Followers

Thursday, September 7, 2017






सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

ग्यारहवां अध्याय :  विश्वरूपदर्शनयोग

1-2. अर्जुन ने कहा हे  श्रीकृष्ण !  मुझ पर कृपास्वरूप आपने यह जो परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक अमृत-वचन कहे हैं,  उससे मेरा अज्ञान दूर हो गया है । हे कमलनयन,  मैंने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और उनके विनाश का विवरण और आपकी महिमा का वर्णन भी विस्तार से सुना है ।

3-4. हे परमेश्वर ! आपने अपने को जैसा बताया है, आप बिलकुल वैसे ही है । किंतु हे पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ! मैं तो आपके उस परम तेजमय ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं । हे प्रभो, यदि आप मानते है कि मैं सचमुच आपका वह रूप देख सकता हू तो हे योगेश्वर, आप मुझे अपना वह अविनाशी रूप दिखाने की कृपा करें ।

5-8. तब भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे पार्थ ! ठीक है, अब तुम मेरे नाना प्रकार  के,  नाना वर्णो और आकारों वाले असंख्य दिव्य रूपों को देखो । हे भरतवंशी अर्जुन,  मुझमें अब तुम बारह आदित्यों, आठ वसुओं, एकादश रुद्रों, दोनों अश्विनी कुमारों और उनचास मरुतों को देखो । और इन सबसे अलग, कभी पूर्व-काल में नहीं देखे हुए, मेरे और भी अनेक विस्मयकारी रूपों को  देखो । मेरे इस शरीर में, हे अर्जुन, तुम चर और अचर- संपूर्ण जगत को एक ही स्थान पर स्थित देखो, तथा और जो कुछ भी देखना चाहते हो उसे देखो । किन्तु  तुम अपने इन सामान्य नेत्रों से निसंदेह यह सब नहीं देख सकते, इसलिए मैं तुम्हे इसके लिए दिव्य-चक्षु प्रदान करता हूँ जिससे तुम मेरे इस ईश्वरीय योगशक्ति रूप को देख सको ।

9-14. यहाँ संजय धृतराष्ट्र से बोले - हे राजन! महायोगेश्वर भगवान श्रीहरि ने तब अर्जुन को अपना यह परम ऐश्वर्य-युक्त दिव्य विराट रूप दिखाया जिसमें दिव्य माला, आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित, दिव्य सुगंधों से आलेपित असंख्य मुख और नेत्र थे । अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को धारण लिये हुए, अद्भुत रूपों और आश्चर्यों से युक्त महायोगेश्वर भगवान श्रीहरि के उस अनंत और सर्वतोमुख विराट स्वरुप को सहसा अर्जुन ने देखा । श्रीहरि के उस विराट रूप को देखकर उसे लगा जैसे आकाश में सहस्त्रों सूर्यो के एक साथ उदित होने से भी अधिक प्रकाश फूट पड़ा हो । उस समय अर्जुन ने देखा कि खंड-खंड विभाजित संपूर्ण जगत जैसे देवाधिदेव श्रीकृष्ण के उस स्वरुप में एक ही जगह स्थित था। तब अत्यंत रोमांचित और विस्मय-चकित हुए अर्जुन ने उस विश्वरूप परमेश्वर को हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए, कहा -

15-17. अर्जुन ने कहा - हे देव, हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में तो सारे देवताओं और सभी प्राणी-समुदायों  को, कमलासन पर विराजे ब्रहमा को, महादेव शिव को, सभी ऋषियों और अनगिनत सर्पों  को देख रहा हूँ। स्वय आपको मैं अनेक मुखों, नेत्रों, भुजाओं और उदरों से युक्त, सभी ओर से अनंत रूपों वाला देख रहा हूँ , जिसका न आदि, न मध्य और न अंत ही मुझे दिखाई दे रहा है । आपका यह रूप मुकुट, गदा और चक्र  से सुशोभित है, जो सभी ओर से प्रज्जवलित अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, तेजोमय और प्रकाशमान दिखाई पड़ रहा है | आपकी यह विराट छवि तो सर्वथा अप्रमेय अथवा आकलन से परे लगती है, जिसे देखना भी मेरे लिए कठिन हो रहा है ।

18-19. मेरी सीमित बुद्धि के अनुसार तो आप ही जानने योग्य परम अक्षर अथवा परमब्रहम और इस विश्व के परमात्मा हैं । आप ही तो सनातन धर्म के रक्षक और सनातन अविनाशी परमेश्वर हैं । आप तो आदि, मध्य और अंत से भी सर्वथा परे हैं । अनंत सामर्थ्य से युक्त, असंख्य भुजाओं वाले - सूर्य और चंद्रमा आपके नेत्रों जैसे लगते हैं । आपके मुख से अग्नि प्रज्जवलित होती दीखती है, और आपके तेज से तो यह सारा जगत ही तपता दीख रहा है ।

20-22. हे महात्मन्! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का संपूर्ण अंतरिक्ष और सभी दिशाएं तो आपसे ही व्याप्त हैं । आपके इस अलौकिक भयावह रूप को देखकर तो तीनो लोक ही भयातुर हो रहे    हैं । मुझे तो सभी भयभीत देव, हाथ जोड़े हुए, आपकी स्तुति करते हुए, आप में ही प्रविष्ट होते दिखाई दे रहे हैं । सिद्ध और महर्षिगण भी 'कल्याण हो !' ऐसा कहते हुए उत्तम स्तुतियों से आपका स्तवन कर रहे है । ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्य देव, दस विश्वदेव, दोनों अश्विनी कुमार, उनचास मरुत् और पितरों के समूह, तथा गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय - सभी विस्मित-चकित आपका यह ऐश्वर्यमय रूप देख रहे हैं ।

यहाँ पुराणों  में वर्णित विभिन्न देवताओं , सिद्धों और महर्षियों का स्मरण करते हुए अर्जुन यह बता रहे हैं - कि परमात्मा के इस वास्तविक और विराट रूप में ही देवताओं और सभी लौकिक  प्राणियों  की अंतिम गति है । इस विराट रूप का दर्शन करने वाले चकित-विस्मित और     भयभीत सभी देवता और प्राणी परमात्मा की सत्ता में समाहित हैं ।

23-25 हे विशाल बाहों वाले भगवन्! आपके अनेक मुख,  नेत्रों, भुजाओं, जंघाओं, पैरों, उदरों और दातों वाले इस महान, विकराल रूप को देखकर मैं और सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं । क्योकि हे विष्णु ! आकाश को स्पर्श करने वाले, अनेक वर्णों से युक्त और देदीप्यमान, विशाल प्रकाशमान नेत्रों वाले आपके इस महाकाय फैले हुए मुख को देखकर तो मेरा अंतःकरण सर्वथा धैर्यहीन, अशांत और अत्यंत भय-विहवल हो रहा है । विकराल दातों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित आपके इस भयकारी मुख को देख कर तो मैं दिशाओं का ज्ञान भी भूल गया हूँ, और मेरा मन अभी पूर्णत: व्याकुल-अशांत हो रहा है । अत: हे जगन्निवास , हे देवेश्वर ! अब आप प्रसन्न हों ।
फिर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं --

26-29. मैं देख रहा हूँ कि धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, राजाओं के सभी समूहों सहित, आपके विकराल मुख में समाते जा रहे हैं। साथ ही भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और यह कर्ण, हमारी अपनी सेना के मुख्य योद्धागण के साथ ही वेगपूर्वक आपके भयंकर दाढ़ों के कारण  भयावह लगने वाले मुख में प्रवेश करते जा रहे हैं, और कुछ योद्धाओं के क्षत-विक्षत सिर तो आपके विकराल दातों में फंसे हुए से दीख रहे हैं । ठीक जैसे वहुत सारी नदियों के जल-प्रवाह समुद्र की ओर दौड़ते हैं, वैसे ही इस मनुष्य-लोक के योद्धागण भी आपके अनेक प्रज्वलित मुखों में प्रविष्ट होते दिखाई पड रहे हैं । लग रहा है जैसे पतंगे अपने नाश के लिए प्रज्वलित अग्नि की ओर वेग से भागते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में प्रवेश करते जा रहे हैं ।

30-31. अपने प्रज्वलित मुखों से सारे लोकों को ग्रसित करते हुए आप बार-बार अपने होठों को चाट रहे हैं । हे भगवान विष्णु !  सारी सृष्टि आपके उग्र प्रकाश के तेज से भरकर अब तप रही है । कृपया मुझे  बताइए कि ऐसे उग्र रूप वाले आप सचमुच कौन हैं ? हे देवेश्वर ! आपको मेरा प्रणाम अर्पित है, अब आप प्रसन्न हों । आप तो संपूर्ण जगत के आदि रूप हैं, किन्तु मैं आपकी प्रवृत्ति को समझने में असमर्थ हूँ, और आपको तात्विक रूप से जानना चाहता हूं ।

32-34. तब भगवान श्रीकृष्ण बोले - सभी लोकों का नाश करने वाला प्रबल महाकाल मैं इस समय इन सब का नाश करने के लिए प्रस्तुत हूँ। और यह जान लो कि इन सेनाओ में जो भी वीर योद्धा यहाँ उपस्थित हैं, बिना तुम्हारे युद्ध किये भी उनका नाश पूर्वनिश्चित है । अत: हे अर्जुन ! तुम उठ खड़े हो और युद्ध करते हुए यश को प्राप्त करो तथा इन शत्रुओं को हरा कर धन-धान्य से संपन्न राज्य का उपभोग करो । अरे, ये सभी योद्धा तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । तुम तो अब केवल इनकी मृत्यु के निमित्त-मात्र हो । अब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, जयद्रथ और कर्ण के साथ-साथ दूसरे अनेक शूर-बीर योद्धाओं को तुम स्वय मारो । अब कोई व्यथा मत करो । इस युद्ध में सभी शत्रुओं को अब तुम्हीं पराजित करोगे । तुम बस युद्ध करो ।

35. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर मुकुटधारी अर्जुन कांपते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करते हुए गदगद वाणी में बोले  -

36-38. अर्जुन ने कहा – हे अंतर्यामी प्रभु ! आपके नाम-कीर्तन  से सारा जगत हर्षित एवं अनुरक्त होता है, सिद्धों के सभी समुदाय भी आपको नमन करते हैं, और राक्षस आदि भी आपसे परम भयभीत होकर सभी दिशाओं में भाग रहे हैं, यह तो ठीक ही है । हे महात्मन्! परम श्रेष्ठ एवं ब्रहमा के भी आदिकर्ता आपको ये सभी क्यों न नमस्कार करें , क्योंकि हे अनंत, हे देवेश,  हे जगन्निवास ! जो सत्-असत् से परे अक्षर ब्रहम है, वह तो आप ही हैं । आप ही तो आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप ही इस संपूर्ण जगत में सर्वाधिक जानने योग्य परमब्रहम और इस जगत के परम ज्ञाता भी हैं, तथा आप ही इसके परम आश्रय और परम धाम भी तो हैं । हे अनंत रूप! आप से ही तो यह संपूर्ण जगत व्याप्त है ।

39-40. आप ही वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्र और प्रजापति ब्रहमा है एवं ब्रहृमा के भी पिता हैं । आपको बारम्बार नमस्कार है । अनंत सामर्थ्यवान हे भगवन !  आपको चारो ओर से पुन:-पुन: नमस्कार है । आप तो अनंत पराकम से संपन्न हैं । आपसे सारा जगत व्याप्त है । आप तो सर्वरूप हैं ।

41-42. आप तो मेरे सखा हैं, और इसीलिए आपकी इस सारी महिमा को भलीभांति नहीं जानते हुए भी मैं अपने प्रेम- भाव और प्रमाद से जान-बूझकर आपको  -  हे कृष्ण , हे यादव, हे सखा कह रहा हूँ । इसलिए हे अच्युत । परिहास और मनोविनोद के लिए उठते-बैठते, भोजन करते, सोते, विहार करते, अकेले अथवा लोगों के बीच में, आपका यदि भूल से कभी तिरस्कार हो गया हो तो उन सभी अपराधों के लिए मैं आपसे - आप जो सर्वथा अनंत और अज्ञेय-रूप हैं क्षमायाचना करता हूँ।

43-44. आप इस चराचर जगत के पिता हैं तथा महान गुरु एवं परम पूज्य हैं, अतुलनीय प्रभाव वाले हैं , जिसके समान तीनों लोकों में और कोई नहीं, और भला आपसे अधिक तो कुछ हो भी कैसे सकता है? अत: मैं आपके चरणों में साष्टांग प्रणाम करता हूँ, और स्तुति करने योग्य आपके इस ईश्वर रूप को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करता हूँ । हे देव! पिता जैसे पुत्र के,   पति जैसे प्रियतमा पत्नी  के, और सखा जैसे अपने सखा के अपराध सहन एवं क्षमा करता है, आप भी वैसे ही मेरे सभी अपराध क्षमा करें ।

45-46. आपके इस विराट विश्वरूप को तो पहले मैंने कभी नहीं देखा था, जिसे अभी देखकर मैं जितना हर्षित हुआ हूँ उतना ही भय से व्याकुल भी हो रहा हूँ। अब आप कृपा करके पुन: मुझे अपने उसी चतुर्भज़ विष्णु रूप को दिखावें । हे देवेश, हे जगन्निवास ! अब आप पुन: मुझ पर प्रसन्न हो जाइए । मैं अब आपको उसी प्रकार मुकुट पहने,  हाथों में गदा-चक्र  धारण किए हुए देखना चाहता हूँ। हे विंश्वस्वरूप विश्वमूर्ति ,हे सहस्त्रबाहु ! अब फिर आप अपने उसी स्वाभाविक चतुर्भज़ रूप मेँ प्रकट होइए ।

47-49. भगवान् श्रीकृष्ण बोले - हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपने योगबल से अपना यह आदि और अनंत का तेजोमय विश्वरूप तुम्हे दिखाया है जिसे इससे पूर्व तुम्हारे सिवा किसी और ने नहीं देखा है । मनुष्य-लोक में अपने इस विश्वरूप में, तुम्हारे अतिरिक्त किसी के द्वारा भी -  न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान आदि क्रियाओं से या परम उग्र तप आदि से ही -  मैं कभी देखा जा सकता हूँ । मेरे इस विराट रूप को देखकर तुम्हें न तो व्याकुल होना चाहिए और न अपने को मूढ ही अनुभव करना चाहिए । अब तुम भयहीन और प्रेमयुक्त होकर पुनः मेरे उसी चतुर्भज़ रूप को देखो ।

50. संजय ने धृतराष्ट्र से कहा -  वासुदेव श्रीकृष्ण ने तब ऐसा कह कर अपना वहीं चतुर्भज़ रूप अर्जुन को दिखाया और फिर सौम्यमूर्ति  होकर महात्मा श्रीकृष्ण ने भयभीत अर्जुन को आश्वस्त किया ।

51. अर्जुन ने तब श्रीकृष्ण से कहा – हे जनार्दन । आपके इस सौम्य मानव  रूप को देखकर अब मैं सचेत होकर पुन: अपनी स्वस्थ-स्वाभाविक अवस्था मेँ आ गया हूँ ।

52-54. भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे  परंतप अर्जुन ! मेरे जिस रूप को अभी तुमने देखा है, उसका दर्शन सर्वथा दुर्लभ है । देवगण भी सदा इस रूप के दर्शन की इच्छा रखते है । लेकिन मैं अपने इस रूप में जैसा तुमने अभी देखा है, न तो वेदों, न तप, न दान और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ । मैं तो इस रूप में केवल अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष देखा जा सकता हूँ, तत्व से जाना जा सकता हूँ, और प्राप्त भी हो सकता हूं। हे अर्जुन! जो मनुष्य सारे कर्म केवल मेरे ही लिए करता है, केवल मुझे ही अपना परम आश्रय और परम गति मानता है, और पूर्णत: आसक्ति  एवं वैर-भाव से रहित होकर मेरी ही भक्ति करता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है ।


|| यहीं श्रीमदभगवद्गीता का विश्वरूपदर्शनयोग नामक यह ग्यारहवां अध्याय समाप्त हुआ ।|



© Dr BSM Murty

bsmmurty@gmail.com


Older Posts पर क्लिक करके आप इस ब्लॉग की पूर्व की सब सामग्री पढ़ सकते हैं - गीता के पूर्व के अध्याय,  और उससे पूर्व सम्पूर्ण रामचरित मानस तथा दुर्गा सप्तशती की सरल हिंदी में कथा |  



आप कमेंट्स में अपनी जिज्ञासाओं को भी अंकित कर सकते हैं |

आप मेरा दूसरा साहित्यिक ब्लॉग -vibhutimurty.blogspot.com भी देखें जो आ. शिवपूजन सहाय से सम्बद्ध है जिस पर मेरा साहित्यिक लेखन भी आप पढ़ सकते हैं |
कृपया ध्यान दें : मेरा पता बदल गया हैनया पता है -

डा. मंगलमूर्त्ति३०२ब्लॉक - एचसेलेब्रिटी गार्डन्स,सुशांत गोल्फ सिटीअंसल एपीआई,    लखनऊ : २२६०३०  मो. ७७५२९२२९३८ / ७९८५०१७५४९ / ९४५१८९००२०  




No comments:

Post a Comment

  सैडी इस साल काफी गर्मी पड़ी थी , इतनी कि कुछ भी कर पाना मुश्किल था । पानी जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था कि सतह के पत्...