित्र यही  दर्शाता है कि गृहस्थ-धर्म का पूरी तरह निर्वाह करते हुए भी मनुष्य उससे निर्लिप्त रह सकता है और पूर्ण ईशभक्ति का जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है|
                |अयोध्याकाण्ड समाप्त|

इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)





       

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