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Tuesday, August 27, 2019


‘नई धारा’ सम्मान समारोह

दिसंबर १, २०१८ : साहित्य अकादेमी सभागार

‘नई धारा’ पिछले ६९ वर्षों से पटना से प्रकाशित होने वाली एक उच्च-स्तरीय साहित्यिक मासिक पत्रिका है, जो प्रतिवर्ष उसके दिवंगत सम्पादक श्री उदयराज सिंह की स्मृति में एक लाख रु. का  एक शिखर सम्मान प्रदान करती है, तथा उस वर्ष की श्रेष्ठ रचनाओं पर २५,००० रु. के ‘रचना पुरस्कार’ प्रदान करती है | पिछले वर्ष यह शिखर पुरस्कार डा. मैनेजर पाण्डेय को तथा ‘रचना पुरस्कार’ डा. मंगलमूर्ति को उनके संस्मरण ‘आ. शिवपूजन सहाय और काशी’ (फार.-मार्च,’१८) पर दिल्ली-स्थित साहित्य अकादेमी के सभागार में समारोहपूर्वक प्रदान किया गया | इस अवसर पर डा. मंगलमूर्ति ने जो आभार-वक्तव्य दिया वह ‘नई धारा’ के दिसंबर-जनवरी, २०१९ के अंक में प्रकाशित हुआ और यहाँ नीचे भी प्रकाशित है | उस अवसर से सम्बद्ध कुछ चित्र और विडियो भी यहाँ प्रकाशित किये जा रहे  हैं |



साहित्य में बिहार की उपेक्षा* 

मंगलमूर्त्ति

आजकल हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सम्मान और पुरस्कार बहुत मिलने लगे हैं, और एक दृष्टि से यह एक शुभ लक्षण भी है | लेकिन मुझे अपने बचपन की याद आती है, जब मेरे पिता राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में थे, और बचपन से ही उनके अंग लगा, मैं उनका एक  प्रकार से लिटररी सेक्रेटरी बन गया था | उनके पढने-लिखने के उस छोटे से कमरे में जाने-आने की इजाज़त बस मुझको ही थी | अपनी डायरी में उन्होंने लिखा है कि उन दिनों के सबसे बड़े साहित्यिक सम्मान ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ के वे भी एक निर्णायक थे और जब उनको निराला,पन्त और महादेवी के बीच निर्णय करना था तो उस वर्ष उन्होंने तीनों में से महादेवीजी का नाम चुना था | उस ज़माने में हिंदी साहित्य में वही सबसे बड़ा पुरस्कार था, और पुरस्कृत होने वाले नाम भी सब उतने ही बड़े थे | उसके बाद तो फिर सम्मान और पुरस्कारों की संख्या और राशि भी बढती गई, और बाद में तो सम्मान और पुरस्कारों  को वापस करने का भी सिलसिला चल पड़ा, जो अपने-आप में उनकी सार्थकता पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करने लग गया | 

लेकिन मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि ‘नई धारा’ के द्वारा इसके संस्थापक स्व.उदयराज सिंह जी की स्मृति में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों की गरिमा उन विवादास्पद पुरस्कारों से बिलकुल अलग है, खास तौर से जो पुरस्कार सरकारी होते हैं , और मेरी दृष्टि में ‘नई धारा’ के द्वारा दिए जाने वाले ये पुरस्कार एक विशेष अर्थ में बहुत पावन-पवित्र और शुद्ध साहित्यिक पुरस्कार हैं | ये ऐसे पुरस्कार हैं जो बहुत शुद्ध साहित्यिक भाव से दिए जाते रहे हैं | और इसी अर्थ में ‘नई धारा’ का यह ‘रचना-सम्मान’ मेरे लिए एक विशेष गौरव का सम्मान है | साथ ही, ‘नई धारा’ के इस सम्मान का मेरे लिए कई अर्थों में विशेष महत्त्व है |

मैं आपको यह भी  बताना चाहूँगा कि ‘नई धारा’ मेरे लिए मेरी अपनी छोटी बहन जैसी है, क्योंकि जब १९५० में पटना में इसका जन्म हुआ तब मैं इसके जन्मोत्सव में अपने पिता के साथ उपस्थित था | और मेरी दृष्टि में, वास्तव में, वे ही इस पत्रिका के जनक भी थे | तब मेरी अपनी उम्र  १२-१३ साल की ही थी | मैंने जब कहा कि वास्तव में शिवपूजन सहाय ही इसके जनक थे तो मैं उन विशेष परिस्थितियों की और इंगित करना चाहता हूँ जिनके बीच ‘नई धारा’ का जन्म हुआ था | ‘नई धारा’ के जन्म की कहानी किसी हद तक ‘हिमालय’ के १९४८ में बंद हो जाने से और शिवजी के राजेंद्र कॉलेज छोड़ कर पटना बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् में आ जाने से भी जुडी है | ‘नई धारा’ में हाल में छपे मेरे लेख में इस प्रसंग की पूरी चर्चा है |

अंतिम रूप से १९५०  जनवरी में शिवजी के राजेंद्र कॉलेज, छपरा से पटना आने के पीछे का प्रत्यक्ष कारण तो उनकी बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के मंत्री-पद पर नियुक्ति ही थी | लेकिन परोक्ष कारण भी कई थे जिनमें एक था राजा साहब (राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह), बेनीपुरी जी, दिनकरजी, सुधान्शुजी आदि की इच्छा कि शिवजी अब राजधानी के साहित्यिक केंद्र में आकर  रहें | ‘हिमालय’ का सम्पादन करने के क्रम में तो  वे १९४६ में एक साल पटना में रह चुके थे, पर ‘हिमालय’ से अब उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका, और ‘हिमालय’ जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिका की कमी सबको खलने लगी थी – और सबसे ज्यादा बेनीपुरी जी को | राजा साहब भी अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए एक प्रेस खोलना चाहते थे जिसकी व्यवस्था उनके छोटे सुपुत्र उदयराज जी को संभालनी थी | शिवजी सरकारी नौकरी में पटना आये थे इसलिए उनका नाम ‘नई धारा’ के सम्पादक के रूप में नहीं जा सकता था | पर शिवजी और बेनीपुरीजी तो एक प्रकार से अभिन्न थे, इसलिए राजा साहब के साथ विमर्श के बाद  ‘नई धारा’ के सम्पादक बेनीपुरी जी हुए, और उनके साथ सहायक सम्पादक बने वीरेंद्र नारायण जो शिवजी के बड़े जामाता थे | शिवजी ने ‘हिमालय’ के सह-सम्पादक-पद से बेनीपुरी जी के हटाये जाने के प्रश्न पर ही ‘हिमालय’ से  अपना इस्तीफ़ा दिया था, और अब जब ‘नई धारा’ निकलने जा रही थी तब बेनीपुरी जी को ही उसका सम्पादक बनना जैसे पूर्व-निश्चित था |
 
मेरे पिता का सम्बन्ध सूर्यपुरा राज्य से बहुत पुराना था, और बहुत गहरा था, जिसकी जड़ें पिछली सदी के दूसरे दशक तक जाती हैं जब मेरे पिता आरा में स्कूल अध्यापक थे | सूर्यपुराधीश राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह उम्र में मेरे पिता से तीन ही साल बड़े थे, लेकिन  हिंदी साहित्य के ख्यात साहित्यकारों में तभी उनका नाम गिना जाने लगा था | आपके ध्यान में होगा कि हिंदी-साहित्य के पहले इतिहास ग्रन्थ – जिसके रचयिता थे आचार्य रामचंद्र शुक्ल – उसके १९२९ के  प्रथम संस्करण में बिहार के गद्य-लेखकों में केवल राजा  राधिकारमण सिंह और जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का नामोल्लेख भर है | जो हो, लेकिन राजा साहब के पिता राजराजेश्वरी प्रसाद सिंहजी भी हिंदी के  एक सफल कवि प्रसिद्ध थे जो स्वयं ब्रजभाषा और नई हिंदी ‘खड़ी बोली’ में ‘प्यारे कवि’  उपनाम से लिखते थे, और काशी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से और कलकत्ते में रवीन्द्रनाथ ठाकुर से पारिवारिक रूप से जुड़े थे | 

राजा राधिकारमण को, जो बराबर ‘राजा साहब’ के नाम से ही जाने जाते थे, ऐसे ही अनुपम  साहित्यिक संस्कार विरासत में प्राप्त हुए थे | जब मेरे पिता इंट्रेंस क्लास में पढ़ रहे थे, तभी १९१३ में  राजा साहब की पहली कहानी ‘कानों में कंगना’ भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘इंदु’ पत्रिका में छपी थी, जिसका नामोल्लेख शुक्लजी ने किया है | उन दिनों राजा साहब पटना में एम.ए. में पढ़ रहे थे |  हालांकि तब तक उनकी कई कहानियां और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे | बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के १९२० में  बेतिया (चंपारण) में हुए दूसरे अधिवेशन के वे सभापति भी  चुने गए थे | वहां अपने लम्बे भाषण में उन्होंने हिंदी साहित्य की तत्कालीन शोचनीय स्थिति का विस्तृत वर्णन किया था | उस अधिवेशन के विषय में शिवजी ने अपनी डायरी में लिखा है : “बेतिया के द्वितीय साहित्य सम्मलेन में  मैं गुरुवर पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा के साथ गया | सूर्यपुरा के राजा साहब सभापति थे | राजा साहब अपनी ओर से हमलोगों को निमंत्रण देकर साथ ले गए | बेतिया के राज प्रासाद में हमलोग उनके साथ ही ठहरे |”

शिवजी और राजा साहब का यह साथ तब से अंत तक बना रहा | लेकिन यहाँ उसकी लम्बी कहानी प्रासंगिक नहीं है | १९२० से १९५० के बीच बिहार के साहित्य जगत में बहुत कुछ घटित हुआ | राजा साहब के कई उपन्यास प्रकाशित हुए, जिनमें ‘राम-रहीम’ सबसे ज्यादा चर्चित हुआ | शिवजी ने कितने श्रमपूर्वक इसका सम्पादन किया था जब वे पुस्तक-भंडार लहेरिया सराय में सम्पादक थे, इसकी चर्चा राजा साहब की कोई ५० चिट्ठियों में हुई है, जो सब ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ में प्रकाशित हैं |

राजा साहब, उनके सुपुत्र उदयराज सिंहजी, शिवजी, बेनीपुरीजी, वीरेंद्रजी – जल्दी ही यह एक साहित्यिक परिवार जैसा बन गया, और राजा साहब का नया प्रकाशन उद्यम अशोक प्रेस और साहित्यिक पत्रिका ‘नई धारा’ – ये सब भी जैसे एक साहित्यिक परिवार के ही उद्यम थे | और मेरा सौभाग्य था कि मैं  भी उस साहित्यिक परिवार का एक छोटा सदस्य था | आज उस साहित्यिक संयोग को याद करने का मेरे लिए यह अत्यंत उपयुक्त  और सुखद अवसर है | मैं जब लिखने-पढने लगा, और पारिवारिक रूप से ‘नई धारा’ से जुडा  रहा तब उसमें यदा-कदा मेरी भी कुछ रचनाएँ छपने लगीं | बाद में बेनीपुरी जी ने ‘नई धारा’ छोड़ दी थी, और वीरेंद्रजी भी केंद्र सरकार की नौकरी में दिल्ली चले गए थे | मेरे पिता भी परिषद् के कार्यों में अत्यधिक व्यस्त हो गए थे | तब ‘नई धारा’ का संपादन-भार उदयराज सिंह जी ने संभाल लिया था, और सुरेश कुमार उनके सहायक हो गए थे | १९५-५५ के बाद यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा – उदयराज जी के सम्पादन में ‘नई धारा’ निकलती रही | और आज यह ६९ वाँ साल हो रहा है ‘नई धारा’ के प्रकाशन का | 

उदयराजजी भी जब दिवंगत हो गए तब उस साहित्यिक परमपरा को उदयराजजी के सुपुत्र प्रमथराज सिंह जी ने आगे बढाने का संकल्प लिया और अब वे ‘नई धारा’ के संरक्षक हैं और शिव नारायणजी इसका सम्पादन पिछले कई वर्षों से बड़ी कुशलतापूर्वक कर रहे हैं | यह साधारण बात नहीं है कि हिंदी की कोई स्तरीय शुद्ध साहित्यिक मासिक पत्रिका ७ दशकों तक लगातार प्रकाशित होती रहे, और जिसका भविष्य आज भी उतना ही उज्जवल दिखाई देता हो | मैं तो कहूँगा कि ‘नई धारा’ भी अपने-आप में हिंदी साहित्य को बिहार की एक बहुत बड़ी और मूल्यवान देन है | ‘नई धारा’ बिहार की उस साहित्यिक परंपरा की मशाल को लेकर आगे बढ़ रही है इसके ज्वलंत प्रमाण उदयराज सिंहजी की स्मृति में आयोजित ये वार्षिक सम्मान एवं व्याख्यान समारोह भी हैं | यह साहित्यिक उपक्रम भी अपने-आप में हिंदी साहित्य को बिहार का एक बड़ा साहित्यिक योगदान है |

इस प्रसंग में मैं उल्लेख करना चाहूंगा बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के वार्षिक अधिवेशनों के सभापतियों के भाषणों के उस संग्रह का जिसे सम्मेलन ने ही १९५६ में  प्रकाशित किया था, और जो अब दुर्लभ है | हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में बिहार के साहित्य-सेवियों के योगदान का सबसे प्रामाणिक और विशद विवरण उसी ग्रन्थ से प्राप्त हो सकता है | उस ग्रन्थ में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के पहले २६ अधिवेशनों के सभापतियों के भाषण प्रकाशित हैं, जिनमें बिहार में हिंदी साहित्य-सेवा का एक प्रमाणिक इतिहास पढ़ा जा सकता है | मैं नहीं जानता, इस दिशा में अब तक कोई शोध या व्यवस्थित प्रयास हुआ है या नहीं, लेकिन यह एक अच्छे शोध-ग्रन्थ के लिए बहुत उपयुक्त सामग्री है |

मेरे पिता जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के निदेशक थे तब उनका सबसे बड़ा मिशन था ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ नामक ग्रन्थ-श्रृंखला का संपादन-प्रकाशन | उनके जीवन-काल में इसके दो खंड वहां से प्रकाशित भी हुए, और बाद में भी कई खंड और प्रकाशित हुए | इसकी सारी सामग्री का संपादन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए किया था, यद्यपि दूसरे खंड के बाद परिषद् ने संपादक के रूप में पदासीन निदेशकों का नाम उसपर छापा |  इसकी एक लम्बी और करुण कथा है जो उनकी डायरियों में बहुत विस्तार से अंकित है और जो कहानी शुरू होती है १९१९ में, जब मेरे पिता आरा के स्कूल में शिक्षक थे और आरा नगरी प्रचारिणी सभा के सहायक मंत्री भी | वहीँ अपने साहित्यिक मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने इस ग्रंथमाला की योजना बनाई थी | सभा की और से उन्होंने उन्हीं दिनों एक परचा बिहार के  सभी साहित्यकारों के पास भेजा था इस अनुरोध के साथ कि वे अपना विस्तृत परिचय भरकर सभा के पास भेजें | सामग्री संग्रह का उनका यह कार्य निरंतर चलता रहा और १९४२ में उन्हीं के द्वारा संपादित पुस्तक भंडार के ‘जयंती स्मारक ग्रन्थ में तबतक की संकलित सारी सामग्री प्रकाशित की गयी थी | 

जब वे १९३० में ‘गंगा’ का सम्पादन कर रहे थे तब उन्होंने ‘भट्टनायक’ कल्पित नाम से लिखित सद्यः प्रकाशित दो इतिहास ग्रंथों की अपनी दो समीक्षाएं ‘गंगा’ में प्रकाशित की थीं | ये दो ग्रन्थ थे -  आ. रामचंद्र शुक्ल लिखित वही ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ और आ. श्यामसुंदर दास लिखित ‘हिंदी भाषा और साहित्य’| ये दोनों समीक्षाएं ‘साहित्य समग्र’ खंड-३ में संकलित हैं | शिवजी तब काशी में ही रहते थे, और इन दोनों आचार्यों के प्रिय-पात्र भी थे | नामवरजी ने इस प्रसंग में लिखा है – “ये तीखी टिप्पणियां शिवजी ने उस समय लिखी थीं जब बाबु श्यामसुंदर दास हिंदी गगन में मध्यान्ह के सूर्य के सामान तप रहे थे |”

दोनों ही इतिहास-ग्रंथों में आधुनिक काल के साहित्येतिहास में बिहार की कहीं कोई चर्चा नहीं है | शुक्लजी के  इतिहास में तो  राजा राधिकारमण की थोड़ी चर्चा है भी, लेकिन श्यामसुंदर दास ने तो बिहार का कहीं नाम ही नहीं लिया है | ध्यान देने की बात है कि १९३० से चार साल पहले ही शिवपूजन सहाय का ही ‘देहाती दुनिया’ उपन्यास और उनकी ‘कहानी का प्लाट’ जैसी कहानियों का संग्रह ‘विभूति’ – दोनों  प्रकाशित हो चुके थे जिनकी अंतर्वस्तु और जिनकी शैली तब तक के कथा-साहित्य में सर्वथा नवीन एवं विस्मयकारी थी | शिवजी ने श्यामसुंदर दास के इतिहास-ग्रन्थ की कड़ी आलोचना करते हुए जो पंक्तियाँ लिखी हैं वे आज विशेष प्रासंगिक हैं | उन्होंने ने उस समीक्षा में लिखा है :

“बिहार का तो मानो हिंदी-साहित्य में कोई स्थान ही नहीं; वह तो साहित्य-क्षेत्र के समालोचना-मार्ग का कुश-कंटक है | हिंदी के श्रीहर्ष स्व. पं. रामावतार शर्मा, हिंदी के पाणिनि पं. सकल नारायण शर्मा, हिंदी के वाणभट्ट राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, हिंदी के दंडी स्व. पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा, हिंदी के भारवि बाबू राजेंद्र प्रसाद, हिंदी के माघ पं. चन्द्र शेखर शास्त्री, हिंदी के विल्हण पं. अक्षयवट मिश्र और हिंदी के बंकिम बाबू व्रजनंदन सहाय क्या किसी मर्ज़ की दवा नहीं हैं ? क्या इन विद्वान् एवं रस-सिद्ध लेखकों की सेवाओं से साहित्य के विकास में कोई बाधा पड़ी है? आखिर इन्हें ठुकराने का कोई उद्देश्य तो अवश्य होगा?”

और फिर इतनी ही कठोर भाषा में आचार्य श्यामसुंदर दास द्वारा बिहार की बोलियों में रचित साहित्य की उपेक्षा की भी आलोचना की है | लिखा है : “जिस प्रकार अवधी, पंजाबी, बैसवाड़ी, बुन्देलखंडी, डिंगल, मैथिली आदि प्रांतीय भाषाओं में साहित्य है, उसी प्रकार मगही और भोजपुरी भाषा में भी है; किन्तु मैथिली, पंजाबी और डिंगल भाषाओं की तरह इन भाषाओं का साहित्य विशेषतः प्रकाश्य रूप में नहीं आया है; पर इसी कारण उसके अस्तित्त्व को  अस्वीकार नहीं किया जा सकता |”

शिवपूजन सहाय जीवन भर हिंदी की लड़ाई तो लड़ते ही रहे, बिहार के साहित्यिक अवदान को भी बराबर अपने लेखन और भाषणों में रेखांकित करते रहे | आज ‘नई धारा’ के इस सम्मान प्रसंग में और आज के ‘श्री उदयराज सिंह स्मारक व्याख्यान’ के विषय के सन्दर्भ में इन बातों  की और ध्यान दिलाना मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ |
          
मैं अपने वक्तव्य के अंत में एक-दो विशेष निवेदन ‘नई धारा’ के संरक्षक श्री प्रमथराज जी से करना चाहता  हूँ | सबसे पहला तो यह कि राजा साहब की ग्रंथावली जो बहुत पहले अशोक प्रेस से ही छपी थी और अब अनुपलब्ध है, उसका पुनः-प्रकाशन ‘नई धारा’ प्रकाशन से अथवा हिंदी के किसी बड़े प्रकाशक के यहाँ से पुनः  होना चाहिए | दूसरा सुझाव यह कि राजा साहब के नाम पर प्रति वर्ष या हर दूसरे वर्ष एक बड़े पुरस्कार की योजना भी प्रारम्भ की जानी चाहिए | उसी से लगा एक सुझाव यह भी कि ‘नई धारा’ के ७० साल पूरे होने के अवसर पर उसमें प्रकाशित श्रेष्ठ रचनाओं का एक सुन्दर संचयन भी प्रकाशित होना चाहिए जिससे वह सारी बहुमूल्य सामग्री नई पीढ़ियों के लिए संरक्षित और सुलभ हो सके | इन सभी योजनाओं में मैं अभी भी यथाशक्ति सहयोग करने को प्रस्तुत रहूँगा |


अंत में एक बार पुनः मैं ‘नई धारा’ के अधिष्ठाता एवं प्रकाशक तथा इस सम्मान-समारोह की गतिमान श्रृंखला के संवाहक श्री प्रमथराज सिंह जी तथा ‘नई धारा’ के सुयोग्य सम्पादक श्री शिवनारायण जी के प्रति विशेष आभार प्रकट करते हुए आप सबों के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि आप इस सम्मान-समारोह के सहभागी बने और अपने स्नेह से मुझको गौरव प्रदान किया | धन्यवाद ! 

*[ ’नई धारा’ सम्मान-समारोह (१ दिसंबर, २०१८), साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के सभागार में प्रदत्त आभार-भाषण ]                 


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