मेरी ये नई किताबें
विश्वविद्यालय सेवा से
निवृत्त एक प्रोफ़ेसर का जीवन सामान्यतः पुस्तकों के साथ ही बीतता है | विशेष कर सेवा-निवृत्ति के बाद पुस्तकें ही
उसकी अभिन्न सहचरी रह जाती हैं | पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते बीते जीवन में उसकी हैसियत
अक्सर खुद एक पढ़ने लायक किताब जैसी बन जाती है | मुझको भी अपने पिता से विरासत में
किताबों की यही धरोहर मिली - किताबों की एक बहुत बड़ी दुनिया, उनकी एक व्यापक
वैश्विक समृद्ध संस्कृति | एक पीढ़ी-दर-पीढ़ी जनमती-बनती किताबों की दुनिया –
किताबों से जनमती-बनती और किताबें | किताबों के बीच रहते हुए मैं कब खुद एक किताब
में तब्दील हो गया, यह मैंने तब जाना जब मैं खुद किताबें लिखने लगा – पिता की
विरासत में हिंदी में, और अपनी पढाई की विरासत
में अंग्रेजी में | प्रकाशकों के साथ मेरे पिता के जैसे अनुभव हुए थे उनसे परिचित
होने के कारण मैंने प्रकाशकों के साथ अपने सम्बन्ध अ-व्यावसायिक ही रहने दिए,
क्योंकि मुझे उनपर किसी तरह निर्भर रहने की मजबूरी नहीं रही | मैंने तो यह देखा कि
हमारे देश में प्रकाशक ही लेखक के भरोसे जीता-खाता है, कोई लेखक प्रकाशक के भरोसे
तो अपनी लंगोटी भी नहीं संभाल पाता | अभी हालिया एक लेखक का हाल पढ़ा तो यह
विडम्बना और तल्खी से उजागर होती दिखाई दी – गरीब रहते हुए ही कोई लेखक अच्छा
साहित्य लिख पाता है | समय उसको धन के बदले यश देता है ज़रूर, जो उसे ज़्यादातर
दुनिया छोड़ने के बाद ही मिलता है | इस सत्य को वह अपने जीवन में ही समझ जाता है |
मैंने अपने पिता के जीवन को निकट से देख कर इस सत्य को और शिद्दत से जान लिया था |
धन के रूप में जीवन-यापन में मुझको जीवन में जो मिला वह लेखक के रूप में नहीं
मिलना था, यह मैंने होश संभालते ही जान लिया था | इसलिए मैंने अर्थ-लोभ से पूर्णतः
मुक्त होकर, अपने पिता की तरह ही एक तरह के निष्काम-भाव में अपना लेखन-कर्म किया –
‘स्वान्तः सुखाय’ | मैंने जो कुछ अच्छा-बुरा लिखा वह किसी मुफलिस लेखक की तरह
आर्थिक दबाव में नहीं लिखा, लिखने में सुख पाते हुए लिखा | मेरे उस साहित्यिक लेखन
की गुणवत्ता कैसी है, यह तो मैं अच्छी तरह समझता हूँ, क्योंकि उसकी सम्पूर्ण
सार्थकता उससे मिलने वाले ‘स्वान्तः सुखायत्त्व’ में ही निहित है; क्योंकि अपने
अन्दर अनुभूत ‘सच्चा सुख’ ही वास्तविक सुख होता है – और वह सुख मुझको मिला, जीवन के इस अंतिम चरण में इन
किताबों को लिख कर; जिनके प्रकाशन के लिए न मैंने कभी बड़े प्रकाशकों का मुंह जोहा,
और न उनके प्रचार प्रसार के उस गोरखधंधे में पड़ा | मेरी लिखावट ऐसे गलफांसू दबावों
से बिलकुल आज़ाद रही – इस तरह के ‘प्रोमोशनल’ फरफंदों से वह
बराबर अलग ही रही |
पहले मैं पत्र-पत्रिकाओं में अपना लिखा प्रकाशित होने के लिए भेजता था, और ५००-१००० पृष्ठ तो बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में मेरा लिखा अब तक ज़रूर छपा होगा, लेकिन यह सिलसिला पिछले १०-१५ साल से बंद ही रहा है | इन पिछले सालों में मैंने अपनी २०-२५ से अधिक ही किताबें प्रकाशित की होंगी, लेकिन उनके बारे में अपने एकाधिक ब्लॉगों या अपने फेसबुक पृष्ठ पर ही मैं ज़्यादातर हाल के वर्षों में लिखता रहा | हिंदी-अंग्रेजी के मेरे ३-४ ब्लॉग हैं जिन पर महीने में औसतन लगभग १००० ‘दृष्टिपात’ दिखाई देते हैं | मेरे फेसबुक पृष्ठों के नियमित द्रष्टा-पाठक भी लगभग ४०-५० होते हैं | मेरी लिखी और संपादित पुस्तकें कितने पाठकों के पास पहुंचती हैं – गिनी-चुनी ही संख्या रहती होगी – पर इसका ठीक-ठीक हिसाब न मुझको कभी मिला, और न मेरे लिए कभी इसकी कोई अहमियत रही | इसीलिए कोई बड़ा या छोटा लेखक होने का वहम भी कभी मे इसी ‘वागीश्वरी’ ब्लॉग पर – जो मेरे पितामह के नाम पर है – आप देख सकते हैं | मेरी इन किताबों के प्रकाशन का सिलसिला तो काफी पुराना है, पर उनकी रफ़्तार ज्यादा बढ़ी मेरी सेवा-निवृत्ति के बाद, इस २१ वीं सदी में | शुरू के इन दो दशकों में ज़्यादातर मैंने अपने पिता के साहित्य को संयोजित-संपादित किया; उनके साहित्यिक संग्रह को सुरक्षित-संरक्षित करने पर ध्यान केन्द्रित किया – २०११ में उनका सम्पूर्ण साहित्य ‘साहित्य समग्र’के १० खण्डों में संपादित किया, और उनकी कुछ अलग-अलग पुस्तकों के पुनर्संस्करण भी संपादित-प्रकाशित किये, जिनके विवरण मेरे ब्लॉगों पर देखे जा सकते हैं | मेरी अपनी अंग्रेजी की किताबें ज़्यादातर पिछले दशक में प्रकाशित हुई हैं, जिनके विवरण भी समयानुसार मेरे ब्लॉगों पर प्रकाशित हुए हैं | (अब कितने लोगों ने उनको पढ़ा है – और खरीद कर पढ़ा है, यह तो और दीगर बात है – यह कौन कहे?)
यहाँ अभी मैं अपनी उन ६
किताबों के बारे में बताना चाहता हूँ ३ तो आ गई हैं जिनके आवरण चित्र आप यहाँ देख रहे हैं और शेष ३ भी अगले १-२ महीनों में आने वाली हैं | जिनमें एक है ‘शिवपूजन सहाय :
जीवन और साहित्य’ जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित हो रही है – लगभग
३०० पृष्ठों में एक संक्षिप्त सचित्र जीवनी और उनका सम्यक साहित्य-मूल्यांकन | दूसरी
किताब है ‘शिवपूजन सहाय : पुनर्स्मरण’ जो उन पर लिखे
गए उनके समानधर्मा समकालीनों के श्रद्धांजलि-संस्मरणों का सचित्र वृहत्तर नया संकलन
है | और तीसरी किताब है ‘अमृतलाल नागर’ पर श्रीलाल
शुक्ल के लिखे, साहित्य अकादेमी से प्रकाशित, हिंदी विनिबंध का मेरा किया अंग्रेजी
अनुवाद, जो शायद जून-जुलाई तक प्रकाशित हो सकेगी |
अभी जो ३
किताबें आ चुकी हैं, जिनके आवरण चित्र यहाँ
देखे जा सकते हैं, वे हैं अंग्रेजी में सचित्र (१) डा. राजेंद्र प्रसाद की जीवनी
‘द हॉउस ऑफ़ ट्रुथ’; (२) मेरे द्वारा संपादित
‘द आर्ट ऑफ़ मुल्क राज आनंद’, जो
राष्ट्रिय-अंतर्राष्ट्रीय लगभग २० विद्वानों द्वारा मुल्क राज आनंद के
सम्पूर्ण कृतित्त्व पर लिखे समालोचनात्मक निबंधों का महत्त्वपूर्ण संग्रह है,
जिसमें मेरे साथ हुए मुल्क राज जी के पत्राचार का एक लम्बा सचित्र परिशिष्ट भी
संलग्न है | तीसरी किताब है (३) बीसवीं सदी पूर्वार्द्ध की हिंदी कहानियों का
संग्रह ‘सारिका’ जिसमें आधी सदी में फैले हिंदी कहानी-साहित्य
की २३ श्रेष्ठ कहानियों का संकलन है – किशोरी लाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’(१९००) से लेकर अज्ञेय की कहानी शरणागत (१९४७) तक, जो
प्रथमतः शिवपूजन सहाय के सम्पादन में १९५० में पहली बार प्रकाशित हुआ था, और
प्रवेशिका के अनिवार्य हिंदी पाठ्यक्रम में कई वर्षों तक पढाया जाता रहा | ये ३
किताबें अब अमेज़न पर भी उपलब्ध हो गई हैं, और मेरे संपर्क से विशेष छूट पर भी
प्राप्त की जा सकती हैं |
किताबें कम पढ़ी जा रही हैं,
और खरीद कर तो और भी कम | फिर भी यह पोस्ट केवल मित्रों और परिजन के सूचनार्थ है |
क्योंकि मेरी अपनी दृष्टि में पैसे का सबसे अच्छा उपयोग अच्छी पुस्तकें खरीद कर ही
किया जा सकता है, और अच्छी पुस्तकें पढ़ने से बढ़कर लाभदायक कोई और काम शायद ही हो
सकता है |
No comments:
Post a Comment