Followers

Sunday, December 15, 2019


मेरी कहानियां : ३

बार कोड

रात नींद अच्छी नहीं आई नींद वाली गोली खाना शायद भूल गया था । यो भी रात भर नींद में तो सपनों की एक अनजान बस्ती मे ही भटकना होता है । पिछले कई सालों से तो उसी बस्ती में भटकता रहा हूं । जाने कैान-सी बस्ती है वह जहां की सड़कें बिलकुल या लगभग सुनसान होती हैं । और सड़को से कई-कई गुना ज्यादा तो गलियां-दर-गलियां मिलती हैं जो अचानक, बेवजह बंद हो जाती हैं । दरवाजे सब खुले मिलते हैं । जिसमें घुसता हूं, गलियारे-दर-गलियारे, बरामदे-दर-बरामदे आगे चलता जाता हूं । आंगन मिलते हैं, अंधेरे बंद कमरे मिलते हैं, या उनके परदे गिरे दीखते हैं । कोई मिलता नहीं जिससे आगे का रास्ता या कुछ पूछा जाय । कहीं-कहीं अचानक सीढ़ियां मिल जाती हैं जिन पर चढ़ते जाने पर वे भी कहीं पहुंचकर रुक जाती हैं । वहां कोई छत होती है, कोई सहन । मुड़कर देखने  पर नीचे उतरने की सीढ़िया गायब मिलती हैं । उंचाई इतनी होती है कि अब नीचे कैसे उतरा जाय ।  

तभी लगता है ये सीढ़ियां तो किसी पुरानी बंद इमारत की सीढ़ियां थीं, इन पर मैं केसे चढ़ आया । लेकिन बगल में ही एक दूसरी सीढ़ी दिखाई देती है । ऐसा लगता है मैं ज़मीन के उपर नहीं, बहुत नीचे से उपर चढ़ता रहा था । यह कोई सीढ़ियों की उंची मीनार जैसी है, जो जमीन में बहुत नीचे से उपर निकलने के लिए बनी है । तभी लगता है यह कोई बहुत पुराने जमाने का बना तिलिस्मी मकान है, जिसकी सभी मंज़िलें ज़मीन में नीचे से उपर आने के लिए बनी हैं । मैं सोचने लगता हूं, मैं ज़रूर किसी तिलिस्म में फंस गया हूं । लेकिन ज़मीन के अंदर होने पर भी हवा का एहसास बना रहता है ।  सांस नहीं घुटती । डर भी नही लगता कि यह सब इतना सुनसान कैसे लग रहा है । इतने बड़े पेचीदा  मकान में लोग कैसे रह सकते हैं, और भला ज़मीन के अंदर इतनी गहराई में रहने की क्या ज़रूरत है । पर यह सवाल बेकार लगता है, क्योंकि कहीं कोई दिखाई पड़ता तो उससे पूछता । मैं नीचे से उपर मंज़िल-दर-मंजिल सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते उतना थका नहीं लगता, जितना हैरान लगता हूं । इतनी बड़ी इमारत, इतनी मंज़िलें, इतनी सीढ़ियां, इतने कमरे, पर इनमें रहने वाले लोग कहां हैं ।

तभी मुझे एक बूढ़ा आदमी एक बरामदे में बैठा दिखाई देता है । उम्र मुझसे कुछ ज़्यादा ही होगी । लेकिन चेहरा उसका अंधेरे में है, औरआंखें उसने अपनी बंद कर रखी हैं । लगता है वह घ्यान में है ।  उससे कुछ पूछना ठीक नहीं लगता मैं आगे बढ़ जाता हूं । अब मैं एक छत की फ़र्श पर खड़ा हूं ।  वहां चारों ओर लंबे-लंबे पतले चौकोर खंभे खड़े दीखते हैं जो अभी अधूरे हैं । शायद इनके उपर की  मंजिल बनना अभी बाकी है । मैं वहाँ से लौटने लगता हूं, पर अब छत के किसी ओर उतरने की कोई सीढ़ी नहीं दीखती । ज़मीन के अंदर की सीढ़ीदार मीनारों वाली वह इमारत भी जाने कहां चली गई । मैं अब इस छत पर कब तक टंगा रहूंगा । दिन भी ढल चुका है । मैं कहां, कैसे जाउंगा, कुछ समझ में नहीं आता । मैं घबरा कर वहीं बैठ जाता हूं ।

नींद खुलती है तो देखता हूं धूप निकल आई है। बहुत देर तक निश्चेष्ट पड़ा, खुली आंखों से मैं यूं ही एकटक ऊपर छत को देखता रहता हूं । धीरे-धीरे दीवाल पर टंगी घड़ी पर नज़र जाती है - साढ़े छः  बज चुके हैं । सेकेंड की सुई कदम--कदम आगे बढ़ रही है । बाकी दोनों सुइयां चुपचाप अपनी-अपनी जगह से उसका लगातार चलना एकटक देख रही हैं । सेकेंड की सुई को चलता देख मुझे याद आता है, मुझको मार्निंग वॉक पर जाना है । आलस छोड़कर उठना होगा ।

मेरे फ़्लैट से थोड़ी दूर पर ही एक छोटा-सा सुंदर पार्क है । आधे-पौन घंटे मैं रोज़ वहां जाकर चार-पांच चक्कर लगाता हूं । पार्क में चहारदीवारी के समानांतर एक वॉक-वे सुबह टहलने वालों के लिए ही बनाया गया है । उस पर आयताकार, सीमेंट से ही बने, रुखड़े टाइल्स लगाए गए हैं, ताकि ख़ास तौर से बूढ़े लोग आराम से धीरे-धीरे चलते हुए टहल सकें । अक्तूबर गया है, और हवा में उसके आने  की गंध और खुनकी महसूस होने लगी है । वॉक-वे के किनारे-किनारे फूलों की क्यारियों में प्यारे-प्यारे  रंग-बिरंगे फूल खिल आए हैं । मैं अक्सर शाम को भी थोड़ी देर प्रैम में अपनी पोती को यहां घुमाने लेकर आता हूं ।  शाम में पार्क में बच्चों, उनकी मम्मियों और आयाओं की अच्छी जुटान होती है । सुबह में तो ज्यादातर अधेड़ और बूढ़े लोग ही यहां टहलने आते हैं । कुछ जीन्स-टीशर्ट वाली तरुणियां और  युवक भी जॉगिंग करने आते हैं | वे बूढ़े लोगों से बचती हई दौड़ती आगे बढ़ जाती हैं । बूढ़े लोग उनको नीची निगाह से ही देख-भर लेते हैं । सुबह-शाम पार्क में लगी बेंचों पर कुछ बूढ़े, कुछ अधेड़ और कुछ नौजवान जोड़े भी बैठे दिखाई देते हैं । और यही लगभग हर रोज़ का सिलसिला है ।

लगता है कुछ देर हो गई है । अहले सुबह वाले ज्यादातर बूढ़े लोग जा चुके हैं । अधेड़ और नौजवान लोगों की चहलकदमी चल रही है । किसी-किसी दिन तरुणियों की संख्या ज्यादा होती है । मेरा यह पहला चक्कर पूरा हो रहा है । मैं गेट के पास पहुंच रहा हूं जहां से चक्कर शुरू होता है । कुछ लोग अभी रहे हैं । अंदर आकर वे लोग आपस में कुछ बातें करते तेजी से मुझसे आगे बढ़ गए हैं । गेट के सामने पहुंचकर मैं अपनी घड़ी देखता हूं - ठीक आठ मिनट में पहला चक्कर पूरा हुआ है । पांच चक्कर लगाने में चालीस से बयालीस मिनट लगते हैं । मेरा फ़लैट पार्क से लगभग दो सौ कदम पर है । पार्क तक आने-जाने में  बस पांच मिनट लगते हैं । कुल पौन घंटे में मेरा टहलना हो जाता है । यह  मेरा बहुत पुराना नियम है । अमूमन सात बजते-बजते मैं घर वापस पहुंच जाता हूं । हालांकि आज थोड़ी देर हो गई है । और नींद पूरी नहीं होने से थोड़ा आलस भी है ।
 
गेट से अंदर आने के बाद मैं बाईं ओर से टहलना शुरू करता हूं । ज्यादातर लोग, ख़ासकर बूढ़े लोग इसी तरफ से टहलना शुरू करते हैं । इस ओर थोड़ी दूर पर एक फव्वारे का ख़ूबसूरत-सा गोलंबर है । अक्सर थके हुए कुछ बुज़ुर्ग लोग उस गोलंबर के मुंडेरे पर बैठकर सुस्ताया करते हैं । उसका झरना अब नहीं चलता । हौज भी हमेशा सूखा ही दीखता है । लेकिन उस ओर गुलाब के फूलों के झाड़ लगातार वॉकवे के किनारे-किनारे कतारों में लगे हैं जिन पर कभी-कभी लाल-गुलाबी एकाध फूल ज़रूर दिखाई  देते हैं । उस इलाके में अक्सर बुज़ुर्ग लोग ही टहलते नज़र आते हैं । उधर पार्क का एक किनारा भी पड़ता है जिसके बाद कोलोनी के मार्केट वाली लंबी सपाट दीवाल है जिस पर साबुन का एक विज्ञापन बना है जो अब काफी धुंधला पड़ चुका है । मैं भी किसी-किसी दिन ही उधर का एकाध चक्कर लगा लेता हूं । मुख्य वॉकवे पर जॉगिंग करने वाले नौजवान लड़के-लड़कियां तो उधर कभी जाते ही नहीं ।
लेकिन मैंने देखा है कि ये नौजवान लड़के-लड़कियां ज़्यादातर पार्क के वॉकवे पर दाहिनी ओर से ही जॉगिंग करते हैं, या नहीं तो तेज़-तेज़ टहलते हैं । चार चक्कर लगाते-लगाते इन जॉगिंग करने वाले लड़के-लड़कियों से मेरा कई-कई बार का सामना हो जाता है । कुछ अधेड़ लोग या जोड़े भी दाईं ओर से ही चक्कर लगाते दिखाई देते हैं । बांईं ओर के गुलाब वाले गोलंबर के पास वॉकवे के एक किनारे लगभग सात बजे एक ह्वीलचेयर पर एक बूढ़े आदमी को उसका नौकर रोज लेकर आता है । उसकी वही जगह तय है, गोलंबर के पास वहीं वॉकवे की दूसरी ओर घास वाले मैदान में । शाम में उस मैदान में अक्सर कुछ लड़के फुटबॉल खेलते हैं । सुबह मैं जब तक चक्कर लगाता रहता हूं, देखता हूं वह आदमी एक मोम के पुतले की तरह बैठा सब कुछ देखता रहता है । उसकी गर्दन बराबर एक ओर झुकी होती है । उसका नौकर भी चुपचाप वहीं बगल में खड़ा रहता है, उसी तरह उसकी कुर्सी थामे ।  कभी-कभी  लगता है वे भी पार्क की सजावट का एक हिस्सा हैं । शाम में जरूर वह जगह खाली-खाली लगती है ।

पार्क में टहलने वाले लोग उसी कोलोनी के रहने वाले लोग होते हैं, हालांकि उनमें बहुत-सारे अपनी  कारों से ही वहां तक आते हैं । सभी अपने पहनावे और चालढाल से संपन्न वर्ग के लगते हैं । लड़कियां भी आज के फैशन वाली नीची कमर वाली जीन्स या केप्री और तंग कुर्तियां या इज़ारबंद वाले जैकेट पहने आती हैं । लड़के ज्यादातर शॉर्ट्स या बरमुडा और स्लीवलेस टी-शर्ट पहने होते हैं। अधेड़ औरत-मर्द भी सजे-धजे आते हैं । कभी-कभी तो लगता है किसी मॉल के ही कुछ मैनिकिन्स दूकानों से आज़ाद होकर निकल आए हैं सुबह की सैर के लिए । मैं यही सोचते-सोचते लाल सुर्खीवाले वॉकवे पर आगे  बढ़ जाता हूं । लेकिन मुझे हैरत होती है जब एक लड़के-लड़की का जोड़ा सामने से आता दिखाई देता है जिसमें लड़के का सिर गायब है, और लड़की की दोनों बाहें नहीं हैं ।

लड़के ने अपनी कमीज़ के उपर एक नये फैशन का जैकेट पहना हुआ है जो दोनों सामने से आधे खुलेहुए हैं, जिनसे उसका चौड़ा सीना साफ झलक रहा है । गले में उसने एक नीला स्कार्फ़ बांधा हुआ है । लड़की ने भी बिना बांहों वाली सुरमई रंग की एक कसी हुई  कुर्ती पहन रखी है जिसका गला भी काफी नीचे तक चौड़ा  खुला हुआ है, जिससे उसके सीने का उभार भी झांक रहा है । मेरी आंखें तुरत  झिप जाती हैं । एक लमहे के छोटे-से टुकड़े में मैं इतना ही देख पाता हूं, और वह जोड़ा मेरे पीछे तेजी से बढ़ जाता है । मैं इतना घबरा जाता हूं कि फिर हिम्मत ही नहीं होती मुड़कर उस लड़के को देखूं जिसका सिर नहीं दीखा था । मेरे पांव जल्दी-जल्दी मुझे आगे ढकेलते हुए बढ़ने लगते हैं । सामने से रहे एक बूढ़े आदमी की छड़ी से टकराते-टकराते मैं संभल जाता हूं । मेरा सर चकराने लगा है । थोड़ी दूर चलकर मैं बगल की एक खाली बेंच पर बैठ जाता हूं । फिर आगे पैरों को फैलाकर बदन को ढीला कर लेता हूं, और आंखें ख़ुद--ख़ुद बंद हो जाती हैं । थोड़ी देर उसी तरह बेसुध बैठा रहता हूं, आंखें बंद किए । सर का चकराना धीरे-धीरे कम हुआ है । आंखें बंद हैं, जैसे खुलना भूल गई हैं । सर में भी एक सन्नाटा पसर गया है -  जैसे वक्त पर बर्फ़ की एक परत जम गई हो ।

धीरे-धीरे बंद आंखों के परदे पर एक रोशनी उभरती है । फिर स्लो मोशन में कुछ तस्वीरें मोंताज की  तरह एक-पर-एक बनती-मिटती महसूस होती हैं । लेकिन इसी बीच लगता है मेरी आंखें  बिना मेरी कोशिश के जाने कब अपने-आप खुल गईं । हालांकि मेरी देह अब भी वैसी ही निढाल है, बेंच पर  उसी तरह लेटी हुई । उसमें कहीं कोई जुंबिश, कोई हरकत नहीं हो रही । हैरत मुझे यह देख कर होती है कि जो तस्वीरें मेरी बंद आंखों के परदे पर बन-मिट रही थीं, ठीक वैसी ही अब मुझे इन खुली आंखों से भी दिखाई दे रही थीं । मैं तभी महसूस करता हूं कि मैं जब घबराकर इस बेंच पर बैठा था तब से अब तक के बीच वक्त का कोई फ़ासला नहीं रहा है ।

बेंच पर बैठ-बैठे तभी  मैं देखता हूं कि  लड़के-लड़की का वह जोड़ा वहीं उसी तरह लेकिन ज्यादा तेज़ कदम हंसते-बातें करते मेरी ओर बढ़ा रहा है ।  कपड़े उनके बिलकुल वही हैं, लड़के की कमीज़ के उपर वही नये फैशन का जैकेट और गले में बंधा वही नीला स्कार्फ़, और लड़की वही  बिना बांहों वाली सुरमई रंग की चौड़े  गले की कसी हुई  कुर्ती पहने जिससे उसके सीने का उभार वैसे ही झांक रहा है। लेकिन इस बार उस पर पसीने की बूंदें साफ झलक रही हैं । लड़के का चेहरा, उसकी कमीज,  लड़की की कुर्ती और उसकी बांहें भी पसीने से तर--तर दीख रही हैं। शायद अब यह उनका अंतिम चक्कर है, क्योंकि तुरत ही वे बगल के छोटे गेट की तरफ मुड़ गए जिधर से उनको बाहर निकलना  है । मेरी आंखें कुछ देर उन्हीं पर जमी रही हैं जब तक वे बाहर निकल नहीं गए । गेट का पल्ला भी  उनके जाने के बाद कुछ देर तक झूलता रहता है, और मेरी आंखें उस पर टिक जाती हैं । मैं सोचने लगता हूं, शायद यह एक नया जोड़ा है जो आज पहली बार दिखाई दिया,  क्योंकि रोज नियमित वॉक पर आने के कारण मैं प्रायः सभी टहलने वालों को लगभग पहचान गया हूं ।

आज देर हो गई है, फिर भी टहलने वाले अभी ही रहे हैं । मुझे अपना पांचवां-आखिरी चक्कर पूरा करना है । मैं घडी़ देखता हूं । अभी सवा सात ही बजे हैं । लगता है घड़ी उसी समय बंद हो गई  थी जब मैं घबराकर यहां बैठ गया था । लेकिन अब थकावट दूर हो चुकी है, और मैं पांचवें चक्कर के लिए चल पड़ता हूं । धूप निकल आई है, लेकिन बाईं ओर से चक्कर लगाने पर धूप ज्यादा देर सामने नहीं पड़ती । और यों भी चारों ओर उंचे पेड़ों के होने से धूप ज्यादातर छन कर आती है, और वॉकवे का अधिकांश भाग साये में पड़ता है ।

बहुत सारे लोग जा चुके हैं, लेकिन कुछ देर-सबेर वाले तो अभी ही रहे हैं । इनमें ज्यादातर अधेड़ और बूढ़े लोग हैं, और कुछ नौजवान भी हैं । ऐसे कुछ लोग आदतन देर से आते हैं, और छोटी-छोटी टोलियों में ज़ोर-ज़ोर से बातें करते  और ठहाके लगाते तेज़ कदम चल रहे हैं, क्योंकि फिर दफ्तर का समय भी तो हो रहा है ।  यह मेरा पांचवां और आखिरी चक्कर पूरा होने वाला है, लेकिन इस बार  जो लोग मेरी तरह बाईं ओर से टहल रहे हैं वे शायद देर से आने की वजह से ज्यादा तेजी से टहल रहे हैं । पांचवें  चक्कर में यों भी मेरी चाल कुछ धीमी हो जाती है । देर से आने वाले लोग मुझसे आगे बढ़ जाते हैं,  लेकिन में अपनी रोज की रफ्तार से ही चलता हूं । तभी अचानक लगता है जैसे टहलने वाले कई लोगों की पीठ पर बार कोड जैसी मोटी-पतली-बारीक लकीरें उनकी कमीजों या टी-शर्ट पर छपी हुई दीख रही हैं, जैसी आजकल  अमूमन बाज़ार में बिकने वाले हर सामान पर छपी दीखती हैं । लेकिन आज पहली बार ऐसे कपड़े पहने इतने सारे लोग यहां टहलने कहां से गए ।
 
मैं ग़ौर से देखने लगता हूं तो उन मोटी-पतली बारीक लकीरों के नीचे कुछ अंक भी दीख रहे हैं, जो  तारीखों जैसे लगते हैं । लेकिन मैं सोचने लगता हूं कि आज पहली बार ऐसे बहुत सारे लोग ऐसे अजीब एक-तरह के कपड़े पहने यहां टहलने कैसे गए । इनमें से ज्यादातर तो आस-पास के जाने-पहचाने लोग ही लगते हैं । मेरा आखिरी चक्कर अब पूरा होने वाला है, और मैं इसी सोच में चलते-चलते गेट के पास पहुंच जाता हूं, और इन बहुत सारे उलट-पलट सवालों में उलझा अनमना-सा अपने फ्लैट की ओर बढ़ जाता हूं, क्योंकि सुबह की दवा लेने का वक्त हो गया है । बल्कि कुछ देर हो गई है ।
                                                     -  ‘आउटलुक’ (हिंदी, अप्रैल, २०१५) में प्रकाशित |

© मंगलमूर्त्ति
चित्र : सौजन्य – क्रिस्टीना सिविलाइट (गूगल)
  VAGISHWARI.BLOGSPOT.COM


ध्यान  दें : इस ब्लॉग की सामग्री पढने के लिए -

ब्लॉग खोलने पर जो पृष्ठ खुलता है वह सबसे नया पोस्ट है | ब्लॉग पर उपलब्ध सामग्री OLDER POSTS पर क्लिक करके क्रमश: पीछे जाते हुए पढ़ सकते हैं | पहले पृष्ठ पर दायें २०१७२०१८ आदि वर्ष दिए गए हैं | सूची के अनुसार आप जिस वर्ष की सामग्री पढ़ना चाहते हैंपहले उस वर्ष और महीने पर क्लिक करेंऔर फिर OLDER POSTS पर क्लिक करके पीछे जाते हुए पढने वाले पोस्ट को खोल सकते हैं |
   
२०१९
दिसं. १५ : मेरी कहानी-३ : बार कोड / नवं.३० : मैग्नोलिया का फूल (अनूदित कहानी) / नवं. २४ : मेरी कहानी-२: बूढा पेड़ / नवं. १४ : मेरी कहानी-१: कहानी का अंत / नवं २ : बिरवा-१ / अक्तू. २७ : झरोखा-७ ताकूबोकू  इशिकावा / अक्तू. १८ : झरोखा-६ स्पेंसर / सितं २३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान भाषण (विडिओ) / अगस्त १७ : नागर-स्मृतिये कोठेवालियां / अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक / जुलाई २१ : झरोखा-३ बर्न्स / जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ : कविता का झरोखा - १ : ब्राउनिंग 

२०१८
नवं २६ : जगदीश चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून १२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन. २४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण (व्याख्यानराजभाषा विभागपटना) 
  
 ०१७
 नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ

श्रीमदभगवद गीता के १८ अध्यायों का सरल अनुवाद पढ़ें :

खुले हुए पेज में पहले दाएं २०१७ पर क्लिक करें | फिर पहले अध्याय के लिए  जून २८ पर क्लिक करें  और तब New Posts  पर क्लिक करते हुए सभी १८ अध्याय  पढ़ें  | और उसी प्रकार  -

सम्पूर्ण रामचरितमानस  के कथा-सार के लिए -  

पहले दाएं २०१७ पर क्लिक करें | फिर  मानस के पहले अध्याय के लिए  १९ मार्च  और अयोध्याकाण्ड के लिए १० अप्रैल पर क्लिक करें  और तब Newer Posts  पर क्लिक करते हुए आगे के  सभी अध्याय  पढ़ें  | उसी प्रकार  -

और श्रीदुर्गासप्तशती के कथा-सार के लिए -

पहले दाएं २०१७ पर क्लिक करें | फिर पहले अध्याय के लिए  २८  मार्च  पर क्लिक करें  और तब Newer Posts  पर क्लिक करते हुए आगे के  सभी अध्याय  पढ़ें  |

आप मेरे दो और ब्लॉग भी पढ़ें  - vibhutimurty.blogspot.com (आ. शिवपूजन सहाय पर केन्द्रित )  /  तथा  murtymuse.blogspot.com (मेरी हिंदी-अंग्रेजी कविताएँ) |






 

No comments:

Post a Comment

  सैडी इस साल काफी गर्मी पड़ी थी , इतनी कि कुछ भी कर पाना मुश्किल था । पानी जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था कि सतह के पत्...