सरल श्रीमदभगवद्गीता
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति
दसवां अध्याय : विभूतियोग
1-3. श्रीकृष्ण बोले -
मेरे प्रति अतिशय प्रेम रखने वाले हे महाबाहु वीर अर्जुन ! मेरी बातों को तुम पुन:
ध्यान से सुनो, जिन्हें मैं तुम्हारे हित के लिए तुम से कह रहा हूँ। मेरी उत्पत्ति
अथवा प्रभाव के विषय में न तो देवगण जानते
है और न महर्षिगण ही, क्योंकि मैं तो स्वयं उनकी उत्पत्ति का आदिकारण हूँ। किंतु जो मुझे सर्वथा अजन्मा - कभीजन्म नहीं
लेने वाला, आदिरहित – अर्थात
जिसका कोई आदि या अंत न हो, और सभी लोकों के
महान ईश्वर के रूपमें जानते हैं, ऐसे ज्ञानी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाते हैं
।
4-5. मनुष्य में नाना
प्रकार के भाव होते हैं, जैसे बुद्धि - जिससे विचार और विवेक उत्पन्न होते है, ज्ञान - जिससे
मोह से मुक्ति और क्षमा की शक्ति प्राप्त होती है, सत्य-पथ पर चलने
की प्रेरणा मिलती है, इंद्रियों पर नियत्रण के लिए बल मिलता है, मन संयमित होता
है; सुख और दुख, उत्पत्ति और
विनाश अथवा होने और नहीं होने का भाव; भय और अभय या भय से पूर्ण मुक्ति; अहिंसा और समता
का भाव, जब मनुष्य राग, द्वेष और अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो; संतोष और तप
अर्थात शरीर में सहन-शक्ति का विकास, दान द्वारा लोक-कल्याण तथा यश-अपयश अर्थात
लोक-प्रशंसा अथवा लोक-निदा में सम-भाव - ये अथवा अन्य सभी प्रकार के भाव मनुष्य
में मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा समझो ।
6-7. कश्यप, वशिष्ठ आदि सात
महर्षि, तथा उनसे भी पहले
सृष्टि के आदि में हुए, मुझमें आस्थावान एवं मेरे ही संकल्प से उत्पन्न - सनक, सनातन आदि चार
महर्षि और वैवस्वत आदि चौदह मनु, जिनकी चर्चा पुराणों में है, और जिन सबसे सारी
प्रजाओं की सृष्टि हुई है, ये सब मेरी ही ऐश्वर्यरूपी विभूतियां है, और जो मनुष्य
मेरे इस ऐश्वर्यरूपी विभूति वाले स्वरूप तथा सृष्टि रचने की मेरी योगशक्ति को तत्व
से जानता है वह दृढ़ भक्तियोग द्वारा मुझसे जुड़ जाता है, इसमें तनिक भी
सदेह नहीं है ।
8-9. सारी सृष्टि की उत्पत्ति
का कारण मैं ही हूँ,
और सब कुछ मुझसे ही प्रारंभ और चेष्टावान होता है । ऐसा
जानकर, भक्ति-भाव से
युक्त होकर, ज्ञानीजन मुझ परमेश्वर
को ही भजते हैं; निरंतर मुझमें ही अपने चित्त को संस्थित करके, मुझमें ही अपने प्राणों
को अर्पित करके ऐसे भक्तजन परस्पर सदा मेरी ही चर्चा, मेरा ही स्मरण
करते हुए परम संतुष्ट रहते हैं, और सर्वदा मुझमें
ही रमे रहते हैं ।
10-11. सदा-सर्वदा
भक्ति-भाव से मेरे साथ जुडे और प्रेमपूर्वक मुझको भज़ने वाले अपने भक्तों को मैं ही
बुद्धि के सदुपयोग की प्रेरणा देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं । मैं ही
उन पर कृपा करके, उनके अन्तःकरण
में स्थित हुआ, अपने प्रकाशमय
ज्ञानदीपक से उनमें अज्ञान से उत्पन्न हुए संपूर्ण अंधकार को नष्ट कर देता हूँ ।
12-15. तब अर्जुन ने कहा
- हे श्रीकृष्ण, आप तो परम पवित्र, परमधाम, परमब्रह्म हैं ।
सब ऋषिगण भी आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं । देवर्षिगण
नारद, असित, देवल तथा व्यास
भी ऐसा ही कहते हैं और आप तो स्वय मुझे यहीं बताते हैं । और हे केशव ! आप जो भी
मुझसे कहते हैं, मैं उसे पूर्णत:
सत्य जानता हूँ | आपके इस लीलामय रूप को तो वस्तुतः न दानव जानते हैं और न ही देवता जानते हैं। हे परमेश्वर, आप तो इस जगत के
जड़-चेतन सभी कुछ को उत्पन्न करने वाले हैं, सबके ईश्वर, देवों के देव और
जगत के स्वामी हैं,
और स्वय अपने को जानने वाले भी तो आप ही हैं ।
16-18. अपनी जिन दिव्य
विभूतियों से इन लोकों को व्याप्त करके आप उनमें स्थित हैं, उन दिव्य
विभूतियों के विषय में पूरी तरह बताने में तो आप ही समर्थ हैं । हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार सदा आपका
चिंतन करते हुए आपको भलीभांति जानूं, और यह भी बताएं कि आपके किन-किन भावों अथवा
रूपों मेँ मैं आपका चिंतन कर सकता हूँ। हे जनार्दन ! आप कृपापूर्वक अपनी योगशक्ति और अपनी विभूतियों के विषय में मुझे पुन:
विस्तार से बताएं,
क्योंकि आपकी अमृतमयी वाणी को सुनते हुए मुझे तृप्ति ही
नहीं होती ।
19-20. श्रीकृष्ण बोले - कौरव-कुल में
श्रेष्ठ हे अर्जुन ! सुनो, अब मैं प्रधानता से तुमको अपनी विधियों के विषय में बताऊंगा, यद्यपि मेरे कथन
के विस्तार का तो कोई अंत नहीं है । निद्रा को जीत लेने वाले गुडाकेश, हे अर्जुन ! सभी प्राणियों के हृदय में स्थित सबका आत्मा , उन सबका आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ।
आगे के श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी
विभूतियों के विषय में व्यापक उपमाओं से समझाते हैं, जिनसे सम्बद्ध कथाएँ पुराणों
में विस्तार से मिलती हैं इन सभी उपमाओं
द्वारा विस्तार से भगवान अपनी अनंत विभूतियाँ से अर्जुन को परिचित करा रहे हैं।
21-30. हे पार्थ ! मैं
अदिति के बारह आदित्य पुत्रों में विष्णु हूँ, ज्योतियों में किरणवान
सूर्य, उनचास वायुदेवों
में वायुदेव मरीच तथा नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ;
वेदों में सामवेद और देवताओं में इंद्र हूँ; सभी इंद्रियों में मन तथा
प्राणियों में चेतना; ग्यारह रुद्रो
में शंकर एवं यक्ष और राक्षसों में धनपति
कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ।
पुरोहितों में तुम मुझे वृहस्पति जानो। सेनापतियों
में मैं स्कंद और जलाशयों मैं समुद्र हूँ। महर्षियों में
मैं भृगु और शब्दों में ‘ऊँ’ हूँ । यज्ञों
में जप-यज्ञ हूँ मैं, और स्थावरों में हिमालय पर्वत तथा सभी वृक्षो में श्रेष्ठ
पीपल वृक्ष हूँ ।
देवर्षियों मेँ मैं नारद हूँ, गंधवों में चित्ररथ
और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ। अश्वों में अमृत से उत्पन्न अश्व उच्चै:श्रवा, हाथियों में
ऐरावत तथा मनुष्यों में तुम मुझे राजा जानो । शस्त्रों में मैं वज्र, गौओं में
कामधेनु, प्रजनन-क्रिया के
लिए कामदेव और सर्पों में सर्पराज वासुकि मैं ही हूँ। नागों में मैं
शेषनाग, जलचरों में उनका अधिपति वरुणदेव , पितरों में
अर्यमा तथा शासकों में यमराज हूँ। मैं दैत्यों में प्रहलाद , गणना करनेवालों
में समय, पशुओं में सिंह
तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ, तुम ऐसा जानो ।
31-38. हे अर्जुन! पवित्र
करने वालों में मैं पवन हूँ, शस्त्र धारण करने वालों में राम, मछलियों में मगरमच्छ और नदियों में मैं गंगा नदी हूँ।
सृष्टि का आदि, मध्य और अंत भी तुम मुझे ही जानो । विद्याओं में ब्रहूमविद्या और विवाद की स्थिति में मैं वाद हूँ। अक्षरों में
मैं अकार और समासों में द्वंद समास हूँ । मैं विराट-स्वरूप कभी क्षय नहीं होनेवाला
काल तथा सबका घारक-पोषक हूँ। सबकी उत्पत्ति
करने वाला, और सबको मारने वाली मृत्यु भी मैं ही हूं।
नारियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ,
तथा गायन की श्रुतियों में बृहत्साम और छन्दो में गायत्री छन्द हूँ। महीनों में
में मार्गशीर्ष या माघ और ऋतुओं में वसंत ऋतु हूँ। छल करने वालों में भी मैं जुआ
और तेजस्वी लोगों में उनका तेज भी मैं हूँ । विजेताओं में मैं विजय हूँ तो निश्चय
करने वालों का निश्चय, और सात्विकजन का सात्विक-भाव भी मैं ही हूँ। मैं वृष्णिवंशियों
में वासुदेव, पांडवों मेँ मैं
धनंजय या स्वयं तुम,
और कवियों में कवि-श्रेष्ठ शुक्राचार्य भी मुझे ही जानो ।
दमन करने वालों का दंड, विजय की कामना
रखने वालों की नीति, गोपनीय भावों का
मौन और समस्त ज्ञानियों का ज्ञान भी तुम
मुझे ही जान लो।
39-42. और हे अर्जुन !
तुम मुझे सभी प्राणियों का बीज अथवा उत्पत्ति का कारण जानो, क्योंकि चर और
अचर मेँ ऐसा कोई नहीं जो मुझसे रहित हो । हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है, और अपनी
विभूतियों का यह जो विस्तार मैंने तुमको बताया है, इसे भी तुम एक
संक्षेप ही समझो । वास्तव से तो जो भी विभूषित, कांतियुक्त अथवा
शक्तियुक्त है, उस सभी को तुम
मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न समझो ।
हे अर्जुन! भली-भाति जानने से तुम्हारा जो प्रयोजन है, तुम बस यह जान लो
कि मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
||
यहीं श्रीमदभगवद्गीता का विभूतियोग नाम का यह दसवां
अध्याय समाप्त हुआ ।|
(C) डा. मंगलमूर्त्ति
bsmmurty@gmail.com
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