कविता का झरोखा : ६
एक
दिन
सागर-तट पर
एडमंड
स्पेंसर
[1592 -’99 ]
नाम
लिखा
था
मैंने
उसका
एक
दिन
सागर-तट
पर,
वहीं दुबारा
लिखा मैंने
उसका
फिर
से नाम,
लेकिन
आया
ज्वार
और
श्रम
हुआ
मेरा
बेकार ।
मूढ़
आदमी,
बोली
वो,
करता
तू
व्यर्थ
प्रयास
ऐसी
नश्वर चीज़ों
को
इस
तरह
अमर
करने
का
क्योंकि
मैं
तो
मिट
जाऊंगी
खुद
भी
इसी
तरह,
मेरा क्या
मिट
जायेगा
इसी
तरह
यह नाम
भी
मेरा
एक
दिन ।
कभी
नहीं,
बोला मैं
उससे,
मिटने
दो
सब
कुछ
को
मिट्टी
में,
पर
बनी
रहेगी
ख्याति
प्रिया
की
सब
दिन,
अमर
बनायेंगी
उसके
गुण
काव्य-पंक्तियां
मेरी
गौरवशाली
नाम
स्वर्ग
में
लिख
देंगी
उसका
ये
जहां
मौत सारी
दुनिया
को
जीत
भले
ही
ले
पर
प्यार
हमारा
हुलसेगा
नित
नूतन
जीवन
पाकर |
[‘वन डे आइ रोट हर नेम’]
‘कविता का झरोखा’ की इस श्रृंखला में अब तक पांच कवियों की कविताएँ आपने पढ़ी हैं – रॉबर्ट ब्राउनिंग, रॉबर्ट फ्रॉस्ट, रॉबर्ट
बर्न्स, विलियम ब्लेक और डब्ल्यू.एच.ऑडेन | इन पांच में फ्रॉस्ट और ऑडेन बीसवीं सदी
के अमेरिकन कवि हैं, और शेष कवि इंग्लैंड के - अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी (ब्राउनिंग)
के हैं |
इस श्रृंखला में अब हम फिर इंग्लैंड की सोलहवीं
सदी की कविता की ओर वापस चलते हैं, जहाँ से प्रायः आधुनिक अंग्रेजी की काव्य-परंपरा
का प्रारम्भ माना जा सकता है | एडमंड स्पेंसर सोलहवीं शताब्दी के सबसे बड़े कवि हैं,
जिनका जन्म शेक्सपियर से कुछ पहले हुआ था |
स्पेंसर से पहले की अंग्रेजी भाषा का स्वरूप – जिसे हम जेफ्रे चॉसर की कविता में देखते हैं - पुरानी अंग्रेजी
भाषा का था जिसे पढना आज के पाठक के लिए कठिन है, यद्यपि चॉसर के ‘कैंटरबरी टेल्स’
में चौदहवीं शताब्दी के इंग्लिश समाज का एक अत्यंत मनोहारी चित्र देखने को मिलता है |
परन्तु यहाँ अंग्रेजी भाषा की पिछली पांच शताब्दियों
की काव्य-परंपरा का हिंदी के सामान्य पाठक से परिचय कराना ही अभीष्ट है | और आगे की
इस श्रृंखला में अब सोलहवीं से बीसवीं सदी तक की अंग्रेजी काव्य-परंपरा से एक सामान्य
व्यवस्थित परिचय कराने का प्रयास रहेगा | यद्यपि पहले प्रस्तुत कड़ियाँ भी इस श्रृंखला
में अपनी जगह जुड़ कर इसके मानचित्र को पूरा करने में सहायक होंगी; और संबद्ध
संकेत भी यथास्थान अंकित होंगे |
इन कविताओं का अनुवाद सरल, सुबोध हिंदी में
पढ़कर आप उनके भावार्थ से तो अवश्य परिचित होंगे, यद्यपि अंग्रेजी भाषा की जो निजी
विशेषताएं हैं, वे उनके हिंदी अनुवाद में नहीं मिलेंगी, क्योंकि अनुवाद हिंदी भाषा
और हिंदी-काव्य-रचना के स्वभाव के अनुसार हों, इसी में उनके हिंदी अनुवाद की
सार्थकता है | अंग्रेजी भाषा और उसके काव्य-उपकरणों का हिंदी काव्य-रचना की भाषा
और उसके उपकरणों में समान्तर रूपांतरण नहीं हो सकता, जो किन्हीं दो भाषा-परिवारों
की भाषाओँ के बीच संभव भी नहीं होता | हम ऐसे अनुवाद-कार्य में मूल भाषा की कविता
के भाव को अनुवाद की भाषा की प्रकृति के अनुरूप उसकी भाषा-संरचना में संप्रेषित
करने की भरसक चेष्टा करते हैं |
यह बात हिंदी के कवि त्रिलोचन के सॉनेटों
को पढ़ने से साफ़ होने लगती है | जब इटालियन सॉनेट की तर्ज़ पर अंग्रेजी में सॉनेट
लिखे जाने लगे – जैसा यहाँ प्रस्तुत पहली कविता एडमंड स्पेंसर के सॉनेट ‘एक दिन सागर-तट पर’ में देखा जा सकता है – तब सॉनेट के स्वभाव और स्वरूप
में भी अंतर आने लगा | यद्यपि इटालियन और अंग्रेजी
– दोनों भाषाओं के भाषा-परिवारों में काफी निकटता थी,लेकिन वहीँ एक अंतर यह था कि इटालियन
में तुकों की जैसी बहुलता थी, अंग्रेजी भाषा में तुकों की बहुलता वैसी नहीं थी; और
चूँकि सॉनेट की रचना में तुकों का इतना प्राधान्य है और उनकी सजावट एक ख़ास तरतीब
में होती है, इसलिए अंग्रेजी में सॉनेट का रूप इसी कारण से कई बार काफी बदला | कवि
त्रिलोचन के सॉनेटों में भी तुक की यह समस्या बहुधा कुछ अटपटी दिखाई देती है | और
हिंदी के उन सॉनेटों में इसका असर वाक्य-संरचना पर भी दिखाई देने लगता है | बहुधा
ऐसा प्रतीत होता है कि कविता का यह आयातित ढांचा हिंदी-भाषा की प्रकृति के अनुरूप
नहीं होने के कारण ऐसा लगने लगता है कि हिंदी ने इन सॉनेटों में कोई ऐसा परिधान
पहन लिया है जो थोडा बेढंगा लगता है, पूरी तरह स्वाभाविक नहीं लगता |
उसी प्रकार इस श्रृंखला की आगे की कविताओं
में भी भाषा-रूप-भिन्नता की यह बात दिखाई पड़ेगी, और अनुवाद का मिलान मूल से करने
पर अंग्रेजी कविताओं का भाव और उनकी अंतर्वस्तु तो अनुवाद में मिलेंगे लेकिन रूपगत
कुछ भिन्नताएं उनमें ज़रूर दिखाई देंगी | अंग्रेजी कविता में छंद और लय का जो रूप
दिखाई देगा, वह अनुवाद में अनिवार्यतः अनुवाद की भाषा की प्रकृति के अनुसार भिन्न
होगा; हालांकि भाव-साम्य अधिकतम अवश्य होगा |
आज अंग्रेजी भाषा का जो रूप है, वह सोलहवीं
शताब्दी से कुछ पहले से बनने लगा था | उससे पहले प्राचीन अंग्रेजी का मुश्किल से
और हज़ार साल पुराना इतिहास रहा था जिसे ‘ओल्ड इंग्लिश’ कहते हैं, और जिसमें रचित साहित्य
को केवल भाषा-विशेषज्ञ ही पढ़ सकते हैं |
इसी कारण हम अंग्रेजी काव्य-साहित्य
से अपनी परिचय-यात्रा सोलहवीं शताब्दी से
प्रारम्भ करते हैं, और पहले कवि के रूप में एडमंड स्पेंसर को लेते हैं, जो
शेक्सपियर से केवल १२ वर्ष पहले पैदा हुआ था | स्पेंसर अंग्रेजी साहित्य का पहला कवि हुआ जिसने
अंग्रेजी का पहला महाकाव्य लिखा, क्योंकि उससे पहले अंग्रेजी साहित्य में कोई महाकाव्य
नहीं लिखा गया था | स्पेंसर के इस समय का अनुमान हम तुलसीदास के समय से कर सकते
हैं, जो उस समय लगभग ५५ वर्ष के रहे होंगे, और जिन्होंने ‘रामचरित मानस’ की रचना
लगभग उसी समय की होगी जब शेक्सपियर अभी अपनी बाल्यावस्था में ही थे, और स्पेंसर ने
भी अंग्रेजी के अपने पहले महाकाव्य ‘द
फेयरी क्वीन’ की रचना ‘रामचरित मानस’ की रचना के दो दशक बाद की | तुलसीदास का
अनुमानित जीवन-काल पूरी सोलहवीं शताब्दी में प्रसरित है, और आधुनिक अंग्रेजी
भाषा-साहित्य का तो बाल्यकाल ही इसी सोलहवीं शताब्दी में शुरू होता है |
स्पेंसर ने अपने महाकाव्य ‘द फेयरी क्वीन’ की रचना १५९६ में की थी, और ऐसा मानते हैं कि
सोलहवीं शताब्दी में स्पेंसर ने ही ‘द फेयरी क्वीन’ की रचना के साथ आधुनिक युग की अंग्रेजी
काव्य-परंपरा की नींव रखी थी | उससे कुछ पहले स्पेंसर ने ‘ऐमोरेट्टी’ नाम से एक
सॉनेट-श्रृंखला प्रकाशित की थी जिसमें ८८ सॉनेट थे, और उसी श्रृंखला का यह ७५ वां
सॉनेट है ‘एक दिन सागर तट पर’| ये सारे सॉनेट स्पेंसर ने अपनी दूसरी पत्नी के नाम
लिखे थे जिसे वह बहुत प्यार करता था | इस सॉनेट में वह उसी अपनी प्रिया के साथ सागर-तट पर घूमते हुए उससे कहता है कि वह अपनी कविता-पंक्तियों में ही उसे अमर कर देगा, और सुखद आश्चर्य है कि ऐसा ही हुआ भी|
सॉनेट की परंपरा यूरोप में चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि पेट्रार्क से प्रारम्भ हुई मानी जाती है, जिसने भी अपनी प्रियतमा ‘लॉरा’ को संबोधित करते हुए अपने सारे सॉनेट लिखे थे | आगे की कड़ियों में भी कुछ सॉनेट ऐसे होंगे जिनसे उनकी विविधता का एक आभास मिलेगा | लेकिन सॉनेट का चलन सबसे अधिक सोलहवीं –सत्रहवीं शताब्दी में ही रहा | इस श्रृंखला की अगली कड़ी में हम शेक्सपियर के दो सॉनेट पढेंगे जो लगभग उसी समय में लिखे गए थे |
सॉनेट की परंपरा यूरोप में चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि पेट्रार्क से प्रारम्भ हुई मानी जाती है, जिसने भी अपनी प्रियतमा ‘लॉरा’ को संबोधित करते हुए अपने सारे सॉनेट लिखे थे | आगे की कड़ियों में भी कुछ सॉनेट ऐसे होंगे जिनसे उनकी विविधता का एक आभास मिलेगा | लेकिन सॉनेट का चलन सबसे अधिक सोलहवीं –सत्रहवीं शताब्दी में ही रहा | इस श्रृंखला की अगली कड़ी में हम शेक्सपियर के दो सॉनेट पढेंगे जो लगभग उसी समय में लिखे गए थे |
इस श्रृंखला में आगे पढ़ें - शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स, टेनिसन, हॉपकिंस,यीट्स, इलियट, आदि
की कविताओं के अनुवाद और उन पर परिचयात्मक टिप्पणियाँ |
चित्र : सौजन्य गूगल छवि संग्रह | नीचे : हर्स्टवुड (लंकाशायर, इंग्लैंड में ) स्पेंसर का घर |
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२०१९
अक्तू. १८ :
झरोखा-६ स्पेंसर / सितं २३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान भाषण
(विडिओ) / अगस्त १७ : नागर-स्मृति, ये कोठेवालियां / अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक /
जुलाई २१ : झरोखा-३ बर्न्स / जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ : कविता का झरोखा
- १ : ब्राउनिंग
२०१८
नवं २६ : जगदीश
चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून
१२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन. २४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण
(व्याख्यान, राजभाषा विभाग, पटना)
२ ०१७
नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य
रचनाएँ
श्रीमदभगवद गीता
नवं. २ से पीछे जाते हुए पढ़ें गीता के
सभी १८ अध्याय
अध्याय: अंतिम-१८ ( २ नवं.) / १७ (२५
अक्तू.), १६ ( १८ अक्तू.), १५ (१२ अक्तू.), १४ (४ अक्तू.), १३ (२७ सितं.),१२ (१७ सितं.), ११ (७
सितं.), १० (३० अगस्त ), ९ (२३ अगस्त ), ८ (१६ अगस्त ), ७ (९ अगस्त), ६ (३ अगस्त),
५ (२८ जुल.),४ (२१ जुल.), ३ (१३ जुल.), २ (६ जुल.), प्रारम्भ : सुनो पार्थ -१ (२८ जून) |
रामचरितमानस और श्री दुर्गासप्तशतीके पूर्वांश पढ़ें :
२० जून : उत्तर काण्ड (उत्तरार्द्ध) समापन / १३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ६ जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध)
/ ३० मई : लंका काण्ड (पूर्वार्द्ध) / २३ मई :
सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध) / १६
मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण) / २ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७) / २४ अप्रैल : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४) / १७ अप्रैल :
अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०) / १० अप्रैल : अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५) / १९ मार्च :
मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
दुर्गा
सप्तशती :
४
अप्रैल : (अध्याय ८ – १३) / २९
मार्च : (अध्याय १ – ७) / २८ मार्च : ( परिचय-प्रसंग)
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