देहाती दुनिया : शती-प्रसंग
मंगलमूर्त्ति
[आचार्य शिवपूजन सहाय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का प्रकाशन १९२६ में हुआ था, अगले वर्ष २०२६ में जिसकी शतीपूर्ति-आयोजन किया जाना है | ग्राम्य-जीवन पर आधारित ऐसा एक उपन्यास लिखने की मंशा लेखक के मन में प्रारम्भ से ही रही, जिसका शीर्षक भी ‘देहाती दुनिया’ लेखक के मन में पहले से ही निश्चित था | जैसा शिवजी ने अपनी १९१६ की डायरी में लिखा है -“अपने गाँव, जवार, प्रदेश, प्रांत, मंडल इत्यादि, यथाशक्य संभव हो, उसका इतिहास प्रत्येक [हिंदी] प्रेमी लिखे हिंदी में” (१७.२.१६)| “जीवन की कथा लिखने से बड़ा रोचक उपन्यास तैयार हो जायेगा” (६/८) । “‘देहाती दुनिया’ नामक एक बहुत बड़ा और समालोचनात्मक लेख लिखूंगा जिसमें देहाती कुरीतियों का वर्णन–सम्मार्जन रहेगा और सामाजिक संस्कारों पर विवेचनपूर्वक विचार फैलाया जायेगा । हो सका तो इस विषय की एक पुस्तक ही लिखूंगा” (३१/१०) | इससे यह पूरी तरह प्रमाणित है कि ‘देहाती दुनिया’ पुस्तक–लेखन के बहुत पहले का निश्चित किया हुआ शीर्षक था । तदनंतर, ‘मारवाड़ी सुधार’ का संपादन करने के लिए १९२१ में कलकत्ता जाने के बाद वहां शिवजी के भोजपुरी-भाषी मित्र रामगोविंद त्रिवेदी इस प्रसंग में विशेष प्रेरक बने, और १९२२-२३ में इसका लेखन और प्रारम्भिक मुद्रण त्रिवेदीजी की ही प्रकाशन संस्था की ‘भारती-पुस्तक-माला’ के अंतर्गत शुरू हुआ | लेकिन इसके ५ फर्में छपने बाद इस उपन्यास का लेखन शिवजी के अचानक ‘मतवाला’ से अलग होने और कलकत्ता छोड़ने से रुक गया, जो फिर शिवजी के ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में लखनऊ जाने पर शुरू हुआ, लेकिन वहाँ से फिर अचानक दंगे में लखनऊ से चले आने और होटल में ही नई दुबारा आगे लिखी जा रही पांडुलिपि के खो जाने से उपन्यास का लेखन बाधित ही रहा | शिवजी फिर जब १९२५ में लौट कर कलकत्ता गए और वहां से मई, १९२६ में अनिश्चित आजीविका की स्थिति में फिर काशी लौटे तब आवा-जाही की उस अस्थिरता में यह उपन्यास पूरा हुआ, और ‘पुस्तक-भण्डार’ लहेरिया सराय से १९२६ में ही पहली बार प्रकाशित हुआ | उपन्यास शिवजी की देख-रेख में ही काशी के ज्ञानमंडल प्रेस में मुद्रित हुआ था । ‘पुस्तक भंडार’ से इसके चार संस्करण प्रकाशित हुए (यद्यपि पुनर्मुद्रण तो अनेक हुए थे) और पाँचवा संस्करण १९५० में पं. रामदहिन मिश्र की ‘बाल–शिक्षा–समिति’, पटना से प्रकाशित हुआ । किंतु १९२६ वाला पाठ ही बाद में भी लगभग यथावत् छपता रहा, तथा यही पाठ अंतिम रूप से शिवजी की देखरेख में ‘शिवपूजन रचनावली’ (१) में १९५६ में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से छपा ।
इस उपन्यास के विषय में दूसरी
उल्लेखनीय बात है हिंदी उपन्यास-लेखन के उस प्रारम्भिक काल में शिल्प, संरचना और
कथा-भाषा की दृष्टि से इसका सर्वथा नवीन और अन्यतम होना, जिसके मूल्यांकन के
प्रतिमान भी आज तक तदनुकूल नहीं बन पाये हैं | बीसवीं सदी के दूसरे दशक में लिखे
जाने वाले अन्य उपन्यासों की तुलना में (जिनमें प्रेमचंद के उपन्यास भी शामिल हैं)
शिवपूजन सहाय-लिखित ‘देहाती दुनिया’ समालोचना की एक अलग दृष्टि की अपेक्षा रखती है | हिंदी में उस समय और बहुत
बाद में भी ऐसा कोई उपन्यास नहीं लिखा गया, जो एक विशेष प्रकार के अंचल के पाठकों
के भाषा-प्रयोग और मनश्चेतना को ध्यान-केंद्र में रखकर लिख गया हो, अथवा जिसके
लेखक ने उस समय तक विकसित हिंदी उपन्यास-लेखन के रचनात्मक मानकों से अलग हटकर सायास
एक अनन्य प्रकार के औपन्यासिक शिल्प में अपने उपन्यास की रचना की हो, जिसका पहले
से कोई ‘मॉडल’ न तो भारतीय और न किसी विदेशी
भाषा में ही उपलब्ध हो, और जो एक विशेष पाठक-वर्ग की ‘पसंद’ को बराबर ध्यान में रखते हुए लिखा गया हो | खेतिहरों-मजदूरों के लिए उनके समझने
लायक (और साथ ही हिंदी शिक्षित-पाठकवर्ग में स्वीकृत-साहित्यिक) भाषा में लिखी गई इस
कृति की रचनात्मकता में कुछ वैसे लोक-ग्राह्य गुण दिखाई पड़ते हैं जैसे तुलसी के ‘मानस’ में हैं |
इसी प्रसंग में यहाँ प्रस्तुत है
प्रो. अरविन्द कुमार का ‘देहाती दुनिया’ पर लिखा एक नया लेख जिसमें कई बिन्दुओं पर असहमति भी संभव है, जैसे समीक्षक के
इस विचार से कि उपन्यास में ‘विषयगत केन्द्रीयता’ का अभाव है, अथवा उसके इस कथन से कि –“देहाती दुनिया में देहात के दो गाँव हैं - उनवांस जहाँ शिव जी
का जन्म हुआ, तथा रामसहर जो शिव जी का ननिहाल था। इसलिए इस उपन्यास की कथा उनवांस
से शुरू होकर रामसहर में खत्म होती है”| यद्यपि उपन्यास को ध्यान
से पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि वाचक-बाल-चरित्र ‘भोलानाथ’ अपने ननिहाल के गाँव को ही ‘रामसहर’ कहता है, जहाँ वह अपने पिता के साथ आकर रहने
लगा है और जहाँ की (ज़मींदार रामटहल सिंह की) कहानी उपन्यास का मूल कथा-सूत्र है | ‘रामसहर’ शिवजी का अपना गाँव उनवांस ही है | (यह उनके
बाद में प्रकाशित आत्म-संस्मरण ‘मेरा बचपन’ से स्पष्ट
होता है |) ‘भोलानाथ’ के बाल्यकाल
का सारा वर्णन (‘माता का अंचल’) उसी रामसहर
का है | सारी कहानी भी वहीं और उसके आस-पास की ही है | पाठक को यह ज्ञात है कि ‘भोलानाथ’ के पिता अपना मूल गाँव छोड़कर अपनी
ससुराल (‘रामसहर’) में आकर बाबू रामटहल सिंह की
दीवानी करने लगे थे | पिता के उस पैत्रिक गाँव का नाम उपन्यास में नहीं आता, केवल अंतिम
परिच्छेद में ‘भोलानाथ’ अपने पिता के साथ अपने
शैशव के उस गाँव में जाता है – मूसन तिवारी के भतीजे की बरात में | उपन्यास की
कथा-संरचना से लगता है कि ‘माता का अंचल’ वाले प्रारम्भिक प्रकरण में ‘भोलानाथ’ के बाल्यकाल का चित्र भी रामसहर का ही है, जो शिवजी के अपने गाँव ‘उनवांस’ का ही है (देखें ‘मेरा बचपन’, और इस प्रसंग में
देखें मेरा लेख “‘देहाती दुनिया’:रचना-प्रक्रिया”, ‘शिवपूजन
सहाय का कथा-साहित्य”) | ‘देहाती दुबिया’ (प्रकाशित, १९२६) में गाँधीजी के असहयोग
आन्दोलन और सामायिक सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की किसी प्रकार की चर्चा का न
होना, इस उपन्यास की कथाभूमि का सामयिक राजनीतिक परिस्थितियों से सर्वथा अलग सुदूर
अति-पिछड़े ग्राम्यांचल से सम्बद्ध होना ही है – ऐसा ‘ठेठ देहात... जहाँ इस युग की
नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुंचा है’, जहाँ ‘अज्ञानता का घोर अन्धकार और दरिद्रता का तांडव-नृत्य’ ही देखने को
मिलता है |
यहाँ आज यह लेख ‘देहाती दुनिया’ के आगामी शती-आयोजन के प्रसंग में प्रकाशित हो रहा है | ‘देहाती दुनिया’ से सम्बद्ध कई लेख हाल में प्रकाशित ‘शिवपूजन सहाय का कथा-साहित्य’ में भी उपलब्ध हैं| ‘देहाती दुनिया’ से सम्बद्ध कुछ और सामग्री आगे यहीं पढने को मिलेगी | - मंगलमूर्त्ति]
देहाती दुनिया: प्रारंभिक गद्य का प्रस्थान बिन्दु
अरविन्द कुमार
शिवपूजन सहाय ने 1926 में ‘देहाती दुनिया’ नामक अपना इकलौता उपन्यास पूरा किया। इसे पूरा
करने में उन्हें चार से पाँच वर्ष लगे। इसके पूर्व उन्होंने कथा-साहित्य के नाम पर
कुल पंद्रह-सोलह कहानियाँ ही लिखी थीं जिनमें से आखिरी कहानी ‘कहानी का प्लाट’ तो ‘देहाती दुनिया’ के प्रकाशन के दो वर्षों बाद 1928 में लिखी गई। इसका
मलाल शिवपूजन जी को बराबर रहा क्योंकि ‘देहाती दुनिया’ के पहले संस्करण (1926)
तथा पाँचवें संस्करण (1950)
के बीच हिन्दी में उनके समकालीन या मित्र
कथाकारों के कई उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। जैसे 1933 में ब्रजनन्दन सहाय ब्रजवल्लभ ने ‘सौन्दर्योपासक’ उपन्यास लिखा तो 1933 में ही रामवृक्ष बेनीपुरी का उपन्यास ‘पतितों के देश में’ प्रकाशित हुआ। इसी तरह 1936 में राजा राधिका
रमण प्रसाद सिंह ने ‘राम-रहीम’ नामक उपन्यास लिखा तो 1937 में ब्रजनन्दन सहाय ब्रजवल्लभ का दूसरा
उपन्यास ‘लाल चीन’ प्रकाशित हुआ। फिर 1939 में राजाजी का ही दूसरा उपन्यास ‘पुरुष और नारी’ प्रकाशित हुआ तथा 1940 में बेनीपुरी जी का ‘कैदी की पत्नी’ उपन्यास आया।
इसीलिए ‘देहाती दुनिया’ के पहले संस्करण तथा पाँचवें संस्करण की भूमिका
में एक अन्तर देखने को मिलता है। पहले संस्करण की भूमिका में शिव जी लिखते हैं - ‘मैंने आज तक जितनी पुस्तकें लिखीं, उनकी भाषा अत्यन्त कृत्रिम, जटिल और आडम्बरपूर्ण, अस्वाभाविक और अलंकारयुक्त हो गई। उनसे मेरे
शिक्षित मित्रों को तो संतोष हुआ, पर मेरे देहाती मित्रों का मनोरंजन कुछ भी न हुआ। मैंने उसी
समय मन में यह बात ठान ली कि ठेठ देहाती मित्रों के लिए एक पुस्तक अवश्य लिखूँगा।
यह पुस्तक उसी का परिणाम है।’ तो क्या शिव जी उस समय तक लिखी अपनी कहानियों की भाषा से
संतुष्ट नहीं थे? तो क्या उस समय वे ‘देहाती दुनिया’ के शिल्प तथा उसकी भाषा को लेकर भी दुविधा में
थे? जाहिर है कि इस
उपन्यास का एक पूरा हिस्सा उस समय भड़के दंगे में माधुरी कार्यालय में कहीं खो गया।
और हो सकता है, यह दिक्कत इसलिए भी पैदा हुई हो। हॉलाकि उन्होंने यह लिखा कि ‘किन्तु इसे लिखकर भी मेरे मन को अभी पूरा संतोष
नहीं हुआ है क्योंकि बहुत सावधान रहने पर भी, मैं जैसा चाहता था, वैसा सरल और सुबोध इसको न बना सका। इसलिए अब
मैं ‘हमारा गाँव’ नामक उपन्यास लिखने का इरादा कर रहा हूँ, जिसकी भाषा को मैं इससे भी सरल बनाने की चेष्टा
करूँगा ताकि ठेठ से ठेठ देहात का एकदम अपढ़ गंवार भी बिना किसी की सहायता के उसका
एक-एक शब्द समझ ले, निरक्षर हलवाहे और मजदूर भी आसानी से उसकी हर एक बात को
अच्छी तरह समझ जाएँ, हॉलाकि उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी।
वैसे इसके पांचवें संस्करण की भूमिका थोड़ी भिन्न है जहाँ वे
लिखते हैं - ‘आज से लगभग पच्चीस साल पहले यह उपन्यास देहाती
भाइयों के मनबहलाव के लिए निकाला था। गाँव-गंवई में यह खूब पसंद किया गया। आरम्भ
में सभी भाषा-पारखियों ने इसे सराहा और असीसा था। पर अब इस युग में इसकी कोई
उपयोगिता है या नहीं, यह कहना मेरा काम नहीं। मैं तो ग्रंथमाला कार्यालय के
अध्यक्ष पंडित देवकुमार मिश्र जी का बहुत कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस प्रगतिशील युग में
भी मुझ जैसे अप्रगतिशील लेखक का ऐसा उपन्यास प्रकाशित करने की कृपा की है जो
आधुनिक कला की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता। फिर भी आशा है कि कला की दुनिया से दूर
रहनेवाले ग्रामीण हिन्दी पाठकों के लिए पहले की ही भांति यह नित नूतन बना रहेगा।’
‘देहाती दुनिया’ 1926 में प्रकाशित हुआ पर उसके प्रकाशन के पूर्व
प्रेमचन्द का ‘सेवासदन’ 1918 में तथा ‘प्रेमाश्रम’ 1921 में आ चुका था। यह बात थोड़ा चकित करती है कि जब ‘प्रेमाश्रम’ में सामाजिक परिवर्तन के संकेत आ चुके थे तो
उसके पाँच वर्षों बाद 1926 में प्रकाशित ‘देहाती दुनिया’ में ऐसे संकेत क्यों नहीं हैं। ‘देहाती दुनिया’ में जमींदार रामटहल सिंह द्वारा खेदू तथा उसकी
पत्नी सोनिया को पीटे जाने का कोई विरोध खेदू की ओर से नहीं होता, न ही पूरे गाँव के किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे
अत्याचारों का कोई विरोध होता है। शिव जी लिखते हैं -
‘बेचारे चुपचाप तमाशा देखते रहे। किसी में इतना
भी जीवट नहीं था जो खेदू की जान छुड़ाने के लिए बाबू साहब के आगे आता।’ यह सब गाँव में व्याप्त जड़ता तथा राजनीतिक, सामाजिक चेतना के अभाव का ही प्रतिफल है, जबकि ‘प्रेमाश्रम’ में लगान वृद्धि के खिलाफ किसानों का संघर्ष
दिखलाया गया है। हॉलाकि शिवपूजन जी यह पहले ही लिख देते हैं कि मैं ऐसे ठेठ देहात
का रहने वाला हूँ जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुँचा है।
वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं - अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव
नृत्य।’ जाहिर है कि यदि उस
समय के गाँवों में अज्ञानता नहीं होती तो जड़ स्थितियों से बदलाव के संकेत कहीं तो
दिखाई देते, जबकि इस उपन्यास के लिखे जाने के पूर्व महात्मा गाँधी का असहयोग
आंदोलन शुरू हो चुका था, तथा जनता सड़कों पर उतर आई थी। पर शिव जी अंग्रेजों की
पुलिस के लिए बस इतना ही लिखकर काम चला लेते हैं कि ‘इस लोक में पुलिस से छिपकर बच जाना बड़ी टेढ़ी
खीर है। पुलिस केवल भूलोक का ही नवग्रह नहीं है, पाताल की भी डाकिनी है।’... पुलिस नामी चोर
गुदरी राय को पकड़कर मार देती है पर गाँव की सामान्य औरतों के साथ खुला दुर्व्यवहार
क्यों करती है, इस पर कहीं कोई टिप्पणी नहीं है। पुलिस का दारोगा गुदरी की पत्नी सुगिया को
अपनी सम्पत्ति क्यों मान बैठता है, उपन्यास में यह प्रश्न भी तैरता है। दोनों ही स्थितियों में
गाँव के सामान्य लोगों का कोई प्रतिरोध दिखाई नहीं देता, न ही वहाँ गाँव की स्त्रियाँ दिखाई देती हैं।
हॉलाकि ‘ग्राम सुधार’ की भूमिका में थोड़ी भिन्नता है जहाँ शिव जी
लिखते हैं - ‘ऐसे अंधेरे में पड़े हुए गाँव बहुत से हैं जहाँ
न अच्छी सड़क है, न स्कूल है, न पुस्तकालय है, न अस्पताल है, न वहाँ कोई सरकारी अफसर आसानी से पहुँच पाता है
और न कोई नेता ही। ग्राम सुधार का काम अधिकतर ऐसे ही गाँवों में करना है।’ वे पुनः कहते हैं -
‘हमें विश्वास है कि गाँव के लोग अपने पैरों पर
आप ही खड़े होने की कोशिश शुरू कर देंगे, दूसरों के सहारे बेखबर रहने की भूल न करेंगे।’... इसीलिए ‘देहाती दुनिया’ को लेकर एक संदेह उनके मन में है जो उनसे यह
कहलवाता है कि ‘मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि उपन्यास लिखने की शैली से
मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ। फिर भी मैंने जान-बूझकर इतना बड़ा अपराध कर ही डाला। इस
पुस्तक को लिखते समय मैंने साहित्य-हितैषी सहृदय समालोचकों के आतंक को जबरदस्ती
ताक पर रख दिया था।’
शिव जी ‘मेरा जीवन’ में लिखते हैं - ‘मेरे पूज्य पिता बहुत अच्छे रामायणी थे, और
प्रतिदिन ‘मानस’ के श्लोक और चौपाई-दोहे सुनाने पर मुझे नित्य
पैसे दिया करते थे। उनकी प्रेरणा से यह अभ्यास उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक चलता
रहा।... साहित्य सेवा की प्रेरणा का मूल स्रोत मेरी समझ में ‘मानस’ ही है जिसके कारण छात्रावस्था (1910 ई.) से ही मैं
पटना की साप्ताहिक पत्रिका ‘शिक्षा’ में लेखादि लिखने लगा। संयोगवश सुपरिचित
हिन्दी-साहित्य-सेवी पण्डित ईश्वरी प्रसाद शर्मा मेरे स्कूल में हिन्दी के
साहित्याध्यापक होकर आए जिन्होंने मेरे साहित्यानुराग को परखकर उसे और भी बढ़ावा
दिया। वे मुझे आरा नगर की नागरी-प्रचारिणी-सभा में प्रतिदिन संध्या समय अपने साथ
ले जाते।’... शिव जी के पुत्र मंगलमूर्त्ति लिखते हैं -
‘गाँधीजी के असहयोग आंदोलन में आरा की के.जे.
एकेडमी से त्यागपत्र देकर शिव जी आरा से ही प्रकाशित ‘मारवाड़ी सुधार’ पत्रिका के संपादन-मुद्रण के लिए कलकत्ता चले
गए। बाद में अगस्त 1923 में महादेव प्रसाद सेठ और नवजादिक लाल श्रीवास्तव ने ‘मतवाला’ का प्रकाशन आरंभ किया जिसके संपादन का मुख्य
भार शिव जी ने संभाला। ‘देहाती दुनिया’ का प्रणयन इसी मतवाला-काल में हुआ।’ हॉलाकि शिव जी के दो अन्य अप्रकाशित उपन्यासों ‘असमंजस’ एवं ‘माया मंदिर’ (1932-33)
का भी उल्लेख मिलता है जो किन्हीं कारणों से
अर्द्धमुद्रित रह गए थे। इसलिए पूर्ण होने पर ये कैसे होते, यह कहना मुश्किल है। यह शिव जी के संघर्ष तथा
कई अन्य कार्यों में लगे रहने का परिणाम भी हो सकता है क्योंकि देखा जाए तो उनके ‘देहाती दुनिया’ में भी कोई विषयगत केन्द्रीयता नहीं है। दूधनाथ
सिंह ठीक ही कहते हैं कि ‘यह स्मरण शिल्प में लिखा गया उपन्यास है।’
शिव जी बराबर कहा करते थे कि ‘देहात ही वास्तविक देश है। देश देहात में बसता
है, शहर में नहीं।’ जब शिव जी के एक साहित्यिक मित्र रामगोविंद
त्रिवेदी ने कलकत्ते में ‘भारती प्रेस’ की स्थापना की तो उन्होंने शिव जी से यह कहा कि
वे उनके लिए देहाती समाज से जुड़ा एक उपन्यास लिख दें। और तब शिव जी ने ‘देहाती दुनिया’ शीर्षक से उपन्यास लिख डाला। इसलिए यह माना जा
सकता है कि रामगोविंद त्रिवेदी ही वह प्रेरक माध्यम बने जिससे शिव जी ने उपन्यास
लेखन के बारे में सोचा। इसका उल्लेख शिव जी के निधनोपरांत ‘साहित्य’ पत्रिका के ‘शिवपूजन सहाय स्मृति अंक’ में खुद
रामगोविंद त्रिवेदी ने किया है। शिव जी देहात को प्राण माना करते थे, वे कहते थे - ‘इस समय जनता को ऐसे
प्रकाश की जरूरत है जिसमें वह अपने हितैषी और शोषक को पहचान सकें। ऐसा प्रकाश जनता
को तभी मिलेगा जब हमारे लेखक और पत्राकार ग्रामवासी जनता की समस्याओं पर विचार
करेंगे।’
‘देहाती दुनिया’ में शिशु चरित्र भोलानाथ कथानक के केन्द्र में
है। रामसहर उसके ननिहाल का गाँव है। उसके नाना जमींदार बाबू सरबजीत सिंह के दीवान
थे। पर कथा के विस्तार में सरबजीत सिंह कहीं मौजूद नहीं हैं। कथा उनके पुत्र बाबू
रामटहल सिंह के इर्द-गिर्द चलती है, और उन्हीं से खत्म भी होती है। बाबू रामटहल
सिंह का जब समय पर विवाह नहीं हुआ तो उन्होंने घर में काम करनेवाली बुधिया को ही
रखेल बना लिया था जिससे उन्हें तीन बेटियाँ - सुगिया, बतसिया और फुलगेनिया हुई थीं। बाद में दूसरे
गाँव के एक गरीब बाबू साहब मनबहाल सिंह ने अपनी बेटी महादेई से उनका विवाह करा
दिया। भोलानाथ के नाना की मृत्यु के बाद उसकी नानी के बुलावे पर उसके पिता वहाँ की
दीवानी संभालने सपरिवार रामसहर में रहने लगे।
उपन्यास की कथा स्मृतियों में चलती है। तब लेखक की उम्र
चार-पाँच वर्ष की रही होगी। हॉलाकि उपन्यास लिखे जाने के समय उसकी उम्र तीस वर्ष
के आस-पास थी। शायद इसीलिए बचपन की वे सारी स्मृतियाँ जीवित रह गई थीं। उन
स्मृतियों में सबसे सजीव स्मृति पिता और माता की थी। लेखक कहता है - ‘पिताजी हमें बड़े प्यार से भोलानाथ कहकर पुकारा
करते। पर असल में हमारा नाम था तारकेश्वरनाथ।‘ वैसे तो नाम के हिसाब से भोलानाथ
एवं तारकेश्वरनाथ के बीच एक बड़ी दूरी है पर लेखक प्रायः भोलानाथ को लेकर ही चलता
है। भोलानाथ की मइयाँ (माँ) भोलानाथ को बहुत प्यार करती हैं, और बालपन की उसकी
बदमाशियों को वे बड़ी ही सहजता से लेती हैं, और उसके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार
नहीं होतीं। जब स्कूल में पढ़ाई ठीक से नहीं करने तथा तरह-तरह की बदमाशियों के चलते
भोलानाथ की पिटाई होती है तो वे अपने पति से इस बात को लेकर झगड़ पड़ती हैं - ‘आज तो सुना है कि हत्यारे गुरु ने इसको पकड़कर
छड़ी से पीटा है। मेरा बस चलता तो मैं हरगिज ऐसे चांडाल गुरु के पास अपने लड़के को न
भेजती। मेरा लड़का बिना पढ़े ही रहेगा। जीता बचेगा तो बहुत पढ़ेगा। मुझे इसकी जिन्दगी
की भूख है, कमाई की नहीं। सुख से जीता रहेगा, तो मजूरी करके गुजर कर लेगा। आधा पेट
ही खाएगा।’... पिता को जीवन का अनुभव था, इसलिए वे भोलानाथ की हरकतों से चिंतित रहा करते थे। वे कहते
- ‘चिरकुट धोबी उलाहना देने आया है। बैजू के साथ
भोलानाथ भी गधे पर चढ़ा था। भोलानाथ घर में ही कहीं होगा। देखो, ढूँढकर उसे नहलाओ-धुलाओ।’... शिव जी का अपना
गाँव उनवांस था और उनके पिता वागीश्वरी दयाल आरा के बख्शी हरिहर प्रसाद के पटवारी
थे। वे उनकी जमींदारी की देख-भाल करते थे। शिव जी का जन्म 1893 में हुआ था तथा
उनके जन्म के सात साल बाद ही 1899 में भारत के कई क्षेत्रों में भीषण अकाल पड़ा था। इसमें बड़े
पैमाने पर मानवीय क्षति हुई थी और उस परिस्थिति से निबटना कठिन था। जाहिर है तब
गरीबी काफी रही होगी तथा जीवन जीना आसान नहीं रहा होगा। स्त्री का सौदा भी ऐसी ही
परिस्थितियों में होता रहा होगा। यदि मनबहाल सिंह अपनी बेटियों को विवाह के नाम पर
बेचकर पैसा उगाहने का काम करते रहे होंगे तो यह आर्थिक जड़ों के कमजोर रहने का ही
नतीजा होगा। रामटहल सिंह भी बुधिया से पैदा हुई तीनों बेटियों के प्रति यदि उदासीन
हैं, तो इसके पीछे भी आर्थिक कारण ही रहे होंगे। इसीलिए वे आसानी से बुधिया के साथ
तीनों बेटियों को भी जाने देते हैं, भले ही मनबहाल सिंह के लिए यह मनमाँगी मुराद
हो। शिव जी लिखते हैं - ‘मनबहाल सिंह को नौ लड़कियाँ हैं। वे उनकी जायदाद हैं। उन्हें
बेचकर वह कुछ पूँजी भी जमा कर चुके हैं। पर इतने पर भी वह दरिद्र ही हैं। खर्च
चलता है, चोरी की चीजों से!
लड़कियाँ अपनी-अपनी ससुराल से सब चीजें चुराकर चुपके-चुपके भेजा करती हैं।’... उनकी आर्थिक तंगी
ही उन्हें बुधिया की ओर ले गयी थी। उपन्यासकार लिखता है -
‘महादेई का दुख भी उनके चित्त पर न चढ़ा। केवल
बुधिया की तीनों क्वाँरी लड़कियों पर उनकी आँख गड़ गयी। अब न उन्हें दिन को चैन, न रात को नींद – उद्बेग हो गया कि लड़कियाँ कैसे हाथ लगेंगी।
उनके लिए वे कम-से-कम छह हजार का माल थीं।’
‘देहाती दुनिया में देहात के दो गाँव हैं - उनवांस जहाँ शिव जी का जन्म हुआ तथा रामसहर जो
शिव जी का ननिहाल था। इसलिए इस उपन्यास की कथा उनवांस से शुरू होकर रामसहर में
खत्म होती है, जहाँ बाबू रामटहल सिंह बीमार हैं तथा अन्तिम समय की प्रतीक्षा में हैं। उनकी
ब्याहता पत्नी महादेई पुजारी पशुपत पांडे के लड़के के साथ भाग गई है। महादेई जवान
है, बाबू रामटहल सिंह
एय्याश तो रहे हैं पर अब कमजोर हो चले हैं। गोबरधन भी जवान है, इसलिए दोनों के मन का मिलना स्वाभाविक है।
महादेई का मन बाबू रामटहल सिंह की ओर से फट चुका है। बाबू जी को देखते ही वे बिफर
पड़ते हैं -‘मैं नहीं जानता था कि गोबरधन ऐसा दगा करेगा।
उलटी छुरी का घाव मार गया। इस समय वह मिल जाता तो मैं बिना गोली मारे नहीं छोड़ता।
जैसे एक ब्रह्म पूजता हूँ, वैसे एक और सही, मगर मार ही डालता। जिस पत्तल में वह जिन्दगी भर
खाता रहा, उसी में छेद कर
गया। नमक का बदला बुरी तरह चुकाया। अच्छा, उसके रोम-रोम में मेरा नमक पैठ गया है, जहाँ कहीं रहेगा, मेरे आँसुओं की धार में वह नमक का पुतला गल
जाएगा।’... जाहिर है कि रामटहल सिंह के पिता बाबू सरबजीत सिंह ने एक बीघा खेत के लिए
ब्रह्म-हत्या कर डाली थी। बाबूजी कुछ कह न सके पर फाटक पर पहरा देने वाले घूरन
सिंह जरूर बोले -‘मेरे चले जाने से ही यह गोलमाल हुआ है। रात को चट्टान-सा
फाटक कोई अच्छी तरह बन्द न कर सका होगा, बस गोबरधन की घात लग गई।’
जाहिर है, समय बदल रहा था और इस बदलते समय में किसी जमींदार की लाठी
या बंदूक अब ज्यादा दिनों तक खेदू, सोनिया या पलटू को गिड़गिड़ाने को मजबूर नहीं कर सकती थी। यह
विदित हो चला था कि धीरे-धीरे खुद ही अभेद्य हवेली ढहती चली जाएगी और वहाँ विराज
रही लक्ष्मी अपना रास्ता बदल लेगी। तब हवेली का फाटक स्वतः ही खुल जाएगा और खेदू
को यह नहीं कहना पड़ेगा कि ‘मैं रामसहर छोड़ कहीं दूसरी जगह न जाऊँगा। इसी गाँव में पैदा
हुआ हूँ, इसी गाँव की धूरि
में लोट-पोटकर सयाना हुआ हूँ। अब मरने के दिन करीब आए तो भागकर कहाँ जाऊँ? जैसे इतने दिन कट गए, वैसे ही बाकी दिन भी कट जाएँगे।’ और न ही पलटू चमार को अपनी सुरक्षा के लिए अपना
धर्म परिवर्तित कर ईसाई बनना पड़ेगा। हॉलाकि शिव जी ने यहाँ हिन्दू धर्म की
विकृतियों की चर्चा नहीं की है तथा उसे कारण नहीं बनाया है। वैसे एक जगह पलटू से
जुड़ा एक प्रसंग है जहाँ वे बहोरन के माध्यम से कहते हैं -
‘जब डोम-चमार जैसे अछूत भी अपनी इज्जत के लिए
प्राण-समान प्यारा धर्म छोड़ देते हैं तब हम तो कहार हैं। हमारा गट्टा पाक है।
हमारा छुआ पानी तो ब्राह्मण पीते हैं।’... यानी शिव जी के समय ब्राह्मण या अगड़ी जाति के
लोग अछूतों या दलितों का छुआ पानी नहीं पीते थे। उनके लिए बहुत कुछ प्रतिबन्धित था, यहाँ तक कि उनकी छाया से भी बचने का विधान था।
पर स्त्रियाँ उनकी रखेल बन सकती थीं, तथा उनसे देह-सम्बन्ध वर्जित नहीं था। यही
कारण था कि बाबू रामटहल सिंह ने रखेलिन रख ली थी। बाबू साहब का जनाना मकान ‘बड़ी हवेली’ के नाम से प्रसिद्ध था जिसके एक हिस्से में
बुधिया रहती थी। कभी वह गोबर पाथने वाली बुधिया थी, अब वह जमींदार की पर्दानशीन रखेली के रूप में जानी
जाती थी।
‘देहाती दुनिया’ के 1926 में प्रकाशन के पूर्व हिन्दी में कई उपन्यास
प्रकाशित हो चुके थे, जैसे - पंडित गौरी दत्त का ‘देवरानी-जेठानी’(1872),
श्रद्धाराम फिल्लौरी का ‘भाग्यवती’(1877), लाला श्रीनिवास दास का उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’(1882), देवकीनंदन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकांता’(1888) तथा भुवनेश्वर मिश्र का उपन्यास ‘बलवन्त भूमिहार’(1896),
जिससे यह पता चलता है कि बीसवीं सदी के गद्य के
विकास में हिन्दी उपन्यासों का बहुत बड़ा योगदान था।... ‘देहाती दुनिया’ ग्यारह परिच्छेदों में बंटा उपन्यास है, तथा
उसका औपन्यासिक शिल्प बिल्कुल अलग है। प्रारम्भ ‘माता के अंचल’ से होता है, फिर ‘ननिहाल का दाना-पानी’ से होते हुए कथा ‘दारोगा जी के चोर महल’
तक जाती है, फिर ‘ब्रह्म पिसाच का देवघर’
होते हुए ठाकुर रामटहल सिंह के शयनकक्ष में
पहुँचती है, जहाँ उसका अन्त होता है। उपन्यास की कथा ‘माता के अंचल’ में बहुत कम देर ठहरती है, और ननिहाल के घर से
होते हुए बाबू रामटहल सिंह की हवेली में पहुँच जाती है जहाँ दारोगा जी आगलगी के
मामले की जाँच करने पधारे हुए हैं। दारोगा के स्वागत में सभी लोग परेशान हैं।
उपन्यासकार लिखता है - ‘देहात में दारोगा को जो दावत दी जाती है, वह दुनिया में दामाद को भी दुर्लभ है। भगवान
अगर किसी पढ़े-लिखे को पेट दें, तो कहीं मुफस्सिल की थानेदारी भी किस्मत में लिख
दें।’... सारा गाँव दारोगा
की खातिरदारी में लगा हुआ है, बस एक पिलुआ अहीर है जो इससे अलग है। हॉलाकि वह कुछ ज्यादा
ही विपन्न है, पर तब भी उसका आत्मसम्मान मरा नहीं है। जब दारोगा का सिपाही एक
पसेरी चने को पहुँचाने के सवाल पर उसकी पत्नी को लेकर यह कह बैठता है कि ‘यह कहीं की महारानी है कि वहाँ जाने से छोटी हो
जाएगी! स्त्री जवान भी तो नहीं है कि वहाँ कोई उससे हँसी-मसखरी करेगा। बुढ़िया पर
इतना दिमाग? खेत-खेत मारी फिरती है, तब इज्जत नहीं जाती?’... तो यह बात पिलुआ के कलेजे में तीर की तरह चुभ
जाती है, और वह सिर से उतारकर चँगेली वहीं रख देता है, और कहता है - ‘हे, बहुत ठसके मत दिखाओ। घर में सनहक और बधना भी न होगा, यहाँ सिर पर लाल पगड़ी बांधने से नवाब मत बनो।
दस ठो चानी की टिकुली पाते हो, बस समझते हो कि दुनिया में और कोई इज्जतदार है ही नहीं।
गरीब होने से मैं अपनी स्त्री की बेइज्जती न सहूँगा। इतने में नूर मियाँ दौड़ा हुआ आ पहुँचा। पिलुआ
कज होकर बगल में हट गया, मियाँ जी धड़ाम से वहीं मुँह के बल गिर पड़े - मुँह और दाढ़ी में धूल भर गई - सोटा हाथ से छूटकर
अलग जा पड़ा।... पर एक-दूसरे मौके पर पुलिस
ने अपना यह गुस्सा गाँव की औरतों पर निकाला। दारोगा जी जब ‘सुगिया’ के फतह के लिए दल-बल सहित निकलते हैं तो पूरे गाँव
में कुहराम मच जाता है। पुलिस-सिपाही शिकारी कुत्तों की तरह गाँव की बहू-बेटियों
पर टूट पड़ते हैं, उनके लिए सबसे आसान और फायदेमन्द निशाना यही है। यह अंग्रेजों की पुलिस थी पर
आजाद भारत की पुलिस का चरित्र भी कुछ इसी तरह का है।
दूधनाथ सिंह के शब्दों में ‘देहाती दुनिया’ का रस उसमें प्रयुक्त लोक-मिथक और लोक-इतिहास
का रस है जो इस उपन्यास में प्रयुक्त भाषा, संवाद और वातावरण के चित्रण के भीतर से आता है।
शिव जी भी तो यही कहते हैं कि ‘इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की खास उपज या मेरी मौलिक
कल्पना नहीं है। यहाँ तक कि भाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है।’... वे पुनः कहते हैं - ‘हिन्दी की शैली में जनपदीय शब्दों को खपाने का कौशल
प्रत्येक कलाकार के बूते की बात नहीं। यह बड़ी गहरी साधना का काम है।’... यह काम शिव जी ने
बड़ी सतर्कता से किया है जिससे जनपदीय मुहावरे या लोकोक्तियाँ महत्वपूर्ण हो उठी
हैं, और उसमें एक चमक आ गयी है। जैसे ‘माता का अंचल’ में भोलानाथ के ‘बाबूजी’ से मइयाँ कहती हैं - ‘जब खाएगा बड़े-बड़े कौर, तब पाएगा दुनिया में ठौर।’ भोलानाथ को लेकर कही गई यह उक्ति कितनी अर्थवान
है। इसी तरह मकई के खेतों में चर रहे पक्षियों के झुंड को लेकर बच्चों द्वारा
गा-गाकर यह कहना - ‘जो नहि जाए कबौ
ननिऔरा। सो गदहा हो या गोबरौरा।’ लेखक की दृष्टि में ननिहाल का कितना महत्व है, इसका पता इन पंक्तियों से चलता है। यानी ददिऔरा
यदि महत्वपूर्ण है तो ननिऔरा जाना भी उतना ही जरूरी है। लेखक यहाँ किसी दुविधा में
नहीं है और उसकी दृष्टि में ससुराल का भी उतना ही आदर होना चाहिए जितना अपने घर
का। इसीलिए अपने श्वसुर की मृत्यु के बाद अपनी सास के बुलावे पर भोलानाथ के पिता
तुरत रामसहर का रूख कर लेते हैं। और भोलानाथ के लिए तो यह और मजे की बात थी।
माँ-बाप के लाड़-प्यार ने उन्हें रूई का फाहा बना दिया था। शिव जी लिखते हैं - ‘हम मइयाँ की आँखों की ठंडक और बाबूजी की आँखों
की पुतली तो थे ही, अब नानी की पुरानी आँखों की भी नई जोत बन गए।’... दरअसल नाना के
गुजरने के बाद बाबू रामटहल सिंह ने नानी से कहा -
‘अपने दामाद को बुलवाइए। नहीं तो मेरी जमींदारी
मिट्टी हो जाएगी।’
‘देहाती दुनियां’ में बाबू रामटहल सिंह की जमींदारी भले ही
मिट्टी नहीं हुई हो, पर उनकी पुरानी अकड़ जरूर मिट्टी हो गई थी। महादेई के गोबरधन
के साथ भाग जाने की घटना कोई मामूली घटना नहीं थी। जो जुबान कभी लात-जूते तथा डंडे
की भाषा की कायल थी, वह अब लाचारी और पराजय का दंश झेल रही थी।... भुवनेश्वर
मिश्र के उपन्यास ‘बलवंत भूमिहार’ में भी बात-बात पर अकड़ दिखाने वाले बाबू रनपाल
सिंह एक दिन अपने सबसे बड़े दुश्मन बलवंत सिंह के आगे नतमस्तक हो जाते हैं, तथा
उन्हें अपना दामाद बना लेते हैं। वे इस बात को समझ जाते हैं कि धर्म जाने से धन का
महत्व घट जाता है। आखिर सब लोग अपने-अपने जी में तो जरूर कहते होंगे कि चाँदपुर के
बाबू लोगों ने बड़ी बेईमानी से बलवन्त सिंह की जमींदारी ले ली है। चाहे शिवपूजन
सहाय हों या भुवनेश्वर मिश्र, उनका मकसद यही दिखाना रहा है कि जमींदारियाँ डर, जुल्म और आतंक के सहारे ही चलती रही हैं। और
सिर्फ जमींदारियाँ ही नहीं, राजसत्ताएँ भी अपने को बचाए रखने के लिए इन्हीं हठकंडों का
इस्तेमाल करती रही हैं। बाबू रनपाल सिंह क्रोधित होकर गुमाश्ते से कहते हैं - ‘सरकार-सरकार कहता है तो समझता है कि हम अपने
बाप के यहाँ पहुँच गए। अरे बरियारपुर मौजां क्या तुम्हारी जोरू को मुँह दिखौनी में
दिया गया था, या तुम्हारे दादा तरका छोड़ गए थे, कि पोता मेरा वसूल कर खाएगा? कोई है रे, इसको पचीस जूते लगा।’...
कभी बाबू रामटहल सिंह भी तो इसी तरह अकड़ते थे।
‘देहाती दुनिया’ हो या ‘बलवंत भूमिहार’, इनकी कथा गाँव की सरहद नहीं लांघती। शिवपूजन
सहाय या भुवनेश्वर मिश्र दोनों के लिए देहात एक ऐसी जगह है जिससे उस देश की
सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का पता चलता है। कोई भी देश देहात से ही बनता है, इसलिए देहात के जीवन को समझना सबसे अधिक जरूरी
होता है। शायद इसीलिए इन लेखकों ने देहात को सबसे अधिक महत्व दिया।... ‘देहाती दुनिया’ के सृजन के काफी पहले 6 अगस्त 1916 को अपनी डायरी में शिव जी ने लिखा था - ‘अपने जीवन की कथा लिखने से बड़ा रोचक उपन्यास
तैयार हो जाएगा।’ इसी तरह 31 अक्टूबर 1916 को अपनी डायरी में वे लिखते हैं - ‘देहाती दुनिया’ नामक एक बहुत बड़ा और समालोचनात्मक लेख लिखूंगा
जिसमें देहाती कुरीतियों का वर्णन-सम्मार्जन रहेगा, और सामाजिक संस्कारों पर
विवेचनापूर्वक विचार फैलाया जाएगा। हो सका तो इस विषय की एक पुस्तक ही लिखूंगा।
उनकी 1916 की यह परिकल्पना
दस वर्षों बाद 1926 में प्रतिफलित हुई। जाहिर है कि शिव जी के मन में यह देहात रहा। और इसके निर्माण में सामाजिक कुरीतियां तो वर्णित हुईं पर सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की लहर का कोई संकेत नहीं बन
सका। जबकि 1919 में ही प्रेमचन्द ‘जमाना’ में प्रकाशित अपने लेख में इस मैले-कुचैले कपड़ों वाली जनता
की शक्ति पहचान चुके थे। देखा जाए तो शिव जी अपने निजी जीवन में महात्मा गाँधी के
असहयोग आंदोलन से जुड़ते दिखते हैं, पर ‘देहाती दुनिया’ में न तो कहीं गाँधी जी हैं और न उनका असहयोग
आंदोलन। चूंकि यह उपन्यास 1926 में पूरा हुआ, इसलिए उस समय तो गाँधी जी थे। हो सकता है, शिव जी ने इसकी कथा को 1905 तक ही सीमित कर
दिया हो, क्योंकि 1906 में भोलानाथ के पिता की मृत्यु हो जाती है। वैसे ‘देहाती दुनिया’ के प्रथम संस्करण की भूमिका में वे पहले ही
इसीलिए यह लिख देते हैं - ‘जो सज्जन इस पुस्तक में किसी प्रकार का आदर्श चरित्र-चित्रण
अथवा गंभीर विचार ढूँढेंगे, वे सर्वथा हताश होंगे, और मेरी अनाधिकार चेष्टा पर तिरस्कार
की हँसी भी हँसेंगे, पर मैं इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य पहले ही बता चुका हूँ।’...
‘मतवाला’ के एक अग्रलेख में शिव जी यह लिखते हैं - ‘जिस समय महात्मा जी जेल भेजे गए, उस समय तो सारे देश ने अहिंसात्मक सिद्धान्त की
दृढ़ता दिखाने में कमाल कर दिया। करोड़ों आँखें ताकती ही रह गईं, महात्मा जी आसानी से जेल में ठूँस दिए गए।...
जो हमारे लिए अपनी हस्ती तक मिटाने को तैयार था, उसके आँखों से ओट होते ही हमने उसके उपदेशों पर
अमल करना भी छोड़ दिया। धिक्कार है हमारी गाँधी-भक्ति पर। हमें तो कोई अधिकार ही
नहीं कि हम गाँधी की भक्ति का दम भरें। गाँधी-विहीन समाज यदि स्वर्ग से भी सुंदर
हो तो वह नरक के समान त्याज्य है। उस एक महात्मा पर ही शत-शत स्वराज्य न्यौछावर कर
देने योग्य है। उसके बिना स्वराज्य का स्वप्न भी कैसा? वही हमारा प्रत्यक्ष स्वराज्य है। यदि वह हमारी
आँखों के सामने बना रहे तो स्वराज्य चरणों पर लोटता रहेगा।’ (‘मतवाला’, 26.1.24) पर चाहे वह ‘देहाती दुनिया’ हो या ‘बलवन्त भूमिहार’, ये उपन्यास यथार्थवाद की एक जमीन जरूर तैयार
करते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि हिन्दी नवजागरण के सूत्र भी यहीं से मिलने शुरू
हो जाते हैं। ‘मतवाला’ के ही एक अग्रलेख में शिव जी वर्ण-व्यवस्था पर चोट करते हुए कहते हैं - ‘आध्यात्मिकता की धारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों में विद्यमान है।
इस समय चाहे आप अछूतों को गोली मार दें, परन्तु उस समय शुद्धात्मा शूद्रों के लिए इस
तरह का अविचार न था। इस तरह हमारी दृष्टि में भारत की आध्यात्मिकता ही उसका
जातीय-लक्ष्य सिद्ध होती है। हम जब बौद्ध काल की कला पर ध्यान देते हैं तो वहाँ भी
आध्यात्मिकता के चिन्ह प्रत्यक्ष होते हैं। मूर्तियों की अलग-अलग भंगिमाओं में
आध्यात्मिकता की ही रेखा खिंची हुई है।... हमारा इतिहास दिखलाता है कि कसाई और
चमार भी अपने कार्य में तत्पर रहकर ईश्वरत्व को प्राप्त कर चुके हैं। (‘मतवाला’, 12.09.25)
इसलिए ‘देहाती दुनिया’ का कलेवर ‘बलवन्त भूमिहार’ से आगे का कलेवर है, जहाँ दलित या पिछड़ी
श्रमशील जातियों के भीतर मूक चेतना के संकेत मिलने शुरु हो जाते हैं। नामवर सिंह
लिखते हैं - ‘हिन्दी साहित्य में आचार्य शिवपूजन सहाय की छवि
वही है जो भारतीय राजनीति में लाल बहादुर शास्त्री की। प्रभामंडल से रहित। अति
साधारण जैसे गँवई, गाँव का सामान्य किसान। धर्मभीरू। विनयशीलता की साक्षात
मूर्ति। तपे-तपाए कुंदन-सा खरा। क्षीण तन, पीन मन।’ (‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ की भूमिका)... लेकिन
इस क्षीण-तन धर्मभीरू गँवई किसान-मन के भीतर जो चेतना के तन्तु हैं, वहीं से एक नया समाज उदित होता दिखाई देता है।
हिन्दी नवजागरण के राष्ट्रीय नवजागरण में बदलने का यही प्रस्थान-बिन्दु है।
502, महेश अपार्टमेंट, बड़ी खंजरपुर, भागलपुर-812001
मो. 9934665938
No comments:
Post a Comment