Followers

Thursday, July 13, 2017

सरल श्रीमदभगवद्गीता

हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति 


तीसरा अध्याय : कर्मयोग

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा

1-2. हे जनार्दन! यदि आपके विचार से कर्म की अपेक्षा ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ है तो फिर आप मुझे युद्ध के इस भयंकर कर्म के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं ? आपकी इन भ्रम में डालने वाली बातों से मेरी बुद्धि चकरा रही है । अत: हे केशव ! आप किसी एक सिद्धांत को निश्चित करके कहिए ताकि मैं वैसा ही कर सकूं ।

तब श्रीकृष्ण ने कहा -

3-4. हे पाप से मुक्त पवित्र अर्जुन ! मैंने तुमको पहले ही बताया है कि इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा अथवा दो प्रकार के मार्गों का अनुसरण किया जा सकता है, चिंतनशील ज्ञानियों  द्वारा ज्ञानमार्ग का तथा कर्मशील पुरुषार्थी व्यक्तियों द्वारा कर्मयोग मार्ग का अनुसरण किया जाता है । यह जान लो कि केवल कर्म नहीं करने से ही मनुष्य कर्म से मुक्त नहीं हो सकता, अथवा कर्मों का पूरी तरह त्याग करने मात्र से वह ब्रहूमज्ञान अथवा मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता ।

5. वास्तव में तो कोई मनुष्य क्षणमात्र के लिए भी बिना किसी प्रकार का कोई कर्म किए रह ही नहीं सकता । निरंतर कोई न कोई कर्म करते रहना तो उसकी प्रकृति का अनिवार्य गुण ही है ।

6-7 कुछ मूढ़ मनुष्य ऐसे होते है जो अपनी इंद्रियों को भोग – सुख से हठपूर्वक रोककर भी मन-ही-मन अंदर-अंदर उन भोगों का चिंतन करते रहते हैं । ऐसे मनुष्य मिथ्याचारी और दंभी होते  हैं । हे अर्जुन ! मनुष्य वहीं श्रेष्ठ होता है जो मन से अपनी इंद्रियों को संयमित करके, इंद्रिय-भोग से पूर्णत: अनासक्त होकर कर्मयोग का आचरण करता है ।

8. तुझे शास्त्रों द्वारा मान्य उत्तम कर्म ही करना है, क्योकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, और कर्म न करने से तू भला अपना शरीर-निर्वाह तक कैसे कर सकता है ।

9. परोपकार के लिए किए हुए त्यागमय उत्तम कर्म अथवा यज्ञ आदि कर्मों को छोड़कर लोग सामान्य लोक कर्मों को करते हुए उन्हीं में उलझे रह जाते है । हे अर्जुन!  तुम आसक्ति से पूरी तरह मुक्त होकर यज्ञ की भावना से इस प्रकार के उत्तम कर्म करो ।

10-11. कल्प के प्रारंभ में ही ब्रह्मा ने इसी प्रकार यज्ञकर्म से प्रजाओं की रचना की और उनसे कहा कि इसी प्रकार के यज्ञकर्म को करते हुए आप सभी की उत्तरोतर वृद्धि होगी, और आपकी सभी इच्छाएं इसी प्रकार के यज्ञकर्म से पूरी होती रहेंगी। ऐसे ही यज्ञकर्मों से आप देवताओं को उन्नति प्रदान करेंगे और वे भी आपको उन्नति देते रहेंगें, और परस्पर उन्नति करते हुए इसी प्रकार आप सब परम कल्याण प्राप्त कर सकेंगे ।

12-13. आपके इन यज्ञकर्मों से तृप्त देवगण आपको सभी प्रकार के भोग प्रदान करेंगे,  लेकिन देवगण से प्राप्त ऐसे भोगों को जो मनुष्य बिना उन्हें समर्पित किए हुए भोगता है, वह एक प्रकार से चोरी ही करता है। और यज्ञकर्म में देवगण को समर्पित प्रसाद से बचे हुए अंश को खाने वाले श्रेष्ठ जन सारे पापों से मुक्त हो जाते हैं । वहीं जो पापी जन केवल अपनी क्षुधाशांति के लिए भोजन पकाकर खाते है, वे तो जैसे पाप ही का भोजन करते है ।

14- 16. सभी प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते है । अन्न की उपज वर्षा से होती है, और बर्षा यज्ञ से ही होती है । यज्ञ का कारक भी कर्म है, और कर्म वेद से उत्पन्न होते है, तथा वेद को उत्पन्न करने वाला अविनाशी ब्रह्मा है । अत: सर्वव्यापी ब्रह्मा निश्चय ही यज्ञ में प्रतिष्ठित रहता है । हे पार्थ ! जो मनुष्य इस संसार में इस निर्धारित सृष्टि-चक्र के अनुसार अपना जीवन नहीं व्यतीत करता, वह पाप से घिरे हुए इंद्रिय-भोगों में फंसा रह कर अपना जीवन व्यर्थ ही व्यतीत करता है ।

1 7- 18 किन्तु जो मनुष्य अपने आत्मा में ही रमा रहता है, उसी में तृप्त और संतुष्ट रहता है, उसके लिए कर्तव्य जैसा कुछ भी नहीं होता । ऐसे व्यक्ति के लिए न तो सांसारिक कर्मों के करने से कोई लगाव होता है और नहीं उन्हें न करने की उसमें कोई प्रवृति होती है । ऐसे  मनुष्य का तो संसार के सभी प्राणियों से स्वार्थ का कोई नाता ही नहीं होता ।

19. अत: तुम पूर्ण अनासक्त होकर निरंतर अपना कर्म करत चलो, क्योंकि इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करते हुए तुम परमात्मा को प्राप्त कर लोगे ।

20-21. राजा जनक जैसे ज्ञानी पुरुष आसक्ति से मुक्त कर्म करते हुए ही सिद्ध पुरुष बने । अत: तुम्हें भी लोकहित को ध्यान में रखते हुए अपना कर्म करते रहना चाहिए । यह जान लो  कि श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करते है अन्य लोग भी उसी का अनुसरण करते है । श्रेष्ठ मनुष्य के आचरण को ही आदर्श  मानकर संसार के अन्य लोग उसी मार्ग पर चलते हैं ।

22-24. हे अर्जुन ! मेरे लिए इन तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य करना आवश्यक नहीँ है, और न ही मेरे लिए प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु इस सृष्टि अप्राप्य ही है, फिर भी में सजग होकर निरंतर कर्म करता रहता हूं हैं क्योकि यदि मैं ऐसा न करूं तो सभी मनुष्य मेरी ही देखा-देखी पूर्णत: निष्क्रिय  हो जायेंगे , और मेरे निष्क्रिय होने पर यह सारी सृष्टि ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी जिससे सारी प्रजा के विनाश का में दोषी बन जाऊंगा ।

25-26 अज्ञानी मनुष्य अपने सारे कर्म स्वभावतः  भोगादि में आसक्त होकर ही करते है । किंतु ज्ञानी मनुष्य को भोगादि कर्मों से पूरी तरह अनासक्त होकर लोकहित में अपने सारे कर्म संपन्न करने चाहिए । इस प्रकार ज्ञानी मनुष्य को पूर्णतः: अनासक्त होकर अपने सारे कर्म करते देखकर अज्ञानी भोगलिप्त मनुष्य का भ्रम भी दूर होगा; वह समझ जाएगा कि उसको भी अपने सभी कर्म पूर्णत: अनासक्त होकर ही करना चाहिए, और इस प्रकार वह भी पूरी तरह अनासक्त हो कर सभी कर्म करने को प्रेरित होगा ।

27-30. वास्तव में कर्म तो सभी प्रकृति के बने हुए नियमों के अनुसार ही होते है, किन्तु भ्रम में पडा हुआ मनुष्य अहंकारवश समझता है कि सब कर्मों का कर्ता वह स्वयं है । परंतु हे महाबाहो अर्जुन ! प्रकृति के नियम और मनुष्य के कर्म के इस गूढ़ अंतर को समझने वाला ज्ञानी मनुष्य कभी कर्मों में आसक्त नहीं होता, और जो लोग अज्ञानवश उनमें आसक्त रहते है, ज्ञानी मनुष्य को उन्हें भ्रमित होने से बचाना चाहिए । अत: अपनी विकसित आध्यात्मिक चेतना के साथ अपने सभी कर्मों को मुझको समर्पित करके अब तुम आशा, ममता और संताप छोड़कर युद्ध प्रारम्भ करो ।

31-32. जो भी मनुष्य भ्रम मेँ फंसे बिना मेरी इस शिक्षा का श्रद्धापूर्वक सदा अनुसरण करते हैं  वे सभी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते है । किंतु जो अज्ञानी मनुष्य भ्रम में पड़कर मेरी इस सीख का अनुसरण नहीं करते, तुम यह जान लो कि ऐसे सभी अज्ञानी और भ्रमित मनुष्य अंतत: नष्ट हो जाते है ।

33-34. सृष्टि में सभी प्राणी प्रकृति के विधान के अनुसार अपने कर्म करते हैं, और ज्ञानी मनुष्य भी प्रकृति के विधान के अनुसार ही कर्म करते हैं । इसमें कोई हठपूर्वक कुछ कैसे कर सकता है? प्रत्येक इंद्रिय को क्या भाता है, अथवा नहीं भाता, यह तो प्रकृति के नियमों  के अनुसार ही होता है। मनुष्य को इन दोनों ही प्रवृत्तियों -  इससे सुख मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा -  इन दोनों ही बातों  में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही प्राकृतिक प्रवृत्तियां मनुष्य के कल्याण-मार्ग में बाधक बनती हैं ।

35. विशेष परिस्थिति में किसी अन्य धर्म अथवा कर्तव्य  का पालन करना यदि ज्यादा  अच्छा भी लगता हो तो कम अच्छा लगने पर भी अपने धर्मं या कर्तव्य का पालन करना ही श्रेष्ठ है । उस समय अन्य धर्म या कर्तव्य  का पालन करना किसी तरह कल्याणकारी  नहीं हो सकता, बल्कि हर दृष्टि से भयकारी ही होता है ।

भाव यह है कि हिंसात्मक होने पर भी युद्ध की इस परिस्थिति में अर्जुन के लिए ब्राह्मणोंचित अहिंसा के परधर्म से अपना क्षत्रिय-धर्म ही श्रेष्ठ है । यहाँ अर्जुन के लिए हिंसा ही धर्मं-संगत है, और अहिंसा धर्म का पालन ही अकल्याणकारी  एवं भयकारी है ।

36. इस पर अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण ! यदि ऐसा है तो अच्छाई के रास्ते  पर चलने  वाले मनुष्य को भी उसकी इच्छा के विपरीत पाप की ओर कौन बलपूर्वक प्रेरित करता है ?

37. श्रीकृष्ण बोले-  काम-वासना और क्रोध, ये दोनों ही रजोगुण से उत्पन्न पापकारी दुर्गुण है, और दोनों ही अति भयंकर अग्नि की तरह अपनी चपेट में सब कुछ जला डालने वाले पाप-प्रेरक दुर्गुण  होते है । तुम इन्हें अपना परम शत्रु समझो ।

38. जैसे आग को धुंआ ढंक लेता है, जैसे आइने को धूल ढंक लेती है, जैसे बच्चा गर्भ  मेँ ढंका होता है, ठीक उसी तरह काम-भावना ज्ञान को सभी ओर से ढंक लेती है ।

39. लेकिन प्रज्जवलित  अग्नि की तरह, जिसमें जलाने की भूख बढ़ती ही जाती है, काम-भावना भी उसी तरह भोग से संतुष्ट होने के बजाय और बढती ही जाती है, और एक दुश्मन की तरह ज्ञान को जलाकर बिल्कुल भस्म कर देती है ।

40-41. मनुष्य की इंद्रियां, उसका मन और उसकी बुद्धि, ये सभी इस काम-भावना के घर जैसे होते हैं, जो इन सबको अपने मोह में घेर कर नष्ट कर देती हैं । इसीलिए है अर्जुन ! पहले  तुम अपनी सभी इंद्रियों को पूर्णत: वश में करके तुम्हारे ज्ञान और विवेक को भ्रमित  करने वाली इस सर्वग्राही काम-भावना को नष्ट कर डालो ।

42. तुम्हारे इस स्थूल शरीर से तुम्हारी ये इंद्रिया बलवान हैं,  और उनसे बलवान तुम्हारा मन है, फिर तुम्हारे मन से भी शक्तिशाली है तुम्हारी बुद्धि,  और इन सबके उपर, इन सब से सूक्ष्म है तुम्हारा आत्मा ।

43. इस प्रकार हे अर्जुन !  आत्मा को बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलशाली जानकर अपने बुद्धि-विवेक से पहले अपने मन को वश में कर लो, और तब अपने दुर्जेय शत्रु - अपनी काम-भावना को मार डालो ।

        ।| यहीं श्रीमदभगवद्गीता का कर्मयोग नाम का यह तीसरा अध्याय समाप्त हुआ |।

© डा. मंगलमूर्ति  
bsmmurty@gmail.com

मो.+91-7752922938

Older Posts  पर क्लिक करके आप इस ब्लॉग की पूर्व की सब सामग्री पढ़ सकते हैं - गीता के पूर्व के अध्याय,  और उससे पूर्व सम्पूर्ण रामचरित मानस तथा दुर्गा सप्तशती की सरल हिंदी में कथा |  


आप कमेंट्स में अपनी जिज्ञासाओं को भी अंकित कर सकते हैं |

No comments:

Post a Comment

  सैडी इस साल काफी गर्मी पड़ी थी , इतनी कि कुछ भी कर पाना मुश्किल था । पानी जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था कि सतह के पत्...