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Tuesday, June 6, 2017



रामचरित मानस : पुनर्पाठ 




लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -

रामचरित मानस एक लोकोपयोगी महाकाव्य है| इसका उद्देश्य सामान्यजन को जीवन के उच्चतम आदर्शों से परिचित कराना है| राम की कथा मानव जीवन की ही कथा है| इसमें जीवन और समाज की उन्हीं समस्याओं को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया गया है| श्रीराम विष्णु के मानव रूप में अवतार हैं| लक्ष्मण, सीता आदि सब मानव रूप में ईश्वरीय सत्ता के ही प्रतीक हैं| लक्ष्मण यदि शक्ति-वाण लगने से मूर्च्छित हो जाते हैं तो यह उनके मानव रूप की ही लीला है| श्रीराम अगर लक्ष्मण के मूर्च्छित हो जाने से, अथवा इसके पूर्व में सीता के विरह से, व्याकुल हो जाते हैं, तो यह उसी ईश्वरीय लीला का प्रतीकात्मक रूप है जिसका वर्णन तुलसीदास सामान्यजन के लिए सुबोध एवं रोचक कथा के रूप में करते हैं|    
    
शक्ति-वाण से मूर्च्छित लक्ष्मण को हनुमान युद्धभूमि से उठाकर श्रीराम के पास ले आये| चारों और उदासी छा गयी| श्रीराम तो एकदम व्याकुल हो गए| तभी जाम्बवान ने बताया कि लंका में सुषेण नामक वैद्य रहता है| तुरत हनुमान गए और उसको लेकर आ गये | उसने एक पर्वत का नाम बताया जहाँ से एक जड़ी उखाड़ कर लानी थी| हनुमान वेग से उड़ते हुए वहां गए| रास्ते में उनको कई बाधाओं का सामना करना पड़ा| रावण ने कालनेमि राक्षस को हनुमान को रोकने के लिए भेजा| लेकिन वह हनुमान के हाथों मारा गया| यहाँ तक कि हनुमान को आकाश में उड़ते हुए देख कर भरत को भी भ्रम हो गया कि यह कोई राक्षस आकाश में उड़ता हुआ जा रहा है और उन्होंने वाण से हनुमान को घायल कर दिया| हनुमान घायल होकर भूमि पर आ गिरे| लेकिन उनको निकट से देखने पर भरत  बहुत पछताए और मन ही मन श्रीराम का स्मरण करने लगे| रामनाम के स्मरण को सुनते ही हनुमान तुरत उठ बैठे और स्वस्थ होकर फिर उड़ चले औषधि लाने| इधर लक्ष्मण की मूर्च्छा नहीं टूटने से व्याकुल श्रीराम विलाप करते रहे –

    सुत बित नारि भवन परिवारा, होहिं जाहिं जग बारहिं बारा|
    अस बिचारि जियं जागहु ताता, मिलइ न जगत सहोदर भ्राता|
    जेहौं अवध कवन मुहु लाई, नारि हेतु प्रिय भाइ गंवाई |६०.४-६|

इसी समय हनुमान औषधि वाली जड़ी के साथ पूरी चट्टान ही लेकर आ पहुंचे और सुषेण ने उसे पिलाकर लक्ष्मण को पूर्णतः स्वस्थ बना दिया| फिर हनुमान ने भी सुषेण को लंका में उसके घर पहुंचा दिया| सबलोग प्रसन्न हो गए और फिर -

     हृदयं लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता, हरषे सकल भालु कपि ब्राता| ६१.२|  


 लंकाकाण्ड 
कथासूत्र -

तुलसीदास ने रामचरित मानस में मानव जीवन और समाज की ही कथा रामकथा के रूप में लिखी है| उसके सभी चरित्र - सुजन अथवा  दुर्जन - हमारे समाज में चारों ओर मिलने वाले चरित्र ही हैं | राम-रावण युद्ध भी पुण्य  और पाप के बीच निरंतर चलने वाला संघर्ष ही है| रावण और उसके सभी राक्षस समाज और जीवन में फैले पाप के प्रतीक हैं और उस पाप-पुंज का नाश करने वाले श्रीराम पुण्य के अवतार हैं| इसी भाव से हम रामकथा को ग्रहण करें – तुलसी के मानस का अभिप्राय यही है|

आगे के प्रसंग में तीसरे दिन के युद्ध का वर्णन है जिसमे श्रीराम अंततः रावण के भाई कुम्भकर्ण का वध करते हैं| लक्ष्मण के स्वस्थ होने के बाद तीसरे दिन  पुनः युद्ध का प्रारंभ होना था| इधर लक्ष्मण के स्वस्थ होने से रावण की बेचैनी बढ़ी और वह घबराहट में अपने विशालकाय  भाई कुम्भकर्ण के पास गया जो सो रहा था| उसे जगा कर रावण ने अबतक के युद्ध  का सारा हाल उसको सुनाया कि कैसे उसके सभी बड़े-बड़े राक्षस योद्धा – दुर्मुख,देवांतक,नरान्तक,अतिकाय, अकम्पन, महोदर आदि – सभी मारे जा चुके हैं और युदध की स्थिति उसके लिए घोर चिंताजनक हो चुकी है, अब बिना कुम्भकर्ण की मदद के युद्ध में उसकी हार अवश्यम्भावी लग रही है| सब कुछ सुन कर कुम्भकर्ण बोला –

          सुनि दसकंधर बचन तब कुम्भकरन बिलखान,
          जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान |६२|      
-राक्षसराज रावण! जगज्जननी सीता को तुम हर लाये यह तुमने अच्छा नहीं किया| तुमने तो सभी देव-देवताओं के पूज्य श्रीराम से ही वैर ठान लिया है, तो अब तुम्हारा कल्याण कौन कर सकता है? तुम्हे तो उन्हीं की शरण में जाना होगा| फिर भी चलो, भाई होने के नाते अपना धर्म निभाने मैं तुम्हारा साथ तो दूंगा ही|

विशालकाय कुम्भकर्ण के युद्ध में आते ही वानरों की सेना उस पर टूट पड़ी| हनुमान ने कुम्भकर्ण को देखते ही उसको एक जबरदस्त घूँसा मारा और वह गिर पड़ा| लेकिन तुरत पृथ्वी से उठ कर कुम्भकर्ण ने भयंकर युद्ध प्रारम्भ किया और हनुमान, नल-नील, अंगद, सुग्रीव सबको पछाड़ने लगा| सुग्रीव से देर तक उसका युद्ध चला और सारी वानर सेना कुम्भकर्ण  के पराक्रम से त्रस्त होकर तितर-बितर होने लगी| यह देखकर श्रीराम ने अपना शारंग धनुष संभाला और कुम्भकर्ण पर एकाएक  आक्रमण कर दिया| अब तो कुम्भकर्ण और उसकी सारी राक्षस सेना में हडकंप मच गया| कुम्भकर्ण और श्रीराम के बीच अब भयंकर युद्ध छिड़ गया| और अंततः –

      तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हां, धरते भिन्न तासु सिर कीन्हां|
      सो सिर परेउ दसानन आगे, बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागे|७०.२-३|    
श्रीराम के वाण से कट कर कुम्भकर्ण का सिर रावण के आगे जाकर गिरा| कुम्भकर्ण का वध होते ही राक्षस-सेना तितर-बितर होकर अपने शिविरों में लौट गयी क्योंकि शाम हो गयी थी और तीसरे दिन के युद्ध का अंत हो चुका था|

यहाँ तुलसीदास कहते हैं कि  - “छीजहिं निसिचर  दिन अरु राती, निज मुख कहें सुकृति जेहि भांती”| अर्थात राक्षसों का निरंतर उसी प्रकार छीजना(कम होना) हो रहा था जैसे अपने मुहं से अपने सुकर्म का बखान करने वाले का पुण्य निरंतर छीजता या घटता जाता  है| 


 लंकाकाण्ड 
कथासूत्र

कुम्भकर्ण की मृत्यु से जैसे रावण की रीढ़ ही टूट गयी| अपनी पराजय की सोच कर वह अब अत्यंत विह्वल हो गया| तभी रावण का पराक्रमी पुत्र मेघनाद वहां आया -
       मेघनाद तेहि अवसर आयउ, कही बहु कथा पिता समझायऊ|
       देखेहु कालि मोरि मनुसाई, अबहीं बहुत का करों बड़ाई |७१.४|
पिता को व्याकुल देखकर उसने तरह-तरह से उसको ढाढस बंधाया| डींग में रात भर अपने पराक्रम का बखान करता रहा| जब चौथे दिन का युद्ध शुरू हुआ तब मेघनाद ने युद्ध-भूमि में अपना माया-जाल फैलाया| -
           मेघनाद मायामय रथ चढ़ी गयऊ अकास|
           गर्जेउ अट्टहास करि भई कपि कटकहि त्रास|७२|
अपने विलक्षण युद्ध-कौशल से उसने हनुमान, अंगद, नल, नील आदि सबको व्याकुल कर दिया| लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण आदि भी उसके प्रहारों से परास्त होने लगे| यहाँ तक कि उसने श्रीराम को भी कुछ क्षणों के लिए नागपाश में बाँध दिया| लेकिन यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि यह पूरा राम-रावण युद्ध ही एक प्रकार का लीला-युद्ध है| मानस की कथा पार्वती को सुनाते हुए यहाँ शिव कहते हैं – ‘चरित राम के सगुन भवानी, तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी’| बहुत तर्क-वितर्क करके श्रीराम के इस चरित्र को नहीं समझा जा सकता – ‘ रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी’| सच्ची भक्ति में तर्क की गुंजाइश नहीं होती, जैसे सच्चे प्रेम में कोई तर्क काम नहीं करता|

लेकिन मेघनाद का मायाजाल अधिक समय तक नहीं टिका और अंततः जाम्बवान ने मेघनाद को उठा कर लंका की ओर फेंक दिया जहाँ वह बहुत समय तक मूर्च्छा में पड़ा रहा| तब वह एक गुफा में जाकर यग्य करने लगा| लेकिन इसकी खबर मिलते ही लक्ष्मण और हनुमान, अंगद, नल, नील आदि के साथ वहां गए और देखते-देखते उनकी वानर-सेना ने मेघनाद का यग्य विध्वंस कर डाला| क्रोधित मेघनाद जब फिर युद्ध करने लगा तब अंत में लक्ष्मण ने अपने अभिमंत्रित वाण से उसे मार डाला| मृत मेघनाद के शव को कंधे पर उठाकर हनुमान उसे लंका किले के द्वार पर रख आये| लेकिन रावण को जैसे ही अपने प्रिय पुत्र मेघनाद के मरने का संवाद मिला वह मुर्च्छित होकर गिर पड़ा और मंदोदरी भी जोर-जोर से विलाप करने लगी| इस प्रकार चौथे दिन का युद्ध लक्ष्मण द्वारा मेघनाद-वध के साथ समाप्त हुआ|


 लंकाकाण्ड 
कथासूत्र

युद्ध का यह पांचवां दिन था| अपने परमवीर पुत्र मेघनाद की मृत्यु से रावण दुखी और क्रोधित होकर आज श्रीराम से युद्ध के लिए अपने पूरे विशाल सैन्य-बल के साथ हवा की गति से दौड़ने वाले रथ पर सवार होकर युद्ध भूमि में आया| अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ रणभूमि में आता हुआ रावण – ‘जनु कज्जल कै आंधी चली’ – ऐसा लगा जैसे काजल की आंधी उठ आई हो| इधर श्रीराम अपनी वानर-सेना की अगुआई में पैदल ही रावण का सामना करने को आगे बढे – ‘रावण रथी बिरथ रघुवीरा’ – युद्ध का एक अद्भुत चित्र यहाँ तुलसीदास खींचते हैं| श्रीराम को बिना रथ के युद्ध में रावण के सामने बढ़ते देखकर – देखि बिभीषन भयऊ अधीरा’| बोला – ‘नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना, केही बिधि जितब बीर बलवाना’| तब श्रीराम बोले – ‘सुनहु सखा कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई से स्यंदन आना’ – सुनो, विभीषण, विजय दिलाने वाला रथ (स्यंदन) तो कोई और ही होता है| और तब तुलसी एक सुन्दर उपमा से ऐसे रथ का चित्र खींचते हैं| कहते हैं -  वीरता और धीरज उसके दो पहिये हैं; सत्य और सदाचार उस रथ के ध्वजा और पताका हैं| बल, विवेक, इन्द्रियों का दमन और परोपकार उसमें जुते हुए चार घोड़े हैं जो समता की लगाम से रथ से जुड़े हैं| और ईश्वर का भजन ही उस रथ को हांकने वाला सारथि है| वैराग्य ढाल, संतोष तलवार, बुद्धि प्रचंड शक्ति और श्रेष्ठ विज्ञान उसका शक्तिशाली धनुष है| इसी प्रकार यह लम्बी उपमा पुण्य की अजेय शक्ति का वर्णन करती है, ओर तब श्रीराम कहते हैं – सुनो, विभीषण! जिसके पास ऐसा अजेय रथ हो वह व्यक्ति जन्म-मृत्यु वाले इस संसार को भी जीत सकता है| इसके बाद तुलसीदास एक अत्यंत भयंकर मारकाट वाले युद्ध का विस्तार से वर्णन करते है| इसी बीच लक्ष्मण और रावण का घनघोर युद्ध चलता रहा और तभी  रावण ने ब्रह्मा की दी हुई शक्ति से लक्ष्मण को मूर्च्छित कर दिया , लेकिन कुछ ही देर बाद मूर्च्छा से जाग कर लक्ष्मण ने अपने शक्तिशाली वाणों से रावण के रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया और सीधे ह्रदय में एक वाण लगने से रावण भी मूर्छित होकर गिर पड़ा| तब रावण का घबराया हुआ सारथि शीघ्रता से एक दूसरे रथ से मूर्च्छित रावण को लेकर लंका के किले में भाग गया | इस प्रकार पांचवें दिन के श्रीराम-रावण युद्ध की समाप्ति हो गयी |             


लंकाकाण्ड 
कथासूत्र

रामचरित मानस में रावण असुर शक्तियों का प्रतीक है| वह माया या छल-बल से किसी प्रकार इस रण में विजय प्राप्त करना चाहता था| जैसे ही उसकी मूर्च्छा भंग हुई, उसने मन में निश्चय किया कि मैं अपने तपोबल से राम को हराऊंगा, और वह एक यग्य करने में जुट गया| आसुरी वृत्ति में जब कोई किसी अनुचित कार्य-सिद्धि के लिए यग्य या अनुष्ठान भी करता है तो वह कभी सफल नहीं हो सकता, यह भी एक शाश्वत सत्य है| अतः श्रीराम को जैसे ही इसका पता चला तो उनकी पूरी वानर-सेना रावण के यग्य को विध्वंस करने और लंका में उपद्रव मचाने पहुँच गयी| यग्य में विघ्न पड़ने से और वानरों के लंका में घुसकर उपद्रव मचाने से रावण अत्यंत क्रुद्ध होकर पुनः अपने परम शक्तिशाली असुरों की सेना के साथ युद्ध-भूमि में आ पहुंचा| इधर श्रीराम भी वाणों से भरे हुए तरकस और अपने शारंग धनुष के साथ इस बार अपने रथ पर सवार होकर रावण से युद्ध के लिए प्रस्तुत थे| देखते ही देखते भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया|

        पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा, अति कौतुकी कोसलाधीसा|
        रहे छाई नभ सिर अरु बाहू, मानहुं अमित केतु अरु राहू |९१.७|

लेकिन (तुलसी कहते हैं) जैसे-जैसे श्रीराम रावण के सिर काटते हैं, वैसे-वैसे उसके नये-नये सिर बन जाते हैं, ठीक जैसे वासना का जितना भोग करो वह उतनी ही बढती जाती है| श्रीराम और रावण के घोर युद्ध का यह वर्णन तुलसी कुछ विस्तार से करते हैं| लेकिन यह भी एक लीला है, जैसी हम रामलीला में देखते हैं| युद्ध में रावण तरह-तरह का माया-जाल फैलाता है –

    देखे कपिन्ह अमित दससीसा, जहं तहं भजे भालू अरु कीसा|
    भागे बानर धरहीं न धीरा, त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा|९५.२|
   
रणभूमि में चारों ओर रावण ही रावण दीखने लगे - ‘दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन, गर्जहिं घोर कठोर भयावन’| वानर-सेना भी आतंकित हो गयी, लेकिन अंगद, हनुमान, जाम्बवान, विभीषण आदि सभी ने भयंकर युद्ध प्रारंभ किया| छठे दिन के युद्ध की संध्या होने लगी थी और रावण भी अब तक युद्ध में बहुत आहत होकर मुर्च्छित हो चुका था| अतः उसका सारथी उसे लेकर लंका के दुर्ग में चला गया और इस तरह छठे दिन के युद्ध का विराम हो गया|
        श्रीराम-रावण के युद्ध का यह वर्णन तुलसीदास बहुत विस्तार से करते हैं| काव्य में इस तरह के प्रसंग को वीर-रस का प्रसंग कहते हैं| राम-लीलाओं में भी इस युद्ध-प्रसंग को सुन्दर ढंग से प्रदर्शित किया जाता है|
        उधर सीता को रावण ने अशोक-वन में एकांतवास में रखा था| वहां केवल राक्षसियों का पहरा रहता था| उन्हीं में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी थी जो सीता को युद्ध का सब हाल सुनाया करती थी, और सीता को ढाढस भी बंधाया करती थी| जब युद्ध का हाल सुनकर सीता व्याकुल होती थीं तब वह उन्हें बताती थी कि अंततः श्रीराम के वाण से ही रावण की मृत्यु होगी और अब उसका अंत बहुत निकट आ गया है|  त्रिजटा के अनुसार आने वाले कल के युद्ध में रावण का अंत निश्चित है|

      अस कहि बहुत भांति समुझाई, पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई|
      राम सुभाउ सुमिरि बैदेही, उपजी बिरह बिथा अति तेही| ९९.१|





लंकाकाण्ड 
कथासूत्र १० 

श्रीराम-रावण युद्ध का यह सातवां और अंतिम दिन था जिस दिन श्रीराम ने अंततः रावण का वध किया| पिछली रात जब रावण की मूर्छा टूटी तो सातवें दिन सुबह ही वह फिर रथ पर सवार होकर के युद्ध के लिए निकला| आज उसने भी युद्धभूमि में अपना भयंकर माया-जाल फैलाया – ‘ अंतरहित होई निमिष महूँ कृत माया बिस्तार’| क्षण-भर के लिए तो श्रीराम की वानर-सेना में त्राहि-त्राहि मच गयी| लेकिन तुरत श्रीराम ने अपने वाणों से रावण के सिर काट डाले| किन्तु श्रीराम जितनी बार सिर और भुजाओं को काटते, उतनी बार वे फिर उग आते | तब विभीषण ने श्रीराम को बताया – ‘ नाभिकुण्ड पियूष बल याकें, नाथ जियत रावनु बल ताकें’| रावण के नाभिकुंड में अमृत होने के कारण उसे अमरत्व प्राप्त था| श्रीराम के यह जानते ही ( वैसे उनसे तो कुछ भी छिपा नहीं था) सारी लंका में अपशकुन होने लगे| महलों  में मूर्तियाँ तक आंसू बहाने लगीं| तब –

      खैंची सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस,
      रघुनायक सायक चले मानहुं काल फनीस |१०२|
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि यह युद्ध एक रूपक जैसा है जिसमे सत्य और असत्य, पुण्य और पाप के बीच निरंतर चलने वाले संघर्ष का चित्रण है| रावण के नाभि-कुंड में जिस अमृत की चर्चा है वह उसकी सिद्धि से उसे प्राप्त हुई थी, किन्तु अपनी राक्षसी-वृत्ति के कारण वह उसकी नाभि में ही सीमित रह गयी और अंततः वही सिद्धि उसके घोर पापाचार और अविवेक के कारण उसके विनाश का कारण बनी| विभीषण के कहने पर श्रीराम ने अपने वाणों के संधान से रावण के नाभि-कुंड के अमृत को भी जला डाला और इस प्रकार रावण का अंत हुआ| युद्ध-भूमि में रावण के गिरते ही पृथ्वी काँप उठी और रावण के प्राण श्रीराम में समा गए| रावण के मृत्यु को प्राप्त होते ही लंका में कोहराम मच गया| फिर रावण की अंत्येष्टि हुई और विभीषण का विधिवत राज्याभिषेक संपन्न हुआ | तब श्रीराम ने हनुमान को बुला कर कहा कि वे तुरत अशोक-वाटिका में जाकर सीता का समाचार ले आयें|  

      पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना, लंका जाहु कहेउ भगवाना|      
      समाचार जानकिहि सुनावहु, तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु|१०५.१|

यहीं लंका काण्ड का यह दसवां प्रसंग समाप्त होता है|


 लंकाकाण्ड 
कथासूत्र ११  

श्रीराम का आदेश पाकर हनुमान अशोक-वाटिका में गए और सीताजी से बोले –

      सब बिधि कुसल कोसलाधीसा, मातु समर जित्यो दससीसा|
      अबिचल राजु बिभीषन पायो, सुनि कपि बचन हरष उर छायो|१०६.४|

राक्षसी त्रिजटा सीता को युद्ध का सारा हाल बताया करती थी, पर हनुमान के मुंह से युद्ध में श्रीराम के विजय का समाचार सुनकर सीता अत्यंत प्रसन्न हो गयीं और हनुमान को अनेक प्रकार से आशीर्वाद दिया – ‘सुनु सुत सद्गुन सकल तव हृदयं बसहूँ हनुमंत’ ! सीता के स्नेहाशीष से हर्षित हनुमान ने तुरत लौट कर श्रीराम को – ‘जनकसुता कै कुसल सुनाई’| तब श्रीराम ने युवराज अंगद और राजा विभीषण को आदेश दिया कि वे तुरत जाएँ और सीता को आदरपूर्वक लिवा लावें| तब सभी राक्षसियों ने सीता को विधिवत नहला-धुलाकर और आभूषण आदि से सुसज्जित कर एक सुन्दर पालकी में बैठाया और श्रीराम के पास सादर विदा किया| पालकी में सीता को आते देख कर श्रीराम ने कहा कि सीता को पालकी से उतार कर पैदल ले आओ जिससे वे वानर-सेना में सभी को दर्शन देती हुई आवें| फिर लक्ष्मण को आदेश दिया कि तुम जल्दी सीता की अग्नि-परीक्षा के लिए एक अग्नि-कुंड तैयार करो| यहाँ रामचरित मानस में सीता की अग्नि-परीक्षा का प्रसंग एक बहुत गूढ़ प्रसंग है| स्मरण करें कि अरण्य-काण्ड में सीता के लिए स्वर्ण-मृग लाने से पूर्व श्रीराम ने सीता को अग्नि में प्रवेश करने को कहा था –

      सुनहु प्रिय व्रत रुचिर सुसीला, मैं कछु करबि ललित नर लीला|
      तुम्ह पावक महूँ करहु निवासा, जौ लगि करौं निसाचर नासा|२३.१|

इस रहस्यमय प्रसंग पर ध्यान देने से स्पष्ट होगा कि जिस सीता को अपहरण करके रावण ले गया था वह सीता की एक छाया-मूर्ति-भर थी| देवी सीता को श्रीराम ने कहा था – ‘तुम्ह पावक महूँ करहु निवासा, जौ लगि करौं निसाचर नासा’| अब अशोक-वाटिका से आई छाया-मूर्ति सीता के लिए पुनः उसी अग्नि में प्रवेशकर पुनः उससे अपने मूल रूप में बाहर निकलने का समय आ गया था| क्योंकि अब  सभी दुष्ट निशाचरों का श्रीराम द्वारा नाश हो चुका था| इसीलिए यह समझना चाहिए कि वास्तव में सीता की अग्नि-परीक्षा उनकी पवित्रता की परीक्षा के लिए नहीं हुई थी, बल्कि सीता के लौकिक प्रतिबिम्ब में जो कलंक की छाया लगी थी उसको जला डालने के लिए हुई थी – ‘प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महूँ जरे’| वह लौकिक कलंक सीता के उस प्रतिबिम्ब के साथ जल गया और मूल सीता उस अग्नि-कुण्ड से निकल कर श्रीराम के वाम-भाग में प्रतिष्ठित हो गयीं| राक्षसों के विनाश से हर्षित होकर सभी देवता श्रीराम और सीता की वन्दना करने लगे| यहाँ तुलसीदास ने एक सुन्दर वंदना की रचना की है – ‘जय राम सदा सुखधाम हरे, रघुनायक सायक चाप धरे...’| रामचरित मानस में स्थान-स्थान पर ऐसी लगभग २० सुन्दर स्तुतियाँ हैं जिनको भजन-कीर्तन के रूप में सानंद गाया जा सकता है|

देवतागण जब वंदना-स्तुति कर रहे थे तभी वहां शिवजी भी आ गए और श्रीराम से बोले –

      नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार|
      कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार| ११५|


इसी समय लंकापति विभीषण पुष्पक विमान लेकर वहां आ पहुंचे और तब श्रीराम ने  सीता और अपने वानर सेनापतियों के साथ उस पर सवार होकर अयोध्या के लिए प्रस्थान किया| आकाश-मार्ग से उड़ते हुए श्रीराम ने सीता को रण-भूमि के सारे स्थल और उससे आगे समुद्र-तट का वह स्थान (रामेश्वरम) दिखाया जहाँ उन्होंने शिवलिंग की स्थापना करने के बाद समुद्र पर पुल का निर्माण कराया था| और आगे जाने पर दंडक-वन, चित्रकूट आदि के वे सारे स्थान विमान को रोक-रोक कर फिर से दिखलाए जहां वनवास की अवधि में उन लोगों का निवास रहा था| श्रीराम के चौदह वर्ष वनवास की अवधि भी अब पूरी हो चुकी थी, और अब अयोध्या पहुँचने पर उनका विधिवत राज्याभिषेक होने वाला था| त्रिवेणी संगम के किनारे प्रयाग पहुँच कर श्रीराम ने फिर स्नान-पूजा किया और हनुमान को अपना दूत बनाकर अयोध्या भेजा वहां सूचना देने और वहां का समाचार लेने के लिए| हनुमान पहले अयोध्या के पास नंदीग्राम में भरत से मिले जहाँ एक कुटिया में श्रीराम का खडाऊं रखकर वहां एक योगी का जीवन बिताते हुए भरत अयोध्या का शासन चला रहे थे| अभी श्रीराम प्रयाग से अयोध्या पहुँचने ही वाले थे कि यहीं पर लंका कांड की समाप्ति हो जाती है| और इस आख्यान को यहीं समाप्त करते हुए तुलसीदास कहते हैं –

      समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान
      बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहिं देहिं भगवान|१२१|

                         || लंकाकाण्ड समाप्त ||

                [अंतिम उत्तर काण्ड पूर्वार्द्ध पढ़ें अगले मंगलवार को]

२०१७
६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध)
३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध)
२३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध)
१६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध)
९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
२ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७)
२४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४)
१७ अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०)
१० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५)
४ अप्रैल : दुर्गा सप्तशती (अध्याय ८ – १३)
२९ मार्च : दुर्गा सप्तशती (अध्याय १ – ७)
२८ मार्च : दुर्गा सप्तशती ( परिचय-प्रसंग)
१९ मार्च : मानस बालकाण्ड (६-१२उसके नीचे १-५)






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