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Monday, June 12, 2017


रामचरित मानस : पुनर्पाठ 




उत्तर काण्ड                                                                                     
कथासूत्र

उत्तर काण्ड ‘रामचरित मानस’ का उपसंहार खंड है| यहाँ ‘उत्तर’ शब्द के कई अर्थ समझे जा सकते हैं| लंका-विजय के पश्चात् श्रीराम सीता, लक्ष्मण, हनुमान आदि के साथ पुष्पक विमान से उत्तर दिशा में अयोध्या की ओर प्रस्थान करते हैं| ‘उत्तर’ शब्द का एक अर्थ हम यह भी समझ सकते हैं कि इस खंड में ‘रामचरित मानस’ में जितने भी प्रश्न उठाये गए हैं – विशेष कर श्रीराम के सगुण और निर्गुण रूप के विषय में उन सबका विस्तार से श्रीराम ने स्वयं ही उत्तर दिया है| ‘उत्तर’ का एक अर्थ ‘बाद में’ भी है, और इस विशेष अर्थ में भी श्रीराम की कथा के मुख्यांश का  लंका-विजय के साथ पूर्ण हो जाने के बाद श्रीराम के राज्याभिषेक और राज्य-काल का वर्णन तुलसीदास ने इस ‘उत्तर काण्ड’ में प्रस्तुत किया है|

‘रामचरित मानस’ के सभी खण्डों का प्रारम्भ तुलसीदास एक सुन्दर संस्कृत वन्दना से करते हैं| अरण्य काण्ड तक ये वन्दनाएँ भगवान शंकर और तब श्रीराम के सगुण रूपों के चित्रण से प्रारम्भ होती हैं| लेकिन सुन्दर काण्ड का प्रारम्भ श्रीराम और श्रीहनुमान की वंदना से होता है| और किष्किन्धा काण्ड, लंका कांड और उत्तर काण्ड में पहले श्रीराम और तब शंकरजी की वंदना है| इस प्रकार कह सकते हैं कि तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ का प्रारभ और अंत शंकरजी की वंदना से ही किया है, क्योंकि शंकर स्वयं ब्रह्म-स्वरुप हैं, और श्रीराम उस ब्रह्म-रूप के सगुण मानव-रूप में एक अवतार हैं, जैसे एक अन्य मानव-रूप में उन्होंने कृष्ण के सगुण रूप में अवतार लिया था|

      रहा एक दिन अवधि कर, अति आरत पुर लोग,
      जहँ तहँ सोचहिं नारि नर, कृस तन राम बियोग|१|

श्रीराम का विमान अब अयोध्या पहुँचने ही वाला था – बस एक दिन शेष था| अयोध्या में सभी लोग व्याकुल-आतुर हो रहे थे| श्रीराम और सीता के वियोग से  सारी अयोध्या ही जैसे दुःख से संतप्त थी| हनुमान एक दिन पहले ही पहुंचकर नंदी-ग्राम में भरत से मिल चुके थे और उन्हें युद्ध में श्रीराम के विजय और तब  सीता की मुक्ति का समाचार सुना चुके थे, और फिर दोनों ने अयोध्या पहुंचकर माताओं के साथ सबको यह शुभ-संवाद सुना दिया था| चारों और हर्ष और उल्लास का वातावरण था| उधर आकाश में विमान से श्रीराम सबको अयोध्या के दृश्य दिखा रहे थे| इधर – ‘अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भई सकल सोभा कै खानी’| अंततः श्रीराम का विमान अयोध्या में उतरा और तब उन्होंने विमान को वापस कुबेर के पास लौटा दिया| विमान से उतरते ही श्रीराम और लक्ष्मण ने दौड़ कर गुरुवर वशिष्ठजी के चरण-स्पर्श किये| फिर श्रीराम ने भरत और शत्रुघ्न को गले लगाकर अपना विशेष स्नेह प्रकट किया| कथा कहते हुए श्रीराम के विषय में  शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं –

अमित रूप प्रगटे तेहि काला, जथा जोग मिले सबहीं कृपाला|
छन महि सबहिं मिले भगवाना, उमा मरम यह काहु न जाना|२.३-४|

एक चमत्कार जैसा लगा जब क्षण-भर में ही श्रीराम सभी लोगों से प्रेम-पूर्वक मिल लिए| यह जैसे मानव-मात्र से वहां स्वयं ईश्वर का मिलन हो रहा था|


उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

मिलन का यह प्रसंग बड़ा सुखकर है जब सभी माताएं  बनवास से लौटे पुत्रों और बहू सीता से, भरत और शत्रुघ्न राम और लक्ष्मण से, और फिर राम-लक्ष्मण गुरुवर वसिष्ठ से प्रेम और आदरपूर्वक मिल रहे हैं| वशिष्ठजी से मिलते हुए श्रीराम अपने वानर-वृन्द से कहते हैं – ‘गुरु वशिष्ट कुलपूज्य हमारे, इन्ह्की कृपा दनुज रन मारे’ और तब सभी वानरों ने गुरुवर के चरण स्पर्श किये तथा कौशल्या आदि के चरणों में भी चरण नवाए| इसके पश्चात सभी लोग आनंदमग्न होकर राजमहल की ओर चले|

      कृपासिंधु जब मंदिर गए, पुर नर नारि सुखी सब भए|
      गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई, आजु सुघरी सुदिन समुदाई|९.२|

यह समय अत्यंत मंगलमय था, और इस शुभ घडी में गुरुवर वसिष्ठ ने श्रीराम के अब विधिवत राज्याभिषेक का प्रस्ताव किया| वहां उपस्थित सभी ब्राह्मणों और प्रजाजन ने हर्षित होकर इस प्रस्ताव को कार्यान्वित करने के लिए तैयारियां    प्रारम्भ कर दीं| जटा-जूट खोलकर श्रीराम ने स्नान किया और सीता को भी सासुओं ने ले जाकर श्रृंगारपूर्वक सजाया|

      प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हां,पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा|
      सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार-बार आरती उतारी| ११.३|         

श्रीराम के राज्याभिषेक के इस शुभ अवसर पर स्वर्ग से चारों वेदों सहित सभी देवगण उपस्थित हुए और ब्रह्म-स्वरुप श्रीराम के इस राज्याभिषेक पर उनका स्तुतिगान करने लगे – ‘जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने...’| यहाँ तुलसीदास ने श्रीराम के प्रति एक सुन्दर वंदना की रचना की है| श्रीराम के राज्याभिषेक के इस शुभ अवसर पर स्वयं श्रीशंकरजी भी वहां आ गए और – ‘विनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर’ – श्रीराम की वंदना करते-करते भाव-विभोर हो गए| शंकरजी की भी वह एक अत्यंत सुन्दर स्तुति है – ‘जय राम रमा रमनं समनं...’ जिसमे शिवजी ने श्रीराम से अचल ‘अनपायनी भक्ति’ की याचना की है| तब इस पावन प्रसंग की चर्चा करते हुए तुलसीदास कहते हैं –

      जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं, सुख सम्पति नाना बिधि पावहिं|
      सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं, अंतकाल रघुपति पुर जाहीं|१४.२|


 उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में तुलसीदास राम-कथा का उपसंहार प्रस्तुत करते हैं| श्रीराम को राज सिंहासन पर बैठे और राज्य करते अब छः महीने बीत चुके थे|  आनंदमय वातावरण में इतने दिन बिताने के बाद भी लंका से साथ आई हुई वानर-सेना को ये आभास तक नहीं हुआ कि इतना समय कैसे बीत गया – ‘जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीत’| तब श्रीराम ने वानर-सेना में सबको बुलाकर बड़े प्रेम से सबसे कहा –

      तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई, मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई|...
      सब मम प्रिय नहिं तुम्हहिं समाना, मृषा न कहऊं मोर यह बाना|१५.२-४|

‘आप सब लोगों ने हर प्रकार से मेरी सेवा की है और अब आप लोगों को अपने-अपने परिवार और निवास की ओर लौटने का समय आ गया है| आप सब मेरे अत्यंत प्रियजन हैं और अब मैं आप सब को यथायोग्य भेंट के साथ सादर विदा कर रहा हूँ|’ यह कहते हुए श्रीराम ने वानर-सेना में – सुग्रीव, अंगद, नल-नील, जाम्बवान आदि सबको तरह-तरह के आभूषण आदि भेंट के साथ अयोध्या से विदा किया| निषाद आदि भी जो श्रीराम के साथ अयोध्या आ गए थे उन्हें भी उसी प्रकार गले लगा कर बहुत सारा भेंट आदि देकर श्रीराम ने आदर के साथ विदा किया| केवल हनुमान श्रीराम को छोड़ कर वापस जाने को तैयार नहीं हुए और वे श्रीराम-सीता की सेवा के लिए अयोध्या में ही रह गए| सभी अतिथियों को विदा करने के बाद श्रीराम ने अपने आदर्श ‘राम-राज्य’ की ओर ध्यान दिया|

इसके बाद तुलसीदास श्रीराम के आदर्श ‘राम-राज्य’ की बहुत विस्तार से चर्चा करते हैं|

      राम राज बैठें त्रैलोका, हरषित भये गए सब सोका|...
      दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहिं व्यापा|
      सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती|१९-२०.१|

श्रीराम का यह ‘राम-राज्य’ एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना है जिसमे पूर्ण सामाजिक समता है और जो न्याय और सद्धर्म पर पूर्णतः आधारित है| सद्धर्म के इस ‘राम-राज्य’ में सभी सुखी हैं और सभी प्रजा-जन अपने स्वधर्म का विधिवत पालन करते हैं| कुछ अवधि बीतने के बाद श्रीराम-सीता को जुड़वां दो पुत्र-रत्न लव और कुश प्राप्त हुए जिससे सभी प्रजा-जन अत्यंत हर्षित-उल्लसित हुए| ‘राम-राज्य’ के इस प्रसंग की चर्चा तुलसीदास और विस्तार से आगे भी करते हैं और श्रीराम के नृपत्व में यह सुखमय समय इसी प्रकार व्यतीत होता आगे बढ़ता है|         
  
उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

समय के साथ श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न – चारों भाइयों को दो-दो पुत्र- रत्न प्राप्त हुए– ‘दुई, दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे’ - जो सभी अत्यंत सुन्दर, गुणवान और सुशील थे| श्रीराम भी राज्यकर्म करते हुए ऋषि-मुनियों के सत्संग में अपना समय व्यतीत कर रहे थे| उनके राज्य में सभी सुखी थे और – ‘नर अरु नारि राम गुन गावहिं, करहिं दिवस निसि जात न जानहिं’| इस प्रकार तुलसीदास बहुत विस्तार से रामराज्य में अयोध्या के सुख और वैभव का वर्णन करते हैं, किन्तु यह भी कहते हैं कि – ‘पुर सोभा कछु बरनी न जाई’, और तब कहते हैं – ‘रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनी कि जाइ’ |
श्रीराम की राजधानी अयोध्या नगर के उत्तर पवित्र सरयू नदी प्रवाहित हो रही है  जिसके किनारे-किनारे तपस्वियों और सन्यासियों का निवास है| श्रीराम स्वयं कभी हनुमान को साथ लेकर वन-उपवन में जाकर ऋषि-मुनियों से मिलते और सत्संग करते हैं| एक बार उनकी भेंट वहां सनकादि मुनियों से हो गयी और उन लोगों ने भक्तिपूर्वक प्रभु-रूप श्रीराम की वंदना की और फिर ब्रह्मलोक को चले गए| तब हनुमान के साथ सब भाइयों ने मिल कर श्रीराम से अपनी तरह-तरह की शंकाओं का समाधान करने की प्रार्थना की| सबसे पहले भरत ने श्रीराम से संतों के लक्षण बताने का अनुरोध किया – ‘संत असंत भेद बिलगाई, प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई’| श्रीराम बोले – सुनो भाई, संतों के लक्षण असंख्य हैं| संत और असंत के लक्षण चन्दन के वृक्ष और कुल्हाड़ी जैसे होते हैं| चन्दन तो देवताओं के सिर पर चढ़ता है, पर कुल्हाड़ी को आग में तपा कर उसका मुहं पीटा जाता है| संत विषयों से निर्लिप्त, शीलवान और सद्गुणों की खान होते हैं, और वे लोभ, क्रोध, हर्ष और भय के दोषों से सर्वथा मुक्त  होते हैं| इस प्रकार यहाँ उत्तर कांड में तुलसीदास संतों और असंतों के लक्षणों का विस्तार से बखान करते हैं| प्रारंभ में बालकाण्ड में भी उन्होंने संतों और असंतों के गुणों-अवगुणों की विस्तार से चर्चा की थी|

संतों के लक्षणों का वर्णन करने के बाद एक बार फिर श्रीराम असंतों के लक्षण बताते हैं –

    सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ, भुलेहूँ संगति करिय न काऊ|
    तिन्ह कर संग सदा दुखदायी,...
    बयरु अकारन सब कहूं सों, जो कर हित अनहित ताहू सों|
    झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना|
    बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाई महा अहि ह्रदय कठोरा|३८.१,३,४|

श्रीराम कहते हैं कि असंतों-दुर्जनों की संगति कभी नहीं करनी चाहिए| उनका संग  सदा दुःखदायी ही होता है| वे अकारण ही सबसे वैर करते हैं और जो भलाई करता है उसके साथ भी वे सदा बुराई ही करते हैं| वे सदा झूठ का ही सहारा लेते हैं| उनका खाना-पीना, सोना-जागना सब झूठ से भरा होता है| उनकी बोली मोर की तरह मीठी लगती है, लेकिन मोर की तरह ही वे बिलकुल कठोर-ह्रदय होते हैं और समय मिलते ही विषैले साँपों को भी खा जा सकते हैं| अंत में श्रीराम कहते हैं -

      पर हित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई|४०.१|

– दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं होता और न दूसरों को दुःख पहुंचाने के समान कोई पाप होता है|


उत्तर काण्ड 
कथासूत्र

श्रीराम के साथ ऋषि-मुनियों का यह सत्संग अयोध्या के राजमहल में भी नित्य-प्रति चलता है| नारद मुनि वहां बराबर आते हैं| श्रीराम सदा अयोध्या-वासियों को स्मरण दिलाते रहते हैं कि सभी को अपना जीवन-यापन सत्पथ पर चलते हुए ही करना चाहिए| यह मानव शरीर जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इस शरीर को पा कर मनुष्य को सत्कर्म करते हुए अपना परलोक बनाना चाहिए| और कहते हैं कि यह सुलभ सुखद सन्मार्ग भी मेरी अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है| साथ ही एक रहस्य की बात और कि मेरी भक्ति भी बिना शंकरजी के भजन के नहीं प्राप्त होती|

      सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई|...
         औरउ एक गुपुत मत सबहिं कहऊँ कर जोरि,
         संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि|४४.१-४|

यहाँ तुलसीदास शंकरजी को स्मरण करते हैं और फिर श्रीराम की यह कथा शंकरजी पार्वतीजी को सुनाते हुए उनसे कहते हैं –

      गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा, मैं सब कही मोरि मति जथा|
      राम चरित सत कोटि अपारा, श्रुति सारदा न बरनै पार| ५१.१|     

श्रीराम कथा सुन कर धन्य हुईं पार्वती कहती हैं –

      धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी, सुनेऊँ राम गुन भव भय हारी|
      राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं|...
      हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा, सुनि मैं नाथ अमित सुख पावा|५२.१-४|

किन्तु पार्वतीजी फिर अपनी शंका शंकरजी से कहती हैं कि – हे प्राणनाथ, कृपा करके यह भी बताइये कि रामभक्ति की यह पावन कथा काकभुशुण्डीजी ने गरुड़जी से कही थी, तो इतनी ज्ञान की बातें कौवा के शरीर वाले काकभुशुण्डीजी ने कहाँ से  और कैसे प्राप्त की थीं, कौवे का शरीर उन्हें कैसे प्राप्त हुआ, और फिर आपने यह कथा कहाँ और कैसे सुनी? मेरी समझ में नहीं आता कि पक्षियों के बीच यह कथा कैसे कही और सुनी गयी| मुस्कुराते हुए शंकरजी ने पार्वतीजी से कहा – हे पार्वती, सुनो – ‘समुझई खग खगही कै भाषा’| लेकिन तुमने यह बहुत सुन्दर और गूढ़ प्रश्न किया है, और इसकी पूरी कथा मैं तुम्हें विस्तार से सुनाता हूँ  –

      सुनहु परम पुनीत इतिहासा, जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा|५४.४|

तुम्हें वह सारा प्रसंग ज्ञात है जिसमें पहले तुम्हारा अवतार दक्ष की पुत्री सती के नाम से हुआ था और दक्ष ने जो यज्ञ किया था उसमें मेरे कारण तुम्हारा अपमान हुआ था और तुमने यज्ञ-कुंड में कूद कर अपना प्राण-त्याग किया था| और मैं तब पूरी तरह विरक्त हो कर वन-पर्वतों के बीच न जाने कब तक भटकता रहा था| उसी समय मैंने सुमेरु पर्वत के उत्तर एक नील पर्वत को देखा जिसके शिखर सोने की तरह चमक रहे थे| वहीं पर काकभुशुण्डी नामक यह परम तपस्वी पक्षी निवास करता था और श्रीहरि की कथा सभी पक्षियों को सुनाया करता था| वहां अनेक पक्षियों का जमावड़ा बराबर लगा रहता था| मैंने हंस का शरीर धारण करके वहां कुछ दिन वास किया और काकभुशुण्डीजी से यह रामकथा सुनी और फिर अंततः मैं अपने कैलाश पर्वत पर वापस लौट आया|

इसके बाद अगले प्रसंग में शिवजी पार्वतीजी को काकभुशुण्डीजी से गरुड़जी के मिलने की कथा सुनाते हैं|

                   [अंतिम उत्तर काण्ड उत्तरार्द्ध पढ़ें अगले मंगलवार को]

२०१७
१३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध)
३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध)
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)


 सभी चित्र गूगल चित्रावली से साभार 
        


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