Followers

Monday, May 1, 2017


अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : ५

रावण परमज्ञानी था और उसे आभास हो गया था कि मेरे परम बलशाली राक्छ्स परिजनों का नाश करने वाले श्रीराम अवश्य ही ईश्वर के अवतार-रूप में पृथ्वी पर आ चुके हैं| लेकिन, उसने सोचा, इस मानव-रुपी राम से विरोध और युद्ध करने पर अगर मैं मारा भी जाऊँगा तो मुझे सद्गति ही मिलेगी| यही सोच कर वह राम-लक्ष्मण को सबक सिखाने के लिए सीता का हरण करने की योजना बनाकर अपने रथ पर सवार होकर मारीच की सहायता लेने चला| उसने सोचा –

    सुर रंजन भंजन महि भारा,जों भगवंत लीन्ह अवतारा|
    तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ, प्रभु सर प्राण तजे भव तरऊं|२२.२|      

सर्वग्य श्रीराम तो सब कुछ जानते ही थे, और यह सब तो मानव-रूप में उनकी लीला ही थी| इस बीच जब लक्ष्मण वहां नहीं थे, राम ने धीरे से सीता से कहा –

    सुनहु प्रिय ब्रत रुचिर सुसीला,मैं कछु करबि ललित नरलीला|
    तुम्ह पावक महुं करहु निवासा,जौ लगि करों निसाचर नासा|२३.१|

श्रीराम के कथनानुसार सीता ने अपनी एक छायामूर्ति बना कर अपनी जगह रख दी और स्वयं अग्नि में समा गयीं| इसका पता लक्ष्मण को भी नहीं चला| उधर रावण जब मारीच से मिला और उसको पूरी स्थिति बताई तब मारीच ने  भी रावण को समझाया कि श्रीराम अवश्य ही ईश्वर के मानव-अवतार हैं और उनसे वैर लेना प्राण-घातक सिद्ध होगा| बचपन में ही विश्वमित्र के यग्य में श्रीराम के वाण का प्रभाव मारीच झेल चुका था| अब तो उसे सभी ओर श्रीराम-लक्ष्मण ही दिखाई देते थे| लेकिन जब रावण ने उसकी एक न सुनी तो वह स्वर्णमृग का कपट-रूप धारण कर रावण के साथ चला| सीता का तो अग्नि-प्रवेश हो गया था| छाया-सीता ही अब सीता थीं| उन्होंने उस सुन्दर स्वर्णमृग को देखते ही उसके मृगचर्म के लिए श्रीराम से उसको मारकर लाने को कहा| लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार देकर श्रीराम मृग के पीछे चले जो तेजी से घने जंगल में भागा| दूर जाकर जब राम ने उसको अपने वाण से मारा तो कपट-पूर्वक उसने ‘हा लक्ष्मण!’ कहकर प्राण त्याग दिए| सीता ने जब यह पुकार सुनी तो उनको लगा जंगल में राम पर ही कोई संकट आ गया है| उन्होंने डर के मारे बहुत जिद करके तुरत लक्ष्मण को उधर भेजा| इधर मौका पाते ही सन्यासी के रूप में रावण सीता के पास आया और भिक्षा मांगने के बहाने बलपूर्वक उनका अपहरण करके अपने रथ पर बैठाकर तेज गति से भागा| रास्ते में ग्रिद्ध्रराज जटायु ने रोती हुई सीता का विलाप सुना तो रावण का पीछा कर उसके साथ युद्ध करने लगा| लेकिन क्रूर रावण ने जटायु के सभी पंख काट डाले और वह लहू-लुहान होकर भूमि पर गिर पडा| फिर रावण तेजी से रथ हांकता हुआ भाग निकला| रोती-विलापती सीता ने रास्ते में अपनी चादर  उतार कर नीचे फेंक दिया जिसे बहुत सारे बंदरों ने भी देखा| लंकापुरी में पहुंचकर रावण ने सीता को अशोक-वाटिका में कैद कर दिया|

           
अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : ६

राम जब स्वर्णमृग को मारकर लक्ष्मण के साथ लौटे तो कुटिया में सीता को न पाकर अत्यंत व्याकुल होकर दोनों भाई सीता को चारों ओर भागने-ढूँढने लगे|

      एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी, मनहुं महा बिरही अति कामी|
      पूरनकाम राम सुखरासी, मनुज चरित कर अज अबिनासी|२९.८-९|

ईश्वर के अवतार राम मनुष्य रूप में वैसे ही रोने-व्याकुल होने लगे| कुछ ही दूर पर उन्होंने आहत पक्षिराज जटायु को तड़पते देखा| राम को देखते ही जैसे जटायु के सब कष्ट दूर हो गए और उन्होंने राम को बताया कैसे रावण सीता को हर ले गया है और कैसे उसीने उनकी यह दुर्दशा की है| और कहा – ‘दरस लागि प्रभु राखेऊं प्राना, चलन चहत अब कृपानिधाना’| तब श्रीराम ने वहीं जटायु का विधिवत अंतिम संस्कार किया| आगे जाने पर उनको कबंध नामक राक्षस मिला जिसको उन्होंने तुरत मार डाला, और इस तरह उसको सद्गति प्राप्त हो गयी|

फिर दोनों भाई शबरी के आश्रम में पहुंचे| शबरी एक जंगली आदिवासी जाति की स्त्री थी पर श्रीराम ने उसके हाथ से भी प्रेमपूर्वक फलों और जल का पान किया और उसको नवधा भक्ति का उपदेश दिया|
नवधा भक्ति के अनुसार पहली भक्ति संतों के सत्संग की है| दूसरी रामकथा को प्रेम से सुनने में है| तीसरी भक्ति, भक्तिपूर्वक गुरु के चरणों की सेवा है| चौथी, राम का निरंतर गुणगान, और पांचवीं, राम में दृढ आस्था और ‘राम-राम’ मन्त्र का जाप में है| छठी भक्ति है अपनी इन्द्रियों पर समुचित नियंत्रण, और सातवीं भक्ति है, सबके प्रति समान प्रेम भाव रखना, सबमें श्रीराम की ही छवि निरंतर देखना और साधु-संतों की सेवा में लगे रहना| आठवीं भक्ति है जितना मिले उसीसे संतुष्ट रहना और सपने में भी दूसरों में दोष न देखना| और नवीं भक्ति है – ‘नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हियँ हरष न दीना’| सरलता और सबसे कपटहीन बर्ताव करना, सदा ह्रदय में राम का ही भरोसा रखना और कभी मन को हर्ष या उदासी में न पड़ने देना|

श्रीराम से ‘नवधा-भक्ति’ उपदेश को ग्रहण कर धन्य हुई शबरी ने फिर श्रीराम को आगे का मार्ग बताते हुए कहा कि ‘प्रभु, थोड़ी दूर आगे आपको पम्पा नामक सरोवर मिलेगा जहाँ सुग्रीव रहते हैं, और वहीं उनसे आपकी मित्रता होगी, और सीताजी की खोज में वही आपके सहायक होंगे| शबरी बोली -

    पम्पा सरहि जाहु रघुराई, तंह होइहि सुग्रीव मिताई|३५.६|
श्रीराम के जाते ही शबरी ने अपना शरीर त्याग दिया और परमपद प्राप्त कर लिया|

           
अरण्यकाण्ड  
कथासूत्र : ७

शबरी को परमपद देकर श्रीराम लक्ष्मण के साथ पम्पा सरोवर की दिशा  में अग्रसर हुए| वन-मार्गों पर चलते हुए श्रीराम ने लक्ष्मण को अनेक प्रकार के उपदेश दिए| सीता के विरह में व्याकुल राम अपनी मानव-लीला के क्रम में स्वयं उनकी खोज में व्यग्र हो रहे थे| चलते-चलते दोनों भाई  अत्यंत रमणीक पम्पा सरोवर के निकट पहुंचे| सरोवर के जल पर कमल फूल के चिकने पत्ते फैले हुए थे जिन पर भौंरे गुंजन कर रहे थे|

    देखि राम अति रुचिर तलावा, मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा|
    देखी सुन्दर तरुवर छाया, बैठे अनुज सहित रघुराया |४०.१|

तभी श्रीराम को विरह्ग्रस्त देखकर नारद मुनि वहां आ गए |

    बिरहवंत भगवन्तहि देखी, नारद मन भा सोच बिसेषी|
    मोर साप करी अंगीकारा,सहत राम नाना दुःख भारा|४०.३|

नारद पछताने लगे कि स्वयंवर में सुंदरी से वरमाला न पाने से जो रोष उन्हें हुआ था और उन्होंने भगवान विष्णु को जो नारी-विरह का शाप दे डाला था, आज उसी कारण श्रीराम को यह विरह-दुःख झेलना पड रहा है| तब नारद ने अनेक प्रकार से श्रीराम की वंदना करते हुए उनसे एक ही वर की मांग की| कहा – एक ही वर दें कि ‘राम’-नाम ही आपके सभी नामों से बढ़कर रहे जिसके जप से सभी पापों से मुक्ति मिल जाय|

    जद्द्यपि प्रभु के नाम अनेका, श्रुति कह अधिक एक तें एका|
    राम सकल नामन्ह ते अधिका, होउ नाथ अघ खग गन बधिका|४१.४|

श्रीराम ने नारद मुनि यह वर सहर्ष देते हुए संतों के अनेक गुण बताये और कहा कि जो अपना गुणगान सुनना पसंद नहीं करते और दूसरों के गुणगान से ही आनंदित होते हैं, सदा शीतल सम-भाव रखते हैं, सरल स्वाभाव के होते हैं और सबसे प्रेम-भाव रखते हैं तथा न्याय-मार्ग को कभी नहीं छोड़ते वे ही सच्चे संत होते हैं| 

    निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं, पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं|
    सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती, सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती|४५.१|

               | अरण्यकाण्ड समाप्त|
      
      | किष्किन्धा काण्ड  : कथासूत्र १ अगले अंक में जारी|



 इस ब्लॉग पर उपलब्ध पूर्व सामग्री का विवरण

२०१७

२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
   


   


No comments:

Post a Comment

  सैडी इस साल काफी गर्मी पड़ी थी , इतनी कि कुछ भी कर पाना मुश्किल था । पानी जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था कि सतह के पत्...