मेरी कहानी
कहानी का अंत
यह एक अजीब कहानी हैं जिसे मैं पिछले कुछ दिंनों से लिखने
की कोशिश कर रहा हूँ. कई बार आधी-अधूरी लिख कर छोड़ चुका, लेकिन जैसे यही
मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हो. कहना कठिन है कौन किसके पीछे पड़ा है. सोते-जागते मैं
इसी के बारे में सोचता रहता हूँ. कभी लगता है, किसी
भूल-भुलैया में फँस गया हूँ – कहाँ से अन्दर आया और कैसे
बाहर निकल सकूंगा, कुछ समझ नहीं पाता. एक अजीब दास्ताँ है –
जिसके बारे में पता नहीं – कहाँ शुरू हुई और
कहाँ ख़तम होगी. लेकिन मेरी कोशिश जारी है. हालाँकि बार-बार कोशिश के बाद भी कहानी
की कोई साफ शक्ल मेरे ज़ेहन में नहीं बन पाती. बस एक
धुआं-धुआं, एक कुहासा-सा दिमाग में भरा रहता है. कलम चलती है और कहीं पहुँच कर खुद-ब-खुद रुक जाती है. लेकिन यह सिलसिला है
कि रुकता नहीं. आज एक बार फिर इसे शुरू किया है. पता नहीं इस बार क्या होगा. नहीं जानता
कब और कैसे मेरी यह कहानी पूरी होगी. हालाँकि मेरा यह जूनून बताता है कि एक-न-एक
दिन यह पूरी होकर ही रहेगी, और उस दिन इससे मुझको ज़रूर निजात
मिल सकेगी.
मुझे अबतक यह भी ठीक-ठीक नहीं मालूम यह कहानी होगी कैसी.
किसकी कहानी होगी. किसकी बातें होंगी इसमें. सच कहूं तो इस कहानी को लिख डालने कि
बात एक दिन मन में तब आई जब उस दिन अचानक खुद कहानी से ही मेरी मुलाक़ात हो गयी. बिलकुल एक
अप्रत्याशित भेंट. मैंने देखा वह एक नाज़ुक, लजीली, शर्मीली और उदास-सी कहानी थी. मुझे कुछ-कुछ याद आया, शायद वह मेरे पड़ोस में ही कहीं रहती है. लेकिन दिखाई बहुत कम ही देती है.
उस दिन न जाने कैसे मेरे सामने आ गयी थी. मैंने उससे पूछा – तुम
कहाँ रहती हो. मुझे यह तो मालूम था कि तुम कहीं पड़ोस में ही रहती हो, लेकिन बहुत दिन से तो तुम्हे देखा भी नहीं था. कैसी हो तुम – ठीक तो हो. सुन कर वह हल्के-से मुस्कुराई, पर कुछ
बोली नहीं. मैंने फिर कहा, मैं एक कहानी लिखना चाहता हूँ.
तुम्हारी जैसी ही एक कहानी. तुम्हारी जैसी, लेकिन वैसी तो
मैं भला कब लिख सकूंगा. वह थोडा हंसी, पर कुछ बोली नहीं.
मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी. औरों से भी ऐसा सुना था. लेकिन उस दिन तो लगा
जैसे वह मुझको कब से जानती है. मैंने हिम्मत कर के उससे आगे बात बढ़ाई. वह भी
खडी-खड़ी मेरी बातें ध्यान से सुनती रही. फिर धीरे-से बोली – मैंने
भी तुम्हारे बारे में सुना था, लेकिन कहानियां भी लिखते हो,
यह नहीं जानती थी. जल्दी से मैंने कहा – नहीं,
नहीं, लिखता नहीं हूँ, लिखना
चाहता हूँ. यही शायद मेरी पहली कहानी होगी जिसे मैं लिखना चाहता हूँ. आज तुमसे
योंहीं मुलाकात हो गयी है, तो लगता है शुरुआत अच्छी है. शायद
अब मैं अपनी कहानी ज़रूर लिख सकूंगा. वह फिर थोड़ा हंसी, पर
कुछ बोली नहीं. मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी.
मैं कुछ सोचने लगा. तभी वह बोली – मैं भी आजकल एक
कहानी लिखने की सोच रही हूँ. हो सकता है वह तुम्हारी ही कहानी हो. लेकिन अभी शुरू
नहीं कर पाई हूँ. आज तुमसे अचानक मुलाक़ात हो गयी है तो लगता है, अब शायद शुरू कर पाऊंगी. मुझे बड़ा अचरज हुआ, और थोड़ी
घबराहट भी हुई, मैं सोचने लगा, क्या
इसे मेरे बारे में सब कुछ मालूम है? अगर ऐसा हुआ तब तो मेरे
बारे में यह क्या कुछ लिख देगी, क्या पता. मुझे सोच में पड़ा
देख कर वह थोडा हंसी और बोली – लेकिन अभी सोचा नहीं है उसमें
तुम्हारी शकल तुमसे कितनी मिल पायेगी. यह सुन कर मुझको थोड़ी तसल्ली हुई. शायद उसकी
कहानी में मेरी शक्ल कुछ और ही उभरे. शायद उसमे मेरी कहानी कुछ अच्छी ही हो. और
उसे देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता कि वह किसी के बारे में कुछ बुरा लिख सकती है. और
यह भी तो हो सकता है कि मेरे बारे में कुछ बुरा लिखना उसको अच्छा न लगे. मैं अपनी
सारी बुराइयों को जल्दी-जल्दी मन में छुपाने लगा. वह उसी तरह मुस्कुराती रही. मैं
अपनी उलझन को मन की और गहराई में दबा लेना चाहता था. मैंने देखा, वह दूसरी तरफ देखने लगी थी.
मैंने फिर हिम्मत कर के उससे पूछा – मेरे बारे में,
मेरी कहानी क्या तुम्हें पूरी मालूम है? वह
फिर हंसने लगी; बोली – सब कुछ कहाँ
किसी को मालूम होता है. तुम को, मेरी बात छोड़ो, अपने ही बारे में सब कुछ मालूम है, दावे के साथ तुम
ऐसा कह सकते हो? मैं एकाएक बिलकुल सकपका गया. उसकी बात में
मुझे एक गहरी सचाई दिखाई दी. सचमुच मैं आजतक अपने को ही तो ठीक-ठीक नहीं जानता. कब
क्या किया, या करना है, या फिर कब क्या
कर बैठूंगा – खुद कहाँ समझ पाता हूँ. अपने को समझना तो शायद
दूसरे को समझने से भी ज्यादा मुश्किल है. मुझे उसकी बात में बहुत वज़न लगा. वह उसी
तरह मुस्कुराती रही. मैं भी अपनी उलझन में डूबता-उतराता रहा. मुझे लगा उसकी गहरी
नीली ऑंखें मेरे मन के अन्दर के उलझन को उलट-पुलट कर देख रही हैं.
मैंने उसका ध्यान बंटाने के लिए कहा – मुझे तो अपने जीवन
में ऐसा कुछ भी मतलब का नहीं दीखता जिसका तुम्हारी कहानी में कोई उपयोग हो. मैं तो
एक बिलकुल मामूली आदमी हूँ – गलतियों और कमजोरियों का एक
बड़ा-सा पुलिंदा. मेरे जीवन में कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसका ज़िक्र कहीं हो सके.
एक सपाट, बेमानी जीवन समझो. लेकिन हो सकता है तुमको उस कचरे
में भी कोई काम की चीज़ मिल जाये. तुम तो खुद कहानी हो, किसी
की भी कहानी को एक अच्छी इबारत दे सकती हो. यह तो मेरी खुशकिस्मती कहो कि आज
तुमसे योहीं मुलाक़ात हो गयी. अब इस मुलाक़ात के बाद शायद मेरी कहानी भी एक अच्छी
कहानी बन सकेगी. यह सब कुछ मैं एक सांस में कह गया. और मैनें देखा, वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी. मुझे उसकी आँखें अब कुछ ज्यादा ही
गहरी और नीली लगने लगी थीं – एक झील जैसी गहरी और पारदर्शी.
अचानक वह बोली – किसी के बारे में सब कुछ कोई नहीं जानता, केवल एक नाकाम कोशिश-भर
होती है. इसीलिए जितना अनजाना, अनकहा रह जाता है, असली कहानी उसी में छिपी रह जाती है. आदमी ही की तरह हर कहानी भी अधूरी रह
कर ही खत्म हो जाती है. उसके ख़त्म होने को ही हमें उसका पूरा होना मान लेना पड़ता
है. शायद इसीलिए कोई कहानी कभी पूरी नहीं होती. मुझे देख कर भी यह न समझना
कि मैं खुद पूरी हो चुकी हूँ. सच तो ये है कि मैं अब तक अधूरी ही हूँ, लेकिन मुझको इसकी कोई गिला नहीं है. मैं अपनी इस सच्चाई से वाकिफ हूँ,
और बेफिक्र भी.
न जाने क्यों मुझे
लगा कहीं वह मेरी उलझन की ही बात तो अपनी तरह से नहीं कर रही है. मैं खुद भी तो
कुछ इसी तरह की उलझन में बराबर मुब्तला रहा करता हूँ. वह अपनी रवानी में बोल
रही थी. लेकिन मेरे मन में भी कई सवाल घुमड़ने लगे थे. मैंने उसे बीच में ही रोकते
हुए कहा – अच्छा
यह बताओ, तुमने तो बहुत कहानियां लिखी होंगी. मुझे भी कुछ
बताओ कि कहानी कैसे लिखी जाती है. माना कि हर कहानी अधूरी ही रह जाती है, लेकिन वह कहीं से शुरू और कहीं पर ख़तम तो होती ही है, और सिर-पैर के बीच में उसका कोई धड़ भी तो होता ही है.
इस बार वह कुछ गंभीर-सी लगी. बड़ी संजीदगी से बोली – बात तुम्हारी सही
है, और गलत भी. कहानी कोई जिस्म नहीं होती; वह तो एक रूह होती है. उसको सिर-पैर और धड़ की शकल में देखने की
कोशिश सही नहीं. और किसी की रूह को तुम किसी जिस्मानी शकल में तो देख
भी नहीं सकते. वह तो आज़ाद होती है. किसी बंधे-बंधाए चौखटे में उसे देखने की कोशिश
बेकार है. उसको देखना है तो आँखों को बंद रखना पड़ता है. खुली आँखों से उसे नहीं
देखा जा सकता. इसीलिए उससे तुम भीड़-भाड़ या हलतलबी में नहीं मिल सकते. हमेशा उससे
अकेले में ही मिलना हो सकता है. जब तुम बिलकुल खाली हो, कुछ
आधे-जगे आधे-सोये जैसे हाल में.
उसकी बात सुन कर मुझको थोड़ा अचरज हुआ,क्योंकि अभी उससे
मेरी यह मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही माहौल में हो रही थी. वहां सचमुच कोई और नहीं
था – बस हमीं दोनों थे. और खुद मैं भी जैसे एक तन्द्रा में
था. मुझे लगा उसकी बातें कितनी सच थीं. मैनें कहाँ सोचा था कि मेरी मुलाक़ात आज
उससे होने वाली है. मैं तो उस कहानी के बारे में सोच रहा था जो मैं लिखना चाहता
था. सोचता ही जा रहा था कि अचानक उसको अपने सामने देखा. वह खुद भी किसी सोच में
डूबी चली आ रही थी. यह एक अजीब इत्तिफाक ही था, आज उससे मेरा
मिलना. आज वह खुद मुझे मिल गयी जिससे मैं न जाने कब से मिलना चाहता था, क्योंकि पिछले कितने दिनों से मैं एक कहानी लिखने की सोच ही रहा था.
मुझको सोच में डूबा देखकर वह मुस्कुरा कर बोली – क्या सोचने लगे?
मुझसे मिलकर तुम्हें अच्छा नहीं लगा? मैं तो
यों ही इधर टहलने चली आई थी. तुम्हें देखा कुछ सोचते आ रहे हो, तो रुक गयी. मैं तो अमूमन बहुत कम ही कहीं निकलती हूँ. एक तरह समझो तो आज
खुद को ही ढूंढती निकल आई इधर, या शायद तुमको ही ढूंढने
निकली थी. और इसीलिए शायद तुमसे मुलाक़ात भी हो गयी.
मुझे उसकी बातें अब कुछ अजीब लग रही थीं. वह खुद को ढूंढती
इधर क्यों आई, और
फिर मुझे क्यों ढूंढ रही थी? मुझे तो इस मोहल्ले में कोई
नहीं जानता. और उसको कैसे मालूम था कि मैं इस सुनसान इलाके में अकेला भटक
रहा हूँ? मुझको उसकी बातें एक भूलभुलैया जैसी लग रही थीं.
लेकिन उनमे एक अजीब कशिश थी जो मुझको अपनी और बेतरह खींच रही थी. खास कर उसकी झील
जैसी गहरी नीली आँखें जिनसे, अक्सर जब वह बोलती थी, तो एक अजीब तरह की रौशनी फूट पड़ती थी.
तभी मुझे लगा अब
बहुत देर हो चुकी है, और
मुझे वापस लौटना चाहिए. लेकिन मेरे मन के सवाल अभी तक वैसे ही अन्दर घुमड़ रहे थे.
और मैं जो कहानी लिखना चाहता था , अब उसकी जगह मैं ज्यादा इस
सोच में पड़ गया था कि वह मेरी कहानी कैसी लिखेगी. वह भी तो उसके मुताबिक एक अधूरी
ही कहानी होगी. उलझन ये भी थी कि मेरी कहानी वह ख़त्म कहाँ करेगी. मैंने बात को
बदलते हुए कहा – एक बात पूछ सकता हूँ? क्या
अगली बार जब तुमसे भेंट होगी तो कुछ बता सकोगी, मेरी कहानी
जो तुम लिख रही हो, कैसी बन रही है? मैं
यह भी चाहता हूँ कि फिर तुमसे जब मिलूँ तो मैं जो कहानी लिखने की कोशिश कर
रहा हूँ, मेरी वह कहानी कैसी उतर रही है, तुमसे उसका कुछ ज़िक्र करूँ आखिर इसमें तो कोई हर्ज़ नहीं कि हम जो कहानियाँ
लिख रहे होंगे, एक-दूसरे से उस पर राय-मशविरा करें.कम-से-कम
मैं जो कहानी लिक्खूंगा उसके बारे में तुमसे तो मैं ज़रूर कुछ सीख सकूंगा, और शायद तुम भी मेरे बारे में किस तरह सोचती हो कुछ पता चलेगा.
इस बार वह जोर से हंस पड़ी. बोली – हाँ, हमलोग फिर मिलें यह तो अच्छा होगा लेकिन पता नहीं उस वक़्त तक
हमारी कहानियाँ कहाँ तक पहुंची होंगी, और हम उनके बारे में
क्या बातें कर सकेंगे. कहानियों के बारे में एक बात तो मैं जानती हूँ कि वे कहीं
भी, कभी भी, किसी ओर मुड जा सकती हैं.
हमें उनके साथ अलग-अलग ही चलना पड़ेगा. हम उनके रूबरू कोई बातचीत शायद ही कर
सकेंगे. वे बहुत तुनुकमिजाज़ होती हैं. वे हमारी तरह एक-दूसरे से बात करना पसंद
नहीं करतीं. वे अपना रास्ता चुपचाप ही तय करती हैं. हम बस उनके पीछे-पीछे चल सकते
हैं. बातचीत या छेड़छाड़ उन्हें कतई पसंद नहीं. वे जिस्म नहीं, रूह होती हैं न. अचानक ही वे आँखों से ओझल हो जाती हैं, फिर तुम उनको आँखें बंद करके भी नहीं देख सकते.
और
मैंने देखा, सचमुच इतना कहते-कहते वह अचानक मेरी आँखों से ओझल हो गयी. उसकी बात बिलकुल
सच निकली. अपनी आँखें बंद कर लेने पर भी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दी.
- 'आउटलुक' (हिंदी), मार्च, २०१४ में प्रकाशित
© मंगलमूर्त्ति
चित्र : सौजन्य – स्टाइनार एंजेलैंड, नॉर्वे
VAGISHWARI.BLOGSPOT.COM
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२०१९
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झरोखा-७ ताकूबोकू इशिकावा / अक्तू. १८ :
झरोखा-६ स्पेंसर / सितं २३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान भाषण (विडिओ) / अगस्त १७ : नागर-स्मृति, ये
कोठेवालियां / अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक / जुलाई २१ : झरोखा-३
बर्न्स / जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ : कविता का झरोखा - १ : ब्राउनिंग
२०१८
नवं २६ : जगदीश चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर
बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून १२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन.
२४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण (व्याख्यान, राजभाषा विभाग,
पटना)
२ ०१७
नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ
श्रीमदभगवद गीता
नवं. २ से पीछे जाते हुए पढ़ें गीता के सभी १८ अध्याय
अध्याय: अंतिम-१८ ( २ नवं.) / १७ (२५ अक्तू.), १६ ( १८ अक्तू.),
१५ (१२ अक्तू.), १४ (४ अक्तू.),
१३ (२७ सितं.),१२ (१७ सितं.), ११ (७ सितं.), १० (३० अगस्त ), ९ (२३ अगस्त ), ८ (१६ अगस्त ), ७ (९ अगस्त), ६ (३ अगस्त), ५
(२८ जुल.),४ (२१ जुल.), ३ (१३ जुल.),
२ (६ जुल.), प्रारम्भ : सुनो पार्थ -१
(२८ जून) |
रामचरितमानस और श्री
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२० जून : उत्तर काण्ड
(उत्तरार्द्ध) समापन / १३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ६
जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध) / ३० मई : लंका काण्ड
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/ २ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७) / २४ अप्रैल
: अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४) / १७ अप्रैल :
अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०) / १० अप्रैल
: अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५) / १९ मार्च :
मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
दुर्गा सप्तशती :
४ अप्रैल : (अध्याय ८ – १३) / २९ मार्च : (अध्याय
१ – ७) / २८
मार्च : ( परिचय-प्रसंग)
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