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Friday, July 28, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 

पांचवां अध्याय  : कर्मसंन्यासयोग


1. अर्जुन ने कृष्ण से कहा - हे श्रीकृष्ण ! आप कभी तो सन्यास की और फिर कभी कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । कृपया दोनों में से जो भी एक मेरे लिए निश्चित रूप से कल्याणकारी हो, आप मुझे उसके विषय में बताइए ।

2 तब श्रीकृष्ण बोले - देखो अर्जुन, वैसे तो सन्यास एवं कर्मयोग दोनों ही मोक्षप्राप्ति में सहायक होते हैं, लेकिन इन दोनों में कर्मों से सन्यास की तुलना में अनासक्त कर्मयोग अधिक श्रेष्ठ है ।

3. हे परमवीर अर्जुन ! जो मनुष्य किसी से न द्वेष करता है और न ही कोई कामना करता है, ऐसा कर्मयोगी ही सच्चा सन्यासी होता है, क्योंकि राग-द्वेष जैसे द्वंद-भाव से रहित मनुष्य सुखी होकर कर्म के बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।

4-5 वास्तव में कर्मों का परित्याग करते  हुए सन्यास-भाव से ज्ञानयोग का अभ्यास करने वाले विवेकरहित मनुष्य ही समझते हैं कि ऐसे सांख्ययोग तथा अनासक्त-भाव से किए हुए कर्मयोग के लक्ष्य अलग-अलग होते हैं । लेकिन पंडितजन ऐसा नहीं मानते । इन दोनों में से किसी एक मार्ग पर चलते हुए मनुष्य दोनों के अभीष्ट लक्ष्य - परमात्मा को प्राप्त हो सकता है। जो परमपद ज्ञानयोगियों द्वारा प्राप्त हो सकता है, वही परमपद कर्मयोगियों द्वारा भी प्राप्त होता है। इसीलिए लक्ष्य की दृष्टि से जो ज्ञानयोग एव कर्मयोग को एक ही समझता है,  वहीं ठीक समझता है ।

6-7. हे अर्जुन ! कर्मयोग के बिना सांख्य योगी के लिए भी ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मत्याग द्वारा सन्यास का निर्वहन कठिन है । वहीं मननशील कर्मयोगी के लिए परमात्मा को प्राप्त करना संभव हो जाता है । पवित्र अन्तःकरण  वाले जिस व्यक्ति ने मन और इंद्रियों को वश में कर लिया है, और सभी प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा के साथ जो एकात्म-भाव से युक्त हो चुका है, ऐसा कर्मयोगी सब कर्मों को करता हुआ भी उन कर्मों में लिप्त नहीं होता ।

8-9 अनासक्त सांख्ययोगी जो तत्त्वज्ञानी है, देखते, सुनते, सूंघते, स्पर्श करते, भोजन करते, चलते-फिरते सोते, श्वास लेते, मल त्याग करते, कुछ ग्रहण करते, और अपनी आंखें खोलते-मूंदते हुए भी - यानी कुछ भी करते हुए – ऐसा  अनुभव करता है कि सभी इंद्रियां अपना-अपना कर्म स्वाभाविक रूप से कर रही हैं, और वह स्वयं कुछ नहीं कर रहा है ।

10.11. सारी आसक्तियों को त्यागकर और परमात्मा को समर्पित करते हुए जो मनुष्य अपने सभी कर्म करता है वह जैसे जल में रहने वाला कमल-पत्र जल से सर्वथा अछूता रहता है, वैसे ही सभी कर्मों को करतें हुए भी पाप में कभी लिप्त नहीं होता । ऐसा मनुष्य सारी आसक्तियों को त्यागकर शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा केवल आतंरिक शुद्धि के लिए अपने सभी कर्म करता है ।

12-13.कर्मफल में अनासक्त कर्मयोगी अपनी कर्मनिष्ठा से उत्पन्न शांति को स्वत: प्राप्त कर लेता है, किन्तु कर्मफल में आसक्त सकाम मनुष्य अपनी कामनाओं में ही बंधा रह जाता है । अपने अन्तःकरण को पूरी तरह वश में रखनेवाला तत्त्वदर्शी मनुष्य मन से अपने कार्यों के प्रति अनासक्त होकर, समस्त कर्मों को त्याग कर, जैसे कुछ न करता हो और न करवाता हो,  अपने नौ द्वारों वाले शरीर-रूपी घर में, परमात्मा से एकात्म होकर, आनंदपूर्वक निवास करता है ।

14-15 वास्तव में परमात्मा लोगों में कर्तापन के भाव को अथवा उनके कर्मों को या कर्मफ़लों को भी स्वयं नहीं रचता, बल्कि यह सब कुछ उनकी अपनी प्रकृति या स्वभाव द्वारा संचालित होता है । परमात्मा किसी के पाप या पुण्य को कभी ग्रहण नहीं करता । लोगों का अज्ञान उनके ज्ञान को ढंक लेता है जिससे वे मोह से फंसे रहते हैं ।

16-17. किन्तु तत्त्वज्ञान द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है, सूर्य की भांति उनका वह ज्ञान उनके भीतर परमात्मा को उद्भासित कर देता है । परम ब्रह्म के साथ जिनकी बुद्धि और मन एकरूप हो गए हैं, और जो परमात्मा के प्रति पूर्णत: निष्ठावान हैं, और बस उसे ही प्राप्त करने में लगे रहते हैं; जिनके समस्त पाप ज्ञान के द्वारा नष्ट हो गए हैं, वे फिर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते ।

18-19. विद्या तथा विनय से संपन्न ऐसे ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण और चांडाल, गौ, हाथी या कुत्ते - सभी को समभाव से देखते हैं, और जिनका मन समभाव में स्थित होता है, वे अपनी जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार को जीत लेते हैं । परमब्रहृम स्वयं दोषमुक्त और समभाव-स्थित है, इसलिए ऐसे ज्ञानीजन परमात्मा मेँ ही स्थित हो जाते हैं ।

ब्रहमज्ञानी सदा समचित्त रहता है । वह कभी अपनी समचित्तता से विचिलित नहीं होता ।

20-21. जो मनुष्य न प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है, और न अप्रिय को पाकर उद्विग्न, ऐसा संशयरहित, स्थिरचित्त, ब्रह्मज्ञानी मनुष्य निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा में अविचल रूप से स्थित होता   है । सभी प्रकार के वाह्य विषयों में आसक्तिरहिंत अन्तःकरण वाला ऐसा मनुष्य अपने भीतर स्थित आंतरिक आनंद को पूरी तरह प्राप्त कर लेता है, तथा इस परमात्मा से सर्वथा एकात्म होकर  अक्षय आनंद का निरंतर अनुभव  करता है।

22-23. इंद्रियों द्वारा क्षणिक और अनित्य विषय-सुख देने वाले समस्त भोग तत्काल सुखद प्रतीत होते हुए भी अंतत: निस्संदेह दुख के ही कारण होते हैं । इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य उनमे नहीं  रमते । ऐसे मनुष्य अपने जीवनकाल में काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले मनोवेगों को पूरो तरह शांत करने में समर्थ होते हैं, और इस प्रकार परमात्मा में एकात्म योगी के रूप में परम सुखी जीवन व्यतीत करतें हैं ।

24-25. जो मनुष्य अपने भीतर ही सुख का अनुभव करता है और अपनी आत्मा में रमा रहता है, तथा अपने अंतःकरण में ही आत्म-ज्योति के दर्शन करता है, परम ब्रह्म के साथ एकात्म ऐसा ज्ञानयोगी परमपद अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । परमात्मा में पूर्णत: एकात्म एवम् मन को पूरी तरह जीत लेने वाले जिस मनुष्य के सभी पाप, सभी दोष, सब प्रकार के संशय नष्ट हो चुके हैं, और जो सभी प्राणियों के हित में ही सदा संलग्न रहता है,  ऐसा ब्रह्मज्ञानी मनुष्य सहज ही ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त कर लेता है ।

26. काम और क्रोध से रहित मनुष्य जिसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया है, और जो सदा परमात्मा से एकात्म रहता है, ऐसे ब्रह्मज्ञानी के लिए तो सभी ओर परमात्मा ही होता है ।

27-29. वाह्य जगत के स्पर्श-सुखों से अलग रहकर, भौंहों के बीच में दृष्टि को स्थिर करके तथा नासिका से आने-जाने वाले तथा अपान वायु को भी सम करकेबुद्धि और मन को पूरी तरह जीत लेने वाला , जो मोक्ष-परायण योगी भय, क्रोध और इच्छा से रहित हो चुका है, वह परम मुक्त है । और ऐसा योगी मनुष्य मुझको सभी प्रकार के यज्ञों एव तपों  का भोग कराने वाला, समस्त लोकों का परमेश्वर, तथा सभी प्राणियों का सुहृद जानता हुआ परम शांति प्राप्त कर लेता है ।

      || यहाँ श्रीमदभगवदगीता का कर्मसन्यासयोग नामक पाचवां अध्याय समाप्त हुआ ||

© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com


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