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Wednesday, August 16, 2017











सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

आठवां अध्याय :  अक्षरब्रह्मयोग

1-2. अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम ! कृपया यह बताएं, कि ब्रहमअध्यात्मकर्म आदि क्या है? और अधिभूत, अधिदैव आदि किसे कहते हैं  हे मधुसूदन ! अधियज्ञ क्या होता हैशरीर में यह कैसे रहता है और मृत्यु के समय संयतचित्त योगियों द्वारा आप कैसे जाने जाते है ?

3-4. श्रीकृष्ण बोले - जो अक्षर हैजिसका कभी विनाश नहीं होताजो नित्यनिराकार और परम तत्त्व हैवहीं ब्रहम है । और उसी का स्वरूप जीवात्मा के रूप में अध्यात्म हैअर्थात परमात्मा का ही अंश आत्मा जब मायामय होकर जीवात्मा के रूप में शरीर में स्थित होता हैतब वह अध्यात्म कहलाता है । सृजन करने वाला अथवा प्राणियों को उत्पन्न करने वाला शुभकर्म ही कर्म हैजो परमात्मा का ही एक शुभकर्म होता है । उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होने वाला सब जड़ पदार्थ ही अधिभूत है । इसे ही अपरा प्रकृति कहा हैजो चेतन अथवा परा प्रकृति के अधीन होती है । अपरा अथवा जड़ प्रकृति पर शासन करने वाला चेतन मनुष्य ही अधिदैव है । और हे देहधारी मनुष्यों में श्रेष्ठ अर्जुन ! समस्त यज्ञों के अधिपति परमात्मा के शरीरधारी इस वासुदेव-रूप में मैं ही अधियज्ञ हूँ ।

5-7. हे कुंती-पुत्र अर्जुन ! इसमें तो तनिक भी संशय नहीं कि जो मनुष्य अपने अंतकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता हैवह मेरे ही स्वरुप को प्राप्त होता है । वास्तव में अपने अंतकाल में मनुष्य जिन भावों का स्मरण करता हुआ शरीर-त्याग करता हैवह उन्हीं को प्राप्त होता हैक्योकि वह सदा उन्ही भावों से प्रभावित रहा है । इसीलिए हे अर्जुन ! तुम सदा मेरा ही स्मरण करते हुए अपना युद्ध कर्म करो । मन और बुद्धि को पूरी तरह मुझको समर्पित करके निःसंदेह तुम मुझको प्राप्त हो जाओगे ।

8-10. हे पार्थ अर्जुन ! अभ्यासपूर्वक योग करता हुआ तथा चित्त को एक ही दिशा में केंद्रित कर निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परमपिता परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है । ऐसा भक्तियुक्त मनुष्य अपने अंतकाल में अविचलित मन से और अपने योगबल से अपनी भौंहों के बीच अपने प्राण को टिका कर उस सूक्ष्म से भी सूक्ष्मअणु से भी छोटे, सबका धारण-पोषण करने वालेसर्वज्ञअनादिअचिंत्यअविद्या से परेसूर्य की तरह प्रकाशमानसच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा का स्मरण करता है और वह उसी दिव्य - परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।

11. अब मैं संक्षेप में तुम्हें उस परमपद परमात्मा के विषय में बताउंगा जिसकी प्राप्ति की इच्छा वाले ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, वेद ज्ञाता जिन्हें सच्चिदानंद स्वरुप अविनाशी कहते हैंऔर जिसमें रागद्वेष मुक्त योगीजन प्रवेश कर जाते हैं ।

12-14. अपनी सभी इंद्रियों को विषय-भोग से हटा करअपने मन को हृदय में तथा प्राण को अपने मस्तक में स्थिर करते हुएयोग मेँ स्थित हुआ जो मनुष्य ‘ॐ’ शब्द में अक्षर-रूप ब्रह्म का उच्चारण करते हुए अपना शरीर त्याग करता हैवह मनुष्य निश्चय ही परमगति को प्राप्त होता है । हे पार्थ ! लेकिन जो मनुष्य इस प्रकार योगबल से प्राण-त्याग करके परमात्मा को पा लेने की विधि नहीं जानते वे भी निरंतर स्मरण से परमात्मा को आसानी से प्राप्त कर     सकते हैं ।

15-16. जो योगी परमसिद्धि को पाकर मुझको प्राप्त हो जाते हैं वे फिर सभी प्रकार के दुखों के घर-रूपी नश्वर पुनर्जन्म में नहीं पड़ते । हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक  से लेकर अन्य सभी लोकों में पुनर्जन्म अनिवार्य है । लेकिन जो मनुष्य मुझे प्राप्त हो जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।

श्रीकृष्ण अगले चार श्लोकों में रात और दिन के रूप में दिखाई देने वाले समय-चक्र के गूढ़ मनोवैज्ञानिक रहस्य को प्रकाशित करते हैं । सृष्टि के  समय-चक्र की तुलना में मनुष्य का जीवन अत्यल्प , क्षणिक एवं उसका शक्ति सामर्थ्य भी अत्यंत सीमित होता है, जिस कारण सृष्टि एवं काल की गति के रहस्य को समझना उसके लिए अत्यंत असंभव-सा होता है । योगीजन अपने योगबल से काल-चक्र के बन्धनों से उबर कर  समय और सृष्टि के रहस्यों को समझते हुए , परमात्मा के स्वरुप को जान लेते हैं । ब्रह्मा या सृष्टि का एक दिन मानवता के चार युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग के बराबर होता है, और सृष्टि की एक रात भी उतनी ही लम्बी होती है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मा के दिन के प्रारंभ के साथ ही अव्यक्त तत्व के सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, और ब्रह्मा की रात्रि के प्रारम्भ के साथ ही सभी प्राणी उस अव्यक्त तत्व में विलीन हो जाते हैं । वैदिक गणित के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन- रात की अवधि आठ अरब चौसठ करोड़ वर्ष अनुमानित की गयी है । सृष्टि के इस काल और परिमाण को समझना केवल योगबल से ही सम्भव है,, साधारण मनुष्य के लिए तो यह सर्वथा असम्भव ही है ।

17-20. योगीजन अपने योगबल से जान लेते है कि ब्रहमा का एक दिन और एक रात हजार-हजार चतुर्युगों के बराबर होते हैं । सृष्टि के सभी प्राणी सृष्टिकर्ता ब्रहमा के उस एक दिन के प्रारंभ के साथ ही उसके सूक्ष्म-अव्यक्त रूप से उत्पन्न होते हैंऔर फिर ब्रहमा की रात्रि के प्रारंभ के साथ ही सृष्टि के सभी प्राणी उसी सूक्ष्म-अव्यक्त रूप में विलीन हो जाते हैं । हे पार्थ! इसी प्रकार प्रकृति के इस समय-चक के वशीभूत रहते हुए इस सृष्टि के सभी प्राणी बार-बार उत्पन्न हो-होकर ब्रहमा की रात्रि के प्रवेशकाल में अव्यक्त तत्व में लीन होते हैं, और उसके दिन के प्रवेशकाल में पुन: उत्पन्न होते हैं । लेकिन यह तुम जान लो कि उस अव्यक्त से भी परे परमात्मा-रूपी जो सनातन अव्यक्त सत्ता है वह सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी शाश्वत होने के कारण कभी नष्ट नहीं होती |

21-22. सनातन अव्यक्त सत्ता को ही 'अक्षरकहते हैंयहीं मेरा परम धाम है जिसे हम परम गति के रूप में जानते  है और जिसे प्राप्त होने के बाद मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता । हे  पार्थ ! जिस परमात्मा से यह संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है और सभी प्राणी जिस परमात्मा के अंतर्गत ही होते हैंउस परम पुरुष परमात्मा को अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है ।

अगले दो श्लोकों में श्रीकृष्ण बताते हैं, कि साधारण मनुष्य तो मुत्यु के पश्चात्  इसी लोक में पुनर्जन्म  पाकर नया शरीर धारण करता है, लेकिन साधना-रत योगीजन के लिए शरीरत्याग करने के पश्चात कृष्ण और शुक्ल - ऐसे  दो मार्ग होते है जिन पर चल कर वे परमात्मा की ओर अग्रसर होते हैं । उनमें सिद्ध योगीजन  तो परमात्मा में पूर्णतः एकात्म हो जाते हैं, किन्तु जिन योगीजन को पूर्ण सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती वे  परमात्मा से  एकात्मता के निकट पहुँच  कर भी अपनी कामना की पूर्ति के लिए फिर से इस जगत में पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं ।

23-26. हे भरतकुलश्रेष्ठ अर्जुन ! अब मैं तुमको उस काल अथवा मार्ग के विषय में बताऊंगा जिसमें प्राण त्याग करके गये हुए योगीजन पुनर्जन्म अथवा पुनर्जन्म-मुक्ति को प्राप्त होते हैं । कृष्ण और शुक्ल - ऐसे दो मार्ग हैं । मृत्यु के उपरांत शुक्ल मार्ग से जाने वाले के लिए ब्रहम से एकात्म होने में पवित्र देवगण अग्नि ज्योतिदिनशुक्ल-पक्ष तथा छ: मास के उत्तरायण सूर्य के रूप में उनके सहायक होते हैं । वहीं मृत्यु के उपरांत कृष्ण मार्ग से जाने वाले योगीजन के लिए धूमरात्रिकृष्ण पक्ष तथा छ: मास के दक्षिणायण सूर्य के रूप में देवगण उन्हें चंद्रमा की ज्योति तक पहुंचाने में सहायक होते हैं जहां से स्वर्ग का सुख भोग कर फिर ऐसे योगीजन इस नश्वर जगत में लौट जाते हैं । शुक्ल और कृष्ण - ये दो मार्ग सनातन माने गए हैं जिनमें शुक्ल मार्ग से योगीजन पुनर्जन्म-मुक्ति प्राप्त कर लेते हैंऔर कृष्ण मार्ग वाले योगीजन को पुनर्जन्म प्राप्त करना पड़ता है ।

27-28. हे पार्थ ! जो इन दो मार्गों को स्पष्टता से जान लेता हेऐसा योगी कभी मोहग्रस्त नहीं होता । अतः तुम भी हे अर्जुनसभी काल में योग से पूर्णत: युक्त रहो । योगीजन इस रहस्य को जानकर  निरंतर वेदों के अध्ययन तथा यज्ञ, तप, दान-कर्म आदि में पुण्यफ़ल को प्राप्त करते हुए सनातन परमपद पा लेते हैं  ।

   |। यहीं श्रीमदभगवद्गीता का अक्षरब्रहमयोग नामक आठवां अध्याय समाप्त हुआ ।|


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