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Wednesday, January 24, 2018



आ. शिवपूजन सहाय : पुण्य-स्मरण

गत २१ जनवरी को पटना में बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा आ. शिवपूजन सहाय की ५५ वीं पुण्य-तिथि का समारोह बिहार अभिलेखागार के सभागार में मनाया गया | उस अवसर पर मुख्य-वक्ता के रूप में दिया गया मेरा भाषण :


 आज मेरे पिता आ. शिवपूजन सहाय की ५५ वीं पुण्यतिथि है | उनका निधन २१ जनवरी १९६३ को ब्राह्म मुहूर्त में रात ३ बजे के लगभग पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में हथुआ वार्ड में हुआ था, जहाँ वे अपनी मधुमेह की बीमारी के कारण १६ जनवरी की शाम में अर्ध चेतनावस्था में मेरे अग्रज श्री आनंदमूर्ति द्वारा लाकर भरती कराये गए थे | मुझे मुंगेर में. जहाँ मैं कॉलेज में पढाता था, उसी शाम भैया का तार मिला और मैं १७ की सुबह-सवेरे भागा-भागा अस्पताल पहुंचा | लेकिन शाम में ही डॉक्टर की लापरवाही से उनको इन्सुलिन का अधिक डोज़ दिया गया था, और जब भैया बाबूजी की हालत डॉक्टर को बताने गए तो उसने तुरत इलाज करने के बजाय उनको चीनी या मिठाई खिलाने को कहा जो उस वक्त रात के १०-११ बजे भैया को कहीं नहीं मिली – वे अस्पताल से पीरबहोर तक ढूंढ कर निराश लौट आये, और तब तक मेरे पिता गहरे कोमा में जा चुके थे | मैंने सुबह पहुंचकर उनको बहुत पुकारा, पर उनकी आँखें उसके बाद अंत तक बंद ही रहीं | मैं दौड़-धूप में लगा, उमानाथ जी आदि को फोन किया, तब दोपहर तक सरकार में थोड़ी सुगबुगाहट हुई और एक मेडिकल टीम का गठन हुआ जिसमें डा. लाला सूरजनंदन की अध्यक्षता में -   डा. रघुनाथ शरण, डा. ए.के. सेन, डा. मधुसुदन दास आदि की देख-रेख में इलाज होने लगा, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और हालत दिन-दिन बिगड़ती गयी | बीमारी यूरिमिया बताई जा रही थी | फेफड़ों में कफ का जमाव बढ़ता गया |  मुझे याद है, बाबूजी के मुहं में एक ट्यूब  डाल कर बिजली मशीन से कफ निकालना पड़ता था, जो बाद में मैं ही करने लगा था | बेहोशी की हालत में भी कफ निकालते समय उनके चहरे पर पीड़ा की एक झलक आ जाती  थी | इसी गंभीर हालत में ५ दिन बाद, जब सूर्य उत्तरायण हुए, उनके महाप्रयाण का समय आया | अखबारों में पहले से तैयारी थी; सुबह ही उनके निधन का समाचार आ गया |

मुझे वह शव-यात्रा भी याद है | गोविन्द मित्र रोड से चल कर, जहाँ पुस्तक भंडार का ‘हिमालय’ उनका नमन कर रहा था, वह अंतिम यात्रा सम्मलेन भवन पहुंची जहां उन्होंने छपरा से आने के बाद जीवन के अंतिम वर्ष परिषद् और सम्मेलन की सेवा में बिताए थे | वहाँ से एक बड़ा जुलूस बन कर लोअर रोड से परिषद् भवन पहुंचा; फिर वहां से सैदपुर रोड से निकल कर अशोक राजपथ पर आया जहां से इंजीनीयरिंग कॉलेज, पटना साइंस कॉलेजऔर पटना कॉलेज का बड़ा विद्यार्थी-समूह जुलूस में शामिल होता गया, जिसमें तब तक लगभग ५०० लोग शामिल हो चुके थे, और तब वह जुलूस  गाँधी मैदान होता हुआ बांस घाट पहुंचा | मुझे याद है, दाह-संस्कार पूरा होते-होते ३-४ बज गए थे |

आज की पुण्य-तिथि के सन्दर्भ में यह विवरण प्रासंगिक था, और आपमें से बहुत सारे लोग इससे परिचित नहीं थे, इस लिए यह आँखों देखा हाल मैंने आपको बताया | बाबू जी की मृत्यु के बाद १९६३-६४ में ‘नई धारा’, ‘साहित्य’ और बहुत सारी  और पत्रिकाओं एवं  अखबारों के विशेषांक प्रकाशित हुए थे | उनमें से महत्त्वपूर्ण संस्मरणों को चुन कर उनका एक संकलन मैंने ‘हिंदी-भूषण शिवपूजन सहाय’  शीर्षक से सम्पादित किया था जो दिल्ली के किताब घर से प्रकाशित हुआ था |
लेकिन आज मैं अपने पिता के साहित्य-पक्ष की चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता | बल्कि मैं कुछ अन्य विषयों की चर्चा करूगा जो उनके व्यक्तिगत जीवन से और उनके जीवन के अंतिम २५ वर्षों से  सम्बद्ध हैं, और जो दिनानुदिन उनके साथ बीते मेरे प्रारम्भिक जीवन के २५ वर्षों  से भी सम्बद्ध हैं |

मेरा जन्म लहेरिया सराय में हुआ था जब मेरे पिता वहाँ सम्पादकीय विभाग में काम करते थे | १९३९ में वे वहां से छपरा, राजेंद्र कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर होकर चले आये | तब मैं लगभग ३-४ साल का था, जब १९४० में  मेरी माता का देहांत हो गया, और तभी से मैं एक मातृहीन बालक सदा पिता के अंग लगा रहा | मेरे पिता जब छपरा कॉलेज में प्रोफेसर थे तब वहां मेरे जीवन के प्रारम्भिक १०-१२ वर्ष बीते | उन दिनों कॉलेजों में लम्बी-लम्बी छुट्टियाँ हुआ करती थीं और बाबूजी के साथ हम चारों भाई-बहन, जिनमें अब दो ही रह गए हैं, अपने गाँव जाया करते थे | गाँव से बाबूजी का कितना लगाव था यह आप उनकी दो पुस्तकें – ‘देहाती दुनिया’ और ‘ग्राम-सुधार’ को  पढ़ कर जान सकते हैं |

मेरे लिए अभी उन स्मृतियों के विस्तार में जाने का समय नहीं है, यद्यपि यहाँ-वहाँ पत्रिकाओं में  इधर  मैं उन स्मृतियों के बारे में लिखता रहा हूँ | गाँव के अपने घर में बाबूजी ने अपने पिता-माता के नाम पर ‘वागीश्वरी पुस्तकालय’ और ‘राजकुमारी देवी वाचनालय’ की स्थापना  १९२१ में  राम नवमी के दिन की थी, जिसमें उन्होंने अपना सारा बहुमूल्य साहित्यिक संग्रह – पुस्तकें, पत्रिकाएं, पत्र-संग्रह, पांडुलिपियाँ, चित्र आदि सब सामग्री संजो कर रखी थी, जो बहुत वर्षों तक हमारे पुश्तैनी कच्चे मकान  के एक कमरे में रखी रही  | अंततः  पुस्तकालय का  पक्का भवन और घर का पक्का मकान १९५४ -५५ में मेरे सामने और मेरी ही देख-रेख में बनकर तैयार हुआ | छुट्टियों में हम जब भी गाँव जाते तो बाबूजी के साथ  हमारा ज्यादा समय इसी पुस्तकालय की सफाई और रख-रखाव में बीतता था | बाबूजी की मृत्यु के बाद, और अपनी नौकरी के दौरान, जब गाँव में पुस्तकालय की देख-रेख हमारे लिए कठिन हो गयी तो वहां की सारी सामग्री –पत्रिकाएं, पत्र, पांडुलिपियाँ,डायरी आदि  बाद में  हमने दिल्ली के नेहरु संग्रहालय में और सारी पुस्तकें – तकरीबन ५,००० पटना के गाँधी-संग्रहालय में दे दीं | ‘वागीश्वरी पुस्तकालय’ का वह पक्का भवन भी ५०-५५ साल के बाद   अब ढहने लगा है और इसी वर्ष उस स्थान पर, उसी पुश्तैनी मकान में जिसमें बाबूजी का जन्म हुआ था, आ.शि.स. स्मारक न्यास की ओर से उनका एक सुन्दर स्मारक बनने जा रहा है | हमारा यह गाँव ‘उनवांस’,  बक्सर से १५ किमी दखिन है, और अब वहाँ जाने के लिए मोटर की सुन्दर पक्की सड़क बन चुकी है | स्मारक बनाने की तैयारी के सिलसिले में ही पिछले महीने मैं अपने गाँव गया था |

यह वर्ष २०१७-१८ शिवपूजन सहाय का १२५ वाँ जयंती वर्ष है | आगामी ९ अगस्त, २०१८ को उनकी १२५ वीं जयंती का यह वर्ष पूरा होगा | साहित्य अकादमी और न्यास के संयुक्त प्रयास से आगामी मार्च में यह जयंती पटना में ही मनाई जाएगी | पिछले सितम्बर में भी साहित्य अकादमी ने मेरी अध्यक्षता में ‘हिंदी नव जागरण और शिवपूजन सहाय’ पर एक परिसंवाद आयोजित किया था, और आगामी फरवरी में काशी हिन्दू वि.वि. में भी राहुलजी और शिवजी पर ३ दिनों का एक सपाद्शती समारोह आयोजित है, जिसमें मुझको शामिल होना है |   
शिवजी की मृत्यु के बाद उनके शती-जयंती वर्ष १९९३ में हमने उनकी स्मृति में एक स्मारक न्यास की स्थापना की थी और पिछले इन पचास वर्षों में उनकी स्मृति को अमर बनाने में न्यास ने बहुत सारा महत्त्वपूर्ण काम किया है | इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है मेरे द्वारा संपादित - ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ का प्रकाशन जो १० खण्डों में २०११ में  प्रकाशित हुआ और इस वर्ष उसका एक पेपर बैक सस्ता संस्करण भी प्रकाशित हो गया है जो अब सर्व-सुलभ है | इसमें शिवजी - जो साहित्य जगत में  इसी नाम से जाने जाते थे – उनका सम्पूर्ण पूर्व-प्रकाशित,संगृहीत-असंगृहीत  साहित्य संकलित है | 

पहले ५ खण्डों में उनकी सभी प्रकाशित –अप्रकाशित, अपूर्ण पुस्तकें तथा विविध लेखन और अंतिम ५ खण्डों में डायरी २ खण्डों में और ३ खण्डों में उनका सम्पूर्ण साहित्यिक पत्राचार – जिन प्रकाशित  पत्रों की  संख्या चयन के बाद लगभग २,००० है | इन दसों खण्डों में शिव जी के जीवन की घटनाओं से सम्बद्ध और उनके समकालीन साहित्यकारों के २०० से ऊपर चित्र भी प्रकाशित हैं, जैसा संभवतः अब तक प्रकाशित किसी साहित्यिक ग्रंथावली में  उपलब्ध नहीं है | इस ‘समग्र’ में बहुत सारी संशोधित पांडुलिपियों, पुस्तकों के पाठों, महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के पत्रों आदि की  प्रतिकृतियाँ भी प्रकाशित  हैं | अपने ‘समग्र’- लोकार्पण भाषण में डा. नामवर सिंह ने कहा था –

इधर हिंदी में  बहुत सी ग्रंथावलियां निकली हैं, और संतोषप्रद उनमें से अधिकाँश हैं, पर कुछ ही हैं ऐसी हैं  जो इतने व्यवस्थित, सुसंपादित ढंग से निकली हैं, जिनमें यह ग्रंथावली  है | जितनी सामग्री है वह सारी  की सारी  और पूरी क्रमबद्धता के साथ रखी गयी है|  वास्तव में, सम्पादन कैसे किया जाता है यह आपको इस समग्र को पढ़ कर पता लगेगा कि कैसे और कितने वैज्ञानिक और व्यवस्थित ढंग से सम्पादन किया जाता है | जो आवश्यक है उसे कैसे और कहाँ दिया जाय – सारे तथ्यों को जांच करके, पड़ताल करके दिया गया है | कहाँ उनका हस्तलेख दिया जाना चाहिए इसका भी ध्यान रखा गया है |  इसीलिए अत्यंत सुसंपादित यह शिवपूजन साहित्य समग्र है, जो एक आदर्श है, और एक  मानदंड बन सकता है हिंदी के किसी सम्पादक के लिए |”

शिवपूजन सहाय मेरे पिता थे, उनका वात्सल्य अतुलनीय और अमोघ था, पर उनका यह वात्सल्य केवल अपनी संतति के प्रति ही नहीं था, वरन पूरे हिंदी जगत के सभी नवोदित लेखकों और साहित्य-व्यसनी युवकों के लिए था | उनका यह वात्सल्य एक महासागर की तरह था, जिस वात्सल्य को  निकट से देखने और भोगने का सुख मुझे जीवन के निर्माणकाल में उसी तरह प्राप्त हुआ  जैसे अनेक  अन्य लोगों को प्राप्त हुआ | तब एक ऐसा समय भी आया जब उनके पिता-रूप में  मुझको एक महान साहित्यकार और युगपुरुष के दर्शन हुए | मैं अपने अग्रज आनंदमूर्त्तिजी के पद-चिन्हों पर चलते हुए अंग्रेजी का अध्येता बना, लेकिन एक महान साहित्य-पुरुष के संसर्ग में रहते हुए हिंदी भाषा और साहित्य ही सदा मेरा पहला प्रेम रहा | मैंने रामचंद्र वर्मा की ‘अच्छी हिंदी’ ८-९ साल की उम्र में ही पढ़ी थी जब उसका पहला संस्करण बाबूजी के पास ‘हिमालय’ में समीक्षा के लिए छपरा आया था, और उसकी प्रति आज भी ‘गाँधी-संग्रहालय’ के हमारे उस संग्रह में सुरक्षित है | अंग्रेजी ने मेरे लिए विश्व-साहित्य की खिड़की ज़रूर खोली, लेकिन मेरा अंतर्मन पिता के पवित्र प्रभाव में हिंदी के प्रति सदा पूर्णतः समर्पित रहा | और यही कारण है कि मैंने अपने जीवन का बहुलांश अपने पिता की विरासत को संरक्षित करने में लगा देने का निश्चय किया, और जिसने मुझको  उनके साहित्य और उनके साहित्यिक  संग्रह को एक दिव्य संस्कार के रूप में ग्रहण करने का अवसर दिया | लेकिन मैं कह सकता हूँ कि संस्कार के रूप में प्राप्त पिता के वात्सल्य की यह विरासत मुझे अनेक उदीयमान साहित्यकारों के साथ साझा दिखाई देती है | मुझे जल्दी ही यह समझ में आया कि वे केवल हम चारों के ही नहीं, अनेक के पिता हैं, और यही कारण है कि आज हिंदी-संसार का जो सम्मान उनको मिल रहा है वह सहज ही अपरिमित है |

प्रसाद’ वाले अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा है – “व्यक्तित्त्व का सच्चा मूल्यांकन है कीर्त्ति का विस्तार” और यह सूत्र स्वयं शिवपूजन सहाय पर भी उतना ही लागू होता है | आज ऐसे साहित्य-सेवियों के कीर्ति-विस्तार से ही उनके साहित्यिक व्यक्तित्त्व की सच्ची पहचान हो सकती है |
उनकी हिंदी-सेवा मेरी दृष्टि में इसी अर्थ में अतुलनीय है, जिसका कोई दूसरा उदाहरण मुझे नहीं दिखाई देता |  वह एक ऐसी अनन्य साहित्य-सेवा है जो सत्याचरण और परमार्थ पर आधारित है; जो साहित्य-लेखन और साहित्याचरण तक परिमित नहीं है, उसकी परिधि और भी बहुत व्यापक है जिसका सम्बन्ध साहित्य से अधिक सम्पूर्ण जीवन और समाज से है | उनके प्रति मेरा यह भाव एक पुत्र की श्रद्धा से नहीं उत्पन्न हुआ है, बल्कि वह  साहित्य के एक विनीत अध्येता की मनोभावना है | वे बचपन में मेरे लिए एक अति-वात्सल्यमय  पिता थे,  मेरे शिक्षण-काल में वे मुझे एक श्रेष्ठ मानव और समर्पित साहित्यकार के रूप में दिखाई दिए, और अंततः मेरी दृष्टि में वे एक महामानव और युगपुरुष हो गए | आज हम उसी युगपुरुष का पुण्य-स्मरण कर रहे हैं, और इस सत्कार्य  में मैं भी अपने को आप में से ही एक मानता  हूँ |

बिहार सरकार के  राजभाषा विभाग द्वारा हिंदी साहित्यकारों की जयंतियाँ मनाने का यह सिलसिला और उसके अन्य साहित्यिक संकल्प प्रशंसनीय हैं | लेकिन इस दिशा में बिहार सरकार को अभी और बहुत कुछ करना चाहिए | जब स्वतंत्रता के बाद की बिहार सरकार में आ. बदरीनाथ वर्मा शिक्षा मंत्री थे, और श्री जगदीश माथुर शिक्षा-सचिव रहे, तब उन लोगों के आग्रह पर  शिवपूजन सहाय छपरा कॉलेज से बि. रा. परिषद् के सचिव होकर पटना आये थे और अपने ५० के दशक के कार्यकाल में उन्होंने जो कार्य किया था उसके विषय में अनेक विद्वानों ने अपनी अभ्यर्थना प्रकट की है | श्री वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में – “बि.रा.प. शिवपूजन बाबू की कीर्ति-पताका है | परिषद् की ध्वजा पर शिवपूजन जी का नाम स्वतः अंकित है और जो उसका अर्थ पढ़ सकते हैं, उन्हें प्रतीत होता है कि उनकी कर्मण्यता, व्यवस्था, सत्य और नवीन कल्पना के स्वस्तिक से परिषद् के जीवन का विकास हुआ है ... शिवपूजन सहाय व्यक्ति नहीं, एक संस्था थे | उन्होंने दस वर्षों के भीतर जो महनीय कार्य किया, वह बिहार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा | हिंदी  साहित्य के क्षेत्र में आज कोई संस्था ऐसी नहीं दिखाई देती, जिसने इतने सीमित समय में, साहित्य के इतने अधिक क्षेत्रों में, इतने अधिक विद्वानों का सहयोग प्राप्त करके इतना अधिक कार्य किया हो |”

ये वाक्य स्वयं एक अकाट्य और लोक-हितकारी सत्य को उजागर कर रहे हैं | लेकिन अपने कार्य-काल में  शिवपूजन सहाय को सरकारी स्तर पर जो कटु अनुभव हुए वे उनकी डायरी में दर्ज हैं, आप उसे ’समग्र’ में पढ़ सकते हैं | वह एक अत्यंत करुण-कथा है, जब सरकार ने शिवपूजन सहाय के कार्य में पदे-पदे बाधाएं उत्पन्न कीं, और इतना ही नहीं, उनको शर्तनामे को ख़ारिज कर समय से पहले हठपूर्वक सेवा-मुक्त कर दिया जिस कारण वे पेंशन पाने से वंचित हो गए, और उनके जीवन के अंतिम वर्ष घोर आर्थिक कष्ट में बीते | अपने स्वभाव के प्रतिकूल, लोगों के जोर देने पर, जब उन्होंने सरकार से आर्थिक सहायता की गुहार लगाई, तो उत्तर आया – सरकार आपको आर्थिक सहायता के  योग्य नहीं समझती | उन अंतिम वर्षों के ये  सारे करुण प्रसंग बाबूजी की डायरी में अंकित हैं |

स्पष्ट है, जिस देश की सरकारें अपने साहित्यकारों-कलाकारों का सम्मान नहीं करतीं वहां केवल अप-संस्कृति का अंधड़ चलता है | आज विश्व में हिंदी का तेजी से प्रसार हो रहा है, लेकिन हिंदी साहित्य का कहीं कोई विशेष सम्मान नहीं हो रहा, क्योंकि देश में ही साहित्य और कला का कोई सम्मान नहीं है | हिंदी के प्रकाशक भी हिंदी लेखकों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं | प्रकाशकों द्वारा हिंदी-लेखकों का शोषण पूर्ववत ज़ारी है | ऐसे में कला और साहित्य का सम्मान कैसे बढेगा ? सरकारों  को इन समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिए |

राजेंद्र बाबू को जब १९५४ में उनकी ‘आत्मकथा’ पर परिषद् से १५०० रु. का पुरस्कार मिला, तो अपनी ओर से उसमें २००० रु. मिला कर उन्होंने परिषद् को लौटा दिया कि इस राशि से असहाय साहित्यकारों की सहायता की जाय | जब सहायजी ने सरकार से उस राशि में वार्षिक १०,००० रु. और अनुदान-स्वरुप देने का प्रस्ताव किया ताकि उससे ऐसी सहायता बराबर  देना संभव हो, तो सरकार  ने उस राशि को बढाने के बजाय घटा कर ८,००० वार्षिक कर दिया | और मुझे नहीं मालूम कि अब उस ‘राजेन्द्र-निधि’ की क्या स्थिति है | मैं तो अब जब भी परिषद् में जाता हूँ तो देखता हूँ कि बि.रा.भा.प. की ही स्थिति वर्षों से अत्यंत शोचनीय हो चुकी है | वहां उस परिसर में शिवपूजन सहाय की एक प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव वर्षों से सरकार के पास लंबित है, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है | यह सहाय जी का १२५ वाँ जयंती वर्ष है और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाएं – साहित्य अकादमी, हिन्दू विश्वविद्यालय आदि बड़े-बड़े आयोजन कर रही हैं | बिहार सरकार को भी इस दिशा में कुछ नई पहल करनी चाहिए, और परिषद् परिसर में शिवपूजन सहाय की प्रतिमा-स्थापना एक अच्छी पहल होगी |

ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन पर चर्चा हो सकती है | लेकिन समयाभाव के कारण इन बातों के  विस्तार में नहीं जाकर आज शिवजी की इस पुण्य-तिथि पर उनको दी गयी फा. कामिल बुल्के की श्रद्धांजलि की इन पक्तियों से मैं अपना वक्तव्य समाप्त करना चाहता हूँ | अपनी श्रद्धांजलि में १९६३ में फा. बुल्के ने  कहा था – “ मुझे लगभग १५ वर्ष पहले आ. शिवपूजन जी के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | हर मुलाकात से उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढती गयी और अब मेरे ह्रदय-मंदिर की दीवार पर विनयमूर्ति, सौजन्यावतार, परमपूज्य एवं परम प्रिय शिवपूजन जी का चित्र सदा-सर्वदा के लिए अंकित है | परलोक में पहुँचने  पर मुझे अपनी जन्मभूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी | अपनी नयी मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमें एक शिवपूजन जी हैं | परलोक में पहुँच कर मुझे उनसे मिल कर अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव होगा और मैं उनके सामने नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूंगा कि उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरुप क्या है |”


समय की जो सीमा पूर्व-निश्चित है उसके अनुसार मैं अब अपना यह वक्तव्य समाप्त करना चाहता हूँ, और अंत में राजभाषा विभाग और उसके अध्यक्ष श्री सत्यनारायण जी के प्रति मैं विशेष आभार प्रकट करना चाहता हूँ कि उनके कृपापूर्ण आमंत्रण से मुझे यहाँ आकर एक महान साहित्यकार के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का, और उनसे सम्बद्ध कुछ ज़रूरी बातों को आपके साथ साझा करने का  अवसर मिला | मुझे पूरी आशा है कि बिहार की वर्त्तमान सरकार इसी तरह अपने प्रदेश के साहित्यकारों पर कृपालु रहेगी, और उन्हें इसी प्रकार सम्मान देती रहेगी |

                                                                                             - मंगलमूर्त्ति  

चित्र कॉपीराइट : आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास

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