सरल श्रीमदभगवद्गीता
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति
सातवां अध्याय - ज्ञानविज्ञानयोग
1.श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! सुनो, मन से मुझमें अनन्य भाव से
आसक्त तथा पूर्णत: मुझ पर ही आश्रित एवं संशय रहित होकर योग में लगे हुए तुम मुझको
भलीभांति जान सकोगे ।
2-3. तुम्हारे लिए मैं
बिज्ञानयुक्त ज्ञान के विषय में पूरी तरह बताऊंगा जिसे जान लेने के बाद संसार में
जानने योग्य और कुछ नहीं बच जाता । हजारों में कोई एक मुझे प्राप्त करने का प्रयास
करता है, पर वैसा प्रयास करने वालों
में से भी कोई एक ही मेरे परायण होकर मुझे तत्वत: जान पाता है ।
ईश्वर की माया-शक्ति अथवा प्रकृति दो प्रकार
की है | आगे के श्लोकों में श्रीकृष्ण अपनी प्रकृति के इन दो रूपों के बारे में
विस्तार से बताते हैं । प्रकृति का अपरा रूप अर्थात जड़ या स्थूल रूप, और परा रूप अथवा चेतन या सूक्ष्म रूप – ये परमात्मा की सत्ता के दो पक्ष हैं । स्थूल रूप में दिखने
वाली प्रकृति चेतन या सूक्ष्म शक्ति के संयोग से ही निर्मित होकर उसी के बल पर
टिकी हुई है । परमात्मा की माया-शक्ति
अथवा प्रक्रति के इन्हीं दो परस्पर संयुक्त पक्षों के विषय में श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन
को बता रहे हैं।
4-5. हे महाबाहु अर्जुन । मेरी
अष्टधा प्रकृति के आठ भाग हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, तथा मन, बुद्धि और अहंभाव । मेरी
यह अष्टधा प्रकृति ही मेरी अपरा या जड़ प्रकृति है । लेकिन यह जान तो कि इससे
भिन्न मेरी परा प्रकृति या चेतन प्रकृति है, जिससे यह संपूर्ण जगत धारण
किया गया है ।
6-9. तुम ऐसा समझो कि यह सारी
जड़ और चेतन सृष्टि मेरे इन्हें दोनों प्रकृत-रूपों से निर्मित है, और में ही इसकी उत्त्पति
और इसके प्रलय अथवा अंत का कारण हूँ। हे अर्जुन ! मुझसे भिन्न इस सृष्टि का और कोई
कारण नहीं है ।यह संपूर्ण जगत धागे में मणियों के समान मुझमें ही गुंथा हुआ है ।
मैं ही जल में रस, चंद्रमा और सूर्य में
प्रकाश, सारे वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द तथा पुरुषों
में पुरुषत्व हूँ । हे अर्जुन, मैं ही पृथ्वी में पवित्र
गंध, अग्नि में तेज, तपस्वियों में तप तथा सभी
प्राणियों में जीवन-तत्व हूँ ।
हमारे यहाँ ईश्वर का स्वरूप अर्धनारीश्वर के
रूप में देखा गया है वास्तव में गीता और अन्यत्र भी पुरुष
और नारी सृष्टि के कारक तत्व के रूप में अविभाज्य माने गये हैं । पुरुष में
नारी का बोध समाहित है। पुरुष और नारी एक ही सत्ता के दो अविभाज्य रूप हैं|
10-12. हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन !
संपूर्ण प्राणियों में सनातन जीवन-बीज तुम मुझे ही जानो । बुद्धिमान मनुष्यों की
बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज भी मैं ही हूँ । मैं काम और राग-द्वेष से रहित
बलवान मनुष्यों का बल हूँ, तथा धर्म के अनुकूल चलने
वाले संपूर्ण प्राणियों में काम-भाव भी मैं ही हूं। और भी सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जो भाव
हैं वे भी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं । यह जान लो कि यद्यपि उनमें मैं नहीं हूँ, परंतु वे मुझमें हैं।
1
3- 15. प्रकृति
के तीन गुण हैं – सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण । इनके
कारण और इनके परस्पर मेल से ही जो राग, द्वेष , काम, कोध, लोभ , मोह आदि भाव उत्पन्न होते
हैं, तथा उन्हीं से यह सारा संसार मोहित
होता है । और मैं इन तीनों गुणों से परे हूँ, यह मनुष्य नहीं जानता ।
क्योंकि यह त्रिगुण से भरा अलौकिक संसार मेरी दुस्तर माया से घिरा है जिससे वही
पार पा सकता है जो मेरी शरण में हो । मेरा आश्रय भी उसको नहीं प्राप्त होता जिसके
ज्ञान को माया ने हर लिया है, या जो आसुरी स्वभाव वाला
अथवा निकृष्ट या दूषित कर्म करने वाला मूर्ख व्यक्ति है ।
16-19. हे अर्जुन ! संकट-ग्रस्त
अधीर मनुष्य या उत्तम कर्म करने वाले, अथवा मुझको जानने की इच्छा
से मुझको स्मरण करने वाले या भौतिक सुखों को प्राप्त करने की कामना से मुझको याद
करने वाले या फिर ज्ञान-प्राप्त ज्ञानीजन - ये चार प्रकार के भक्त ही मुझको भजते
हैं । लेकिन इन चारों प्रकार के भक्तों में परमात्मा के साथ एकात्म हुए अनन्य
प्रेम वाले ज्ञानीजन ही सबसे श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उनके लिए मैं और
उसी तरह मेरे लिए वे सबसे प्रिय है । ये चारों प्रकार के भक्त उदारमना होते हैं, फिर भी ज्ञानी तो मेरा
स्वरूप ही होता है - ऐसा मेरा मत है, क्योंकि मेरे साथ युक्त
हुआ वह मेरा ज्ञानी भक्त अपनी सफल साधना के द्वारा मुझमें पूरी तरह स्थित हो जाता
है । ऐसा ज्ञानी मनुष्य अनेक जन्मों में अर्जित ज्ञान से परिपक्व होकर, सब कुछ मैं वासुदेव ही हूँ,
ऐसा जानते हुए, मुझको भजता है । निश्चय ही ऐसा महात्मा
मनुष्य अत्यंत दुर्लभ होता है ।
20. अधिकतर ज्ञान से रहित
मनुष्य विभिन्न प्रकार के भोगों की कामना के वशीभूत होकर उन कामनाओं की पूर्ति के
उद्देश्श्य से ही विभिन्न देवताओं की पूजा में लग जाते हैं ।
21-23. ऐसे में जो सकाम भक्त जैसी
कामना लेकर जिस देवता की पूजा करते हैं , मैं उनकी सकाम श्रद्धा
भक्ति को उसी देवता में स्थिर कर देता हूँ, और तब वह सकाम भक्त श्रद्धापूर्वक उसी
देवता की आराधना में लगा रहता है, और अपनी दृढ़ भक्ति के बल
पर मेरे द्वारा निर्धारित अपने सभी इच्छित फलों को अपने आराध्य देवता की भक्तिपूर्वक
पूजा से निश्चय ही प्राप्त कर लेता है, लेकिन ऐसे अल्पबुद्धि
भक्तों को प्राप्त वह फल नश्वर ही होता है । ऐसे सभी भक्त अपने-अपने आराध्य
देवताओं को तो प्राप्त होते है, परंतु मेरे भक्त केवल
मुझको ही प्राप्त होते है ।
श्रीकृष्ण बताते है कि परमात्मा के दो रूप है - एक तो सर्वथा अव्यक्त
अप्रकट अदृश्य रूप है जो निर्विकार, निराकार और अनंत हैं । इस अदृश्य अव्यक्त रूप को कोई देख नहीं सकता । दूसरा
मायामय रूप इस दृश्य सृष्टि के रूप में व्यक्त एवं प्रकट है जिसको
मनुष्य देख पाता है । अपने इस दूसरे रूप में परमात्मा लोक-कल्याण के अवतार के रूप
में व्यक्त एवं प्रकट देखा जाता है । व्यक्त रूप में भी
अव्यक्त रूपहीन परमात्मा का ही दर्शन होता है । ठीक जैसे सूर्य की परछाईं पानी में दीखती है
वैसे ही वास्तव में परमात्मा अनेक रूपों में दीखता हुआ भी मूल रूप में पूर्णतः
अव्यक्त ही है ।
24-26. हे अर्जुन । बुद्धिहीन
मनुष्य मेरे अव्यक्त, अविनाशी एव सर्वश्रेष्ठ रूप को न जानते हुए
मेरे व्यक्त, प्रकट मायामय रूप को ही
देख पाता है । मैं अपनी योगमाया में स्वय को घेरे हुए सबके लिए प्रकट नहीं होता
हूँ, और अपनी बुद्धिहीनता के
कारण इस जगत के लोग मेरे मूल अविनाशी, अप्रत्यक्ष, और अजन्मा रूप को नहीं जानते
। यद्यपि मैं भूतकाल, वर्तमान और भविष्य में होने वाले सभी
प्राणियों को जानता हूँ लेकिन मेरे इस अव्यक्त रूप को कोई नहीं जानता ।
27-28. हे भरतवंशी परंतप अर्जुन !
राग और द्वेष से उत्पन्न सुख और दुख के जोडे द्वारा उपजे मोह से संसार के सारे
प्राणी सम्मोहित होते रहते है । परंतु जो पापमुक्त होकर उत्तम काम करने वाले
होते है, वे इस सुख-दुख के जोड़े से
प्रभावित नहीं होते, और ऐसे ही कठोर निश्चय
वाले मनुष्य मुझे भजते रहते है ।
श्रीकृष्ण यहाँ बताते है कि मरणशील मनुष्य
एवं सृष्टि के समस्त भौतिक विनाशशील जड़ पदार्थ अधिभूत हैं । उसी प्रकार समस्त
जीवात्माओं का समूह अधिदैव है , और उन सभी के अन्तःकरण में
अंतर्यामी रूप से स्थिर परमात्मा ही अधियज्ञ है ।
29-30. ऐसे सभी मनुष्य जो इस
प्रकार वृद्धावस्था और मृत्यु के कष्ट से छुटकारा पाने का यत्न करते है वे उस
ब्रहम को और संपूर्ण कर्म तथा अध्यात्म को जान लेते है, और ऐसे मनुष्य जो अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ सहित
मुझ को जान लेते हैं, वे अंत समय में भी मुझे ही प्राप्त हो जाते
है ।
|| यहाँ
श्रीमदभगवदगीता का ज्ञानविज्ञानयोग नाम का यह सातवां अध्याय समाप्त
हुआ ||
© डा.
मंगलमूर्ति
bsmmurty@gmail.com
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