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Sunday, May 7, 2017

रामचरित मानस : पुनर्पाठ 
[ पूर्व के कथासार का विवरण नीचे देखें ]



किष्किन्धा काण्ड
कथासूत्र – १

रामचरित मानस की कथा में किष्किन्धा काण्ड सबसे छोटा है जिसमें केवल ३० ही दोहे हैं| किष्किन्धक पुराण-काल में भारतवर्ष का एक भौगोलिक क्षेत्र था जो वर्त्तमान मैसूर के आस-पास का क्षेत्र है| रामायण-युग में यह क्षेत्र घने जंगलों से भरा था| वानरराज बालि वहीं के राजा थे और किष्किन्धा उनकी राजधानी थी| सुग्रीव बालि का छोटा भाई था, और बालि के ही पुत्र का नाम अंगद था| बालि और सुग्रीव में झगडा हो गया था और बालि ने सुग्रीव को राज्य से निष्काषित कर दिया था जिसके बाद वह बालि के भय से निकट के ऋष्यमूक पर्वत पर अपने मंत्री हनुमान के साथ रहने लगा था| बालि ने सुग्रीव की पत्नी का भी हरण कर लिया था|

किष्किन्धा काण्ड में श्रीराम के सुग्रीव और हनुमान से मिलने की कथा है जब श्रीराम ने बालि को मार कर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाया था| पूरी कथा इस प्रकार है|

श्रीराम नारद मुनि से मिलने के बाद जब पम्पा सरोवर से आगे बढे तो दोनों भाई  उसी क्षेत्र में ऋष्यमूक पर्वत के निकट पहुंचे|

     आगे चले बहुरि रघुराया, रिष्यमूक पर्वत नियराया|
     तंह रह सचिव सहित सुग्रीवा,आवत देख अतुल बल सींवा|
     अति सभीत कह सुनु हनुमाना,पुरुष जुगल बल रूप निधाना|
     धरि बटु रूप देख तें जाई, कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई|१-२|

दो मनुष्यों को दूर से ही आता देख सुग्रीव डर कर अपने मंत्री हनुमान से बोला कि तुम एक ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण कर जाओ और देखो तो कहीं ये बालि के भेजे गुप्तचर तो नहीं हैं| उनसे पूछकर जैसा हो वहीं से तुम मुझको इशारे से बताना, क्योंकि अगर ये बालि के भेजे दुश्मन हैं तो मैं पहले ही यहाँ से भाग  निकलूंगा| हनुमान को यद्यपि पूर्वाभास हो गया था कि ये दोनों साधारण मनुष्य नहीं लगते, ये अवश्य ही अवतारी श्रीराम ही हैं| फिर भी जब वे दोनों भाइयों के पास पहुंचे तो उनसे उनका परिचय पूछा| श्रीराम बोले –

     कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए|
     नाम राम लछिमन दोउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई|
    इहाँ हरी निसिचर बैदेही,  बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही|१.१|

श्रीराम का परिचय सुनते ही हनुमान उनके चरणों पर गिर पड़े और कहा कि मंद-बुद्धि वानर होने के कारण ही वे उनको प्रभु-रूप में नहीं पहचान सके| फिर कहा कि आप वानरराज सुग्रीव से मित्रता कर लें जो इसी पर्वत पर अपने भाई बालि से त्रस्त होकर छिप कर रहते हैं| वह सीताजी को ढूँढने में अपनी वानरसेना के साथ आपकी पूरी सहायता करेंगे| इसके बाद हनुमान श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई को अपने कन्धों पर बिठा कर सुग्रीव से मिलाने ले चले|     
          
किष्किन्धा काण्ड                                           
कथासूत्र – २

हनुमान श्रीराम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठा कर जब ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के पास पहुंचे तो वह बहुत हर्षित हुआ और उसने दोनों भाइयों का ह्रदय से स्वागत किया| सीता-हरण का प्रसंग सुन कर उसने श्रीराम को बताया कि कुछ ही दिन पूर्व उसने देखा था कि कोई सीता का अपहरण कर आकाश-मार्ग से लेकर भागा जा रहा है| सीता – ‘हा, राम! हा, राम’ चिल्लाती जा रहीं थीं और उन्होंने अपने दुपट्टे का एक टुकड़ा गिराया था जो उसके पास है| श्रीराम ने उस टुकड़े को ह्रदय से लगा लिया| श्रीराम की व्याकुलता देखकर सुग्रीव ने उनको ढाढस देते हुए कहा, मैं सीता की खोज कराऊंगा आप निश्चिन्त रहें| फिर सुग्रीव ने श्रीराम को अपना दुखड़ा सुना कर कहा कि कुछ दिन पूर्व उसके भाई बालि का युद्ध मायावी नामक राक्षस से एक गुफा में हुआ था| गुफा के बाहर रक्त की धारा देख कर मैंने समझा कि बालि मारा गया और भय के मारे गुफा के मुंह पर एक बड़ी-सी चट्टान रख कर मैं  भाग आया था| बालि को मरा मान कर लोगों ने मुझको राजा बना दिया, लेकिन बालि लौट आया और मुझे विश्वासघाती समझ कर उसने मुझको बहुत मारा और राज्य से भगा दिया तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया| मैं आकर इस पर्वत पर रहने लगा क्योंकि एक शाप के कारण बालि यहाँ नहीं आ सकता| तब श्रीराम बोले – ‘सखा सोच त्यागहु बल मोरें,सब बिधि घटब काज मैं तोरें’| मैं तुम्हारी पूरी सहायता करूंगा, तुम मेरे बल की चिंता मत करो| फिर कहा मैं जब उसे मारूंगा तब उसको ब्रह्मा और शिव भी नहीं बचा सकेंगे  -

    सुनु सुग्रीव मारिहऊं बालिहि एकही बान|
     ब्रह्म रूद्र सरनागत  गएँ न उबरहिं प्रान |६|

जब सुग्रीव पूरी तरह आश्वस्त हो गया तब राम ने उससे कहा अब तुम जाकर बालि को ललकारो और उससे युद्ध करो| वह जब तुमको मारने चलेगा तभी मैं अपने वाण से उसका वध करूंगा| सुग्रीव बालि के पास जाकर गरज-गरज कर उसको ललकारने लगा| बालि तुरत निकला और सुग्रीव से युद्ध में भिड गया| बालि अत्यंत बलवान था और देखते-देखते उसने मुक्कों से मार-मारकर सुग्रीव को लहुलुहान कर दिया| इसी समय अवसर देख कर श्रीराम ने बालि के ह्रदय में वाण मारा और वह भूमि पर गिर पडा| कातर होकर घायल बालि बोल उठा –


     धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं, मारेहु मोहि ब्याध की नाईं|
     मैं बैरी सुग्रीव पियारा, अवगुण कवन नाथ मोहि मारा|८.३|

श्रीराम ने कहा तुमने अनीतिपूर्वक छोटे भाई की स्त्री का अपहरण कर लिया था| छोटे भाई की स्त्री, बहन और पुत्रवधू, ये सब पुत्री के सामान होती हैं – इनको जो बुरी दृष्टि से देखता है उसका वध करना ही न्यायसंगत है|

     अनुज बधू भगिनी सूत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी|
     इनहि कुदृष्टि बिलोकई जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई|८.४|

किन्तु, मैं तुम्हे सद्गति प्रदान करता हूँ और अब तुम्हारे स्थान पर सुग्रीव को राजा और तुम्हारे पुत्र अंगद को युवराज बनाता हूँ| इस प्रकार श्रीराम ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया और अंगद को युवराज घोषित कर दिया| सुग्रीव से श्रीराम बोले कि अब तुम सुखपूर्वक राज्य करो, किन्तु मेरे कार्य को कभी भूलना मत – ‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू,संतत ह्रदय धरेहु मम काजू’| फिर श्रीराम भाई लक्ष्मण के साथ निकट के प्रवर्षण पर्वत पर जाकर एक सुन्दर प्राकृतिक गुफा में रहने लगे|

रामचरित मानस की रामकथा में श्रीराम के सगुण और निर्गुण रूप साथ-साथ मिलते हैं| अर्थात, सगुण रूप में वे एक मानव की भांति व्यवहार करते दिखाई देते  हैं, किन्तु साथ ही अपने निर्गुण रूप में वे सदा ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति भी कराते रहते हैं| बालि का वध उन्होंने सगुण रूप में अनुचित के प्रतिकार के रूप में किया, किन्तु वहीं निर्गुण रूप में उसे सद्गति भी प्रदान की| चौदह वर्षों का वनवास उन्हें सगुण रूप में बिताना था, लेकिन राक्षसों का वध उन्हें निर्गुण रूप में अन्याय और अनाचार के लिए करना था, क्योंकि राक्षस पापाचार के ही प्रतीक हैं| सगुण रूप आँखों से देखा जा सकता है और निर्गुण रूप का मन में अनुभव किया जा सकता है|

किष्किन्धा काण्ड                                          
कथासूत्र – ३

सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर श्रीराम लक्ष्मण के साथ प्रवर्षण पर्वत पर रहने लगे थे| गर्मी का मौसम बीत चुका था और वर्षा ऋतु आ गयी थी| पूरा पर्वत-प्रदेश सुखावह हरियाली से भर गया था| यहाँ तुलसीदास वर्षा ऋतु में प्रकृति का सुन्दर वर्णन करते हैं| लेकिन साथ ही वे सुन्दर- सुन्दर उपमाओं में उपदेश भी देते चलते हैं, जैसे – ‘फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुण ब्रह्म सगुन भएँ जैसा’| तालाबों में कमल वैसे खिल गए हैं जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप में दिखाई देने लगे हों| अर्थात, पहले पानी के अन्दर अपने जड़ में वे कमल के फूल अदृश्य रूप में थे पर वर्षा ऋतु के आने पर वे सगुण रूप में फूल कर दिखाई देने लगे हैं|

इस प्रकार कुछ दिन में वर्षा ऋतु के बीतने पर शरद ऋतु आ गयी, पर सुग्रीव जैसे श्रीराम के वचन भूल बैठा था| तब लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर उसे भय दिखाया तो वह लज्जित डरा हुआ श्रीरामजी के पास आया और उनसे क्षमा मांगने लगा| फिर उसने अपनी विशाल वानर सेना को बुलाया और उनसे कहा –

     राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहुं चहुँ ओरा|
     जनकसुता कहुं खोजहु जाई, मास दिवस मंह आएहु भाई|२१.३-४|

इस विशाल वानर सेना में नील, अंगद, जाम्बवान और हनुमान जैसे महावीर वानर भी थे| वे सभी अब सीता की खोज में लग गए|  लेकिन हनुमान उन सबों में परमवीर थे| यह सोच कर श्रीराम ने उनको अपनी अंगूठी उतार कर दी और कहा कि इसे देखकर सीता तुम्हें पहचान जायेंगी| सभी वानर वन में चारों ओर घूमने लगे| तब उनकी भेंट एक गुफा में तप कर रही एक तपस्विनी से हुई| सब वानरों का स्वागत करते हुए उस तपस्विनी ने कहा कि अब तुम सभी वानर क्षण भर के लिए अपनी आँखें मूँद लो, और जब तुम आँखें खोलोगे तो तुम लोग अपने को एक समुद्र के तट पर खडा पाओगे, और उसके बाद सीता तुम्हें अवश्य मिलेंगी| लेकिन समुद्र तट पर पहुँच कर फिर सभी वानर सोच में पड गए कि अब आगे क्या होगा|    

समुद्र तट पर चिंता में डूबे हुए सभी वानरों को देख कर उनमें सबसे बड़े रीछ-राज  जाम्बवान ने उनको समझाते हुए कहा – तुम लोग व्यर्थ चिंता कर रहे हो – ‘तात राम कहुं नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु’| श्रीराम ब्रह्म के अवतार हैं और यह सब एक लीला-स्वरूप घटित हो रहा है| सीता की हमारी खोज अवश्य सफल होगी|

इसी समय पास की एक पर्वत-कन्दरा से सम्पाती नामक बूढा गिद्ध निकला| उसने इन वानरों की बातें बड़े ध्यान से सुनी थीं| वे उसके छोटे भाई जटायु के रावण से युद्ध की चर्चा कर रहे थे जिसमें जटायु रावण द्वारा  मारा गया था| सारा वृत्तान्त सुन कर सम्पाती बहुत दुखी हुआ और उसने सभी वानरों को बताया कि उसको एक ऋषि ने बताया था कि त्रेतायुग में श्रीराम परमब्रह्म के अवतार के रूप में आवेंगे और जब रावण उनकी पत्नी सीता को हर ले जायेगा तब वे उसका नाश करेंगे| उसने यह भी कहा कि रावण सीता को हर कर लंका ले गया जो सागर-पार त्रिकूट पर्वत पर बसी है| वहीं उसने सीता को अशोक वन में बंदी बना कर रखा है|

     मैं देखऊँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार|
     बुध भयऊँ न त करतेऊँ कछुक सहाय तुम्हार
     जो नाघइ सत जोजन सागर,करइ सो राम काज मति आगर||२८.१|

सम्पाती का यह सन्देश सुन कर सब वानर-गण सोचने लगे कि हम सभी में केवल हनुमान ही में इतना बल है कि वे ‘सत जोजन’ – चार सौ कोस की उड़ान भर कर सागर-पार लंका जा सकेंगे| तब बहुत सोच-विचार कर रीछ-राज जाम्बवान ने हनुमान से कहा –

     कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होई तात तुम्ह पाहीं|
     राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्वताकारा| २९.३३|

अपने बल की याद दिलाते ही हनुमान पर्वत के आकार के हो गए और लंका की ओर उड़ान भरने को तैयार हो गए|         


               || किष्किन्धा काण्ड समाप्त ||



इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)

२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   


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