सरल श्रीमदभगवद्गीता
हिंदी भावानुवाद : डा. मंगलमूर्ति
बारहवां अध्याय : भक्तियोग
1. अर्जुन ने कहा – हे श्रीकृष्ण! ऐसे भक्तगण जो निरंतर
अनन्यभक्ति के साथ आपके सगुण रूप की उपासना करते हैं,
जिसमें आप उनके प्रत्यक्ष
होते हैं, और अन्य कुछ ऐसे भक्त जो आपके
अक्षर और अव्यक्त, निराकार रूप की उपासना करते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में उत्तम योगवेत्ता अथवा श्रेष्ठ योगविद्या को जानने वाला वास्तव में
कौन होता है ।
2-4. भगवान
श्रीकृष्ण बोले - जो भक्तगण अपने मन को मुझमें एकाग्र करके , श्रेष्ठ श्रद्धापूर्वक
निरंतर मेरा भजन करते हुए मेरी उपासना
करते है, उन्हें मैं उत्तम मानता
हूं। ऐसे मनुष्य जो अपनी सभी इंद्रियों को भली-भांति वश में करके, संपूर्ण प्राणियों का हित
करते हुए, सभी स्थितियों में समभाव
से युक्त रहते हुए, मेरी उपासना करते हैं - मैं, जो -अचिंत्य, अर्थात मन-बुद्धि से परे, अकथनीय और एकरस, नित्य, अचल, अत्यन्त-निराकार, अक्षर अथवा अविनाशी और सर्वव्यापी
ब्रहम हूँ - मेरे ऐसे भक्त मुझे ही प्राप्त होते है ।
5-8. अव्यक्त, निर्गुण और निराकार ब्रहम की उपासना करने वालों की साधना
अधिक कठिन होती है, क्योंकि वे स्वयं देहधारी और
मरणशील होते हैं जिस कारण निर्गुण निराकार ब्रहम का
ध्यान करना उनके लिए अत्यंत दुष्कर होता है । किंतु, मेरे जो भक्त पूरी तरह
अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करते हुए पूर्ण समर्पण-भाव से मुझको अनन्य भक्तिपूर्बक भजते हैं, अपने ऐसे भक्तों को मैं शीघ्र ही इस मृत्यु-रूप संसार-सागर से तार देता हूँ ।
अत: हे अर्जुन ! तुम अपने मन को पूरी तरह मुझमें लगा लो और मुझमें ही अपनी बुद्धि को भी पूरी तरह स्थिर कर लो, जिससे तुम निस्सन्देह तब मुझमें ही निवास कर सकोगे ।
9-12. हे अर्जुन, यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर नहीं कर सकते तो योग के
प्रयास से तुम मुझको प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा करते रहो, और यदि वैसा करने में भी
असमर्थता का बोध हो, तो अपने सभी कर्म केवल
मेरे लिए ही किया करो । इस प्रकार केवल मेरे निमित्त
कर्म करते हुए भी मुझको प्राप्त होने के अपने प्रयास में तुम पूर्णतः सफल हो जाओगे
। यदि ऐसे भक्तिपूर्ण कर्मयोग की साधना करने में भी तुम असमर्थता का अनुभव करो
तो मेरे योग का आश्रय लेकर मन-बुद्धि को जीतने का प्रयास करते हुए अपने सभी कर्मों के फल के प्राप्ति-भाव का त्याग कर दो । यह जान लो कि
अनमने प्रयास से ज्ञान का अर्जन करना श्रेष्ठ है, उसी प्रकार ज्ञानार्जन करने से ध्यान करना श्रेष्ठ है, और ध्यान करने से भी अधिक श्रेष्ठ है अपने सभी कर्मों की फल-प्राप्ति की कामना का त्याग करना, जिससे तत्काल मन को पूर्ण शांति प्राप्त होती है ।
13-16. जो मनुष्य सबके प्रति
द्वेष, ममत्व एवं अहंकार से रहित
है, प्रेमी, दयावान, क्षमाशील सदा संतुष्ट, और सुख एवं दुख में सम-भाव रखने वाला है, मन,
बुद्धि और सभी इंद्रियां
जिसके वश में हैं, और जो नित्य भगवान की
भक्ति से युक्त है, जिसकी भक्ति दृढ निश्चय
वाली है, और जो मुझमे मन और बुद्धि अर्पित
करने वाला है, ऐसा भक्त मुझे बहुत प्रिय है । जो न किसी
से उद्विग्न होता है और न किसी को
उद्विग्न करता है, और जो हर्ष-संताप, भय, शोक, उद्वेग या व्याकुलता से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय होता है । जो मनुष्य सभी
प्रकार की आकांक्षाओं से रहित , बाहर-भीतर भक्तिभाव में कुशल, उदासीन और निष्पक्ष, व्यथा-रहित और शांत , तथा अपने सभी कर्मों के
अभिमान का त्याग करने वाला है, वही मेरा प्रिय भक्त है ।
17-20. जो मनुष्य न हर्षित होता है न शोक करता है,और न कामना करता है, तथा जो शुभ और अशुभ दोनों से
अविचलित रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता
है । वह जो शत्रु और मित्र,
मान और अपमान, शीत और उष्ण, सुख और दुख - दोनों में सम और अनासक्ति का भाव रखता है, जो निंदा और प्रशंसा को
एक-सा समझता हैं, मननशील और वाणी में पूर्णत: संयत है, और जहां भी निवास करता है उसमें कोई आसक्ति नहीं रखता, तथा जैसे भी जीवन का निर्वाह हो जाय उसी में सदा संतोष का भाव
रखता है, ऐसा भक्तिमान स्थिरबुद्धि मनुष्य मुझे प्रिय है ।
।| यहाँ श्रीमदभगवदगीता का भक्तियोग नामक यह बारहवां अध्याय समाप्त हुआ |।
© Dr BSM Murty
bsmmurty@gmail.com
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