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Thursday, August 3, 2017










सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

छठा अध्याय : आत्मसंयमयोग

1. भगवान श्रीकृष्ण बोले - जो कर्मयोगी अपने कर्मों के फल की आकांक्षा से मुक्त होकर अपने सभी उचित कर्म निष्काम भाव से करता रहता है, वही सच्चा सन्यासी और योगी होता है । केवल हवन आदि कर्मों का त्याग कर देनेवाला अथवा अन्य दैनंदिन कर्मों का त्याग कर देनेवाला व्यक्ति योगी अथवा सन्यासी नहीं होता ।

2. सच्चा योगकर्म ही सन्यास है जिसमें समस्त भौतिक भोग-इच्छाओं को त्याग देते है, क्योंकि ऐसी भोग-इच्छाओं या संकल्पों का त्याग न करने वाला कोइ मनुष्य योगी नहीं हो सकता ।

3-4. योगकर्म में आरूढ़ होने अथवा पूरी तरह प्रवृत्त होने की इच्छा वाले मननशील मनुष्य के लिए निष्काम कर्म ही उपयुक्त साधन है, और ऐसे मनुष्य के लिए सभी संकल्पों, कामनाओं का शमन ही कल्याणकारी होता है । सभी इंद्रिय-भोगों तथा कर्मों से पूरी तरह अनासक्त होने पर और सभी संकल्पों-कामनाओं को त्याग देने पर ही मनुष्य योगारूढ़ होता है ।

योगारूढ़ होने का अर्थ है अनासक्त भाव से चित्त-शुद्धिपूर्वक सभी कर्म करना। इस प्रकार सभी बाह्य विषयों से निर्लिप्त रहते हुए ऐसा व्यक्ति योगारूढ़ होकर जीवन–मुक्त हो जाता है ।

5-6. मनुष्य को स्वयं ही अपने उद्धार का प्रयत्न करना चाहिए, और पतन से बचना चाहिए, क्योंकि मनुष्य ही अपना सच्चा मित्र है और वही अपना शत्रु भी हो सकता है । अपने आपको जीत लेने वाला मनुष्य ही अपना बंधु है, और अपने आप पर विजय नहीं पा सकने वाला मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु हो जाता है ।

7 ठंढा या गर्म, सुख या दुख, मान या अपमान -  दोनों ही स्थितियों में समान भाव  से शांत रहने वाले मनुष्य के लिए परमात्मा समाहित होता है अर्थात उसे नित्य प्राप्त रहता है ।

8-9 ऐसा मानते हैं कि परमात्मा से एकात्म रहने वाले ऐसे जिस मनुष्य का अंतःकरण ज्ञान–विज्ञान  से तृप्त होता है, वह जितेन्दिय और पूर्णत: विकाररहित होता है । उसकी दृष्टि में सोना, मिटूटी या पत्थर - सब एक समान होते है ।यहाँ तक कि सुहृद, मित्र, शत्रु, दोनों ओर से उदासीन रहने वाले, अथवा दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ होने वाले या द्वेष करने योग्य या जो बंधुत्व-भाव रखने योग्य हो - ऐसे सभी के प्रति  समान भाव रखने वाला ऐसा व्यक्ति ही योगी होता है ।

10 ऐसे योगी मनुष्य को जो स्वय को अपने मन तथा इंद्रियों सहित वश में रखने वाला है, कामनाओं से भी पूरी तरह मुक्त हो चुका है और अपरिग्रही अर्थात भौतिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करने वाला है, उसे अकेले सर्वथा एकांत स्थान में ध्यान-योगी बनकर अपने मन को निरंतर परमात्मा में एकाग्र करना चाहिए ।

गीता के इन श्लोकों में सफल कर्मयोग का दिग्दर्शन प्रस्तुत हुआ है। सुख और दुःख , हर्ष और शोक में समभाव रखने वाला मनुष्य ही  ऐसे योगकर्म को संपन्न कर सकता है । उसे राग और द्वेष से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए । ध्यान साधना के लिए उसे मन को विचलित करने वाली समस्त भौतिक कामनाओं तथा उनसे उत्पन्न वासनापूर्ण आकाँक्षाओं का पूरी तरह परित्याग कर देना चाहिए महत्वपूर्ण यह है कि ध्यान योग की साधना करने वाला गृहस्थ मनुष्य वस्तुओं का त्याग नहीं करता अपितु, उनके प्रति ममत्व और लोभ का त्याग कर देता है, इसे अपरिग्रह कहते हैं । इस तरह उसकी आवश्यकता न्यूनतम हो जाती है ।

ध्यानयोग के अगले पांच श्लोकों में भगवान् द्वारा इसकी साधना की विधि बताई गयी है

11-15. ऐसे योगी को शुद्ध भूमि  पर पहले  कुश, उसके ऊपर मृगछाला  और उसके ऊपर साफ वस्त्र बिछाकर ऐसा आसन बनाना चाहिए जो न वहुत नीचा न बहुत ऊंचा हो, जिस पर बैठ कर चित्त  और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके आत्मशुद्धि के लिए योगाभ्यास करना चाहिए । सिर, गर्दन और पीठ एक सीध में निश्चल रखते हुए स्थिरचित्त होकर सभी ओर से ध्यान हटा कर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाए हुए, ब्रह्मचर्य-व्रत में स्थित,  भय-रहित तथा मन को रोके हुए शांतचित्त  और सावधान होकर मेरे ध्यान में पूर्णत: स्थित हो जाना चाहिए । ऐसे नियंत्रित मन वाले योगी को आत्मा को पूर्णतः मुझ परमात्मा में लगाते हुए मेरे अंदर की परमानन्दमयी  उच्चतम शांति को प्राप्त करना चाहिए ।

16-17. हे अर्जुन! ध्यान योग के साधक को  न तो बहुत भोजन करने वाला होना षाहिए और न बिलकुल  भूखा रहनेवाला होना चाहिए; उसे न तो बहुत सोने वाला होना चाहिए न ज्यादा जागते  रहने वाला होना चाहिए । 'ध्यानयोगी यदि समुचित आहार करने वाला, अपने कर्मों में सदा उचित चेष्टाएं करने वाला और समय से सोने और जागने वाला हो, तभी उसकी योग-साधना दुख से मुक्ति दिलाने वाली होती है ।

18-19. ऐसा योगी जब पूर्णत: संयतचित्त होकर आत्मा में ही भलीभांति स्थित हो जाता है, तब वह स्पृहा-रहित अथवा संपूर्ण कामनाओं से रहित होकर योगमुक्त हो जाता है । जिस प्रकार वायु-रहित स्थान में दीपशिखा एकदम स्थिर रहती है, ऐसी ही उपमा ध्यान में संयत-चित्त  ध्यानयोगी साधक की दी जा सकती है।

परमात्मा से एकात्म होने की अवस्था को ही योग कहते हैं । अगले चार श्लोकों में श्रीकृष्ण ध्यानयोग से परमात्मा से एकात्म हुए योगी की ध्यान-प्रक्रिया के अभ्यास की आवश्यकता के विषय में बताते हैं।

20-23. ऐसे योगी को ध्यानयोग की प्रक्रिया के विषय में जानना चाहिए । योगाभ्यास द्वारा जिस अवस्था में चित्त पूर्णत: विषयों से विरक्त हो जाता है, और जिसमेँ अपने में ही संतुष्ट रहते हुए ध्यान द्वारा शुद्ध बुद्धि से परमात्मा के दर्शन होते है; जिसमें योगी इंद्रिय-सुखों से परे केवल सूक्ष्म बुद्धि से ग्राहय अनंत आनंद का अनुभव करता है; जिसमें स्थित होकर वह परमात्मा में अपने एकात्म होने से तनिक भी विचलित नहीं होता, और उस परमानंद-लाभ से बढ़कर कुछ भी नहीं समझता; जिस अवस्था में वह भारी से भारी दुख से भी अविचलित और अप्रभावित रहता है, ऐसे ध्यानयोग का अभ्यास उस स्थिरचित्त  योगी को निश्चयपूर्वक करना चाहिए ।

24-26 मन के संकल्प से जो कामनाएं उत्पन्न होती है उन्हें त्याग कर, और मन से ही सभी इंद्रियों को वश में करके, धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा प्रशांत हो कर तथा धैर्य से संभाली हुई बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा से स्थित कर के ध्यानयोगी को केवल परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए । उसको चाहिए कि कभी स्थिर न रहने वाले अपने चंचल मन को, जो सदा ही भौतिक सुखों में विचरना  चाहता है, उन तरह-तरह के विषयों में विचरने वाले अपने मन को उन विषयों से रोक कर परमात्मा में लीन कर दे ।

27-28. ऐसे दोषमुक्त ध्यानयोगी को जिसका चित्त प्रशांत हो चुका है, जिसकी रजोगुण की वृत्ति शमित हो चुकी है, जिसका मन ब्रहमा में लीन हो चुका है, सहज ही परमानन्द प्राप्ति हो जाती है । ऐसा सर्वदोष-रहित योगी अपनी साधना से निरंतर आत्मा को परमात्मा से एकात्म करता हुआ और सदा सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा के संपर्क में रहते हुए अत्यत आनंद का अनुभव करता रहता है ।

29-32. हे अर्जुन ! परमात्मा में एकात्म हुआ और सभी प्राणियों को समभाव से देखने वाला, अर्थात सबको अपने आत्मा के समान देखने वाला, ऐसा जो योगी है वह सभी प्राणियों को मुझमें और मुझको सभी प्राणियों में व्याप्त देखता है । ऐसे योगी के लिए मैँ कभी अदृश्य नहीं होता, न वह मेरे लिए कभी अदृश्य होता है । ऐसा जो योगी मेरे साथ सभी प्राणियों में एकात्म होकर उनमें स्थित मुझ परमेश्वर को भजता है, यह अपने सारे कर्म करता हुआ भी मुझ में ही निवास करता है । ऐसा जो योगी सभी प्राणियों को अपने समान देखता है और सुख- दुख को भी सब में समान-भाव  से देखता है,  वही परमश्रेष्ठ योगी होता है ।

33-34. अर्जुन ने कहा- हे श्रीकृष्ण ! आपने इस योगकर्म में सब कुछ समभाव से देखने की बात कही है, लेकिन सदा चंचल इस मन को तो वश में करना ही बहुत कठिन है, ऐसे में इस समत्व दर्शन वाले योग का अभ्यास तो संभव ही नहीं लगता । यह मन कितना चंचल है, दही की मथनी की तरह यह तो सभी इंद्रियों को सदा मथता रहता है । यह इतना बलशाली है कि बुद्धि को सहज ही पराजित कर देता है । इसे वश में करना तो हवा के वेग को रोकने के समान है ।

35-36. तब श्रीकृष्ण बोले – हे महाबाहो कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह तो निःसंदेह है कि मन चंचल होता ही है और उसको वश में करना अत्यंत कठिन है, किन्तु वैराग्य तथा अभ्यास से उसे वश में किया जा सकता है,  क्योंकि जिसका मन ही वश में नहीं होगा उसका योग भला कैसे  सिद्ध होगा, योग तो सिद्ध तभी होगा  जब पूरी तरह मन को वश में कर के योगाभ्यास किया जाय । ऐसा ही मेरा मत है ।

37-39 फिर अर्जुन ने कहा – हे श्रीकृष्ण ! लेकिन जो व्यक्ति योग के प्रति पूर्ण श्रद्धावान है, किन्तु  असंयमी होने के कारण प्रयास में चुस्त नहीं रह पाता, योगाभ्यास में ढीला पढ़ जाता है, उसे यदि योग से सिद्धि नहीँ मिलती तो वह किस गति को प्राप्त होता है? क्या परमात्मा-प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ ऐसा असहाय योगाभ्यासी व्यक्ति आसमान में टूटे-बिखरे बादलों की तरह धीरे-धीरे विनष्ट हो जाता है? मेरे मन की इस शंका को पूरी तरह मिटाने में तो आप ही समर्थ हैं, क्योंकि ऐसी शंका को आपके सिवा और कोई दूर नहीं कर सकता ।

40 श्रीकृष्ण बोले – हे पार्थ! जो मनुष्य साधना तो करता है लेकिन उसके प्रयास में कुछ कमी रह जाती है, संयम का कुछ अभाव रह जाता है, जिसके कारण जीवन में उसको सिद्धि नहीं प्राप्त हो पाती, उसका भी इस लोक में अथवा परलोक में भी नाश नहीं होता, क्योंकि हे प्रियवर ! शुभकर्म करने वाला कोई मनुष्य कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।

41-45. योगभ्रष्ट होने पर भी वह व्यक्ति पुण्यवान मनुष्यों के लोकों को प्राप्त होता है, और वहां अनेक वर्षों तक निवास करने के बाद फिर पवित्र आचरण वाले मनुष्यों के घर जन्म लेता है, अथवा ज्ञानवान योगियों के कुल में जन्म धारण करता है, और ऐसा जन्म भी निःसंदेह संसार में अत्यंत दुर्लभ होता है । फिर वह उन ज्ञानवान योगियों के कुल में अपने पूर्व जन्म के पवित्र संस्कारों से संचित पुण्यों को सहज ही प्राप्त कर लेता है ।

     हे अर्जुन ! फिर वह पूर्व के उसी पुण्य-बिंदु से आगे अभ्यास करता हुआ परमात्मा-प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। हर प्रकार से विवश होने पर भी यह व्यक्ति अपने पूर्व के अभ्यास के बल पर निःसंदेह  परमात्मा की ओर पुन: आकर्षित हो जाता है, अर्थात पूर्व जन्म में योग का जिज्ञासु होने पर भी वह किसी कारण उसका पर्याप्त अभ्यास न कर पाया और योगभ्रष्ट रहा, फिर भी अब पूर्णतः निष्काम होकर वह वेद में वर्णित सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर पाता है, और प्रयत्नपूर्वक अभ्यास तथा पूर्व जन्म के संस्कारों से सिद्धि प्राप्त कर के संपूर्ण पापों से मुक्त होकर अंतत:परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।

46-47. ऐसा योगी तपस्वियों से, या शास्त्रों को जानने वाले ज्ञानीजन से, अथवा कर्मकांड के अनुसार सकाम कर्मो को करने वाले व्यक्तियों से भी श्रेष्ठ होता है । इसलिए हे अर्जुन ! तुम ऐसे ही योगी बनो क्योंकि ऐसे योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लीन होकर अपनी अंतरात्मा से निरंतर मुझको भजता है, उसी योगी को मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ ।

   || यहाँ श्रीमदभगवदगीता का आत्मसंयमयोग नामक छठा अध्याय समाप्त हुआ ||

© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com


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