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Thursday, July 6, 2017


सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : मंगलमूर्ति

दूसरा अध्याय

1 .धृतराष्ट्र से संजय बोले -अर्जुन की आखे आंसुओं से भर आई थीं । हृदय करूणा से व्याप्त हो रहा था । अर्जुन को इस तरह शोकग्रस्त और व्याकुलनेत्र देखकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने कहा -

2. हे अर्जुन - युद्ध-संकट की इस विषम घडी में यह कैसा मोह तुम्हें घेरने लगा? तुम्हारे जैसे श्रेष्ठ पुरुष के योग्य तो यह आचरण नहीं है । ऐसे आचरण से तो तुम्हें न स्वर्ग की ही प्राप्ति होगी और न इस लोक में ही तुम्हें यश मिलेगा ।

3. अत: हे परंतप अर्जुन! यह कापुरुषता कैसी,  तुम्हारे जैसे वीर योद्धा के लिए तो यह शोभनीय नहीं । उठो, खड़े हो,और मन की इस क्षुद्र दुर्बलता को त्यागो ।

4. तब अर्जुन बोले: हे मधुसूदन ! भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य दोनों ही तो पूज्य हैं मेरे लिए, फिर मै इस रणभूमि में कैसे अपने ही बाणों से उनका वध कर पाऊंगा?

5. इस संसार में भीख मांगकर खाना अच्छा है, परंतु आदरणीय गुरुजन का वध करना नहीं अच्छा । क्योंकि अपने आदरणीय गुरुजन की हत्या करके उनके रक्त से सने हुए अर्थ और काम के सुख को भोगने में कौन सा आनंद मिल सकता है भला ?

6. मेरी समझ में तो बिलकुल नहीं जाता कि क्या करना श्रेयस्कर है -  इस युद्ध में हम उन्हें हरा दें या उनसे ही हार जाएँ। धृतराष्ट्र के ये पुत्र कौरव जो युद्ध में हमारे सम्मुख खड़े है उन्हें यदि हम मार ही डालेंगे तो आखिर हम भी जीवित रहकर क्या पाएंगे?

7. मेरा मन तो दीनता से घिरा जा रहा है । मेरा क्या धर्म है, मुझे क्या करना चाहिए, अभी कुछ भी मुझे नहीं सूझ रहा हैं । हे श्रीकृष्ण, मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ। मेरे लिए जो भी सचमुच कल्याणकारी हो, वह सब मुझे बताने की आप कृपा कीजिए ।

8. मैं सचमुच यह समझ नहीं पाता कि यदि इस समस्त पृथ्वी का निष्कटक ऐश्वर्ययुक्त राज्य भी मुझे मिल जाए, और मैं इंद्रत्व तक प्राप्त कर लूं, फिर भी मेरी सारी इंद्रियों को सुखा देने वाला यह मेरा शोक कैसे दूर हो सकेगा?

9-10. संजय धृतराष्ट्र से बोले – हे राजन ! अंतर्यामी भगवान कृष्ण से इतना कहकर शत्रुओं का मर्दन  करनेवाला आलस्य हीन अर्जुन – मैं नहीं करूंगा  युद्ध! - यह कहता हुआ बिलकुल चुप हो गया, और तब हे  भरतवंशी महाराज धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के बीच शोकमग्न बैठे उस अर्जुन का उपहास-सा करते हुए अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण उससे बाले-

11. हे अर्जुन ! बातें तो तुम ज्ञानियों जैसी करते हो पर जो शोक करने योग्य नहीं है, उनके लिए भी तुम शोकाकुल हो रहे हो । अरे, जो सच्चे ज्ञानी है वे तो न मरने वालों के लिए शोक करते है और न जीने वालों के लिए ।

12. फिर ऐसा भी तो नहीं है कि मैं, तुम अथवा ये सब राजा पहले कभी नहीं थे, या हममें से कोई भविष्य में भी कभी नहीं होगा ।

13 जिस प्रकार यह देहधारी आत्मा, शरीर के बचपन, युवा तथा वृद्ध अवस्थाओं से होकर क्रमश: गुजरता है, उसी तरह मृत्यु के बाद भी वह केवल एक अन्य प्रकार के शरीर को प्राप्त हो जाता है; और धीर तथा ज्ञानी पुरुष आत्मा के इस देहांतर - प्राप्ति से विचलित नहीं होते ।

14 हे कौंतैय अर्जुन, कुंती के पुत्र! भोग्य वस्तुओं के साथ इंद्रियों के संसर्ग से ही सदीं और   गर्मी , सुख और दुख आदि द्वन्द -भाव या परस्पर विरोधी भाव उत्पन्न होते हैं । र्कितु ऐसी संवेदनाएं पूर्णतः  क्षणभंगुर एचं अनित्य होती है - आती हैं और चली जाती हैं । इनमें कोई वास्तविकता नहीं होती । अतः हे भरतवंशी अर्जुन तुम इन्हें पूर्ण अविचलित भाव से ग्रहण   करो।

15. हे पुरूष-श्रेष्ठ अर्जुन ! जो इनसे विचलित नहीं होता, जो धीर-पुरुष है और सुख-दुख में समभाव से रहता है, वहीं मनुष्य अमरत्व-प्राप्ति का अधिकारी होता है ।

16. असत् वस्तु का तो अस्तित्व ही नहीँ होता और न सत् का कभी अभाव होता है । ज्ञानी मनुष्य 'सत्-असत्' के इस मूलतत्व को भलीभांति पहचानते है ।

17-18. जो आत्मा इस संपूर्ण चराचर विश्व के सभी प्राणियों से व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी जानो । उस अविनाशी ब्रहम का नाश कोई नहीं कर सकता । यह आत्मा सदा एकरूप, अविनाशी तथा अप्रमेय अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा अगम्य है । उसके ये सब शरीर ही नाशवान कहे जाते है । अतः हे अर्जुन तुम अवश्य युद्ध करो।

19-20. जो आत्मा को हंता अथवा मारने वाला मानता है या जो इसे हत या मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही इसके तत्व से अपरिचित है, क्योकिं आत्मा न मारता है और न ही मारा जा सकता है । यह आत्मा तो न कभी जन्मता है और न कभी मरता है, अथवा ऐसा भी नहीं कि पहले कभी होकर यह फिर भविष्य में कभी नहीं होगा । अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन इस आत्मा का शरीर के नाश हो जाने पर भी, कभी नाश नहीं होता ।

21. हे पार्थ! जो मनुष्य इस आत्मा को अजन्मा, अविनाशी, अक्षय एवं शाश्वत जानता है वह व्यक्ति भला  किसी को मारता है या मरवाता है, ऐसा कैसे हो सकता है ।

22 जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने पुरान कपड़े उतार कर नये वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक उसी तरह यह आत्मा भी एक जीर्ण शरीर को त्यागकर दूसरा नया शरीर धारण कर लेता है ।

23-24 इस आत्मा को तो शस्त्रादि भी नहीं काट सकते, और न इसको आग ही जला सकती है; इसे न तो पानी भिगो सकता है और न हवा ही सुखा सकती है । इसे न तो छेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न भिगोया जा सकता है, और न सुखाया ही जा सकता है । यह आत्मा तो नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है ।

25. इस आत्मा को सर्वथा अव्यक्त, चिंतन के परे और विकार रहित कहा गया है । आत्मा का यह रूप जानकर तो तुम्हें शोक करना ही नहीं चाहिए ।

26-27. किन्तु यदि अज्ञानवश तुम इसे सदा जन्मने और सदा मरने वाला समझते भी हो, तब भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए, क्योकि तुम्हारे इस तर्क से भी तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना ही सिद्ध होता है । अत: जो अपरिहार्य है, जिसका कोई उपाय नहीं, उस अवश्यम्भावी के विषय से शोक करने से लाभ ?

28. हे अर्जुन! सभी जीव जन्म लेने से पहले तो अप्रकट ही रहते है, केवल जन्म एव मृत्यु के बीच ही तो संसार में वे कुछ समय तक प्रकट दीखते हैं, और फिर मृत्यु के बाद भी तो वे अप्रकट ही हो जाते है । तब उनके लिए शोक क्यों जिया जाए?

29. इस आत्मा को तो कोई आश्चर्यपूर्वक देखता है, और कोई इसे आश्चर्यजनक वताता है, और कोई तो इसके विषय में सुनकर ही अचंभित हो जाता है । र्कितु इसके यथार्थ स्वरुप को जान सकने  वाला  व्यक्ति तो शायद ही कोई होता है ।

30-31. हे अर्जुन! सबके शरीर में रहने वाला शरीर का स्वामी यह आत्मा सर्वथा नित्य और अवध्य है, इसे किसी भी तरह मारा नहीं जा सकता । अतः तुम्हें भीष्म या द्रोण या किसी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए । और यदि तुम अपने क्षत्रिय-धर्मं की बात भी सोचते हो तो भी तुम्हे अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्मयुद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी कर्तव्य क्षत्रिय के लिए हो ही नहीं सकता ।

32 हे पार्थ! वहुत ही भाग्यवान होते है वे क्षत्रिय जिनको धर्मयुद्ध के ऐसे सुअवसर स्वत: प्राप्त हो जाते है, और जो इस प्रकार उनके लिए स्वर्ग का द्वार ही खोल देते हैं ।

33-34. पर यदि तुम इस धर्म-संग्राम से मुह मोड़ोगे तो अपने क्षत्रिय-धर्म और यश को खोकर पाप के भागी ही बनोगे । तब लोग सदा लुम्हारे अपयश की बाते जिया करेंगे, और सम्मानशील व्यक्ति के लिए ऐसी अपकीर्ति मृत्यु से भी बदतर होती है ।

35 दुर्योधन आदि ये बड़े-बड़े महारथी भी तो यहीं सोचेंगे कि तुम भय के कारण ही युद्ध से विमुख हुए हो, और जो लोग अब तक तुम्हारा वहुत आदर करते थे वे अब तुम्हें बहुत तुच्छ समझने   लगेंगे ।

36. तुम्हारे ये शत्रु तब तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत सी अनकहनी बातें कहा करेंगे। तुम्हारे  लिए भला इससे बढ़कर दुख की बात और क्या हो सकती है ?

37. हे कौन्तेय! इसलिए तुम युद्ध करने का निश्चय करके उठ खडे हो, क्योंकि यदि तुम युद्ध में मारे गए तो स्वर्ग प्राप्त करोगे और यदि विजयी हुए तो पृथ्वी का उपभोग करोगे ।

38 सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय का समभाव से स्वागत करके तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ । क्योंकि तब तुम्हें पाप नहीं लगेगा ।

39. हे  पार्थ ! यह मैंने सांख्य  के ज्ञान अथवा ज्ञानयोग के विषय में तुम्हें बताया है । अब तुम निष्काम कर्मयोग  के बिषय में भी जान लो जिससे तुम्हारे कर्म के बंधन टूट जायेंगे ।

40. इस निष्काम कर्मयोग में किया गया प्रारंभिक प्रयत्न भी कभी नष्ट नहीं होता और न उसका कोई विपरीत बाधक प्रभाव ही बीच में उत्पन्न होता है । बल्कि इस निष्काम कर्मयोग का छोटा सा अनुष्ठान भी जन्म और मृत्यु के भयावह चक्र से मुक्त कर देता है ।

41. हे कुरुनंदन अर्जुन! इस कल्याण मार्ग में दृढ़ संकल्प वाली बुद्धि तो एकमुखी होती है, एक ही दिशा में आगे बढ़ती है - किंतु कामना-परायण अविवेकी पुरुषों की बुद्धि अनिश्चयात्मक होने के कारण  अनेकमुखी होकर इधर- उधर भटक जाती है।

42 हे पार्थ! ऐसे अविवेकी लोग वेद के सकाम कर्मकांड की बातों में ही सुखी रहते हैं । वे समझते हैं कि स्वर्गादि सुख देने वाले कर्मकांड से बढ़कर और कुछ भी नहीं, तथा उसका बखान वे सुंदर अलंकृत  शब्दों से करते  नहीं अघाते ।

43-44 ऐसे काम-परायण लोग स्वर्ग-सुख के भूखे होते है तथा कर्मों के फलस्वरूप पुनर्जन्म पाने एवं भोग और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार की क्रियाएं और विधियां बताते हैं । सकाम कर्मकांड की लच्छेदार बातों में स्वयंमुग्ध, तथा भोग और एश्वर्य में लिप्त, ऐसे अज्ञानी पुरुषों की भले-बुरे का विवेक करने वाली बुद्धि निष्काम योग में भलीभांति स्थिर नहीं हो   पाती ।

45. हे अर्जुन! वेद - सत्, रज और तम -  इन तीन गुणों और उनकी क्रियाओं के विषय से बताते है । पर तुम इन तीनो गुणों वाले सकाम कर्म से मुक्त हो जाओ । तुम न तो कुछ पाने की इच्छा करो  और नहीं कुछ जुगाने की – और सुख-दुःख , शीत-उष्ण  -  इस प्रकार के परस्पर विरोधी सभी सांसारिक द्वंद्वों को त्यागकर पूर्णत: आत्मनिष्ठ हो जाओ ।

46 जब सभी ओर जल ही जल भर गया हो तब कुएं और पोखरों का जो महत्व रह जाता है, भलीभांति ब्रहम को जान लेने वाले ज्ञानी के लिए भी फिर वेदों का उतना ही प्रयोजन रह जाता है |
 
47. तुम केवल कर्म करने के अधिकारी हो । उसके फल पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता । तुम्हें कभी भी फल की आकांक्षा से कर्म में प्रवृत्त नहीँ होना चाहिए, और फल नहीं प्राप्त होगा, ऐसा सोचकर तुम्हें कर्म से कभी उदासीन भी नहीँ होना चाहिए ।

48. अत: हे  धनंजय! तुम योग में स्थित होकर, सब प्रकार की आसक्ति को त्यागकर, सफलता और विफलता में समभाव रखते हुए अपना कर्म करते जाओ, क्योकिं इस समत्वभाव को ही योग कहा जाता है ।

49-51. हे धनंजय! जो लोग फल की आकांक्षा मन में लिए हुए कर्म करते है वे तो बड़े दयनीय होते हैं, क्योंकि समत्व वाली बुद्धि की तुलना में सकाम कर्म बहुत ही निकृष्ट होता है। इसलिए तुम समत्व बुद्धि  की ही शरण लो। समत्व बुद्धि वाला मनुष्य पाप और पुण्य दोनों के बंधनों से इस संसार में ही मुक्त हो जाता है । अत: तुम इस समत्व बुद्धि वाले योग को ही अपना लो, क्योंकि इस प्रकार के योग का आचरण करने में ही चतुराई है, और कर्म के बंधनों से मुक्त होने का यहीं सीधा उपाय है । समत्व बुद्धि बाले ऐसे ही ज्ञानीजन कर्मो से उत्पन्न होने वाले सुख-दुख जैसे फलों को त्याग कर, और जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर परम शांतिमय मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।

52-53. ज़ब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल से पूरी तरह उबर जाएगी तब तुम उन सब बातों से पूरी तरह उदासीन हो जाओगे जिन्हें तुमने सकाम कर्म के विषय में अब तक सुना होगा या सुनोगे । और तब अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मा के स्वरूप में स्थिर और अचल हो जाएगी, और तुम सांख्य समत्व योग प्राप्त कर लोगे ।

54 भगवान श्रीकृष्ण के इन वचनों क्रो सुनकर अर्जुन ने उनसे पूछा - हे केशव ! जिस व्यक्ति की बुद्धि इस प्रकार स्थिर हो गई है और जिसका अस्तित्व  आत्मा में स्थित हो चुका है, यह व्यक्ति कैसा होता है? वह बोलता कैसे है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

55 तब भगवान कृष्ण ने कहा हे पार्थ,  सुनो,  जब मनुष्य अपने मन की सभी वासनाओं को एक एक कर त्याग देता है और बाहरी विषयों से सुख की अपेक्षा न रखकर अपने आत्मा में ही आनंदमग्न हो जाता हैं, उसी अवस्था में उसे स्थितप्रज्ञ कहते है ।

56-57. ऐसे ही मनुष्य स्थितप्रज्ञ कहे जाते है जिनका चित्त दुख में व्याकुल नहीं होता और सुख पाते हुए भी उसमें तनिक भी लिप्त नहीं होता, आसक्ति, भय और क्रोध से रहित आत्मस्थ ऐसे व्यक्तियों को ही स्थितप्रज्ञ कहते है । ऐसे व्यक्ति जिनका किसी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो पूर्णत: नि:संग हैं, और न शुभ वस्तु पाकर प्रसन्न होते हैं, न अशुभ को पाकर क्षुब्ध होते हैं, निश्चय ही उनकी बुद्धि प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो चुकी  है, और वे ही स्थितप्रज्ञ है ।

58 वास्तव में स्थितप्रज्ञ वहीं है जो अपनी सभी इंद्रियों को सब प्रकार के विषय-भोगों से ठीक उसी प्रकार समेट लेता है जैसे एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपनी पीठ की खोल के अन्दर खींच लेता है ।

59. किन्तु उपवास, रोगादि के कारण भी इन्द्रियां विषयों से निवृत्त हो जा सकती है -  ऐसी स्थिति में विषय-वासना का मूल संस्कार नष्ट नहीं होता । उनके प्रति लालसा  फिर भी बनी ही रहती है । परंतु जो स्थितप्रज्ञ होता है उसमें विषयों का संस्कार परमात्मा का दर्शन प्राप्त कर लेने के कारण समूल नष्ट हो जाता है ।

60-61. हे  कौन्तेय ! मनुष्य की इंद्रियां इतनी प्रबल होती है कि संयम के निरंतर अभ्यास में लगे हुए विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक विचलित कर ही देती हैं । इसीलिए ज्ञानी मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी सभी इंद्रियों को यत्नपूर्बक वश में रखते हुए योग में मन को स्थिर रखे, क्योंकि जिसकी इंद्रियां वश में हो गयी है उसी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित हो सकती है । वहीं स्थितप्रज्ञ है ।

62-63. जब कोई मनुष्य अपने मन को विषयों के चिंतन में लगा देता है तो उनमें उसकी आसक्ति उत्पन्न हो जाती है । आसक्ति फिर कामना में परिणत हो जाती है और कामना की अतृप्ति के कारण क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से मोह उपजता है जिससे अच्छे-बुरे का विवेक नष्ट हो जाता  है । फिर इस प्रकार की मूढ़ता से स्मृति और बोधशक्ति का नाश होता है, और विवेक-शक्ति के नाश से मनुष्य का ही नाश हो जाता है ।

64-65. संयतचित् मनुष्य जो अपनी इंद्रियों को वश मेँ रखते हुए, राग-द्वेष -  लगाव और विरक्ति -  से मुक्त रहकर इंद्रियों के विषयों में विवरण करता है, यह आत्मा की सात्विक प्रसन्नता को प्राप्त कर लेता है । ऐसी सात्विक प्रसन्नता को पाकर उसके सभी दुखों का नाश हो जाता है, और उस प्रसन्नचित्त मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही आत्मा की शांति  में स्थिर हो जाती है ।

66-67. असंयत मनुष्य में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं हो सकती और न उसमें आस्तिकता की भावना ही होती है । इस भावना के अभाव में उसे कभी शांति  प्राप्त नहीं हो सकती, और जिसे शांति  प्राप्त नहीं होगी उसे भला सुख कहां से मिल सकेगा । भटकती हुई इंद्रियों के पीछे भागने वाला मन मनुष्य की बुद्धि को वैसे  ही हर लेता है जैसे तूफ़ान समुद्र में  जहाज को इधर-उधर भटका कर हुबा देता है ।

68. इसीलिए हे महाबाहु ! मन के साथ-साथ जिसकी सभी इंद्रियां विषयों से खिंचकर पूरी तरह उसके वश में हो गई हों, उसे ही स्थितप्रज्ञ मानना चाहिए ।

69. सभी लौकिक विषयी जीवों के लिए जो रात्रि है संयमी स्थितप्रज्ञ मनुष्य उसी से जगा रहता है, और विषयों जीव जिसमें जागृत-लिप्त रहते है वही आत्मदर्शी के लिए सोने वाली निशा होती है ।

70-71. जैसे अनंत नदियों को अपने अन्दर समाहित कर लेने पर भी सागर कभी अपने तटों की मर्यादा  नहीं लांघते , ठीक वैसे ही स्थितप्रज्ञ मनुष्य की समस्त कामनाएं भी बिना किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए उसके चित् में ही समा जाती है । ऐसे स्थितप्रज्ञ मनुष्य ही शाश्वत शांति प्राप्त कर पाते है । विषय-कामी जीवों के भाग्य में यह शांति कहाँ ! क्योकि जो मनुष्य समस्त कामनाओं का परित्याग करके ,ममता और अहंकार से रहित एव स्पृहाहीन होकर संसार में विचरता है,  शाश्वत शांति उसे ही प्राप्त होती है ।

72. हे पार्थ ! स्थितप्रज्ञ मनुष्य की यही ब्रह्ममय स्थिति होती है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद  वह कभी सांसारिक मोह में नहीं फंसता और अपने अंत समय में भी अपनी इसी निष्ठा में स्थित होकर आनंदमय ब्रहा में लीन  हो जाता है, निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।

      || यहीं श्रीमद भगवद्गीता का सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त होता है ||


© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com

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