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Friday, July 21, 2017


सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 


चौथा अध्याय : ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

1-3.भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! पहले मैंने इस अविनाशी योग को बिवस्वान् सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य ने इस योग को अपने पुत्र मनु को बताया, और मनु ने फिर अपने बेटे इक्ष्वाकु को इसकी शिक्षा दी । इसी प्रकार की सात्विक पंरपरा में राजाश्रय मेँ रहने वाले राजर्षियों ने इसकी शिक्षा को बहुत काल तक सुरक्षित रखा, किन्तु बाद में इस लोक से यह लुप्त हो गया । लेकिन क्योकिं तुम मेरे प्रियजन मित्र और भक्त हो,  इसीलिये आज उसी पुरातन योग को, जो उत्तम और गूढ़ रहस्यमय है, तुम्हें फिर से बता रहा हूँ।

4. इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा - परंतु आप तो इसी युग मेँ जन्मे हैं, और विवस्वान तो पुरातन काल में हुआ, तब उस पुरातन काल में आपने यह योगशिक्षा विवस्वान को दी थी यह कैसे संभव है ।

5-6. श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! तुम्हें नहीं मालूम, लेकिन पहले भी मेरे-तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके है, जिन्हें तुम तो नहीं जानते लेकिन मैं जानता हूँ । क्योंकि सभी प्राणियों का ईश्वर, अविनाशी और अजन्मा होने के बावजूद मैं अपने को प्रकृति के अधीन रखते हुए अपनी योगमाया से प्रकट होता रहता हूँ ।

7-8. हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं फिर से अपने दिव्य रूप की रचना करता हूँ । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्ट जनों के विनाश तथा सत्य और धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए मैं हर युग में अवतरित होता हूँ ।

9-11. मेंरे जन्म-कर्म सब दिव्य और अलौकिक हैं । जो मनुष्य इस सत्य को पूरी तरह जान लेता है वह इस नश्वर शरीर को एक बार त्यागने के बाद पुन: जन्म नहीं लेता, और मेरे साथ एकरूप हो जाता है । मुझे जो मनुष्य जिस प्रकार भजता है, स्मरण करता है, मैं उसे उसी प्रकार प्रेम से अपनाता हूँ । इस प्रकार सभी विवेकवान मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।

12-13. इस मनुष्य-लोक में लोग अपने कर्मों की फल प्राप्ति की इच्छा रखते  हुए देवताओं की पूजा करते हैं , क्योंकि इस प्रकार उनके कर्मों की फल प्राप्ति शीघ्र ही हो जाती है । मैंने मनुष्य के चार वर्णो की रचना उनमें सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण के भिन्न-भिन्न सम्मिश्रण के आधार पर की है, लेकिन उनका रचयिता होने पर भी तुम मुझको कर्म से अलग अविनाशी परमात्मा के रूप में ही देखो ।

14-15. कर्मों के फल में मेरी कोई आसक्ति नहीं है, न उनमें मैं लिप्त होता हूँ । और जो मुझे इस रूप में जानता है वह स्वयं भी कर्मों के बंधन में नहीं बंधता । पुरातन काल में मोक्ष चाहने वाले मनुष्यों द्वारा इसी प्रकार कर्म किए जाते रहे हैं, इसलिए ऐसे निर्लिप्त भाव से कर्म करने वाले पूर्व पुरुषों की भांति ही तुम भी अपने सभी कर्म करो ।

16-18. कर्म और अकर्म क्या है, अर्थात क्या करने योग्य है तथा क्या नहीं करने योग्य है, यह एक अत्यंत गूढ़ विषय है । इसे समझने में बुद्धिमान मनुष्यों की बुद्धि भी भ्रमित हो जाती   है । इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कर्म-तत्व को मैं तुमको अच्छी तरह समझा देता हूँ, जिसे जानकर तुम सभी प्रकार के पापमय कर्म-बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे । तुमको कर्म और अकर्म - दोनों का सही स्वरूप जानना चाहिए । साथ ही तुम्हें यह भी जानना चाहिए कि असत्य, कपट, हिंसा आदि विकर्म अथवा निषिद्ध कर्म जाने जाते हैं । तुम यह भी समझ लो कि एक ही कर्म किसी के लिए करने योग्य होता है तो किसी दूसरे के लिए वही कर्म अकरणीय होता है । हिंसा सामान्यतः निषिद्ध कर्म है, किंतु वीर मनुष्य के लिए यही उचित कर्म भी है । जो मनुष्य सामान्यतः नहीं करने योग्य कर्म में भी अपना उचित कर्तव्य देखता है, अथवा सामान्यतः  करणीय कर्म को भी समय के अनुसार अकरणीय जान लेता है, वही मनुष्य वस्तुत: बुद्धिमान कहा जाता है, जो परमात्मा से संयुक्त योगी की तरह – क्या कब करना या नहीँ करना चाहिए - अपने सभी कर्मों को समझ-बूझकर करता है ।

19-20. जिस मनुष्य के सभी कर्म काम-भावना और संकल्प से रहित हो जाते है, अर्थात जिसमें कुछ प्राप्त करने की इच्छा या प्रयास का भाव नहीं होता, जो ऐसे ज्ञान की अग्नि में अपनी काम-भावना और संकल्प को पूर्णत: भस्म करके अपने सभी कर्म करता है, ऐसे मनुष्य को ही ज्ञानीजन पंडित कहते है । ऐसा मनुष्य सांसारिक लगावों से पूरी तरहे मुक्त और उतना ही आत्मतृप्त जीवन व्यतीत करता है । कर्मों के फल से पूरी तरह अनासक्त होने के कारण यह अच्छी तरह अपने कर्म करते हुए भी जैसे कुछ भी नहीं करता ।

21-23. जिस मनुष्य ने अपने शरीर एवं मन को जीत लिया है, तथा सभी सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त हो कर जो सारी भोग-सामग्री से निर्लिप्त हो गया है, यह अपने सभी शारीरिक कर्मों को करते हुए भी कभी पाप में नहीं फंसता । ऐसा व्यक्ति जो कुछ सहज रूप से बिना कामना के प्राप्त हो जाए उसी से संतुष्ट रहने वाला, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-असफलता, हर्ष-शोक जैसी विरोधी भावनाओं से पूरी तरह मुक्त जीवन व्यतीत करने वाला, अपने सभी कर्मों को करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं बंधता । ऐसे मनुष्य की सभी आसक्तियां नष्ट हो चुकी होती हैं, उसका चित्त ज्ञान मेँ स्थित हो चुका होता है । वह केवल यज्ञ-स्वरूप अपने सभी कर्म करता है, जिससे उसके सारे कर्म अकर्म हो जाते है, अर्थात कर्म करते हुए भी वह अपने कर्मों के फल से अलग हो जाता है ।

ऐसे योगी द्वारा यज्ञकर्म में अर्पण तथा आहुति देकर हवन किया जाता है। आगे के सात श्लोकों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों – ब्रह्म-यज्ञ, दैव यज्ञ, अभेददर्शन यज्ञ, आदि का वर्णन है ।

24. यज्ञकर्म में हवन सामग्री, यज्ञकर्ता के द्वारा उसका अर्पण और आहुति देकर हवन करना - ये सभी ब्रहम-स्वरूप कर्म होते है, और इस ब्रहम-स्वरूप कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त होने वाला फल भी ब्रहम होता है ।

इन्द्रियों में भोग की स्वाभाविक प्रवृत्ति को संयम की अग्नि में भस्म करना एक यज्ञकर्म ही है जिससे आत्मा का उन्नयन होता है | आँख, कान ,नाक, जीभ और त्वचा - ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं; इनके व्यवहार का पूर्ण निषेध नहीं, बल्कि पूर्ण संयम आवश्यक होता है, तभी मनुष्य सच्चे आत्मानन्द को प्राप्त कर सकता है।

25. कुछ योगी देवतागण की पूजा को यज्ञ के रूप मेँ संपन्न करते है, कुछ अन्य यज्ञरूप अपने 'स्व' को ही ब्रहमरूप यज्ञ की अग्नि में होम करके यज्ञ संपन्न करते है और इस प्रकार ब्रहम से एकाकार होते हैं ।

26. कुछ योगीज़न श्रोत्र अर्थात सुनने की इंद्रिय तथा अपनी अन्य ज्ञानेद्रियों को बिषयभोग से रोककर वश में करते हुए संयमरूपी अग्नि में होम करते है । उसी प्रकार कुछ अन्य शब्द आदि इंद्रियों के विषयों को इंद्रियों की ही अग्नि में होम करते हुए उन्हें समाप्त कर देते है।इन्द्रियों की भोगवृत्ति को संयम की अग्नि में जला डालना भी एक यज्ञ है , जिससे आध्यात्मिक चेतना विकसित होती है । सुनने, बोलने और देखने जैसी इन्द्रियों को तपाकर शुद्ध करना भी यज्ञ' ही है जिससे आत्मा का निश्चित उन्नयन होता है ।

27-28. ऐसे योगीज़न ज्ञान से आलोकित हो कर अपनी समस्त हद्रियों के कर्मों तथा प्राणवायु से जुडी सभी क्रियाओं को भी आत्मसंयम की अग्नि में होम कर देते हैं । अन्य योगी मनुष्य द्रव्य-दान और तप-योग द्वारा – अर्थात विभिन्न वस्तुओँ के त्याग द्वारा तथा तप और साधना आदि द्वारा यज्ञ करते है । कुछ अन्य अहिंसा आदि कठिन व्रतों के पालन एवं स्वाध्यायपूर्वक ज्ञानार्जन द्वारा यज्ञ करते हैं ।

परमात्मा के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित कोई जनहितकारी श्रेष्ठ कर्म एक यज्ञ ही होता है । जो द्रव्य दान, तपश्चर्या आदि के रूप में किया जाता है, और जिससे आत्मा के उन्नयन एवं परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । अगले दो श्लोकों में योगाभ्यास की प्राणायाम विधियों की चर्चा   है । शरीर में वायु-प्रवाह के जो पांच प्रकार हैं उनको पञ्च–प्राण कहते हैं । सम्पूर्ण शरीर में इनके क्रमशः पांच स्थान हैं – हृदय , मूलाधार या रीढ़, नाभि, कंठ, और सम्पूर्ण शरीर । इस वायु प्रवाह को हम मुख्यतः प्राण और अपान – श्वास और अशुद्ध वायु – के रूप में जानते हैं, जो हमारे शरीर से निःसृत होती हैं । योग में प्राण–वायु को  अपान-वायु में पूरक योगकर्म  द्वारा तथा अपान-वायु को प्राण-वायु में रेचक योग्कर्म द्वारा विलीन करते हैं, तथा इस दोनों प्रकार के वायु को कुम्भक योगकर्म द्वारा रोकना प्राणायाम यज्ञ का एक स्वरुप होता है । इन श्लोकों में इन्हीं योगक्रियाओं का वर्णन हैं जो योगीजन द्वारा किये जाने वाले प्राणायाम-यज्ञ  के विभिन्न प्रकार हैं।

29-30. अन्य कुछ योगीज़न अपान-वायु में प्राण-वायु का हवन कर देते है, अथवा प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं । कुछ अन्य प्राण-वायु और अपान-वायु को रोककर प्राणायाम करते हैं। इसी प्रकार अन्य योगीज़न नियमित आहार वाले प्राणों को प्राण वायु में ही हवन कर देते है । इस प्रकार के यज्ञों द्वारा अपने पापों का विनष्ट करने वाले योगीज़न यज्ञ का महत्व जानने वाले होते हैं ।

31-32. हे अर्जुन ! ऐसे यज्ञों से बचे हुए अमृत को पान करनेवाले योगीज़न सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य इन यज्ञों को नहीं कर पाते उनका यह लोक तो सुखमय नहीं ही होता, फिर भला उनका परलोक सुखदायी कैसे हो सकता है । ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों के विषय में वेदों में विस्तार से बताया गया है । यह जान तो कि ऐसे सभी यज्ञ दैहिक क्रियाओं द्वारा संपन्न किए जा सकते हैं । इसे जान लेने पर तुम सारे बंधनों से मुक्त हो जाओगे ।

विभिन्न द्रव्यों अथवा सामग्रियाँ से तो यज्ञ संम्पन्न करते ही हैं, चिंतन-मनन आदि से ज्ञानयज्ञ भी करते हैं, परन्तु द्रव्य-यज्ञ में क्रिया तथा ज्ञान–यज्ञ में विचार की प्रधानता होती है, और यद्यपि द्रव्य-यज्ञ से मनुष्य-जीवन सुखी होता है, किन्तु ज्ञान–यज्ञ की परिणति जब ज्ञान चेतना में होती है, तभी अंतिम सिद्धि की प्राप्ति होती है । ज्ञान उस अग्नि की तरह है, जिसमें सभी कर्म हुत होकर भस्म हो जाते हैं, और मनुष्य कर्मों के बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।  अतः -

33-34. हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यादि से किए हुए यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ होता है । और द्रव्ययज्ञ द्वारा चित्तशुद्धि हो जाने पर अंततः ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, क्योकिं संपूर्ण यज्ञकर्म की पराकाष्ठा ज्ञान ही है । तत्वज्ञानी महात्माओं के पास जाकर उनको  प्रणाम करने, उनकी सेवा करने , और आत्मशुद्धि पूर्वक उनसे प्रश्न पूछने से तुम यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हो । इस प्रकार वे तत्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें ज्ञान का उपदेश देंगे ।

35-36 उस ज्ञान को पा लेने के बाद हे अर्जुन ! मोह-बंधन से तुम सर्वथा मुक्त हो जाओगे, और संसार के सभी प्राणियों को तुम अपने में अपने जैसा ही देखोगे, अथवा सबको ही मुझमें देख सकोगे । और यदि तुम सभी पापीज़न से भी बढ़कर पापी होगे, तब भी उस ज्ञान की नौका से पाप की उस नदी को आसानी से पार कर लोगे ।

37-38. हे अर्जुन । जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि समिधा-सामग्री को जलाकर भस्म कर देती है, उसी तरह ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है । ज्ञान जैसा सब कुछ को पवित्र कर देने वाला निश्चय ही इस संसार में और कुछ नहीं है । जिस व्यक्ति ने कर्मयोग द्वारा कालक्रम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लिया है, वह उस ज्ञान को स्वयं ही अपने आत्मा में प्राप्त कर लेता है ।

39-40. श्रद्धावान मनुष्य अपनी सभी इंद्रियों को पूर्णत: वश में रखते हुए ज्ञानप्राप्ति के प्रयास मेँ तत्पर होकर ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, और इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है । ज्ञान और श्रद्धा से रहित एवं सदा संशययुक्त रहने वाला  मनुष्य तो नष्ट हो जाता है, क्योंकि सदा संशय में रहने वाले को कभी सुख नहीं प्राप्त होता । वस्तुत: ऐसे मनुष्य के लिए न यह लोक सुखदायी होता है और न परलोक में ही उसे सुख प्राप्त होता है ।

41-42. हे अर्जुन ! जिसने योगकर्म से अपने सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित का दिया है, एवं विवेकपूर्वक अपने सभी संशयों को नष्ट कर दिया है, तथा अपने अन्तःकरण  को पूरी तरह वश में कर लिया है, ऐसे मनुष्य को लोककर्मं अपने पाश में नहीं बाँध सकते । अतः हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम अज्ञान से उत्पन्न अपने हृदय में स्थित इस संशय को ज्ञान की तलवार से काट डालो और पूरी तरह कर्मयोग में स्थिर होकर उठ खड़े हो ।

  || यहीं श्रीमदभगवद्गीता का ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक चौथा अध्याय समाप्त हुआ ||


© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com

मो.+91-7752922938

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