सैडी
इस साल काफी गर्मी पड़ी थी, इतनी कि कुछ
भी कर पाना मुश्किल था । पानी
जमा रखने वाले तालाब में इतना कम पानी रह गया था
कि सतह के पत्थर तक
दिखने लगे थे । पचास साल पहले ये पत्थर बैठाए गए
थे, जबकि कौंसिल की
ओर से पानी के पंप वाला घर नहीं बना था । जब भी
दियारे की ओर से हवा
चलती थी, तब भटकटैंया की तीखी गंध दम घोंटने लगती थी ।
खेतों की फसल पक कर सैडी के बालों जैसा रंग ले
चुकी थी । बिस्तर में लेटी सैडी
खिड़की के पार आकाश के नीले चौकोर को एकटक ताकती
और अबाबीलें उसकी
खिड़की के पार झुंड–को–झुंड चीखती निकल जातीं । धीरे-धीरे
तब तक
अंधेरा आ जाता ।
सैडी मेरी मौसेरी बहन थी । हम दोनों की उम्र चौदह
साल थी । मैं अपनी गर्मी की
छुट्टियों में हमेशा अपने मौसा के फार्म पर चला
जाया करता था । लेकिन, इस
बार सैडी बीमार थी, इसलिए मेरे मां–बाबूजी
मुझको वहां नहीं जाने देना चाहते
थे । मैं फिर भी जिद करके गया था और हफ्ते–भर
में ही मुझे इसका पछतावा
होने लगा था, क्योंकि सैडी बीमार पड़ी रहती थी ।
और गर्मी की बेरहमी ऐसी
थी कुछ भी करना असंभव था । मौसा को जब यह मालूम
हुआ, तब उन्होंने
अपने
साथ फार्म पर काम करने चलने को कहा, और अगली
सुबह जब वे काम पर जाने
लगे,
तब मैं उनके साथ गया । उस दिन सबसे ऊपर वाले खेत की फसल कट
रही
थी,
जिसके तीनों ओर मिट्टी की ऊंची मेंड़ें उठाई गई थीं । हवा जब
उनसे
टकराती थी, तब सुरीले स्वर इधर-उधर बिखर जाते थे । फसल काटने वाली
मशीन सुबह से काम कर रही थी और फसल के लच्छे खेत
में तरतीबवार बिछे थे
। मौसा ने मुझको एक पंचा थमाते हुए सिर के एक
झटके से जाकर काम में लग
जाने का इशारा किया । गर्मी इतनी थी कि बात करना
मुश्किल था । एक के पीछे एक हम लोग चार आदमी पंचों से पुआल के लच्छों को बटोरते और
बोझे बांधते जाते थे ।
कटनी–मशीन के पहिए घूम रहे थे और उसको खींचने
वाले घोड़े की घंटी का
तरल स्वर चिलचिलाती गर्मी में दूर तक तैरता फैल
जाता था ।
सहसा खेत की अनकटी फसल के बीच से एक खरगोश उछला
और मौसा की खेत
अगोरने वाली कुतिया लाल फीते–जैसी जीभ लपकाती
उसके पीछे झपट पड़ी ।
मेंड़ के कोने पर खरगोश पल–भर ठिठका और बाहर
निकलने का कोई रास्ता न
पाकर कोने में ही चिपक गया । एक झपाटे में
कुतिया ने उसको दांतों से पकड़
कर हवा में जोर से उछाला । एक तीखी चीख हुई, जो हम लोगों तक पहुंची भी
नहीं थी कि कुतिया ने खरगोश को ठंडा कर दिया ।
ऊंची मेंड़ की छांह में हम लोग खाना खाने बैठे ।
नीले सूती कपड़े पहने एक लड़की
जगों में बियर ले आई और वहीं बैठी मेरा खाना
देखती रही ।
‘‘तुम सैडी के
भाई हो न ?’’ तिनके का एक
टुकड़ा दांतों से तोड़ती वह बोली । मैंने
सिर हिला दिया और बियर की एक बड़ी घूंट निगल गया
।
‘‘लोग कह रहे थे
कि वह बहुत बीमार है, बचेगी नहीं ।’’ वह बोली ।
मुझसे कुछ ज्यादा उम्र होगी उसकी । जब वह आगे
झुकी, तब मुझको उसके
ब्लाउज में सामने का हिस्सा नजर आया ।
‘‘ऐसी बातें मत
करो,’’ मैंने कहा । सैडी
ठीक हो जाएगी । दांत–तले तिनके से
फिसलती उसकी आंखें मेरी आंखों से मिलीं ।
‘‘वे लोग ऐसा कह
रहे थे क्या ?’’
‘‘वे कह रहे थे उसको
थायसिस है ।’’ मैंने कहा । उसने तुरंत सिर हिलाकर हामी
भर दी, जैसे कि बात खत्म हो गई हो । पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
‘‘ऐलेक ।’’
खिलखिला पड़ी, “धत् तेरे की!”
‘‘क्यों ? क्या हुआ ?’’
हंसी के बीच बोली - ‘‘और मेरा नाम एलिस है ।
कितना मिलता है । मैं सैडी के
साथ स्कूल में थी, लेकिन मैंने पहले छोड़ दिया
।’’
‘‘अब यहीं रहती
हो ?’’
अनचबे तिनके से उसने दो–तीन खेतों के पार एक
छोटे–से फार्म की ओर
दिखाया ।
‘‘मेरे पिता जी
तुम्हारे मौसा के यहां खेती का काम करते हैं ।’’ उसने कहा । ‘‘मैं
अगले महीने से कुछ काम करना शुरू करूंगी ।’’
‘‘क्या तुम्हें
यही पसंद है ?’’
‘‘क्यों नहीं ? स्कूल जाने से तो यह जरूर
अच्छा है ।’’
उसकी उम्र अभी शायद पंद्रह, अधिक–से–अधिक सोलह
रही होगी । मैंने
अपना ग्लास खाली किया और हम मेंड़ की छांह से हट
कर धूप में चित जा लेटे
। एक चील ऊंचे आकाश में बड़े इत्मीनान से मंडरा
रही थी और सहसा एक लंबी
उड़ान भरती ओझल हो गई । पसीने से मेरी छाती
खुजलाने लगी थी | मैंने
कमीज के बटन ढीले किए और दोनों बांहें पूरी फैला
दीं । एकाएक मेरा हाथ किसी
एकदम मुलायम चीज से छू गया और जल्दी से वापस
खिंच गया ।
‘‘ओह, कोई बात नहीं ।’’ लेटे–लेटे
लापरवाही से एलिस ने कहा ।
उसने दोनों पैर अलग फैला रखे थे । बाहें भी खुली
फैली थीं । उंगलियों में वह
मिट्टी मसल रही थी । मैंने देखा, उसकी कांख के नीचे धब्बे पड़
गए थे ।
‘‘तुम्हें सैडी अच्छी
लगती थी ?’’ अनमना-सा उसका
प्रश्न ।
‘‘हां, वह मेरी मौसेरी बहन है ।’’
मैंने कहा ।
नाखूनों के नीचे की गंदगी को गौर से देखती एलिस
बोली, ‘‘वह हमेशा नाक
खोदती रहती थी | इसी वजह से एक बार क्लास से
निकाली भी गई थी ।’’
‘‘ऐसा तो कौन
नहीं करता । तुम भी करती होगी ।’’
‘‘कभी नहीं ।
मुझे यह आदत बहुत गंदी लगती है ।’’
मैं उठ बैठा और उसको देखने लगा | वह मेरी बगल
में निढाल लेटी थी । उसके
चेहरे पर ताजा गेहुंआ रंग था । बाल काले बालू-भरे
थे । कपड़े उसके फीके लग
रहे थे । बटन भी ढीले थे । मुझको उससे घृणा हुई
।
‘‘सैंडी मेरी
सबसे अच्छी सहेली थी । तुम्हारे बारे में हमेशा कहा करती थी ।’’
उसने कहा ।
‘‘लेकिन तुम्हारे
बारे में तो उसने कभी कुछ नहीं कहा । मुझको नहीं लगता कि
तुम दोनों में इतनी अच्छी दोस्ती रही होगी ।’’
‘‘पूछ लो उससे, वह सब बताएगी ।’’
दोपहर में देर से मैं चायदानी लाने फार्म को गया
। पुआल वाले घर की छत पर
कबूतर उजले मुलायम शैवाल की तरह जमे थे । एक
बिल्ली पानी के नाद वाले
नल से गिरती बूंदों पर पंजे चला रही थी । नीचे
पानी में बिल्ली और कबूतरों की
परछाई पड़ रही थी और तल में जमे खर–पात के बीच
छोटे–छोटे कीड़े बड़ी
सतर्कता से चल–फिर रहे थे ।
सैडी के कमरे की खिड़की खुली थी । परदे स्थिर थे
। भीतर अंधेरा था । कमरे में
घुसना, लगा जैसे गहरे पानी में थम–थम कर पैर बढ़ा रहा हूं । निस्तब्धता
ज्वार की तरह बहती हुई आई और घेर लिया | वैसे ही
धीरे-धीरे फिर वापस
चली गई । सैडी ने सिर घुमा कर देखा और मुस्करा
दी । गालों से ऊपर कान के
पास उसके बाल कुछ नम थे | होंठ सूखे और फटे हुए
थे ।
‘‘कैसी हो ?’’ मैंने पूछा । उसके हाथ ऊपर
उठे, फिर धीरे–से
चिकने चादर पर
फैल गए । ‘‘हां, ठीक हूं । थोड़ी नींद भी आई
थी ।’’
‘‘एलिस पूछ रही
थी तुम्हारे बारे में । वह अब कोई नौकरी करना चाहती है ।’’ मैंने
कहा ।
‘‘उसको कहना, मैं उसको बहुत प्यार करती
हूं ।’’ छत की ओर देखती सैडी बोली
। लगा, जैसे वह एलिस के बारे में बात करना नहीं चाहती ।
उस रात हम लोगों ने ऊपर वाले खेत की कटनी खत्म
कर दी और कटनी खत्म
होते–होते पांच खरगोश मारे गए । मेरे मौसा ने
उनकी पिछली टांगे एक साथ
बांध दीं और पंचे के डंडे से लटका दिया ।
खरगोशों के लंबे कान लेटूस के पत्तों
की तरह कुम्हलाए लटक रहे थे और हरेक की नाक से
खून की एक लाल टेस बूंद
चू आई थी । मेरे मौसा के हाथों पर भी खून के दाग
लगे हुए थे ।
गर्मी इतनी थी कि फार्म की ओर जाना संभव नहीं था
। छोटे–छोटे कबूतर पुआल
वाले घर पर कुलांचे लेते हुए उड़ रहे थे । उसके
खपड़े मौसम की धूप–छांह में
सीपी–शंखों की तरह फट गए–से थे । उसके सामने के
आंगन में चारों ओर
गौरय्यों का स्वर मुखरित था । आसमान फीके नींबू
के से रंग का हो चला था,
जिसमें कहीं–कहीं काले बादल के टुकड़े भी बिखरे
हुए थे ।
मैं खेत की अंतिम दीवार पर चढ़कर दूसरी ओर फांद
गया । वहां से आधे मील
दूर पर एक पोखर था, जहां मैं और सैडी तैरा करते
थे । उसका पानी तलछट से
चिकना और भूरा लगता था । और उंगलियों से होकर
गिरने पर पतले तेल जैसा
लगता था । पिछले साल मैं उस पोखर में डूबे–डूबे
तैर कर आर–पार हो गया था ।
सैंडी के कंधे खड़े और सफेद थे । उसकी छातियां
छोटी–छोटी थीं । जिन्हें वह
मुझको कभी छूने नहीं देती थी । धूप में बदन
सुखाते वह लेट जाती और सूखने
पर उसके बाल महीन पुआल की तरह सुनहले हो जाते थे, जिन्हें वह पीछे लपेट
कर बांध लिया करती थी । मैंने कभी उसको नाक
खोदते नहीं देखा था ।
पोखर के पास कोई नहीं था । मैंने कपड़े उतारे और
पानी में चला गया । पानी
काफी गर्म था । कुछ देर मैं तैरता रहा । फिर पीठ
के बल पानी में बहता रहा और
आसमान निहारता रहा और मुझको लगा, सैडी सचमुच अब नहीं बचेगी ।
अंधेरा होने लगा तो मैं निकला, कमीज से देह
सुखाई, कपड़े पहने और
फार्म
की ओर लौट गया ।
दूसरे दिन मैं पुआल रखने वाले मचान पर काम करता
रहा । एक आदमी
गोल–गोल जंगलों से पुआल के पुलिंदे अंदर ठूंसता
जा रहा था और मैं उन्हें एक
ओर एक–पर–एक सजाता जाता था । छत की शहतीरों से धूल–भरे
मकड़जाले
झूल रहे थे और सूरज की दमघुटी रोशनी को आने से
रोक रहे थे । नीचे के
अस्तबल से घोड़ों की बू ऊपर चढ़ रही थी ।
पुआल की गाड़ियों के आने के बीच के समय में मैं
पुआल के गट्ठरों पर लेटा
रहता था या खिड़की के पास बैठ जाता था, जिससे बदन का पसीना कुछ सूख
जाए । मेरे पीछे पुआल–घर के अंधेरे कोठे का
विशाल फैलाव था, जहां पुआल
की गंध से दम घुटता–सा लगता था, और मेरी आंखों के आगे एक
ऊंघता
लैंडस्कोप था, जिसके माथे पर एक मूरख जैसा
सूरज अंटका था । मैंने देखा
एलिस खेत पार करती सड़क पर बढ़ती मेरी ओर आ रही थी
। खिड़की के नीचे
वह रूक गई और ऊपर की ओर देख कर बोली, ‘‘तैरने में मजा आया ?’’
मेरी निगाहें उस पर जमीं रहीं ।
‘‘बाहर खेतों के
पार बड़ा अच्छा लगता है । मैं रोज रात उधर घूमने जाया करती
हूं ।’’ उसने कहा ।
मैं खिड़की से हट कर पुआल पर बैठ गया । कई क्षण
बिलकुल खामोशी रही ।
फिर सीढ़ियों पर चरमराहट की आवाज मिली ।
‘‘तुमने मेरे
बारे में सैडी से पूछा था ?’’ चौखट तक
पहुंचते–पहुंचते वह बोली ।
‘‘हां, उसने कहा, वह तुमसे प्यार करती है ।’’
‘‘तुमसे कहा ?’’
‘‘हां!” - मैंने
कह दिया, और एलिस हंसती
हुई आकर मेरे पास लेट गई । बोली,
‘‘लेकिन उसका
प्यार तुमने मुझको दिया कहां ? दो ।’’ और उसने
मेरे होंठों को
कस कर चूम लिया । मैंने चाहा, मैं लुढ़क कर उससे कुछ दूर
हट जाऊं, लेकिन वह
भी लुढ़कती मेरे पास आ गई और मेरी कलाई पकड़ ली ।
हम एक दूसरे से अजीब
तरह से उलझ गए और वह ऊपर आ गई । एकाएक हम दोनों
उसी तरह रूक गए
। उसकी सांस जोर–जोर से चल रही थीं और उसके दिल
की धड़धड़ाहट मेरे
सीने से साफ टकरा रही थी । बाल उसके मेरे मुंह
में आ गए थे और मैंने अपना
मुंह उसकी ओर से घुमा लेना चाहा । तभी उसका हाथ
मेरे बदन पर नीचे की ओर
कुछ ढूंढ़ता चला गया और उसने अपने कपड़े खोल लिए ।
बाहर दूर एक कुत्ता
भौंका और खिड़की के पार आसमान का एक चौकोर टुकड़ा
किसी चमकती नीली
आंख की तरह दिखाई दिया । एलिस ने धीरे से एक
फुहनी के बल अपने को
उठाया और कमरे में आने वाली रोशनी को आहिस्ता
बंद कर दिया । कमर के
नीचे उसके कपड़े बिलकुल खुले हुए थे और उसने नीचे
कुछ भी नहीं पहन रखा था
। बदन उसका पसीने से नम था और घास का एक तिनका
उसके स्तन पर सट
गया था । मैंने उचक कर उसको बांहों में ले लिया
और वह बहुत आहिस्ता मेरे
ऊपर आ गई । मुझको सब कुछ वही बताती गई ।
सैडी दूसरे दिन मर गई । लोग मुझको ले गए उसको
देखने, हालांकि जाने
का
मेरा मन नहीं था । उसके हाथ ठीक से मोड़े हुए थे
। बाल संवारे गए थे और उनमें
चमक थी ।
‘‘उधर खिड़की के
बाहर देखो ।’’ मेरी मौसी ने कहा । कैंची के कुछ कटने की
आवाज मिली ।
‘‘इसे अपनी मां
को दे दोगे ।’’ उसने कहा और महीन कागज का एक छोटा सा
पैकेट मेरे हाथों में दे दिया ।
‘‘उससे कहोगे इसे
एक ब्रूच में डाल कर पहनेगी ।’’
मैंने विदा ली । अपना सूटकेस लेकर बस स्टॉप की
ओर चला । वहां और कोई
नहीं था । सुबह के खालीपन में गांव की ओर से
पहाड़ी पर चढ़ती बस की धीमी
घर–घराहट कानों में आने लगी थी । उसकी आवाज धीरे-धीरे
तेज होती गई ।
जैसे–जैसे वह उस घुमावदार सड़क पर ऊपर चढ़ती आ रही
थी, ऐसा लगता था,
शीशे के ग्लास के अंदर कोई मक्खी भनभनाती चक्कर
काटती ऊपर चढ़ रही थी
। दो औरतें बाजार से सामान लिए नीचे उतरीं और बस
ड्राइवर ने बस को फिर गांव
की ओर उतारने के लिए घुमा लिया । मैं सीट पर
जाकर बैठ गया और जब बस
खेतों की आखिरी हद से नीचे उतरने लगी, तब मैंने कागज का वह पैकेट
खोल
कर देखा । सैडी के बालों का एक गुच्छा हल्के से
मेरे हथेली पर गिर आया ।
बाहर देखा, पीली पड़ती घासों पर धूप में एलिस लेटी हुई थी । उसका ध्यान
कहीं
और था । बस को जाते उसने नहीं देखा । वह अपनी
नाक खोदने में खोई हुई थी ।
मूल : फिलिप ओक्स
अनुवाद : (C) मंगलमूर्त्ति
[यह कहानी १९६० के दशक में ‘लंडन मैगजिन’ में
छपी थी | इसका उन्हीं दिनों का किया हुआ यह अनुवाद पुरानी फ़ाइल में मिला | आज
आपके लिए प्रस्तुत है | चित्र गूगल के सौजन्य से |]