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Monday, May 22, 2017


सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र -
               [पूर्व के कथा-सूत्रों का विवरण नीचे देखें]



मेघनाद रावण का परम बलशाली पुत्र था| अशोक-वाटिका में उसे आता देख कर हनुमान उसकी ओर झपटे और एक घूँसा ऐसा लगाया कि मेघनाद भी क्षण-भर के लिए मुर्च्छित हो गया| जब मायावी मेघनाद ने देखा कि वह युद्ध में हनुमान से किसी तरह नहीं जीत सकता तो उसने उनपर ब्रह्मास्त्र चला दिया| उससे घायल हनुमान मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर गए और तब मेघनाद ने उनको ब्रह्मपाश में बाँध लिया और रावण के पास ले गया| रावण-दरबार में पहुँचने पर क्रुद्ध रावण ने कहा कि तुम कौन हो और तुमने मेरी अशोक-वाटिका में घुसकर इतना उत्पात क्यों मचाया और मेरे मेरे राक्षसों सहित मेरे पुत्र अक्षय कुमार की हत्या क्यों की? हनुमान ने कहा कि वे श्रीराम के दूत बनकर लंका में रावण को यह बताने आये हैं कि अब जल्दी ही श्रीराम के हाथों रावण का वध होने वाला है, क्योंकि रावण ने धोखे से सीताजी को चुराकर लंका लाया है जो घोर अनैतिक कार्य है, और श्रीराम कोई और नहीं स्वयं ईश्वर के मानव-अवतार हैं जिनका अवतरण ही राक्षसों का समूल नाश करने के लिए हुआ है| किन्तु फिर रावण को समझाते हुए हनुमान ने कहा – देखो रावण, श्रीराम बड़े ही दयालु हैं, तुम सीता को उन्हें लौटा कर उनकी शरण में चले जाओ तो वे तुम्हें अवश्य क्षमा कर देंगे और तब तुम अनंत काल तक लंका का अखंड राज्य भोगोगे| लेकिन यदि तुम मेरी सलाह नहीं मानोगे तो कान खोलकर सुन लो रावण, श्रीराम के हाथों तुम्हारा विनाश निश्चित है| यह सुनकर रावण बड़े जोर से अट्टहास करते हुए देर तक हँसता रहा और तब अपने दरबारियों को आदेश दिया कि इस घमंडी बन्दर को तुरत मार डालना चाहिए क्योंकि यह बहुत अनर्गल प्रलाप कर रहा है, और मुझे ही सीख दे रहा है| लेकिन रावण के मंत्रियों, और विशेषतः विभीषण ने रावण को  बहुत समझाया कि दूत को मृत्युदंड देना अनुचित होगा| तब रावण ने हँसते हुए कहा कि ठीक है, फिर तो इसकी पूंछ में आग लगाकर इसको ऐसी सजा दो जिसे यह हमेशा याद रखे| और तब रावण ने अपने सभासदों से कहा –

      कपि कें ममता पूंछ पर सबहि कहऊँ समुझाई|
      तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाईं |२४|

और यह सब कुछ जैसे पूर्व-निश्चित हो, हनुमान तो जैसे यही चाहते ही थे| उन्होंने थोडा और कौतुक किया कि जैसे-जैसे उनकी पूंछ में कपडा लपेट कर सभी राक्षस तेल बोरने लगे, हनुमान अपनी पूंछ उतनी ही लम्बी बढाते चले गए और फिर आग लगी पूंछ लिए तुरत कूद कर महल की एक अटारी पर जा चढ़े| और फिर तो हनुमान ने सारी लंका को जलाना शुरू किया| लंका में चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी और तब देखते-देखते लंका जल कर राख हो गयी| बच गया केवल विभीषण का घर और अशोक-वन जहाँ सीता सुरक्षित थीं| लंका-दहन के बाद समुद्र में पूंछ की आग बुझाकर हनुमान सीता के पास गए और बोले –

      मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा, जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा|
      चूड़ामनि उतारी तब दयऊ,हरष समेत पवनसुत लयऊ |२६.१|

तब सीताजी ने कहा कि – हे हनुमान, मेरा यही परिचय-चिन्ह श्रीराम को देना और उनसे कहना कि –‘मास दिवस महुं नाथु न आवा, तौं पुनि मोहि जिअत नहिं पावा’| यदि ऊन्होने एक मास के भीतर मुझको इस यंत्रणा से मुक्त नहीं किया तो वे मुझको जीवित नहीं देख सकेंगे| तब हनुमान ने सीताजी को बहुत समझा कर धीरज रखने को कहा और कहा कि शीघ्र ही राम रावण से युद्ध करने लंका आने वाले हैं और तब वे सीताजी को मुक्त कराकर अपने साथ ले जायेंगे  –

      जनकसुतहि समुझाई करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह|
      चरन  सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह |२७|             

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र

‘नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा’ – हनुमान लंका का दहन करने के बाद समुद्र पार  करके पुनः वहाँ आ गए जहाँ श्रीराम अपनी विशाल वानर सेना के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे| फिर तो ‘हरषे सब बिलोकि हनुमाना’| एक अत्यंत कठिन कार्य संपन्न करके लौटे हनुमान का हर्षित होकर सबने स्वागत किया| श्रीराम ने भी उनको प्रेम से गले लगाते हुए सीता का सब हाल पूछा| तब हनुमान ने जैसे प्रमाण-स्वरुप सीताजी की चूड़ामणि श्रीराम के हाथों में चुपचाप रख दिया| ‘सुनि सीता दुःख प्रभु सुख अयना, भरि आए जल राजिव नयना’ – सीता का कष्ट सुन कर श्रीराम की ( जो सुख के धाम हैं ) आँखें भर आयीं, और वे हनुमान से बोले – ‘सुनु कपि तोहि सामान उपकारी, नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी’| श्रीराम का निर्मल स्नेह पाकर हनुमान भी विह्वल हो गए| फिर उन्होंने लंका का सारा विवरण श्रीराम को बताया कि कैसे उन्होंने सीताजी से भेंट की और रावण के दरबार में जब उनकी पूंछ में आग लगा दी गयी तो उन्होंने सारी लंका को कूद-कूद कर कैसे जला डाला| यह सब कुछ सुन कर श्रीराम हँसने लगे और उन्होंने कपिराज सुग्रीव को बुला कर कहा - 

      तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा, कहा चलें कर करहु बनावा|...
      अब बिलंबु केही कारण कीजे, तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे|३३.३-४|

सुग्रीव के बुलावे पर असंख्य वानरों की सेना जमा हो गयी और तब श्रीराम-लक्ष्मण - सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्बवान, नील, नल, द्विविद, मयंद, गद, निकटास्य, दधिमुख, केसरी, शठ, निशठ आदि महान वानर योद्धाओं के साथ समुद्र की दिशा में आगे बढे| इधर जैसे ही श्रीराम युद्ध-पथ पर अपनी विशाल वानर-सेना के साथ आगे बढे – ‘प्रभु पयान जाना बैदेहीं, फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं’| लेकिन इसी के साथ – ‘जोइ जोइ सगुन  जानकिहि होई, असगुन भयउ रावनहि सोई’|और उधर

लंका में लंका-दहन के बाद से सभी लंका-वासी अत्यंत भयभीत रहने लगे थे| अब तरह-तरह के अशकुन होते देख रावण की रानी मंदोदरी ने डर कर रावण को बहुत समझाने की कोशिश की कि – हे स्वामी! ऐसे परम शक्तिशाली शत्रु से वैर मोल लेना ठीक नहीं| लेकिन पाप के मद में चूर रावण ने उसकी एक न सुनी| फिर  जब वह दरबार में पहुंचा तब उसे खबर मिली कि श्रीराम की विशाल सेना समुद्र के उस पार तक आ पहुंची है| लेकिन मदांध रावण की तो ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ हो चुकी थी, वह किसी की हितकर बातें सुनने को तैयार ही नहीं था|      

सुन्दर काण्ड   
कथासूत्र

रावण महाबली परमवीर था और शिव का अनन्य भक्त था| लेकिन राक्षस-वृत्ति के कारण वह पाप-कर्म में सदा लिप्त रहता था| श्रीराम और रावण हमारे जीवन में सदाचार और अनाचार के प्रतीक हैं| श्रीराम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह भी प्रतीकात्मक-रूप से सदाचार और अनाचार के बीच का युद्ध ही है, जिसमे अनाचार अंततः हमेशा सदाचार से पराजित होता है| रावण का भाई विभीषण श्रीराम का मानस-भक्त था| राक्षस-वंश में उत्पन्न होकर भी वह सदाचारी और ईश्वर-भक्त था| उसने भी रावण को बहुत समझाने की कोशिश की| रावण से विनती करते हुए  कहा –

      काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ|
      सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहि जेहि संत|३८|...
      तात चरन गहि मांगऊँ राखहु मोर दुलार|
      सीता देहु राम कहुं अहित न होई तुम्हार|४०|


रावण के लिए यह सीधे राक्षस-वृत्ति छोड़कर ईश-वृत्ति की ओर बढ़ने की सलाह थी| लेकिन रावण का तो विनाश-काल तभी आ चुका था जब उसने सीता के हरण जैसा दुष्कर्म किया था| विभीषण की बातों से और क्रुद्ध होकर रावण ने अपने चरणों  पर झुके हुए विभीषण को दुत्कारते हुए कहा – ‘खल तोही निकट मृत्यु अब आई| जिअसि सदा सठ मोर जिआवा, रिपु कर पच्छ मूढ़ तोही भावा ?’- और यह कहते हुए लात से  उसने विभीषण को मारा और कहा कि तब तुम उसी राम की शरण में जाओ, यहाँ तुम्हारे लिए अब कोई जगह नहीं| लाचार विभीषण यह कहते हुए अपने कुछ मंत्रियों के साथ श्रीराम की शरण में चला कि – ‘मैं रघुबीर सरन अब जाऊं देहु जनि खोरि’ – हे, रावन अब तुम मुझे दोष मत देना|

समुद्र-पार श्रीराम के पास पहुँचने पर विभीषण का बहुत स्वागत हुआ और श्रीराम ने वहीं समुद्र-तट पर विभीषण का लंकापति के रूप में अग्रिम राज्याभिषेक भी कर दिया| तब श्रीराम वहां विभीषण और अपने और वानर सहयोगियों से विचार करने लगे कि इतनी विशाल वानर-सेना के साथ समुद्र को कैसे पार किया जाय| इसी बीच रावण ने विभीषण के पीछे-पीछे अपने कुछ गुप्तचर भेजे जिन्हें वानर-गण बाँध कर श्रीराम के पास ले आये| पर उनको दण्डित न करके लक्ष्मण ने उनके हाथों रावण के नाम एक पत्र भेजा| गुप्तचरों ने लौट कर श्रीराम की विशाल सेना के विषय में रावण को बताया और यह भी सूचना दी कि श्रीराम ने विभीषण का लंकापति के रूप  में राज्याभिषेक भी कर दिया है| श्रीराम के सेना-बल की बात सुन कर पहले तो रावण कुछ भयभीत भी हुआ, लेकिन फिर गुप्तचरों को राम की प्रशंसा करने के लिए बड़ी फटकार भी लगाईं, और उन्हें भी राम की शरण में ही जाने के लिए कहते हुए उनको देश-निकाला दे दिया| इधर समुद्र पार करने की सोच में श्रीराम ने अपने एक वाण से समुद्र को सुखा ही डालने का निश्चय किया| लेकिन समुद्र ने उनसे ऐसा क्रोधपूर्ण कार्य न करने की प्रार्थना करते हुए कहा कि उनकी सेना में तो नील और नल दो ऐसे अभियंता हैं जिनको यह वरदान मिला है कि वे समुद्र में पत्थर का एक पुल ही बना दे सकते हैं जिससे पूरी सेना समुद्र पार पहुँच जायेगी| अंततः ऐसा ही हुआ और श्रीराम की विशाल सेना समुद्र को पार करके लंका की भूमि पर पहुँच गयी| इस सुन्दर काण्ड के अंत में तुलसीदास कहते हैं कि इस सुन्दर कांड का जो श्रवण और पाठ करता है –

      सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान|
      सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान|६०|

रघुनाथ श्रीरामजी का यह गुण गान  सभी प्रकार के मंगल को देने वाला है और जो इसे सादर सुनते या पढते हैं वे इस नाव से संसार-रुपी भव-सागर को सहज ही  पार कर जाते हैं|           
  
                  || सुन्दर काण्ड समाप्त ||




 इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   

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