बूढ़ा
पेड़
तने
का
रस-संचार सूखने लगा । छाल दरकने लगी । मोटी-पतली शाखें अकड़ने लगीं । पत्ते पीले पड़े और एक-एक कर झड़ गये । एक नंगी, सूखी ठठरी बर्फीली हवाओं के थपेड़े झेलती फिर भी खड़ी रही - उस अंधड़ के इंतज़ार में जो
एक
दिन
उसकी
जड़ें
हिलाकर
उसे
गिराने
आएगा ।
तब
आएगा
वह
लकड़हारा,
अपनी
कुल्हाड़ी
लिए, उसकी शाखें काटने, और फिर और लोग भी आ जाएंगे - तेज़ दांतों वाले बड़े-बड़े आरे लिए उसके तने को चीर-चीर कर कुंदों में बदलने । फिर गाड़ियों में लाद कर उसके कुंदों को मिलों में पहुंचाया जाएगा । बची-खुची टहनियों-टुकड़ियों को तो लोग-बाग चुन कर जलावन के लिए ले ही जाएंगे । यह सब सोचते-सोचते पेड़ गहरे सोच में डूब गया । उसे लगा, वह आगे होने वाली बातों को भी बिलकुल साफ-साफ देख रहा था, जैसे किसी बड़े आइने में अपनी ही शक्ल देख रहा हो - तब से आज तक की कहानी । तब से जब वह एक झूमता-गाता, लहराता, हरा-भरा दरख़्त था, और आज का यह सूखता-उकठता उसका नंगा बदन ।
वह
आइने
को
ध्यान
से
देखने
लगा ।
उसके
कुंदे
जब
मिलों
में
पहुंचे
थे
तो
वहां
बहुत
दिनों
तक
यों
ही
पड़े
रहे
थे
- जब तक उनके भीतर का बूंद-बूंद रस सूख नहीं गया । उसके सभी कुंदों को एक-पर-एक सजा दिया गया था और उन पर कुछ निशान लगाए गए थे । जब बारिष होती थी तो वे भींग जाते थे, फिर धूप उन्हें सुखा देती थी । कुछ दिन बाद उन्हे ले जाकर पास के बड़े टीन की छत वाले गोदाम में रख दिया गया था । वहां कीड़े, गिलहरियां, बिच्छू और सांप सभी आकर उनके आस-पासचक्कर लगाया करते । लेकिन इससे उनका कुछ मन ही बहलता । गोदाम से अक्सर मज़दूर कुंदों को ले जाकर बड़ी-बड़ी आरा-मशीनों पर डाल देते । आरा मशीनें बड़ी सफाई से देखते-देखते उन कुंदों को चीर-चीर कर लंबे-लंबे तख़्तों में बदल देतीं । लेकिन जब कुंदों के जिस्मों को चीर कर तख़्तों में बदलने का काम चलता होता तो शोर इतना ज्यादा, इतना कर्कश होता कि टीन की सारी छत और पूरे गोदाम की लकड़ियों के पोर-पोर थरथराने लग जाते । फिर काम में लगे सारे मज़दूरों का ज़ोर-ज़ोर का हो-हल्ला, गाली-गलौज, सब उस शोर में मिलकर उसको और असहनीय बना देते । लेकिन यह सब तो वहां सुबह से रात तक चलता ही रहता था, और वहां सब लोगों को इसकी आदत पड़ चुकी थी ।
उसने
यह
भी
देखा
कि
उसके
सभी
कुंदों
को
एक
दिन
चीर-चीर कर तख़्तों में तब्दील कर दिया गया था । अब उसके तख्ते भी बाज़ार में बिकने को तैयार हो चुके थे | सब पर नंबर लगाए जा चुके थे । मैंनेजर ने उन्हें एक सिलसिले से उनकी जगह पर रखवा भी दिया था । मिल-मालिक अपने केबिन में कंप्यूटर के सामने उसकी ख़रीद-फ़रोख़्त का हिसाब भी लगाने लगा था । पेड़ को लगा - चिड़िया की चोंच में लाए बीज से धीरे-धीरे जमीन से फूटे एक पौधे से बढ़ कर एक जवान लहराते हरियाले दरख़्त बने उस पेड़ की कहानी, उसकी अपनी कहानी, यों ही खतम हो चुकी थी । अब तो उसकी याद शायद किसी मेज-कुर्सी या दरवाजे में ही सिमट कर रह जाती, या शायद हमेशा के लिए मिट ही जाने वाली थी ।
लेकिन
बूढ़े
पेड़
ने
सोचा,
उसकी
अपनी
यही
कहानी
तो
उस
लकड़हारे
और
उस
मिल-मालिक के जीवन की कहानी भी थी । या उन मज़दूरों की, जिनकी रोज़ी-रोटी उस तेज़ दांत वाले खूंखार आरा-मशीन से चलती थी, या फिर उस मोल-तोल, नाप-जोख करने वाले ख़रीददार की, जिसने उन तख़्तों को अपने हिसाब से सस्ते में खरीदा था, हालांकि मालिक अपने मुनाफ़े से काफ़ी ख़ुश लगा था । और यही मोल-भाव, यही नफ़ा-नुकसान, यही सारा लेन-देन तो इस जीवन की कहानी है, बूढ़ा पेड़ सोचता रहा ।
इस
तरह
की
बातें
अब
इस
उम्र
में
वह
बूढ़ा
पेड़
अक्सर
सोचा
करता ।
इस
बुढ़ापे
में
अब
वह
बिलकुल
अकेला
हो
चुका
था ।
अब
उसकी
सूनी
डालों
पर
चिड़ियों
की
चहचहाहट
कहां होती थी । हवा भी अब हरियाले पेड़ों की ओर ही अपना रुख ज्यादा रखती थी । उसके पास से कभी गुज़रती भी तो चुपचाप आगे बढ़ जाती । अब उसकी डालों में पत्ते भी कहां बचे थे, टुक रुक कर जिनसे हवा उनका गीत सुनती । अब तो कभी-कभार, इक्के-दुक्के कोई चिड़िया उड़ते-उड़ते उसकी किसी उंची डाल पर आकर थोड़ी देर सुस्ता लेती थी, और फिर तुरत उड़ जाती थी । इधर उसने देखा था, कोई चील आती, या एक बड़ा-सा गिद्ध जरूर उसके सिर की डाल पर आकर अक्सर बैठ जाता था, और बड़ी देर तक बैठा-बैठा न जाने क्या सोचा करता था । उसे लगा, कोई राहगीर भी अब उसके तले आकर कहां बैठता-सुस्ताता था, क्योंकि अब तो वह सिर्फ़ एक बूढ़ा, सूखा, बिना पत्तों का ठठरीनुमा पेड़ ही रह गया था ।
लेकिन
वह
सोचता
रहा
- बचपन
से
बुढ़ापे
तक
उस
पेड़
ने
किसी
से
कुछ
लिया
नहीं
था,
सबको
कुछ
न
कुछ दिया ही । हर साल मौसम में अपने फूल-फल, थके मुसाफिर को ठंढी छांव, चिड़ियों को उनके घोंसले, पत्ते बटोरने वाली को रोज़ ढेर सारे पत्ते, और हवाओं को उनका संगीत । लेकिन कभी उसने ख़ुद किसी से कुछ मांगा नहीं, लिया नहीं । धूप नहीं हुई तो भी वह उतना ही मगन रहा । हवा नहीं बही तो वह चुप ही रहा । बारिश नही आई, प्यास लगी रही, वह इंतज़ार करता रहा । फिर जब धूप आई वह मुस्कुरा उठा । हवा बही तो खिल-खिलाकर हंस पड़ा । बारिश आई तो झूम-झूमकर नाचा, नहाया । पत्ते-पत्ते को धो लिया । डाल-डाल संवर गईं । तारे उग आए तो गीत गुनगुनाने लगा । रात जब सोई तो ही उसे भी नींद आई ।
सुबह
चिड़ियों
की
चहचहाहट
से
उसकी
नींद
खुली ।
फिर
पत्ते
हिला-हिलाकर उसने एक-एक पंछी को काम पर जाने के लिए विदा दिया । अपना मन वह दिन-भर राहगीरों की आवाजाही से बहलाता रहा । फिर दिन ढलते ही उसको अपने परिजन परिंदों का इंतज़ार सताने लगा । एक-एक कर उनका लौटना वह गिनता रहा, और तब तक उसे चैन नहीं आया जब तक उसके सारे पंछी अपने घोंसलों में आ नहीं गए । और फिर तो सब ने मिल कर इतना शोर मचाया कि वह भला किसकी-किसकी सुने । किसी ने किसी के मुंडेरे का हाल कहा, तो किसी ने कोई और ही दर्द-भरी दास्तान सुनाई, और कुछ मनचलों ने तो अजीब-अजीब कहानियां सुना कर उसका खूब मन बहलाया । फिर भी पता नहीं उस दिन दिन-भर उसका मन इतना उदास क्यों रहा था ।
चिड़ियों
की
कहानियां
सुनकर
उसको
लगता,
रोज़
की
उनकी
हर
कहानी
तो
एक
ही
जैसी
होती,
लेकिन
उनके
अंदर
कहानी-दर-कहानी न जाने कितनी नई-नई कहानियां छिपी होतीं । वह सबको सुनता और गुनता रहता । पूरे गांव से लेकर पास के शहर तक की तरह-तरह की ताज़ा ख़बरें उसको बैठे-बिठाए मिल जातीं । उसके पत्ते बटोर कर ले जाने वाली जवान लड़की का हाल । उस लड़की के बूढ़े बीमार बाप का हाल जो अब सुबह से शाम तक बैठा खांसता रहता । उसके घर वाले का हाल जो पहले जंगल से लकड़ी काटकर लाता और बेचता था और अब पास के शहर में एक आरा मिल में मज़दूर का काम करता था । लकड़ी के कुंदों को गाड़ियों से नीचे उतारना, या तख़्तों को ठेलों पर लदवाना, या आरा-मशीन पर तख़्ते चिरवाना, उनको गिनना, मालिक को हिसाब बताना । बात-बात में मालिक का उसको भद्दी गालियां देना । गांव से लेकर शहर तक की ऐसी सारी ख़बरें उस बूढ़े पेड़ को रोज़ मिलती रहती थीं । अच्छी भी और बुरी भी । उसे लगा, आखि़र इसी तरह तो वह बूढ़ा हुआ है । लेकिन उसे सब अच्छा ही लगता रहा । दुख-दर्द की बातें सुन कर भी अब वह बिलकुल निस्पंद रहा किया । खुशी और ग़म के किस्से कभी उसको बहुत अलग-अलग नहीं लगते, क्योंकि रोज़ तो न जाने ऐसे कितने किस्से उसे सुनने पड़ते थे ।
फिर
उसको
उस
चिड़िया
की
याद
आई
जो
बराबर
शहर
के
उस
लकड़ी
मिल
में
जाया
करती
थी ।
शहर
के
उस
लकड़ी-मिल में दरख़़्तों के कटे कुंदों और तख्तों की खरीद-बिक्री होती है । चिड़िया वहां सब कुछ देखती रहती है, क्योंकि उसको उन मैदान में पड़े कुंदों में तरह-तरह के कीड़े खाने और घर ले आने को मिल जाते हैं, जैसे और जगह उतनी आसानी से नहीं मिलते । वहीं हुए एक दिन के हादसे का बयान करते-करते तो चिड़िया का गला एकदम रुंध आया था - जिस दिन उसने अपनी आंखेां से एक मज़दूर का हाथ साफ़ कट जाते देखा । वह एक कुंदे पर बैठी एक कीड़े को खाने जा रही थी कि उसका ध्यान बंट गया । कीड़ा तो उड़ ही गया, लेकिन उस मज़दूर की चिल्लाहट सुनकर और फौव्वारे की तरह बहता उसका ख़ून देखकर तो चिड़िया को जैसे गश आ गया । बड़ी आरा मशीन एकाएक रुक गई, उसका भयानक शोर भी अचानक रुक गया । पूरे मिल के अहाते में अफ़रा-तफ़री मच गई । वह डरकर उंचे बिजली के पोल पर जा बैठी । वहां से सब कुछ, सारी भाग-दौड़ वह डरी-डरी देखती रही । उसका सारा बदन ज़ोर-ज़ोर से कांपता रहा । फिर वह उड़कर उस अस्पताल तक भी गई जहां मिल-मालिक ने अपने आदमियों से उस मज़दूर को पहुंचवाया था । बहुत देर तक चिड़िया वहीं एक दीवार पर बैठी सब कुछ देखती रही, और वह घायल मज़दूर वहीं बरामदे में बेहोश पड़ा रहा । ख़ून से उसके सारे गंदे कपड़े सन गए थे । बहुत देर तक चिड़िया वहीं सकते में बैठी रही । पर आखि़र वह कब तक वहां बैठी रहती; फिर उड़ कर कहीं और चली गई । लेकिन उसका मन तब से फिर बराबर उदास ही रहा । शाम हुई और जब वह पेड़ पर अपने घोंसले में बच्चों के पास आई तो उसने उदास मन से रोते-रोते यह सारी कहानी पेड़ को सुनाई । पेड़ का मन भी कुछ देर के लिए उदास हो गया; लेकिन उसको तो अब तक न जाने ऐसे कितने हादसों की, कितने तरह के हादसों की कहानी सुनने को मिली थी - और अब तो वह उनकी गिनती भी भूलने लगा था ।
चिड़िया
बाद
में
भी
कई
दिन
तक
उस
हादसे
का
हाल
रुंधे
गले
से
उसको
सुनाती
रही
थी ।
जिस
दिन
लकड़ी-मिल में यह हादसा हुआ था, वह लड़की, उस मज़दूर की घरवाली भी, वहां रोती-भागती गई थी । तब मिल के मालिक ने उसका कंधा पकड़कर उसको बहुत ढाढ़स बंधाया था और काफी रुपये भी दिए थे । फिर जल्दी-जल्दी अपने मिनी-ट्र्क से उस घरवाली के साथ मजदूर को अस्पताल भी भिजवाया था । चिड़िया ने यह सारी तफ़सील रोते-रोते पेड़ को सुनाई थी । और पेड़ बेचारा बस चुपचाप अपने आंसू पीता रहा - जैसी उसकी आदत थी ।

चिड़िया
जानती
है,
पेड़
की
उमर
उससे
बहुत
ज्यादा
है ।
अब
वह
घीरे-धीरे उम्रदराज़ हो रहा है । उसने बहुत दुनिया देख ली है । अब वह बूढ़ा हो चला है । लेकिन चिड़िया है कि उस हादसे से अब तक उबर नहीं पाई है । मिल में उड़कर उसका रोज़ जाना और कीड़े-मकोड़े चुगना तो बदस्तूर जारी है । मिल की आरा मशीनों का बेतहाशा शोर तो हर रोज़ उसी तरह चलता रहता है । लकड़ी के कुंदे रोज़ उसी तरह वहां गिरते और सजाए जाते हैं । मैनेजर उन पर उसी तरह रोज़ नंबर लगवाता रहता है । आरा मशीन पर कुंदे उसी तरह रोज़ चिरते रहते हैं । मालिक आज भी अपने केबिन में बैठा हिसाब-किताब में उसी तरह मशगूल रहता है।
लेकिन
चिड़िया
को
अब
वहां
बहुत
बदलाव
भी
नज़र
आता
है ।
जिस
मज़दूर
की
बांह
कटी
थी
अब
उसे
मज़दूरों
का
मेठ
बना
दिया
गया
है ।
अब
उसको
बैठने
की
एक
अच्छी
जगह
मिल
गई
है ।
वह
मिल-मालिक और मैनेजर की ही तरह अब और मज़दूरों को भद्दी-भद्दी गालियां देता रहता है । और अब वह लड़की, उसकी बीवी भी मिल-मालिक के केबिन में बे-रोक-टोक आती-जाती है । मालिक का खाना भी घर से अब वही लाती है, और दिन में खाना खाने के लिए जब काम बंद होता है, तो वही मालिक को टेबुल पर अपने हाथों से परसकर खाना खिलाती है । मालिक की उससे अब हंसी-ठिठोली भी ख़ूब होती है । रोज़ बदलने वाली रंग-बिरंगी साड़ियों और गोरे- गदराए बदन पर सजे हुए ज़ेवरों में अब वह खूब फ़बती है ।
लेकिन
चिड़िया
का
मन
अब
यह
नया
सब
कुछ
उस
बूढ़े
पेड़
को
बताने
का
नहीं
होता ।
-
दोआबा (पटना,अक्तू. २०१२) में प्रकाशित
© मंगलमूर्त्ति
bsmmurty@gmail.com / 7752922938
चित्र : सौजन्य - (१) कैरोलिन लोगन, फ्लोरिडा (२) गूगल छवि-संग्रह
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२०१९
नवं. २४ : मेरी कहानी-२: बूढा पेड़ / नवं. १४ : मेरी कहानी-१:
कहानी का अंत / नवं २ : बिरवा-१ / अक्तू. २७ : झरोखा-७ ताकूबोकू इशिकावा / अक्तू. १८ : झरोखा-६ स्पेंसर / सितं
२३ : झरोखा-५ ऑडेन / अगस्त २७ : ‘नई धारा’-सम्मान
भाषण (विडिओ) / अगस्त १७ : नागर-स्मृति, ये कोठेवालियां /
अगस्त १३ : झरोखा ४ – ब्लेक / जुलाई २१ : झरोखा-३ बर्न्स /
जून ३० : झरोखा - २ फ्रॉस्ट / मई ५ : कविता का झरोखा - १ : ब्राउनिंग
२०१८
नवं २६ : जगदीश चन्द्र माथुर / अगस्त १७ : कुंदन सिंह-केसर
बाई / जुलाई १७ : शिव और हिमालय / जून १२: हिंदी नव-जागरण की दो विभूतियाँ / जन.
२४ : आ. शिवपूजन सहाय पुण्य-स्मरण (व्याख्यान, राजभाषा विभाग,
पटना)
२ ०१७
नवं. ८ : शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक पद्य रचनाएँ
श्रीमदभगवद गीता
नवं. २ से पीछे जाते हुए पढ़ें गीता के सभी १८ अध्याय
अध्याय: अंतिम-१८ ( २ नवं.) / १७ (२५ अक्तू.), १६ ( १८ अक्तू.),
१५ (१२ अक्तू.), १४ (४ अक्तू.),
१३ (२७ सितं.),१२ (१७ सितं.), ११ (७ सितं.), १० (३० अगस्त ), ९ (२३ अगस्त ), ८ (१६ अगस्त ), ७ (९ अगस्त), ६ (३ अगस्त), ५
(२८ जुल.),४ (२१ जुल.), ३ (१३ जुल.),
२ (६ जुल.), प्रारम्भ : सुनो पार्थ -१
(२८ जून) |
रामचरितमानस और श्री
दुर्गासप्तशतीके पूर्वांश पढ़ें :
२० जून : उत्तर काण्ड
(उत्तरार्द्ध) समापन / १३ जून : उत्तर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ६
जून : लंका काण्ड (उत्तरार्द्ध) / ३० मई : लंका काण्ड
(पूर्वार्द्ध) / २३ मई : सुन्दर काण्ड (उत्तरार्ध) / १६ मई : सुन्दर काण्ड (पूर्वार्द्ध) / ९ मई : किष्किन्धा काण्ड (सम्पूर्ण)
/ २ मई : अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र ५ – ७) / २४ अप्रैल
: अरण्य काण्ड (कथा-सूत्र १ – ४) / १७ अप्रैल :
अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र ६ – १०) / १० अप्रैल
: अयोध्या काण्ड (कथा-सूत्र १ – ५) / १९ मार्च :
मानस बालकाण्ड (६-१२, उसके नीचे १-५)
दुर्गा सप्तशती :
४ अप्रैल : (अध्याय ८ – १३) / २९ मार्च : (अध्याय
१ – ७) / २८
मार्च : ( परिचय-प्रसंग)
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