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Tuesday, April 4, 2017

                      श्रीमद् दुर्गासप्तशती सार

                               आठवां अध्याय
     [ इसके पूर्व अध्याय १ से ७ का कथासार नीचे पढ़ें, अंतिम अध्याय १३ के नीचे]
         


इस अध्याय का आरम्भ माता भवानी देवी के ध्यान से होता है ।
इसमें देवी को नमस्कार करके 108 बार नवाण मन्त्र का जाप होता है । इसमें रक्तबीज नामक राक्षस के वध की कथा दी गई है ।

मेधा ऋषि राजा सुरथ से बोले – चंड और मुंड के मारे  जाने   तथा अपनी बहुत सी सेना के संहार का समाचार सुनकर प्रतापी असुरराज शुम्भ अत्यंत क्रोधित हो उठा । उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिए कूच करने का आदेश दे दिया । उदायुध, कंबु, कालक, दोह्र्द, मौर्य, कालकेय आदि असुरपतियो की विशाल सेनाओ को साथ ले स्वयं शुम्भ इस बार युद्ध के लिए चल पड़ा । शुम्भ को अपनी सेनाओ के साथ आता देख चंडिका ने अपने धनुष की टंकार से दिशाओ को गुंजा दिया । उनका वाहन सिंह भी दहाड़ने लगा । तब तक शुम्भ की सेनाओ ने चारो ओर से चंडिका, सिंह तथा काली को घेर लिया । इसी बीच ब्रम्हा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इंद्र आदि देवताओ की शक्तियां उनके शरीरो से निकलकर असुरो से युद्ध करने वहां आ पहुची । महादेव जी ने तब चंडिका से असुरो का शीघ्र संहार करने को कहा । तब देवी के शरीर से परम उग्र चंडिका शक्ति प्रकट हुई उसने महादेव जी से दूत बनकर शुम्भ निशुम्भ के पास जाने को कहा । ताकि उनको यह संवाद मिले की यदि वे अपना भला चाहते हो, तो पाताल लोक को लौट जाये, अथवा यदि युद्ध ही करना चाहते है  तो सामने  आ जाये, ताकि देवी की योगिनियां उनकी भक्षण कर सके । देवी का संवाद सुनकर राक्षस क्रोध से भरकर उनकी ओर दौड़ पड़े । घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया । देवी की शक्तियां असुरो का संहार करने लगी असुरो की सेना में भगदड़ मच गयी ।तब रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध में भरकर युद्ध करने आया । उसके शरीर से जितनी बूँदें रक्त की गिरतीं, उतने ही महादैत्य , रक्तबीज जितने ही बलवान पैदा होते जाते ।ये सभी नए जोश खरोश के साथ देवी के मात्रगणों से युद्ध करने लगते ।और जब वे मारे जाते तो उनके रक्त से फिर हजारों दूसरे राक्षस उत्पन्न हो जाते ।इस तरह उस महादैत्य रक्तबीज के रक्त से उत्पन्न राक्षसों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया और देवता एक बार फिर अत्यंत भयभीत हो गए । देवताओं का भय देखकर चंडिका ने काली से कहा – हे चामुंडे ! अब तुम रक्तबीज के शरीर से जो भी रक्त गिरे उसे अपने मुह में लेती जाओ और उससे जितने राक्षस उत्पन्न हों उनका भक्षण करती जाओ । धीरे धीरे रक्त क्षीण होने पर रक्तबीज का अंत हो जायेगा । चामुंडा ने वैसा ही किया । और इस प्रकार अंततः चंडिका देवी ने रक्तबीज नामक महादैत्य का वध कर दिया ।

                  इस प्रकार आठवां अध्याय समाप्त होता है ।

नवम अघ्याय

नवम अध्याय का प्रारम्भ अर्धनारीश्वर के ध्यान से होता है तथा इसमें निशुम्भ वध की कथा कही गई है । राजा सुरथ ने मेघा कृषि से पूछा - हे मुनिवर आपने रक्तबीज के वध का हाल सुनाया । अब यह बताने की कृपा करे कि रक्तबीज के मारे जाने से क्रुद्ध होकर शुम्भ निशुम्भ ने फिर क्या किया । ऋषिवर बोले - राजन आपने ठीक ही कहा, रक्तबीज के मारे जाने से शुम्भ निशुम्भ अत्यंत कुपित होकर देवी को मारने के लिए दौड़े, और संग्राम छिड गया । दोनों ओर से बाणों तथा विभिन्न शस्त्रों की वर्षा होने लगी । कुछ ही देर में देवी ने अपने बाणों से घायल कर  निशुम्भ को धरती पर सुला दिया । इससे और भी क्रुद्ध होकर शुम्भ देवी पर झपटा । देवी और शुम्भ में भी काफी देर तक घमासान युद्ध होता रहा । लेकिन अन्ततः वह देवी के त्रिशूल से आहत होकर मुर्छित धरती पर गिर पड़ा । इतने में निशुम्भ को पुनःचेतना हुई, और वह देवी पर पुनः टूट पड़ा । उसने अपने वारों  से काली तथा सिंह को घायल कर डाला । तब भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने शूल से निशुम्भ की छाती को छेद डाला । तब उसकी छाती से दूसरा राक्षस - खड़ी रह, खड़ी रह - कहता हुआ निकला । इस पर देवी ठठाकर हँस पड़ी और  उन्होंने तलवार से तुरंत उसका मस्तक काट डाला । इस प्रकार देवी ने दैत्यराज निशुम्भ को मार डाला.   उधर काली तथा शिवदूती आदि शक्तियां दैत्य सेना का भक्षण करती जा रही थी । कौमारी, ब्रम्हाणी, माहेश्वरी, वाराही, वैष्णवी, ऐन्द्री आदि के युद्ध पराक्रम के सामने दैत्यों की सेना भला कब तक ठहरती । अधिकांश तो विनष्ट हो गई और जो बचे वे सब भाग निकले.

यही पर अध्याय समाप्त होता है ।
         
दशम अध्याय
    
इस अध्याय का प्रारंभ शिवशक्ति स्वरूपा भगवती कामेश्वरी के ध्यान से होता है तथा इसमें शुम्भ के वध की कथा कही गयी है ।

 मेधा ऋषि राजा सुरथ से कहते है - राजन अपने प्यारे भाई निशुम्भ को मारा गया देखकर शुम्भ क्रोध से पागल हो गया । देवी को ललकारते हुए उसने कहा - अरी दुष्ट दुर्गे ! तू अपने बल के अभिमान में आकर घमंड न दिखा, स्वयं युद्ध में नहीं जीत सकती, तो इन स्त्रियों के बल का सहारा लेकर लड़ने चली है । ठहर मै तुम्हे अभी मजा चखाता हूँ । शुंभ की बहकी बहकी बाते सुनकर देवी गरजकर बोली ।अरे मूर्ख तुम्हे सर्वथा भ्रम हो रहा है, मै  अकेली ही तुम से युद्ध कर रही हूँ । इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है । देख - ये मेरी ही विभूतियाँ है । अतः मुझमे ही प्रवेश कर रही है । और तभी ब्रम्हाणी आदि सभी शक्तियां अम्बिका देवी के शरीर में  लीन हो गई । उस समय केवल अम्बिका देवी ही रह गई । उसके बाद देवी और शुम्भ के बीच भयंकर युद्ध छिड गया । नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रो से दोनो एक दूसरे पर प्रहार करने लगे । किन्तु शुम्भ के सभी प्रहारों को देवी सहजता से निष्फल कर देती । जब शुम्भ के सभी अस्त्र विफल हो गए, और उसके रथ, घोड़े, सारथि आदि सब मारे  जा चुके थे, तब शुम्भ पैदल ही देवी पर टूट पड़ा, और उसने देवी की छाती पर जोरदार मुक्का  मारा । देवी ने भी उसे करारा थप्पड़ लगाया, जिससे चक्कर खाकर शुम्भ धरती पर जा गिरा । पर तुरंत उछलकर वह आकाश में जा चढ़ा और आकाश में ही शुम्भ और देवी का युद्ध होने  लगा । बहुत देर तक शुम्भ के साथ युद्ध करने के बाद अम्बिका ने उसे उठाकर घुमाया और पृथ्वी पर पटक दिया । पृथ्वी पर गिरने के बाद फिर शुम्भ देवी पर झपटा । लेकिन देवी ने इस बार अपने तेज त्रिशूल से उसकी छाती छेद डाली । और इस प्रकार शुम्भ के भी प्राण पखेरू उड़ गए, तथा वह भूमि पर गिर पड़ा । उस दुरात्मा के मरते ही सम्पूर्ण जगत प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गए । आकाश स्वच्छ दिखाई देने लगा । देवता हर्ष से भर गए और गन्धर्वगण गीत गाने लगे । पवित्र वायु बहने लगी, और सारा वातावरण त्रिलोक भर में आनंदमय हो उठा ।

यहीं दशम अध्याय समाप्त होता है  ।

एकादश अध्याय                         


एकादश अध्याय भुवनेश्वरी देवी के ध्यान से प्रारम्भ होता है, तथा इसमें देवताओं द्वारा देवी की स्तुति एवं देवी द्वारा देवताओं कोको वरदान देने का विवरण है| मेधा ऋषि राजा सुरथ से कहते हैं कि शुम्भ के मारे जाने पर हर्षित होकर इन्द्रादि देवता इन्द्रदेव को आगे करके उस कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे| अनेक प्रकार से देवी की स्तुति करते हुए देवताओं ने कहा – हे देवी! जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें भय से बचाओ| सम्पूर्ण जगत का पाप नष्ट कर दोएवं सभ्गी प्रकार के उपद्रवों का शमन करो| विश्व की पीड़ा हरने वाली देवी, तुम प्रसन्न होकर सबको वर दो| देवी ने प्रसन्न होकर देवताओं से इच्छित वर माँगने को कहा| तब सभी देवता एक स्वर से बोले – हे सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं कोण शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो| इस पर ‘तथास्तु’ कहती हुई देवी बोलीं – हे देवगण! वैवस्वत मन्वंतर के अट्ठाईसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो अन्य महादैत्य उत्पन्न होंगे| तब मैं नन्द गोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण होकर विन्ध्याचल में जाकर वास करूंगी और उन दोनों असुरों का नाश करूंगी| उसके बाद के युगों में भी मैं ‘रक्तदंतिका’, ‘शताक्षी’, ‘शाकम्भरी’, ‘दुर्गा देवी’ (दुर्गम नामक दैत्य का वध करने वाली), ‘भीमदेवी’ तथा ‘भ्रामरी’ नाम से अवतरित होकर अनेक दुष्ट राक्षसों का नाश करूंगी| और इसी प्रकार जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं इन शत्रुओं का संहार करूंगी| देवी के इन्हीं शब्दों के साथ इस एकादश अध्याय की समाप्ति होती है|
  

                        द्वादश अध्याय

इस द्वादश अध्याय का प्रारम्भ दुर्गादेवी के ध्यान से होता है, तथा इसमें देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य वर्णित हुआ है| सभी देवताओं को संबोधित करती हुई देवी कहती हैं – हे देवगण! जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा स्तवन करेगा, उसकी सभी बाधाएं मैं निश्चय ही दूर कर दूँगी| जो मधु-कैटभ का नाश, महिषासुर का वध, एवं शुम्भ-निशुम्भ के संहार के प्रसंग का पाठ करेंगे तथा अष्टमी, नवमी तथा चतुर्दशी को भी एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक मेरे उत्तम     माहात्म्य का श्रवण करेंगे उन्हें कोई भी पाप छू न सकेगा, और न उनके घर में कभी दरिद्रता होगी| मेरे इस माहात्म्य का पाठ परम कल्याणकारी है| बलिदान, होम, पूजा तथा महोत्सवों के अवसरों पर मेरे इस चरित्र का पूरा-पूरा पाठ और श्रवण करना चाहिए| ऐसा करने पर मनुष्य विधि को जान कर, या बिना जाने, मेरे लिए जो बलि, पूजा या होम आदि करेगा उसे मैं बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण करूंगी| साथ ही सभी विधियों से युक्त, दानादि देते हुए, एक वर्ष तक मेरी अराधना करने से जितनी प्रसन्नता मुझे होती है, उतनी प्रसंनात्र मेरे इस उत्तम चरित्र का एक बार श्रवण करने से हो जाती है|

 मेधा ऋषि तब राजा सुरथ से कहते हैं कि ऐसा कहकर प्रचंड पराक्रम वाली भगवती चंडिका सभी देवताओं के देखते-देखते वहीँ अंतर्ध्यान हो गयीं| सब देवता प्रसन्न होकर पहले की ही भांति अपने कर्तव्यों और अधिकारों  का निष्ठा-पूर्वक पालन करने लगे| सभी पराजित राक्षस भी पाताल-लोक को चले गए| इस प्रकार भगवती अम्बिका देवी नित्य और सनातनी होते हुए भी पुनः-पुनः प्रकट होकर जगत की रक्षा करती हैं|वे ही इस विश्व को मोहित करतीं, वे ही जगत को जन्म देतीं, तथा वे ही प्रार्थना करने पर संतुष्ट होतीं और विज्ञान और समृद्धि प्रदान करती हैं| मनुष्यों के अभ्युदय के समय वे ही घर में लक्ष्मी के रूप में स्थित होकर उन्नति प्रदान करती हैं| और वे ही अभाव के समय दरिद्रता बन कर विनाश का कारण होती हैं|

इस प्रकार देवी-माहात्म्य का फल बताने वाला यह द्वादश अध्याय समाप्त होता है|


                        त्रयोदश अध्याय
       
श्रीमददुर्गासप्तशती के इस अंतिम त्रयोदश अध्याय का प्रारंभ शिवा देवी के ध्यान से होता है, तथा इसमें राजा सुरथ और वैश्य समाधि को देवी के वरदान देने का प्रसंग वर्णित है| मार्कंडेय जी क्रौष्टुकि ऋषि से कहते हैं – हे मुनिवर! मेधा ऋषि के ये वचन सुन कर राजा सुरथ ने उत्तम व्रत का पालन करनेवाले उन महाभाग महर्षि को प्रणाम किया| पुनः विरक्त होने के कारण राजा सुरथ तथा वैश्य समाधि दोनों तपस्या करने चले गए, और नदी के तट पर देवी की मिटटी की प्रतिमा बना कर पुष्प, धुप, हवनादि से, उत्तम देवी-सूक्त का जाप करते हुए अपनी तपस्या और अराधना में लीन हो गए| तीन वर्षों तक उन्होंने कड़ी तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर जगद्धारिणी चंडिका देवी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और बोलीं – हे राजन तथा वैश्य समाधि! तुमलोगों की आराधना से मैं प्रसन्न हूँ| अब तुमलोग अपने-अपने लिए मनोवांच्छित वर मांगो| तब राज सुरथ ने अपना राज्य वापस होने तथा दूसरे जन्म में भी राज्य के नष्ट नहीं होने का वर माँगा| वैश्य समाधि का चित्त अब तक संसार से पूरी तरह विरक्त हो चुका था, और वह बड़ा बुद्धिमान था, अतः उसने ममता और आसक्ति के नष्ट होने का वर माँगा| देवी राजा सुरथ से बोलीं – हे राजन! तुम्हारा राज्य तो तुमको वापस मिल ही जायेगा, साथ ही मृत्यु के बाद भगवान विवस्वान (सूर्य) के अंश से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर तुम  सावर्णी मनु के नाम से विख्यात होगे| और हे वैश्यवर समाधि! तुम्हें भी मोह से मुक्ति पाकर ज्ञान की प्राप्ति होगी, ऐसा वर मैं तुम्हें देती हूँ| इस प्रकार उन दोनों भक्तों को मनोवांच्छित वरदान देकर, उन दोनों की भक्तिपूर्वक स्तुति सुनते हुए देवी अम्बिका तत्काल अंतर्ध्यान हो गयीं|

मार्कंडेय पुराण में इसके बाद सावर्णी मन्वंतर के बाद के छः मन्वंतरों का विशद वर्णन है तथा कई अन्य कथाएं हैं, किन्तु सावर्णी मन्वंतर में दिया गया यह देवी माहात्म्य का प्रसंग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं लोकोपयोगी है| मार्कंडेय पुराण के अंत में पक्षीगण जैमिनी मुनि से कहते हैं कि मार्कंडेय मुनि ने यह सब कथा सुनाकर क्रौष्टुकि ऋषि को विदा कर दिया| पक्षीगण बोले कि हे जैमिनी मुनि! हमने भी मार्कंडेय एवं क्रौष्टुकि संवाद से जो कुछ सुना था, वह सब आपको कह सुनाया| यह पुराण पहले ब्रह्माजी ने मार्कंडेय मुनि को सुनाया था, और वही हमने आपको सुनाया है| यह पुराण ब्रह्माजी के कहे अठारहों पुराणों में सातवाँ है| ये अठारहों पुराण हैं – ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, श्रीमदभागवत पुराण, नारदीय पुराण, मार्कंडेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, नृसिंह पुराण, वाराह पुराण, स्कन्द पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण| मार्कंडेय पुराण चार प्रश्नों से युक्त है| अंत में जैमिनी ऋषि पक्षीगण से बोले – हे पक्षीगण! महाभारत में मेरे जिस प्रश्न का निवारण नहीं हो सका था उसका निवारण आपलोगों ने करने की जो कृपा दरसाई है, उससे मेरा बहुत लाभ हुआ है| और ऐसा कहकर जैमिनी ऋषि उन श्रेष्ठ पक्षियों की प्रशंसा करते हुए अपने आश्रम पर चले गए| इस प्रकार विविध आख्यानों के बाद यह मार्कंडेय पुराण संपन्न हो जाता है|

यहाँ ध्यान देने की बात है कि सदियों से इस पवित्र श्रीमददुर्गासप्तशती का पाठ हिन्दू धर्म का आचरण करने वाले परिवारों में चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में होता आया है| पहले से पंडितों के द्वारा और गृहस्थों के द्वारा भी नवरात्र में इस सदग्रंथ का परायण होता रहा है| लेकिन सामान्य जन जो धार्मिक अनुष्ठानों के कठिन कर्मकांड का पालन नहीं करने के कारण इसकी कथा का विशेषार्थ समझने से वंचित रह जाते थे, वे भी अब इस सरल हिंदी पाठ को स्वयं पढ़ कर उससे परिचित हो सकते हैं| वास्तव में धर्म ग्रंथों में हमारे लिए शुद्ध एवं पवित्र आचरण की शिक्षा भरी रहती है, जिससे हम अपने जीवन में भली-भांति अच्छे-बुरे की पहचान कर सकते हैं, और अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं से परिचित हो सकते हैं| यहाँ  श्रीमददुर्गासप्तशती के इस कथा-सार को प्रस्तुत्र करने का यही उद्देश्य है| आशा है नवरात्र में आप इस कथा-सार का पूरा पाठ अवश्य करेंगे|

                  || श्रीमददुर्गासप्तशती कथा-सार समाप्त ||           




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